चुनौती जीतने की नहीं हारने की है
‘अब तो तुमसे बात करते हुए भी झुंझलाहट होती है।’
मुझे हंसी आ गई, ‘क्यों क्या हो गया?‘
’मैं जानता हूं तुम गलत हो, यानी तुम जिस बात की वकालत कर रहे हो वह गलत है, फिर भी जब भी मैं इसे तुम्हें समझाना चाहता हूं तुम मुझे ही गलत सिद्ध करना चाहते हो। मेरी दशा उस वकील जैसी है जो सत्य और न्याय के पक्ष में खड़ा है। जानता है कि तुम अन्याय के साथ हो फिर भी बातों को घुमा फिरा कर अपराधी को ही नहीं बचा ले जाते, स्वयं मुझे, अन्यायी सिद्ध कर देते हो। कई बार तो मेरा ही विश्वास डगमगा जाता है और डर लगता है कहीं जीवन भर की तपस्या़ व्यर्थ न चली जाय। मैं भी न मान बैठूं कि तुम जो कहते हो वह सही है । जिन्द गी के इस पड़ाव पर मैं तो कंगाल हो जाउूंगा। कोई फायदा है इस बहस में उतरने का। यूं ही समय बर्वाद करना हुआ ।‘
मैं गंभीर हो गया। यह अकेले उसकी समस्या नहीं थी। एक पूरी पीढ़ी की समस्या थी जो पवित्र मन से अपने ही इतिहास को नकारती, अपनी संस्कृति को बुद्धिबल से तहस नहस कराती , अपनी संकीर्णताओं से बाहर जाने का भरम पालती, इस सूझ और साहस पर गर्व करती और अनजाने ही अपने आप से घृणा करती विकसित हुई और अपने संकरेपन से बाहर आकर खुलेपन के भ्रम में एक अधिक संकरी सोच में फंस गई। मैं स्वयं भी तो इनसे अलग न था और मेरे सबसे आत्मीय मित्र तो उन्हीं के बीच हैं। यह एक तरह से मेरी अपनी पारिवारिक समस्या भी थी। समझ में नहीं आ रहा था बात कहां से आरंभ करूं और किस तरह रखूं। अचानक एक मद्धिम सी किरण दीखी। उसने अनुताप में अभी जो कुछ कहा था, क्यों न उसकी एक एक कड़ी को अलग करके उसकी मींसांसा की जाय।
मैंने कहा, ‘जहां सामना करना चाहिए वहां तुम भागने का रास्ता तलाश रहे हो. पलायनवाद की नई परिभाषा गढ़ ली होगी जिसमे वह परित्राणवाद बन गया होगा.‘
वह चुप रहा।
’तुमने मान लिया कि मैं अन्यायियों की तरफदारी करता हूं। मानने और उसके अनुसार कुछ कर बैठने को मनमानी करना कहते हैं। अच्छा हो, उन तथ्यों की एक तालिका बना लो, या जो याद आएं उन्हें गिनाओ जो अन्यायपरक हैं और हम दोनों उसका समाधान तलाशें। मानना विवेकहीनता का सूचक है, लोग भूत प्रेत से ले कर ईश्वर तक को मानते हैं और बड़ी दृढ़ता से मानते हैं, अपनी ओर से कुछ प्रमाण भी पेश करते हैं जो मानने जैसे ही होते हैं और जांच के बाद छंट जाते हैं। मानने से अच्छा है जानना और उसके कारण और परिणाम के साथ उसे समझना।
अब उसके मुंह से दबा सा अधूरा वाक्य निकला, ‘वह सब तो ठीक है पर…’
’तुम कहते हो तुम मुझे समझाना चाहते हो कि मैं अन्याय के साथ हूं। मैं तुमसे समझना चाहता हूं कि मैं ठीक हूं या गलत। यदि तुम ऐसा करो तो मेरा तुम से बड़ा हितैषी कौन हो सकता है? पर समझाने के लिए तर्क और प्रमाण की जरूरत होती है, गुणदोष पर विचार की जरूरत होती है, वह तुम नहीं करते। इसे तुम भूल गए हो। तुम्हारी जन्मकुंडली में ही नहीं था अधिक सोच विचार । तुम दो काम करते हो, पहला दुश्मन को बर्वाद करने का और दूसरा बर्वादी के बाद यह सिद्ध करने का कि जिसे बर्वाद किया वह सचमुच दुश्मन था, जब की जिसे बर्वाद किया वह तुम्हारा अपना देश था. तुमने उसकी सम्पदा को नष्ट किया – उसकी बसे, ट्रामें, ट्रेनें, दूकानें और उसमें भरे माल असबाब को नष्ट किया जो तुम्हारे ही उपयोग में आने वाला था। पुरानी संस्कृति जो संजो कर रखती थी उसकी जगह तुमने नई संस्कृति दी, जो सिखाती है कि जो अपना ही बनाया हुआ है, अपने ही काम आ रहा है या आने वाला है, उसे सत्ता पाने के लिए बर्वाद कर दो। तुम्हें सत्ता से प्रेम है, देश से नहीं।
तुम कहते हो मैं अपनी चालाकी से तुम्हें भटका कर अपनी गलत बात को सही साबित कर लेता हूँ, इसलिए मैं अपना पक्षकार तुम्हें बनाता हूँ। तुम्ही मेरे गवाह हो, तुम्ही मेरे वकील हो और तुम्ही इसके मुंसिफ भी हो। न्यायाधीश कहने पर तुमको अच्छा न लगेगा। अब तुम बताओ यह सच है या नहीं। यदि सच है तो यह उचित था या नहीं। यदि यह उचित नहीं था तो तुम देशभक्त थे या देशद्रोही ? यदि यह देशद्रोह न था तो मुझे सजा दो और यदि था तो यह तय करो की तुम्हें देशद्रोही बनाने में किसकी भूमिका थी। मैं जीतना नहीं हारना चाहता हूँ। तुमसे सीखना चाहता हूँ। अपने को बदलना चाहता हूँ। उसमें तुम्हारी मदद चाहता हूँ और यदि चूक मुझसे न हुई तुम्हें अपने ही फैसले से लगे तुमसे गलती हुई तो तुम्हें सही रास्ते पर लाना चाहता हूँ जिससे हम सभी सही रास्ते के हमराही बन सकें। मंजूर है तुम्हें ?