Post – 2016-05-13

इतिहास का वर्तमान का पहला खंड प्रकाशित हो कर चार दिन पहले मिला और साथ ही मिला दूसरे खंड का प्रूफ! प्रूफ सुधारते समय मेरी नजर एक महत्वपूर्ण अंश पर गई जिसकी फेाटो प्रति प्रमाण के रूप में लगा रखी थी। आपने देखा भी होगा तो पढ़े बिना ही मान लिया होगा कि मेरा दावा सही है पर उसको पढ़ने की अपनी सार्थकता है इसलिए मैंने सोचा उसे टाइप करके नए ढंग से प्रस्तुत किया जाय!

ईसाइयत और यूरोकेन्द्रिता

मैने कहा, अगर तुम ईसाइयत का असली चेहरा देखना चाहते हो तो इसे पढ़ो और इसके साथ ही उसी विश्वकोश का एक पन्ना सामने कर दिया! उसने उसे अनमने भाव से पढ़ना आरंभ कियाः
Many scholars fled from Christian persecutions eastward to Iran where the Sassanid king helped them found a school of medicine and science.This was the world’s intellectual capital for two centuries. Already in 529, when Justinian closed the Athenian Schools, Hellenistic learning had dispersed to Sassanian Persia, Gupta India and Celtic Ireland.

वह बीच में ही उछल पड़ा – देखो यदि यही बात मैं कहता तो तुम कहते हमलोग भारत की महिमा को सहन नहीं कर पाते इसलिए यह देखने दिखाने का प्रयत्न करते हैं कि इसका कौन सा तत्व कहां से आया है। अब जिस ज्ञानकोश को तुम प्रामाणिक मानते हो उसमें भी यह बताया गया है कि जिस गुप्त काल को हम भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहते हैं, उसकी प्रेरणा भी यूरोप से आई थी।

मैं खीझ गया – पहले पूरे पन्ने को पढ़ तो लिया होता।

– पढ़ूंगा। वह भी पढ़ूंगा, पर यह सच तुम्हें इतना चुभ क्यों गया, यह तो पता चले।

– चुभ इसलिए गया कि तुम्हें फिर गधा कहना होगा, जो तुम हो नहीं, पर तुम्हारी पार्टी ने तुम्हें बना रखा है। मैंने कितनी बार समझाया कि प्रामाणिक कुछ नहीं होता, जिस कथन के पक्ष में ऐसे प्रमाण होते हैं जो किसी तथ्य, प्रमाण या सिद्धान्त से खंडित नहीं होते वह प्रामाणिक होता है। जिस पर तुमने भरोसा किया वह मात्र एक कथन है जिसके समर्थन में कोई प्रमाण नहीं दिया गया है और इसमें वही मानसिकता काम कर रही है जिसमें सभ्यता का उत्स यूरोप में सिद्ध् करने का प्रयत्न किया जाता है और इसकी पड़ताल तक नहीं की गई है! मैंने एक बार कहा था न कि तुम लोग सोचना तो दूर पढ़ना और समझना तक नहीं जानते । इसीलिए कहता हूँ किसी भी चीज को जाँचते हुए पढ़ो, जिरह करते हुए समझो! आलसी आदमी ऐसा नहीं कर सकता इसलिए यदि कुछ भी छपा मिल जाय तो वह मुद्रण को ही प्रमाण मान लेता है।

– बर्दाश्त नहीं हुई बात तो व्याख्यान देने लग गए। कैसे पढ़ा जाता है जिरह करते हुए, मैं भी तो सुनूँ।

