Post – 2016-05-28

मैं हंसना चाहता था इस पोस्‍ट को पढ़ कर और फिर आगे बढ़ जाना चाहता था। इतना वाहियात खींचतान। फिर जी भर कर हंसने के लिए जी में आया एक बार पूरा पढ़ा जाय। पढ़ने के बाद चकित हूं। मैं जान कर भी विश्‍वास नहीं कर पा रहा हूं कि हमारे प्राचीन वैज्ञानिकों ने विभिन्‍न क्षेत्रों में कितनी प्रगति की थी। मेरा ऐसा ही मोहभंग ललित मिश्र द्वारा सुलभ कराए गए डा नेने के जो भौतिकी के प्रोफेसर रहे हैं, महर्षि भारद्वाज के अंशुबोधिनीशास्‍त्र के एक बचे हुए अध्‍याय को पढ़ कर हुआ था। जो टुकड़ों में यहां वहां से सुलभ हो जा रहा है उससे सोच का रूप बदल जाता है। उपहास आश्‍चर्य में बदल जाता है। नालंदा आदि के उन विशाल पुस्‍तकालयों में हमारे प्राचीन ज्ञान का कितना विशाल भंडार नष्‍ट हो गया यह सोच कर क्‍लेश होता है। इस तरह के विवरणों को परखने और जानने की जरूरत है। हम अपने विज्ञान का विकास उस स्‍तर का न कर सके जो आधुनिक युग में पूंजीवादी समर्थन के कारण संभव हुआ है और इसलिए वह विचित्र चमत्‍कार बन कर रह जाता रहा है। यह खोज जारी रहे परन्‍तु हमारे आगे के अनुसंधान और ज्ञान की दिशा आज के पश्चिमी खोजों और विकासों के माध्‍यम से ही होना चाहिए और उसमें प्रमाद न पैदा हाेना चाहिए। इस निवेदन के साथ मैं आज इस पोस्‍ट को शेयर करना चाहता हूं और इसके लेखक को धन्‍यवाद देना चाहता हूं साथ ही शेफाली टोपीवाला को भी जिन्‍होंने इसे शेयर किया था। देखें नीचे का शेयर किया हुआ लेख । मेरी ज्ञानसीमा में यह प्रामाणिक लगता है।