धर्मसंकट
मैने ही उसे छेडा, ‘’तुम दिन में कितने घंटे सच बोलते हों’’
‘’हिसाब नहीं लगाया परन्तु यह अवश्य देखा कि जब तुम्हारी बोलती बन्द हो जानी चाहिए तब भी तुम बोलते रहते हो और बात को इस तरह घुमा देते हो कि सुनने वाले को लगे तुम जो कहते हो वह सच के सिवाय कुछ नहीं है।‘’
पहला मौका था जब कहना पड़ा, ’’तुम्हारी बात समझ में नहीं आई।‘’
‘‘कल मैंने बहुत सोच समझ कर तुम पर यह अभियोग लगाया कि तुम शब्दों के माध्यम से जगलरी करते हो और इसके लिए तमाशबीन जो सिक्के फेंकते हैं उसी से तुम्हारा गुजर होता है।‘’ वह आगे कुछ कहने जा रहा था कि एकाएक गुमसुम हो गया!
मैंने ही पूछा, ‘‘क्या हो गया? चुप्पी क्यों साध ली?’’
‘‘मैं तो तुमको नीचा दिखाने के लिए अपना तर्क जुटा रहा था, तभी तुम्हें तुम्हारी औकात बताने के लिए उस फिकरे की याद आ गई जो कल मैंने तुम पर कसा था कि लोगों के फेंके हुए सिक्कों पर तुम्हारा गुजर होता है और फिर मुझे यह याद आया कि किसी कलाकार के लिए इससे बड़ा पुरस्कार क्या हो सकता है कि उसके कृतित्व पर कोई टिकट नहीं, सर्वसुलभ है, देखें सभी और जिनकी हैसियत ऐसी हो कि वे इस कला की रक्षा की और कलाकार की साधना और सिद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए बिना किसी बाध्यता के अधन्नी चवन्नी, दमड़ी जो भी पास है, अपने पसीने से कमाए उस नगण्य प्रतीत होने वाले धन को मुग्ध हो न्यौछावर कर दे और कोई एक नहीं देता था, इसकी वर्षा होने लगती थी, तभी मुझे लगा क्या किसी कलाकार को आज तक दुनिया में इससे बड़ा पुरस्कार दिया गया है? क्या नोबेल पुरस्कार, जो जोड़ तोड़ और राजनीतिक औजार के रूप में बांटा जाता है, जिसका फैसला गिने चुने सिरफिरे करते हैं, इस पुरस्कार से बड़ा हो सकता है? तभी मुझे यह भी याद आया, यदि इसे मान लिया तो मैं कहीं का न रह जाउूंगा और तुम जिसे हराने चला था कहोगे विजय माला अपने हाथ से पहनाओ, और मैं अवाक् हो गया! मगर यह न समझ लेना कि तुम जीत गए। इसकी खबर कल लूँगा पर आज तो मैं इस बात पर हैरान हूँ कि हमारे पूर्वजों ने कला और साहित्य के संरक्षण और संवर्धन के जिस तरीके का आविष्कार किया था वह किसी अन्य सभ्यता में भी थी या अन्यत्र दुर्लभ है। साहित्य और कला के जनाधार पर तो मेरा ध्यान कभी गया ही नहीं था! हो सकता है तुम्हारा भी न गया हो!’’
स्वीकार करना पड़ा कि उसकी इस टिप्पणी से पहले मेरा भी ध्यान इस ओर नहीं गया था!