-तो सुनो! पहली बात तो यह कि हमारे पास न उस तरह का इतिहास था न राजा को उतना महत्व दिया जाता था जितना कवियों, दार्शनिको, विचारको आदि को इसलिए व्यास और वाल्मीकि और कालिदास का नाम बहुतों को मालूम था गुप्त वंश या उसके राजाओं का शायद ही किसी को ज्ञान था। राजा स्वयं भौतिक समृद्धि‍ को बहुत महत्व नहीं देता था और विद्वानों के समक्ष नम्रता दिखाता था। इसलिए हिन्दू राजाओं के सिक्कों पर उनके नाम या चित्र का अंकन न मिलेगा, न उनके नाम से स्थानों का नाम, न स्मारकों के नाम! उनकी मूर्तियाँ नहीं मिलेगी! यह मूल्य व्यवस्था का अन्तर है जिसे न अच्छा कहा जा सकता है न बुरा, भिन्न अवश्य कहा जा सकता है। इस उदासीनता के कारण कुछ हानि भी हुई । पश्चिमी ढंग के इतिहास के लिए सामग्री की खोज और उनका क्रमांकन और कालांकन का काम यूरोप के विद्वानों ने अपनी तुलना के लिए किया जिसमें उनके निहित स्वार्थ भी थे। इसलिए हमारे यहाँ किसी वंश या राजा के काल को स्वर्णयुग कहने की जरूरत नहीं थी। समय के लिए सोना चांदी हमारी सोच का हिस्सा नही रहा है! इससे तुम लोगों को असुविधा होती रही कि प्राचीन भारत में किसी असाधारण उपलब्धि के स्वीकार से कहीं पिछड़ापन न पैदा हो जाय लेकिन रोचक बात यह है कि तुम्हीं लोगों में से एक इतिहासकार को मध्य काल में स्वर्णयुग देखने की जरूरत महसूस हुई हालाँकि उसने इसे वैभव काल कहा!- एज आफ स्प्लेंडर. और रोचक बात यह कि इसमें अकबर का काल नहीं आता!

– कोई बात संक्षेप में नहीं कह सकते?

– अब रही गुप्त काल की उपलब्धियों का प्रेरणास्रोत यूरोप की देववादी संस्कृति के घ्वंस और तत्कालीन विद्वानों के पलायन को मानने की बात तो ध्यान इस बात पर दो कि दोनों की काल रेखा क्या है? यदि यह उत्पीड़न और पलायन आरंभ होने से पहले गुप्तकालीन भारत अपने वैभव पर पहुँच चुका था तो यह कथन तो काल्पनिक हुआ ही कि गुप्तकाल की उपलब्ध्यिों का प्रेरणास्रोत यूरोप रहा है।
Dark Ages, the early medieval period of western European history. Specifically, the term refers to the time (476–800) when there was no Roman (or Holy Roman) emperor in the West; or, more generally, to the period between about 500 and 1000, which was marked by frequent warfare and a virtual disappearance of urban life.
Dark Ages | European history | Britannica.com

The Gupta Empire stretched across northern, central and parts of southern India between c. 320 and 550 CE

– अब उल्टे यह माना जा सकता है कि रोम और ग्रीस की उपलब्ध्यिों के पीछे भारतीय प्रेरणा रही है। जिस चिकित्सा संस्थान केा सासानी फारस में पलायन करके आने वाले यूरांपीय वैज्ञानिकों द्वारा स्थापित बताया गया है उसका भी उल्टा पाठ बनता है। भारत चिकित्सा के क्षेत्र में तुम्हारे ‘हास्यास्पद वैदिक काल’ से ही अग्रणी रहा है और यह अग्रता कायचिकित्सा, शल्यचिकित्सा और मनोचिकित्सा तीनों क्षेत्रों में रही है। यह भारत था जिसने व्याधियों की कायिक और मानसिक प्रकृति को हजारों साल पहले समझा जब कि साइकोसोमैटिक नेचर और अंगांगीभाव की समझ यूरोप में हाल के वर्षों में पैदा हुई। व्याधि के निवारण या प्रिवेंशन को आरोग्य का मूलाधार यहाँ बहुत पहले से माना जाता रहा और यह मनोचिकित्सा में अन्तःप्रकृति की समझ और षड्विकारों या शत्रुओं की पहचान और उनके नियन्त्रण में दिखाई देता है। वैदिक काल में ही त्रिधातुओं की प्रकृति की समझ और इनके निवारण में मधु की भूमिका के हवाले मिलते हैं – त्रिधातुवारणं मधु।

