Post – 2016-05-14

बात होश की नहीं हवास की है

-क्या तुमने कभी सोचा कि तुम जब मध्यकालीन बर्बरता की बात करते हो, ईसाइयत को एक खतरा बताते हो, तो तुम हिन्दू सम्प्रादायवादियों के साथ हो जाते हो और अपने अब तक के किए-कराए पर पानी फेरने को तैयार हो जाते हो। बुढापे में यही बच रहा था, करने को। सुसाइड। इतनी उम्र हो गई, एक दिन तो मरना ही है, फिर इतनी जल्दीवाजी किसकी। कम से कम अपना नाम तो बचा लेते ।

– क्या तुम हिन्दी जानते हो।

वह हंसने लगा, ‘इसका क्या जवाब हो सकता है।’

– मैं जानता हूं तुम हिन्दी बोलते हो, हिन्दी पढ़ाते रहे हो, हिन्दी में जब तब लिखते भी हो , हिन्दी में मुझसे बात कर रहे हो, फिर भी भाषा का विषय तो अगाध है न। संस्कृत के इतने प्रकांड पंडित पतंजलि और वह कहते हैं कि एक शब्द को भी पूरी तरह जानना इतना बड़ा काम है कि उसी के ज्ञान से लोक परलोक दोनो सुधर जाय। फिर तुम लोग तो खुद हिन्दी पढ़ाते रहे और अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाते रहे और आश्चर्य प्रकट करने पर बताते रहे कि शिक्षा के मामले में समझौता नहीं किया जा सकता जब कि कर समझौता ही रहे थे और वह भी तलवा चाटते हुए। समझौता शब्द को जानते थे, उसके व्यावहारिक तात्पर्य को नहीं जानते थे। हो सकता है सांप्रदायिकता का भी व्यावहारिक अर्थ न जानते हो नहीं तो पता होता कि कम्युनिज्म् और कम्युनलिज्म में जुड़वा भाइयों का रिश्ता है। और यह भी शायद ही जानते हो कि यूरोपीय सन्द‍र्भ में इसका अर्थ भिन्न है और भारतीय सन्दर्भ में भिन्न । यह भिन्नता केवल कम्युनिज्म तक नहीं सीमित है, विज्ञान तक पहुंचती है। भाषाविज्ञान में भाषा का अर्थ स्पीच या बोली जाने वाली भाषा है, पर भारत में यह लिपि भेद पर आधारित हो जाती है इसलिए वही जबान नागरी में लिखी जाय तो हिन्दीत और अरबी में लिखी जाय तो उर्दू अर्थात् भाषा जबान नहीं लिपि होती है, जब लिपि नहीं थी तो लोगों के पास भाषा नहीं थी, जब से लिपि का प्रयोग आरंभ हुआ भाषा का जन्म हो गया। जायसी ने पद्मावत अरबी लिपि में लिखी तो उसकी भाषा उर्दू होनी चाहिए और उसे नागरी में छापें तो वह हिन्दी हो गई, अवधी भी हो सकती है। तुलसी के रामायण की प्रतियां अरबी लिपि में भी मिलती हैं, इसलिए उर्दू में लिखी रामायण उर्दू हो गई और नागरी में लिखी हिन्दी। इस धूर्तता के जनक जो थे वे ही सांप्रदायिकता की उस छवि के जनक थे जो भारतीय सन्दर्भ में विषाक्त‍ हो गई जब कि भारत में संप्रदाय का अपना एक परंपरागत अर्थ और इतिहास था। उससे जोड़ कर इसे देखा ही नहीं गया। तुम उसी उपनिवेशवादी समझ के उत्तराधिकारी हो और उसको किसी न किसी रूप में बनाए रखने के लिए प्रयत्नशशील हो फिर भी हिन्दी की औपनिवेशिक समझ के कारण यह न जानते हो कि हिन्दी है क्या और इसमें व्यावहारिक आशय किस तरह अपने कोशीय अर्थ से उलट जाते हैं।

लेकिन एक और कारण है ऐसा कहने का। तुम हिन्दी जानते हो तो तुम्हें यह जानना चाहिए कि 1970 से ही, जब मैंने यह व्रत लिया कि इस औपनिवेशिक और वर्चस्ववादी फरेब को उजागर करके सही समझ पैदा करते हुए मैं इनसे मुक्ति का मार्ग अकेले अपने दम पर निकालूंगा, तब से मेरा सारा लेखन उसी को समर्पित रहा है, फिर यदि वही संप्रदायवाद है तो संप्रदायवादी तो मैं पहले से हूं। यह स्वीीकार करने का साहस मुझमें है परन्तु तुममें यह साहस न होगा कि कह सको कि तुमलोग उपनिवेशवाद के भड़ुओं के रूप में काम करते रहे हो, इसके दोनों अर्थों में भड़ैती करने वालों के रूप में भी और भाड़े पर काम करने वाले अर्थ में भी।

उसने जवाब देने की मुद्रा अपनाई तो मैंने बरज दिया, – पता नहीं इस समय मुझे प्रूफ भी देखना पड़ रहा है।