‘छत्री नवैं न मूसर धनुही।
आज वह बदले की पूरी तैयारी के साथ आया था. चेहरे पर चमक थी और चमड़ी में वह कसाव भी जो इरादे की दृढ़ता के समय प्रकट होता है, ‘’आज तो मैं तुम्हें बख्शने वाला नहीं।‘’
‘’वह तो मैं कल से ही सोच रहा था, जब तुमने इसकी धमकी दी थी। अपने नाम के साथ सिंह मैं लगाता हूँ क्षात्रधर्म का पालन तुम करते हो। जो कह दिया उससे पीछे हटने का सवाल ही नहीं।‘’
’’कम्युनिस्ट जो ठहरा।‘’
’’ ‘छत्री नवैं न मूसर धनुही।‘ भारत में क्षात्र धर्म का निर्वाह केवल कम्युनिस्ट करते हैं। सोच विचार से काम ही नहीं लेते। वर्णव्यवस्था का एक खम्भा आज के दिन कम्युनिस्टों के कंधे पर टिका हुआ है और दूसरा बसपा के कन्धों पर . उसने इतनी प्रतिमाएं सरकारी खजाने से बनवाईं कि उनके लिए न मंदिर बन सकता है, न पुजारी रखे जा सकते हैं। अगर मुझसे पूछो तो क्षत्रियों और ब्राह्मणो को एक लाइन में खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए कि वे अपने वर्णधर्म का निर्वाह नहीं कर पाते। इसका निर्वाह उनको करना पड़ रहा है जो हिन्दुत्व और मनुवाद की गालियों को अपनी राजनीति का खाद-पानी समझते हैं, यह समझने की कोशिश तक नहीं करते कि इन शब्दों के मानी क्या हैं। विडंबना के कितने रूप होते हैं।‘’
वह नरम पड़ गया, ‘’हम दिमाग से काम नहीं लेते यह तुमने कैसे कह दिया? बात को घुमाने के लिए कि मैं अपना आरोप भूल जाउूं जिससे तुम्हें बाहर निकलने का रास्ता मिल जाय । पहले मेरे सवाल का जवाब दो, तुम जोकर हो या थिंकर। गंभीर बातों को भी तुम मजाक में इधर उधर कर देते हो या नहीं?‘’
‘’मजाक करना दूसरों की तरह मुझे भी अच्छा तो लगता ही है, परन्तु तुम्हारा मजाक नहीं उड़ा सकता! उसकी जरुरत नहीं पड़ती ! तुम लोग अपने को मजाक बनाते फिरते हो। इतने सारे समझदार लोग जो लेखकों पत्रकारों को धमकाते रहते हों कि इस तरह लिखो नहीं तो मैं तुमको प्रतिक्रियावादी वगैरह ठहरा कर तुम्हारा कैरियर खत्म कर दूंगा, अपनी डगर पर चलने तक का शउूर नहीं रखते यह कहूं तो कहोगे मजाक बना रहा हूं, पर असलियत क्या यही नहीं है?”
‘’तुम्हारा मतलब शायद यह है कि हमारे आन्दोलन के इतने रूप हो गए। जहां दिमाग होगा, वहां विचारों का मतभेद भी होगा। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि हम चलना नहीं जानते, बल्कि यह सिद्ध होता है कि हम नई राहें बना सकते हैं।‘’
’’मेरा मतलब यह तो नहीं था, पर अगर तुम अपने बिखरने को राहें बनाने की योग्यता मानते हो तो मेरा आशीर्वाद है तुम सभी अपनी अपनी राहें बनाओ। इससे पार्टी के चंगुल से बाहर निकलने का मौका तो मिलेगा।**
“फिर राह चलने का शउूर नहीं है कह कर तुम क्या कह रहे थे।?
” मैं यह कह रहा था कि पिछले तीन दशक से तुम्हारा काम रह गया है भाजपा का विरोध। भाजपा अपना काम कर रही है, उसके पास अच्छा बुरा कोई कार्यक्रम है, तुम उसको अपना काम करने से रोक रहे हो। उसका अपना रास्ता है ! वह अपने रस्ते पर चल रही है ! तुम्हारा रास्ता तुम्हें भूल गया है। उस पर चल नहीं पाए। अब उसके रास्ते पर तुम उसका पीछा कर रहे हो और वह आगे बढ़ती जा रही है। तुम दूसरे दलों के साथ मिल कर लिहो लिहो कर रहे हो और वह तुम्हारी ओर नजर फेरे बिना, तुम्हारी आपत्तियों का जबाब तक दिए बिना अपनी राह पर बढ़ी जा रही है। तुम यह भी नहीं देख पाते कि इससे किसको फायदा हो रहा है। एक बार ठान लिया कि भाजपा को हटाना है तो नतीजे की परवाह किए बिना लगातार हटाते जा रहे हो और अपनी ही चाल से पीछे हटते जा रहे हो क्यों कि तुम्हारे पास अपना कार्यक्रम ही नहीं है । प्रतिक्रियावाद का भजन करते रहते हो और यह तक पता नहीं कि क्रिया वह कर रही है प्रतिक्रिया तुम कर रहे हो, वह प्रगतिशील है और तुम प्रतिक्रियावादी। उसका रोल पाजिटिव है तुम्हारा निगेटिव। वह आगे तुम पीछे। वह भविष्य में तुम इतिहास में। लेकिन