व्याजस्तुति
– मैं जानता हूं आप अपनी बदनामी से डरते हैं! मैं भी डरता हूं! पर तभी जब मैंने कोई गलत काम किया हो।
-हत्यारा आप के जीवन का अंत कर देता है पर कीर्तिको नहीं मिटा पाता। कई बार उस अत्याचार से ही आप की कीर्ति को चार चांद लग जाते हैं। परन्तु निन्दक का आघात आपकी कीर्ति पर ही होता है जिसके बाद आप एक जीवित लाश में बदल जाते हैं: एक ऐसी लाश जिसे लोक की उपेक्षा में सड़ते हुए, मुंह छिपाते हुए, देखने वालों से बचते हुए, अपनी दुर्गति का गवाह बनना पड़ता है।
परन्तु उस विचित्रता पर ध्यान दो जिसमें हत्यारा उल्टे सिरे से छुरा पकड़ ले या रिवाल्वर की नली अपनी ओर फेर ले और उसके बाद जो कुछ घटित हो उसमें आप अपने हत्यारे को बचाने के प्रयत्न में लग जाएं तो आप की कोई क्षति न होगी। उसे, यदि वह बच गया तो, उस ग्लानि और अपमान में जीना पड़ेगा जिसमें आपका निन्दक या दुर्भावनाग्रस्त आलोचक आपको पहुंचाना चाहता था।
इसलिए ध्यान इस पर दो कि गलती तुमसे हुई है या नहीं! डरना वहीं है जहां तुम गलत थे और गलती की ओर ध्यान जाने या दिलाए जाने के बाद भी उसके लिए खेद प्रकट नहीं किया! अपने विरुद्ध दुष्प्रटचार की जमीन तुमने तैयार की। यहां खंजर सही सिरे से पकड़ा गया है और उसकी चोट तुम पर होनी है और तुम्हे जीते जी लाश की तरह विचरना है और अपने अपयश के साथ मर जाना है।
– ‘तुम उपदेशक कमाल के हो, इतने सारे चैनेल हैं, किसी को घेर लो, बाबाओं की छुट्टी हो जायगी! तुम कहो तो मैं बात करूं।‘
‘‘लोगों के शरीर पर चाम होता है, तुम्हारे दिमाग पर भी खाल चढ़ी हुई है। समझ न पाओगे, पर हिन्दी पढ़ाते रहे हो, इसलिए व्याजस्तुति और व्याजनिन्दा अलंकारों से तो परिचित होगे ही।
– तुम मुझे काव्यशास्त्र और छन्दशास्त्र पढ़ाओगे, जिसे पढ़ाते मैंने उम्र काटी है!
– मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूं कि मैं तुमको कुछ पढ़ा नहीं सकता! जिसकी पढ़ने की उम्र खत्म हो गई उसकी बढ़ने की उम्र खत्म हो गई। यह पत्रा की तिथि से तय नहीं होता, जीवट से तय होता है। मैं अलंकारशास्त्र के माध्यम से यह बताना चाहता था कि मेरे आलोचकों ने गलत सिरे से खंजर पकड़ने के कारण आत्मघात किया और इसके परिणाम भुगते। काव्यशास्त्र और छनदशास्त्र कविता के क्षेत्र में नहीं आते। ये भाशाविज्ञान के क्षेत्र में आते हैं।
परन्तु मैं यह बताना चाहता हूं कि बारूद के भंडार पर कब्जा जमाए लोग एक सच का सामना करने ही स्थिति में न थे] उसके लिए वे तिकड़मों का सहारा ले रहे थे! संचार माध्यम अपनी फीस ले कर सुपारी किलर की भूमिका में थे,] परन्तु उनकी बेकली मुझे अपनी अकाट्यता का प्रमाण प्रतीत होती रही। वे तोहमत लगा रहे थे, पर वे चिपक नहीं रहे थे, उल्टेे वापस जा रहे थे। मैं उनकी बेचैनी को जानता था। उनमें जो किसी भी कारण आदरणीय थे उनका सम्मान भी करता था। वे अपनी ही कुटिलता