स्थगन
‘’अगला सवाल यह कि हमारे बीच जो बात हुई उसे क्या तुम फेसबुक पर भी लिखते हो।‘’
बात सच थी, और सच के सिवा कुछ न थी, इसलिए हामी भरनी पड़ी।
’तुम्हारी अक्ल पर कभी भरोसा नहीं था, पर तुम इतने नादान हो यह नहीं समझता था। जानते हो फेसबुक के एक अनुभवी ने कहा कि यह उन जगहों में से एक है, जहां पागल पहुंचते हैं। यदि फेसबुक पर लोगों के जुमले पढ़ो, उनकी हरकतें देखो तो पता चलेगा कि यह एक अनुभववृद्ध व्यक्ति का सुचिन्तित विचार था। मैं तो तुम्हें जानता हूं, तुम्हारा गवाह भी हूं और वकील भी, इसलिए जरूरत पड़े तो कसम खाकर तसदीक कर सकता हूं कि यह आदमी नादान जितना भी हो, पागल नहीं हो सकता, लेकिन जो लोग तुम्हें नहीं जानते हैं, वे तुम्हें पागल ही समझ रहे होंगे !”
‘’जो लोग बिना जाने ही समझ लेते हैं, उन्हें समझने से रोका नहीं जा सकता । समझने की बीमारी है उन्हें। जानते हैं, तमिल में एक कहावत है, ‘कड़ा कण् पोट्टदेन्राल, कन्रै कंबत्तिल कट्टेन्राप्पोल्’ अर्थात किसी ने कहा सांड़ ने बछड़ा दिया है तो अगला बोला, बछड़े को खम्भे से बांध दो।’ आप जिन समझदारों की बात कर रहे हैं उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं। बस हिन्दी में इनके लिए जो शब्द चलता है उसका आपको, ध्यान नहीं रहा।‘’
‘’क्या कहते हैं हिन्दी में उन्हें ?’’
’’लाल बुझक्कड़। आपने उनके मुंह से ही उनकी कीर्ति सुनी होगी, ‘बूझैं लालबुझक्क्ड़ दूसरा न कोई’ । खैर मुझे लालबुझक्कड़ों से भी कोई परेशानी नहीं। जो वे हैं वह बने रहने की उन्हें पूरी छूट होनी चाहिए। उनसे मैं बिना बहस के ही हार जाता हूं। पहले ये ढूंढ़े मिलते थे, अब वह जगह ढूंढ़नी पड़ती है जहां ये न हों। फेसबुक पर मिलेंगे ही। वास्तविक जिन्दगी में एक बार उनका परिचय मिल जाने के बाद आप रास्ता बदल लेते हैं, फेसबुक पर आप उनका रास्त ही रोक देते है।‘’
’’रास्ता रोकने से उनका विचार और प्रचार तो नहीं रुक जाता। तुम उनका रास्ता रोकते हो तो तुम्हारा उन तक पहुंचने का रास्ता रुकता है। तुमने सच कहा कि तुम उनसे हार मान लेते हो क्योंकि यदि तुम सार्वजनिक बयानबाजी करो तो वे तुम तक पहुंच सकते हैं, केवल तुम उन तक नहीं पहुंच सकते। वे जान सकते हैं कि तुम क्या सोचते या कहते हो, तुम न उनके बारे में कुछ कहोगे, न यह जान पाओगे कि सारी दुनिया से तुम्हारे बारे में वे क्या कहते फिरते हैं, इसलिए रास्ता उनका ब्लाक नहीं हुआ, दिमाग तुम्हांरा ब्लाक हुआ।‘’
मैंने तो कभी उसे इतना समझदार माना ही नहीं था, मानता यह आया था कि इसने अपना दिमाग कार्ड लेते समय पार्टी के फ्रीज बैंक में जमा करा दिया और जहां पहले दिमाग होता था वहा एक ट्रांसमीटर फिट है, उसकी इस मीमांसा से हैरान रह गया। मैं उससे उसके बारे में अपनी बनी हुई धारणा और उसे कई बार उससे भी जाहिर करने के अपराध के लिए क्षमायाचना करने ही वाला था कि ठीक उसी समय सिंहासन बत्तीसी की याद आ गई। अब मुझे पक्का विश्वास हो गया कि मेरी मान्यता शत प्रतिशत सही है। इस समय मेरा दोस्त नहीं बोल रहा है, उसकी कुर्सी बोल रही थी। अगर कुर्सी खींच लूं तो फिर उजड्ड चरवाहे जैसी हालत हो जाएगी।
मुझे उलझन में पड़ा देख कर उसने पूछा, ‘’किस सोच में पड़ गए?’’
