Post – 2016-05-29

बात बेबात (Preface of part II)

‘इतिहास का वर्तमान’ के प्रथम खंड केा अन्तिम रूप देते हुए प्रकाशक ने पूछा था, इसकी विधा क्या लिखी जाय? जवाब देना मेरे लिए भी कठिन था, क्योंकि लिखते समय मैं इस विषय में सचेत नहीं था कि मैं जिस मंच से अपनी बात रखने जा रहा हूँ वह इसके शिल्प को इस सीमा तक प्रभावित करेगा कि इसकी विधा तय करना कठिन हो जायगा।

जिन दिनों मेरे मन में इस शैली में लिखने का खयाल आया, उन दिनों मैं ऋग्वेद की परंपरा पर काम कर रहा था। परन्तु सामयिक लेखन, चर्चाओं, संवादों को पढ़ते सुनते ऐसा लगा कि हमारी सोच का इस सीमा तक राजनीतीकरण हो चुका है कि सोच ही गायब हो गई है। लेखक, विचारक, कलाकार जिस राजनीति से जुड़ाव रखता है उसे सही ठहराना उसकी विवशता है। इसके दबाव में वह उपलब्ध आँकड़ों में से सुविधाजनक का उपयोग और असुविधाजनक की उपेक्षा करता है। अपने संचित ज्ञान में से. उपयोल्‍य तथ्यों को कल्पना से नया आकार देते हुए वह प्रहार के लिए नए अर्ध सत्य भी गढ़ लेता है। इस तरह अर्ध सत्यों के इतने शिविर तैयार हो जाते हैं कि सत्य ही गायब हो जाता है। इसका सबसे बुरा असर हमारी बौद्धिकता पर पड़ा है। आज उच्चतम शिक्षा प्राप्त, प्रखर प्रतिभा के विद्वान भी भीतर से खोखले प्रतीत होते हैं। हमारी बौद्धिक परनिर्भरता औपनिवेशिक दौर की तुलना में बहुत अधिक बढ़ी है। उस समय तक पाश्चात्य विद्वानों का प्रतिवाद करने वाले बहुत सारे विद्वान हमारे पास थेा आज ऐसे लोगों का निपट अभाव है। अभाव ही नहीं इन्हें निपट निरादर से देखने को सीढि़यं चढ़ने की शर्त बना दिया गया है। कोई भी क्षेत्र हो, प्रमाण पुरुष के रूप में हमें औपनिवेशिक दौर के ही चिन्तक और आन्दोलनकारी याद आते हैं।

स्वाधीन होने के साथ उनके समकक्ष होने की ललक बढ़ी जो कल तक हमारे देश पर शासन करते थे। इससे पूरब को पश्चिम बनाने की ललक पैदा हुई जिसने स्वाभिमान और देशाभिमान दोनों को सोख लिया, लगभग शून्यं कर दिया। पुराने शासकों के जूते में पांव रखने की महत्‍वाकांक्षा पैदा हुई। पश्चिम बनने की ललक में हम पश्चिम तो बन ही नहीं सकते थे, पूरब भी नहीं रह सके। पश्चिम ने पूर्व का जो भी तत्व अपने लिए उपयोगी पाया उसे अपना बना लिया और इस तरह पचा लिया मानो यह उसकी निजी चीज हो। सभी सभ्यताएं यही करती हैं, केवल गुलाम नकल करता है। हमने पश्चिम की नकल की, उससे सीखा नहीं। सीखते तो उसका जो भी उपयोगी और ग्राह्य था उसे लेकर अपने अनुसार ढाल सकते थे, अधिक समृद्ध हो सकते थे और अधिक आत्मविश्वास के साथ अपनी जमीन पर खड़े हो सकते थे।

प्रतिभाओं की कमी कभी किसी देश में नहीं होती। भौतिक और शैक्षिक पर्यावरण कई बार ऐसा बन जाता है कि चुनौतियाँ घट जाती हैं और श्रम और अध्यवसाय ही नहीं महत्वाकांक्षा तक में कमी आ जाती है। इस बोध ने ही मुझे उस बहुत जरूरी काम को छोड़ कर अनधिकृत क्षेत्र में हस्तक्षेप करने को बाध्य किया। इस लेखन का प्रयोजन मेरे लिए लगभग वही था जो पंडित विष्णुशर्मा के सामने पंचतन्त्र लिखते समय था। परन्तु विस्मित करते वाला तथ्य यह है कि इसका बोध स्वयं मुझे अभी-अभी हुआ !

इस विषय में सचेत हुए बिना भी कि मैं नए युग का एक ऐसा लेखा लिख रहा हूँ जो पंचतन्त्र की परंपरा का विस्तार है और इसकी शैली पर भी उसकी छाप है, मैं आत्ममुग्ध भाव से लिखता रहा और मेरे मित्रों में से बहुत से इसे मुग्ध भाव से मुकर्रर इर्शाद कहते रहे जो हिन्दी संस्क़ृ ति का हिस्सा नहीं है इसलिए मुझे इससे घबराहट भी होती रही। पर लिखने के बाद आत्ममुग्ध तो मैं स्वयं भी अनुभव करता था, इसलिए कारण समझना चाहा तो इसकी शक्ति इस बात में निहित लगी कि इसमें यथाशक्ति दोनों पक्षों के अपने तर्क, प्रमाण और दृष्टान्त असरदार ढंग से रखते हुए एक गहन विमर्श का प्रयत्‍न किया गया है और तभी पंचतन्त्र की बहसें याद आईं।