और कुत्सा के ग्रास होते जा रहे थे। मैंने 1991 में जिन दो लेखों के माध्यम से आगाह किया था कि यह ढर्रा रहा तो तुम बेघर हो जाओगे, वे घर बदलने की उथलपुथल में मेरे हाथ लग गए। जो भविष्यवाणी की थी वही घटित हुई पर इसलिए नहीं कि मैं बहुत अच्छा ज्योतिषी हूं, अपितु इसलिए कि पूर्वाग्रह के कारण जिसे देखने से इन्कार किया जा रहा था, उससे मुक्त होने के कारण मैं भविष्यलेख को पढ़ पा रहा था। भाजपा और संघ दोनों दिमागी दिवालियापन के नायाब नमूने हैं इसलिए उन्हें किसी देश का कोई खुराफाती जो जय हिन्दू, जय हिन्दुस्तान करता मिले उसे गले लगा लेते हैं कि लो विदेशी भी भारत की जैकार करने लगे। वे यह तक नहीं जानते कि वे अपना काम कर रहे हैं या उनका काम कर रहे हैं जो उन्हें भारत में रहने, विचरने, संपर्कसूत्र विकसित करने और एक सम्मानजनक जीवन जीने का खर्चा दे रहे हैं।
एक ऐसा ही आयोजन संभवत: 2010 में एक सेमिनार में देखने में आया। दो नौजवान ग्रीक अध्येाता थे। वे आर्यों के जीनोम की बात करने लगे। किसी की चूक से मुझे उसका अध्यगक्ष बना दिया गया था और जब मैंने उनके नस्लववादी रुख की भर्त्स ना की तो वे सारी मर्यादाएं तोड़ कर अपने कथन को वैज्ञानिक सत्य बनाने पर कायम रहे। बहस में हमें लंच से भी हाथ धोना पड़ा।
पर यह बौखलाहट क्या उस खेमे का मृत्यु नाद नहीं है जो किसी भी तर्क से नस्ल वादी सोच से वैज्ञानिक सोच को दबाना और हारी हुई बाजी जीतना चाहता है। इसलिए जब किसी प्रेरणा और प्रबन्धन से सम्मोहित हो कर नीतीश का दल जान पर खेल कर वहां पहुंचने को तैयार हुआ जहां सांस लेने में दिक्कत होती है और जिसके बारे में किसी ने बता दिया था कि अपने को आर्य कहने वाले वहीं मिलते हैं तो मुझे वह गठरी नजर आने लगी जो उन्हें या उनके चैनल कोरे इस काम के लिए दी गयी होगी। मैंने उनको इंटरव्यू देने से पहले पूरी स्थिति समझाई थी जिससे वे सही प्रश्न कर सकें, परन्तु उन्हें जानना कुछ नहीं था, अपना राग अलापना था, इसलिए उनका कारनामा मित्रों को खटका, मुझे रोचक लगा। यह इस बात का प्रमाण था कि अब आर्य आक्रमण की बात करने वालों को डूबते हुए सहारे के लिए तिनके तलाशने पड़ रहे हैं। किसी ने आर्य या स्त्री ने पति को आर्यपुत्र कह दिया तो वह आर्य हो गया और इस तर्क से ऋग्ेवद के सभी छन्दों को आर्या छन्द कहा जाना चाहिए। बूढ़ा होने पर आदमी आर्य – आजा/आजी – हो जाता है, जवानी में अनार्य रहता है। दक्षिण भारत के ऐयर आर्य हो गए, पंजाब के नैयर अनार्य हो गए और उनका झगड़ा केरल के नायरों से रह गया कि कौन शुद्ध अनार्य है कौन नकली, परन्तु हमारे लिए मजेदार बात यह है कि आर्यजाति या नस्ल को उभारना दूसरे सभी तीरों के बेकार हो जाने और इसका फलक टूट जाने के बाद भी इसे जब तक चल सके चलाए रखने की बेचैनी है जिसके पीछे साधन और धन है, औचित्य नहीं और उसे इसका भान भी है।