मैं जिसे सच माानता हूं तू उसे सच मान
“हां, पहले यह बताओ, तुम इतने विश्वास से, इतने पढ़े-लिखे, अनुभवी और वरिष्ठ विद्वानों को चुटकी बजा कर उड़ाते रहते हो, क्या, तुम सचमुच मानते हो कि तुम उनसे बड़े ज्ञानी हो, या लोगों को झांसा देने के लिए अपने आत्मविश्वास का स्तर इतना उूंचा कर लेते हो कि मेरी बोलती तक अक्सर बन्दं हो जाती है?”
“बयान देना है, अदालत के सामने तो सच तो बोलना ही होगा। सच यह है कि मैं जो लिखता हूं उसे भी नहीं जानता, जिन विषयों पर लिखता हूं उन्हें भी नहीं जानता। सिर्फ यह जानता हूं कि जो लोग मुझसे अधिक जानकार है वे किसी कारण से अपने उतने ज्ञान का भी इस्तेमाल, सही मौकों पर नहीं करते, जितना मेरे पास है। वे ऐसा क्यों करते हैं मैं ठीक नहीं जानता, पर कल्पना करता हूं कि कि स्वार्थ और प्रलोभन दिमाग की धुलाई कर देते हैं। इस बोध से मेरा मनोबल बढ़ जाता है और मैं उन सबको रौंदने वाले आत्मविश्वास से अपनी बात कहने लगता हूं और यह देख कर आत्मविश्वास और अधिक बढ़ जाता है कि उनसे मेरे किसी तर्क का खंडन नहीं हो पा रहा है।”
“प्रबल आत्मविश्वास, तुम्हीं ने कहीं कहा है कि मूर्खो और पागलों में पाया जाता है। तुम्हें इन दोनों श्रेणियों में से किसमे रखा जाय, या कहूं अगर किसी जेल में दो वार्ड हैं, एक मूर्खों के लिए दूसरा पागलों के लिए, तुम इन दोनों में से किसमें रहना पसन्द करोगे?”
“दोनों में, क्योंकि मैं एक साथ दोनों हूं। मूर्ख इसलिए कि मैंने एक ऐसे गधे को जज बना दिया जो न्याय प्रणाली का सम्मान नहीं करता और बयान दर्ज करने के चरण पर ही सजा की धमकी देकर बयान अपने अनुकूल दिलवाना चाहता है और इसकी पूरी जिम्मेदारी मेरे उूपर ही आती है। पागल इसलिए कि दार्शनिकों को तुम जैसे गधे पागल ही मानते हैं क्योंकि समझदारी के उनके कोरे कागजों में शर्त यह होती है ‘मैं जिसे सच मानता हूं तू उसे सच मान। फायदे फिर देख उसके और मूछें तान।‘”
तुम जानते हो तुम अदालत की अवमानना कर रहे हो और तुम्हें दंडित किया जा सकता है?”
“जानता हूं। जज तुम्हें मैंने नियुक्त किया है और जब तक तुम मुझे दंडित करने का इरादा बनाओगे, तुम्हारी बर्खास्तंगी का कागज़ तुम्हारे हाथ होगा।”
वह हंसने लगा, “दो वार्डों में एक साथ रहोगे कैस?”
“वार्डों की दीवारें तोड़ कर और जब वार्डों की दीवारें टूट गई तो जेल की दीवारों का भी नंबर आ जाएगा।”
“इस बार वह हंसा नहीं, मुझे शक की नजर से देखने लगा कि कहीं आज कल जो जेलब्रेक और जेलरो और संतरियों को बन्धक बनाने की घटनाएं घटने लगी हैं उसके पीछे मेरा दिमाग तो नहीं, पर इस विषय में उसने आगे कुछ पूछा नहीं। उसके दिल पर क्या गुजरी यह बता भी नहीं सकता।
“एक दूसरा सवाल ! मार्क्सवाद के बारे में तुम्हारा अध्ययन कितना है?”
“अगर उसकी कोई क्लाास लगती हो तो उसके हाजिरी रजिस्टर में मेरा नाम तक न मिलेगा। गरज की जानकारी के नाम पर अध्ययन के नाम पर शून्य ।”
” भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में कैसी विभूतियां पैदा हुई हैं, उनका ज्ञान, त्याग, और अध्ययन क्या था, कितनी कुर्बानियां दीं उन्होंने, उनके विषय में कुछ जानते हो?”
“कभी जरूरत नहीं समझी। ”
“और सबको खारिज कर देते हो?”
” करना पड़ता है ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि प्रयोगविज्ञान में किसी प्रयोग के परिणाम निर्णायक होते हैं न कि यह कि उसे कितने महान वैज्ञानिकों ने मिल कर बनाया था, उनकी अपनी शिक्षा के लिए कुर्बानियां क्या थीं, यदि वे वैज्ञानिक न बनना चाहते तो उनके सामने क्या रास्ते खुले थे? कसौटी है – उनके ज्ञान और विज्ञान और प्रौद्योगिकी का परिणाम क्या रहा और यदि वह अनुकूल न रहा हो उन्होंने भूल सुधार की या जगह बदल कर उसी पर अमल करते चले गए। केवल यह ज्ञान वांछित ज्ञान है और तुम जिसे गिना रहे थे वह आलंकारिक है जो हैसियत दिखाने, झूमने और नाचने के काम आता है।”
वह तमतमाया तो पर मैंने कह रखा था यदि उसने अदालत की अवहेलना का मुकदमा बनाने का इरादा भी किया तो ओहदा हाथ से चला जायगा इसलिए कुछ नरम पड़ गया।”