मेरे मुंह से निकला, ‘’मुझे एक पद का अर्थ नहीं मालूम था, आज समझ में आ गया।‘’
उसने कुर्सी की इज्जत बचाने के लिए आती हुई हंसी को रोकते हुए पूछा, ‘’कौन सा पद? क्या अर्थ समझ में आया?’’
‘’कुर्सी की इज्जत’ पद का। पहले समझता था कुर्सी काठ की होती है। इसे कहीं से काटा, छांटा, तोड़ा जा सकता है। ऐसी चीज जो सरे बाजार बिकती हो उसकी इज्जत आदमी से अधिक कैसे हो सकती है। ठीक अभी समझ में आया कि कुर्सी पर बैठने के बाद आदमी कुर्सी में बदल जाता है। कुर्सी सोचती है, आदमी बोलता है और उसको अकाट्य मान लिया जाता है। आप गौर करें कि मैं चौरासी वर्ष देख चुका हूं, एक माह बाद पचासी पूरे हो जाएंगे, फिर भी इस पद का अर्थ नहीं समझ पाया था, आज समझ में आया कि आदमी काठ की कुर्सी से कितना छोटा होता है और उसका मान सम्मांन उसकी योग्यता में नहीं कुर्सी में होता है, तो इसे पूरे जीवन की उपलब्धि तो मानना ही था।‘’
उसकी, अर्थात् माननीय अदालत की समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैंने उसका अपमान किया है या सम्मान और वह गंभीर चिन्ता में निमग्न होती दिखाई दी। मेरी अपनी समझ में भी नहीं आ रहा था कि उसने जो बड़े तर्कपूर्ण ढंग से मुझे ब्लाक हेडेड कहा था, मैंने उसका बदला लिया है या वस्तुसत्य को पेश किया है। दोनों ही अनिश्चय में थे इसलिए एक लंबे सन्नाटे से उूब कर मैंने ही पुरानी कड़ी से कड़ी भिड़ाने की कोशिश की ‘’यदि अगले के पास विचार होगा तो वह प्रचार करेगा। मैं तो उन लोगों की बात कर रहा था जिनके पास न तो तर्क होते हैं न विचार, परन्तु विश्वास इतना प्रबल होता है कि वे पूरे देश में आग लगा दें और समझाते रहे कि उन्होंने देशहित में ऐसा किया है, तो लोग समझ न पाये कि यह देशभक्त है या देशद्रोही। विचार का सामना किया जा सकता है, विश्वास का सामना तो कर्तार भी नहीं कर सकते जिन्होंंने ऐसों को बनाया और उस नक्शे को छापना भूल गए जिसमे मर्यादाएं, सीमाएं और संस्कार भरे होते हैं।”
” जो भरा होता है उसके लिए हमारे संविधान में न दंड है न पुरस्कार। उसके लिए जिन्हें दोष दिया जाता है वे केवल पात्र होते हैं, आधान, कुंभवत, कुंडवत, द्रोणवत, कमण्डलवत । दोष या श्रेय का पात्र वह हो ही नहीं सकता। उत्तरदायित्व उसमें जो भरा गया है उसे भरने वाले का होता है। वह अमृत भी हो सकता है, विष भी। विस्फोटक भी हो सकता है और शामक भी। इस भरने वाले का नाम अदालत को पता है?’’
“अदालत को सभी बातों का पता होता है, इसलिए अदालत को कभी ऐसे गड़बड़ सवाल का सामना करना ही नहीं पड़ा था। सच तो यह है कि अदालतें लोगों से सवाल करती है, लोग अदालतों से सवाल नहीं करते। फिर भी अदालत ने धैर्य का परिचय दिया, पूछा, ‘’क्या कहते हैं इसे।‘’
मैंने सविनय निवेदन किया, ‘’कुर्सी मान सके तो इसे शिक्षा प्रणाली कहते हैं।‘’
अदालत कोई टिप्पणी करे, इससे पहले ही मैं अपनी बात पूरी करने लग गया, ‘’शिक्षा प्रणाली को सोचना है कि उसे क्या भरना था क्या भरा है। अभी कल ही खबर आ रही थी कि किसी प्रतिष्ठित माने जाने वाले अस्पपताल में आक्सीजन की जगह नाइट्रोजन की नली लगा दी गई और यह दुबारा की गई और इसमें दो बच्चों की जान चली गई। यह शिक्षाप्रणाली को बताना होगा कि वह कौन सी नली लगा रही थी कि ज्ञान का स्तर घटता गया है और विस्फोट का स्तर बढ़ता गया है और सारे डिग्रीधारी नौजवान विस्फोटक गैस के इतने आदी हो गए हैं कि उसे अधिकाधिक मात्रा में पाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं ।‘’
अदालत की भूमिका में उतरे मेरे मित्र ने कहा, ‘‘मामला कल तक के लिए स्थगित।‘’