उस लेखक की पहुँच उस सुगठित और निखोट योजना तक तो हो ही नहीं सकती थी जिसे पता ही नहीं था कि वह क्या लिख रहा है और जो कुछ लिखा जा रहा है वह किस विधा में लिखा जा रहा है। यदि इसको किसी विधा की संज्ञा देने की आवश्यकता हो ही तो इसे ‘बतकही’ या कहानी के तर्ज पर ‘कहा-सुनी’ विधा कहा जा सकता है। अभी तक ऐसी कोई विधा नहीं थी, क्योंकि बातचीत की जाती है, लिखी नहीं जाती! परन्तु अब अन्तर्जालीय संचार में चैट या बतरस एक रोचक विधा के रूप में उभरी है जो लेखन के माध्यम से ही संभव है।

परंतु, दुबारा सोचन पर लगा, यह विधा तो बहुत प्राचीन है। ऋग्वेद में कुछ प्रसंगों में संवाद शैली या वाकोवाक्य का ही प्रयोग नहीं हुआ है अपितु मानवीय प्रश्नों पर अमानवीय या अतिमानवीय प्राणियों और सत्ताओं के बीच संवाद मिलते हैं। जन्तुककथाएं इसी का विस्तार हैं।

जिन्हें इस बात से घबराहट होती है कि इसे भी वैदिक उपलब्धि सिद्ध कर दिया गया, उनको अनाड़ी मसखरा कहना भी उन्हें गिनती में लेना है।

यदि मैं पहले से इसके प्रति सचेत होता तो वैदिक संवाद या जन्तुकथाओं के शिल्प के निर्वाह की चिन्ता में वह छूट नहीं ले पाता जो ले सका हूँ। इसके कारण इसका शिल्प, अपनी परंपरा के भीतर ही, जो इसे समझने की योग्यता रखते हैं उन्हें, संभव है एक नया प्रयोग लगे।

मैंनें चर्चाओं को शीर्षक तो दिए हैं, परन्तु उनमें उन विषयों का सम्यक निर्वाह नहीं हुआ है। बात चीत करते हुए आप किसी विषय से बँध् कर नहीं रह पाते। बात आरंभ जहाँ से भी हुई हो बीच में कोई सन्दर्भ, दृष्टान्त, प्रसंग आते ही विषय बदल जाता है और आप भूल जाते हैं, बात कहाँ से आरंभ हुई थी। याद भी आई तो आप कई बार स्वयं पूछते हैं, ‘हाँ तो मैं क्या कह रहा था?’ गरज कि सुनने वाले को आप क्या कह रहे हैं इसका हिसाब भी रखना चाहिए! परन्तु सबसे मार्मिक प्रसंग तो उन विचलनों में ही आते हैं, तभी तो अपना दबाव डाल कर वे धारा को ही बदल देते हैं ।

1970 के बाद से मेरा समस्त लेखन, चाहे वह किसी विधा में हो, औपनिवेशिक मानसिकता और पुरातनपंथी आसक्तियों से मुक्ति का एकल अभियान रहा है, और इसे ही मेरे समग्र लेखन का केन्द्रीय विषय भी माना जा सकता है। निर्दिष्ट विषय, विचलन और भटकाव सभी में यदि गहन रूप में विद्यमान है तो यह चिन्ता।

मैंने यह लेखन इस उद्देश्य से आरंभ किया था कि गाली-गलौज, आरोप और धिक्कार की घटिया प्रतिक्रियाओं से मुक्ति का मार्ग तार्किक विश्लेषण और संवाद से ही निकल सकता है और इससे हमारी सोच भी बदल सकती है और वह घेरेबन्दी भी टूट सकती है जिसमें लोगों के पास अपने घेरे के तर्क, विचार और सत्य ही बच रहे हैं और इसका प्रभाव हमारे लेखन और चिन्तन की गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है। आशा थी कि जिन लोगों को मेरे विचारों से असहमति होगी वे खुल कर, उतनी ही निर्ममता से मेरी आलोचना करते हुए मेरी कमियों को उजागर करेंगे और अपना पक्ष दृढ़ता से रखेंगे। ऐसा हुआ नहीं! प्रशस्तियाँ तो ऐसी मिलीं कि जी अघा जाये, परन्तु तीखी, तार्किक, प्रामाणिक आलोचना, कमियों को उजागर करने वाली कोई टिप्पणी नहीं!

यह किसी ऐसे लेखक के लिए सुखद स्थिति नहीं है जो जानता है कि उसने जो कुछ लिखा है उसमें बहुत सी कमियाँ हैं और कुछ और हो सकती हैं जिनको वह जानता ही नहीं। आशा है मेरी इस आकांक्षा की पूर्ति मेरे आलोचक करेंगे क्योंकि सम्मान जितना मिल चुका है वह मेरी हैसियत के किसी व्यक्ति के लिए जरूरत से अधिक है। जिसकी अपेक्षा है वह है विचार प्रक्रिया का द्वन्द्वात्मक विकास ! वही हमारी सबकी साझी उपलब्धि हो सकती है।
भगवान सिंह
बी-1701गार्डेनिया स्क्वायर
क्रासिंग रिपब्लिक, गाजियाबाद 226016
28 मई 2016