अपने इरादे नहीं बदल सकते। सच्चा सूरमा सिर कटाने को बहादुरी समझता है पर पैंतरा बदलने को तैयार नहीं होता। समायोजन क्षमता के अभाव में तुम्हारा अस्तित्व खतरे में है और देखो कि सारे बुद्धिजीवी तुम्हारे साथ हैं लेकिन शौर्य के कारण सबकी मति मारी गई है। उनमें से एक भी यह सोचने या मानने को तैयार नहीं कि हमारी जो गति बन रही है उसके लिए हम जिम्मे दार हैं। बुद्धिजीवियों को भी तुम लोगों ने सूरमा बना कर रख दिया जो तलवार पकडने के लिए बेचैन हैं जब कि कलम संभाले संभल नहीं रही। लिखते हैं और आपस में बांट कर पढ़ते हैं और एक दूसरे की बाहम्बाह में भूल जाते हैं कि समाज से उनकी टोली कितनी अलग जा बसी है और अभी तक अपाठ्य थी अब अस्पृश्य भी बनती जा रही है।
‘’अस्पृश्य वह तुम्हारे लिए होगी। इसके बिना तुम्हारा काम नहीं चलता ।‘’
‘’मैं अस्पृश्यता का निवारण करने वालों में हूं, अस्पृश्य बनाने वालों में नहीं। भाजपा को मिटाने की बदहवासी में तुम आततायियों, उपद्रवियों, देशद्रोहियो, आतंकवादियों, हुड़दंगियों सब को गले लगाते रहे, उनके बचाव के लिए परिभाषाएं तलाशते रहे और यह सिद्ध करते रहे कि जो वे अपने काम से दिखाई दे रहे हैं वह वे हमारी परिभाषा से दिखाई नहीं दे रहे, इसलिए आप लोग जो हम देख रहे हैं उसे देखें, जो स्वयं देख रहे हैं उसे न देखें। ये सभी अपने अपने ढंग से भाजपा के संकट से देश को मुक्त कराना चाहते हैं इसलिए ये ही सच्चेे देश भक्त है, ये ही हमारी राजनीति का भविष्य है।‘’
‘’तुम्हें याद है जेएनयू कांड के बाद जब राहुल सहित तुम्हारे सभी टोलियों के नेता और विचारक और प्रचारक हुड़दंगियों के साथ दिखाई दिए और उनमें भी तुम्हारे महासचिव अपनी आत्मविश्वास भरी मुस्कराहट के साथ वहां उपस्थित हुए थे तो उस पर टिप्परणी करते हुए मैंने क्या कहा था?’’
अब इतनी पुरानी बात उसे क्या याद रहती। मैंने 18 फरवरी की पोस्ट की कुछ पंक्तियां उसके सामने कर दीं: ’करात और येचुरी दोनों जेएनयू की ही उपज हैं। देश को नेतृत्व देने के लिए ज्योति दा के नाम पर सभी दल एकमत थे, इन्होंने ही उसमें बाधा डाली थी। इनके नेतृत्व में ही सीपीएम हाशिए पर आना शुरू हुई और आज इतनी बेजान हो चुकी है कि अपनी भ्रष्टता के कीर्तिमान स्थापित करने वाली कांग्रेस के साथ गठजोड़ की स्थिति में आ गई है और येचुरी ने जो अभी बयानबाजी की उसको ध्यान में रखकर ही कह रहा था ‘चेतना ही न रही चढ़ि चित्त सो चाहत मूढ़ चिताहू चढ़्यो रे।‘ पार्टी की अंत्येष्टि का काम जेएनयू का उत्पाद ही करेगा।‘
वह कुछ परेशान तो बंगाल के नतीजों से था, यह पढ़ने के साथ कुछ और परेशान हो गया, पर तुरत संभल गया, ‘’जरा अपनी जबान तो दिखाना।‘’
’’क्यों क्या हो गया।‘’
’’देखूं वह कहीं पर काली तो नहीं है। तुम जो कहते हो वह सच साबित हो जाता है।‘’
’’जो कहता हूं वह जबान काली होने के कारण सच नहीं होता, इतिहास की गति को समझने के कारण होता है। ठीक उस मौके पर जब चुनाव कुछ ही महीने बाद था तुम्हारे नेता उनका समर्थन कर रहे थे जो उचक्कों की तरह व्यवहार कर रहे थे, देश द्रोही नारे लगा रहे थे या ऐसे नारे लगाने वालों के साथ थे इसलिए उनके सह अपराधी थे। तुम्हारे नेता दुनिया को मीडिया तक सिमटा मान कर सोच रहे थे मीडिया हमारे साथ है, मीडिया जो बताती है सब सुनते हैं, जो दिखाती है सब देखते हैं इसलिए हम जो कहेंगे उसे सभी सच मान लेंगे। उनका सोचना सही था। लोगों ने मान लिया कि आप लोग उनके साथ हैं और बंगाल में इसका जो संदेश गया उसने आप को रसातल में पहुंचा दिया जो कमी थी वह कांग्रेस के साथ ने पूरी कर दी जो भी उन लोगों के साथ थी ! देश को भाजपा मान कर उसे तोड़ने के सपने बो रहे थे।‘’
’’यही होता तो केरल में जीत न होती।‘’
’’दो बुरों में चुनाव करना था, किसी तीसरे विकल्प की संभावना होती तो वहां भी वही होता जो बंगाल में हुआ।‘’