Post – 2016-05-12

लौट के बुद्धू घर को आए

– कल तो तुमने मुझे बहुत इज्जत बख्शी यार! सीधे तुम से आप कहने लग गए।

– गाली देने का मेरा यही तरीका है, जब बात असह्य हो जाय तो अगले को इज्जत देने लगता हूं, लखनवी जबान की ताजपोशी का मतलब जानते हो न ?

दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया तो इधर उधर टहल रहे लोग चौंक कर देखने लगे कि माजरा क्या है! उनमें से अधिकतर ने हमें झगड़ते तो देखा था, परन्तु एक साथ ठहाका भरते नहीं देखा था!
हँसी थमी तो उसने कहा- देखो पहले तो मैं ही तुम्हारे ऊपर आरोप लगाता था कि तुम बहकी बहकी बातें करते हो, अब तुम्हारे मित्र भी शिकायत करने लगे हैं कि तुम्हारी बातों में बिखराव बहुत है । अभी तो शुरुआत है!

– यदि वह बिखराव था तो आज तुमको महा बिखराव का सामना करना पड़ेगा।

उसने हैरानी जताने की मुद्रा अपनाई।

– दो तीन साल पहले यमन में एक लड़के ने अपने पिता को इसलिए गोली मार दी थी कि उसने उससे कोई खिलौना ले कर आने को कहा था! शाम को जब लौटा और लड़के ने पूछा कि खिलौना कहाँ है और उसने खेद जताते हुए कहा वह भूल गया था! लड़के को इस पर क्रोध आया और उसने उसे गोली मार दी!

– हो सकता है उसने असावधानी में रखी पिता की पिस्तौल उठा ली हो और उसे खिलौने की पिस्तौल समझ कर दाग बैठा हो! ! ये समाचार का बाजार चलाने वाले आजकल बहुत हेराफेरी करते हैं।

– हो सकता है। तुमने सुना़ चीन ने अपने उस कानून को बदल दिया है जिसमें माता-पिता एक ही सन्तान पैदा कर सकते थे! सुनते हैं बच्चे हिंसक होने लगे थे । चाहे वह मेरे मित्र का पुत्र हो या यमन का वह बालक, या चीन के एकल बच्चे, इन सबके साथ और हमारे एकल परिवारों के बच्चों के साथ जो सर्वनिश्ठ घटक है वह यह कि उनको अपने पिता माता का स्नेह बहुत अधिक मिलने लगा है और इनकी प्रत्येक इच्छा को पूरा करने की कोशिश की जाती है! ये नहीं शब्द सुनने के आदी नहीं हैं। जहां माता पिता की एक ही सन्तान हो, दूसरी हो ही नहीं, वहाँ तो पिता माता घोर कष्ट उठा कर भी, अपने को कुछ सुविधाओं से वंचित करते हुए भी उनकी बेतुकी माँगों को भी पूरी करने को तैयार रहते हैं। इससे पैदा होता है वह दिमाग जो केवल अधिकार जानता है, कर्तव्य नहीं! जिसकी माँगों का कोई अन्त नहीं, क्योंकि वे निरन्तर बढ़ती जानी हैं और उस सीमा तक पहुँच सकती हैं जिस पर उनकी पूर्ति संभव ही नहीं है। अब यदि उन बालकों को या ऐसी पीढि़यों को तुम दोशी ठहराते हो तो तुम्हारी गलती है। तुमने उनको सही शिक्षा दी ही नहीं, उनको उचित अनुचित का बोध कराया ही नहीं। तुमने उन्हें स्वयं बिगाड़ा और बिगड़ने पर उन्हें दोश दे रहे हो जब िक वे उससे भिन्न कुछ कर ही नहीं सकते।

– तुम्हारा मतलब है कि हमने स्वयं उनको ऐसा बनाया या बनने दिया इसलिए अब भी उनकी उल्टी सीधी मांगों को जिन्हें वे अपना अधिकार समझते हैं, पूरा करते रहना चाहिए।

– ऐसा मैं नहीं कहता, तुम लोग कहते हो। लेकिन इसका दृष्टान्त दूँ इससे पहले यह याद दिला दूं कि आज की परिस्थितियों में इसका विस्तार हुआ है परन्तु ऐसी परिस्थितियों में सदा से ऐसा ही होता आया है। तुमने कभी चाणक्य के अर्थशास्त्र पर नजर डाली है।

– जब मेरी सीमाएँ जानते हो तो ऐसे सवाल क्यों करते हो यार!