अब इन पंक्तियों का अर्थ उलट गया। ईरान से भारत का पड़ोसी जैसा संबन्ध था और कई संस्थाएँ दोनों में समान थीं। भारत में नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालय बहुत पहले से स्थापित थे और ऐसे संस्थान सासानी फारस में भी रहे लगते हैं जिनमें पलायन करके आने वालों को अध्यापन और अनुसंधान का अवसर मिला हो सकता है परन्तु उनकी पहल से सासानी राजा ने महापीठ की स्थापना की यह निराधार है। शरण लेने वाले पहल नहीं करते, पहले से मौजूद संस्थाओं में कुछ नए काम कर अवश्य सकते हैं। परन्तु यदि वह ज्ञान भारतीय ज्ञान और अनुसंधान से मिलता जुलता था और अंधकार युग के समापन में इन संस्थाओं से परिचित होने वाले यूरोपीय विद्वानों की भूमिका थी तो वे अपने प्राचीन ज्ञान को जो फारस के शिक्षाकेन्द्रों में बचा रह गया था लेकर लौटे यह कृतघ्नता भी है और धूर्तता भी। यह भारत से लेकर फारस तक के ज्ञानसंगम में यूरोपीय जिज्ञासा और अवशेष का मिला जुला रूप था जिससे पश्चिमी विद्वान दुराग्रहपूर्वक मुकरते ही नहीं रहे हैं, अपितु भिखारी हो कर भी दाता का अहंकार पालते रहे हैं जब कि उनकी वर्तमान अग्रता उस नीव पर टिकी है जो पूर्वी ज्ञानसंपदा से तैयार हुई।

– अगर इस तरह प्याज के छिल्के उतारते हुए सत्य की खोज करने चलोगे तब तो कुछ हाथ ही नहीं लगेगा।

-इसी डर से तुम प्याज के सूखे और छील कर तुम्हारी तरफ फेंके गए छिल्के को अपने हिस्से की प्याज समझ कर संतोष करते रहे हो। जिन्दगी भर दूसरों को पढ़ाते रहे, सेवाविरत हो गए और आज तक यह न समझ पाए कि पढ़ा और समझा कैसे जाता है और बात बात पर कूद कर सामने आ जाते हो अपनी फजीहत कराने के लिए! अब पढ़ो उन तथ्यों को जिनको झुठलाया नहीं जा सकता और जिन्हें आज के पश्चिमी विद्वान छिपाने या झुठलाने का प्रयास करते हैं, तब तुम्हारी आँखें हो सकता है खुल जाएँ, गो तुम्हारे जैसे जिद्दी आदमी के मामले में यह जरूरी नहीं।

वह आगे का अंश पढ़ने लगाः

Church Historians have claimed, nothing of real value was lost in the destruction of pagan culture. The havoc that afflicted art, science, literature, philosophy, engineering, architecture and all other fields of achievement has been likened to the havoc of the Gigantomachia – as if the crude giants overthrew the intelligent gods. The widespread literacy of the classical period disappeared. Aqueducts, harbors, buildings, even the Roman roads fell into ruin. It has been pointed out that centuries of devastating war could hardly have shattered Roman civilization as effectively as did the new obsession with an ascetic monotheism.
Books and artworks were destroyed because they expressed un-Christian ideas and images. The study of medicine was forbidden on the ground that the diseases were caused by demons and could be cured only by exorcism. The theory was still extant in the time of Pope Alexander III, who forbade monks to study any technique of healing other than verbal charms. Under the Christian emperors, educated citizens were persecuted by the illiterate who claimed their books were witchcraft texts. Often ‘magical’ writings were planted by Christian magistrates for the sake of the financial rewards they received when they caught and executed heretics – a system the Inquisitions also used to advantage in later centuries. Priestesses were especially persecuted, because they were female, wealthy, and laid claim to spiritual authority.

अन्त तक आते आते वह माथा पकड़ कर बैठ गया! तो यह है ईसाइयत का असली तन्त्र जो मेमने की खाल ओढ़ कर भेडि़ये की तरह आचरण करता है?