– चाणक्य परंपरालब्ध मान्यता का उल्लेख करते हैं जिसमें राजपुत्रों को केंकड़े के समान पितृभक्षी या पिता के लिए खतरे का कारण माना जाता रहा है, ‘कर्कटसधर्माणो जनकभक्षाः राजपुत्राः । अर्थात् वयस्क होने पर जल्द से जल्द राज्यसुख और सत्ता पाने के लिए राजपुत्र अपने ही पिता की हत्या कर सकते हैं, इसलिए उनकी शिक्षा, दीक्षा और पालन पोशण में राजा को इसका घ्यान रखना चाहिए कि उनमें ऐसी प्रवृत्ति पैदा न होने पाए।
एक अन्य स्थल पर चाणक्य कहते हैं कि जिन बच्चों को सुख और लाड़ अधिक नहीं मिला होता है वे अपने पिता से द्रोह नहीं करते, उनका सम्मान करते हैं, ‘सुखोपरुद्धा हि पुत्राः पितरं नाभिद्रुह्यन्ति इति। अतः सुख सम्पन्नता में पले बच्चे उस संपदा को हासिल करने के लिए अपने पिता के शत्रु बन जाते हैं। इस दृश्टि से उनका सुझाव है कि राजा को अपने पुत्रों को ऐसे कष्टसाध्य कामों में नियुक्त रखना चाहिए जिससे वे आज्ञाकारी बने रहें ‘राजपुत्रः कृच्छ़रवृत्तिरसदृशे कर्मणि नियुक्तः पितरमनुवर्तेत !

– कितने हजार साल पुराना कूड़ा भरा है तुम्हारे दिमाग में लिससे तुम आज की समस्याओं का समाधान करना चाहते हो।

– अशोध्य मूर्ख हो तुम। यह समझ ही नहीं सकते कि मनुष्य किन प्रलोभनों, किन परिस्थितियों, किन उकसावों में क्या कर सकता है इसकी वैज्ञानिक व्याख्या है यह जिसका वह अंश जो हमें मानव स्वभाव और इतिहास को समझने में मदद करता है, उसका सम्मान किया जाना चाहिए। जहां उसके सुझाव किन्ही कारणों से ज्याज्य लगें उनको त्याग दिया जाना चाहिए! परंपरा बोध है, बिसाता नहीं कि लाद कर फेरी लगाने चल पड़े। इस बोध को अर्जित करने के बाद तुम बिंबिसार और अजातशत्रु के व्यवहार को भी समझ सकते हो और मध्यकालीन इतिहास में पिता, चाचा, ससुर किसी के वध या उसके विरुद्ध भड़कने वाले विद्रोह को भी, भाइयों की हत्याओं को भी और आज के अतिरिक्त स्नेह से बिगड़े या मांग पूरी होती जाने के साथ उसमें शराबियों की तरह और और करते लुढ़कने तक माँगते और पीते चले जाने को भी और उस गिरावट को भी समझ सकते हो कि क्यों जिन केन्द्रशासित विश्वविद्यालयों में सर्वाधिक सुविधाएँ पहले से दी गई हैं वहीं ऐसी आजादी की माँग क्यों बढ़ती जा रही है जिसको खुल कर बताया तक नहीं जा सकता। और इसी से तुम अपना चेहरा पहचान सकोगे कि तुम किस सीमा तक नीचे जा कर ऐसी आजादी की माँग की आड़ में सत्ता का खेल खेल सकते हो।

– तुमने यह तो बताया नहीं कि चाणक्य अपने पहले के सत्ता के लिए हुए द्वन्द्वों का उदाहरण देते हैं वह उसके बाद देखने में क्यों नहीं आता और इसकी वापसी मध्यकाल में ही क्यों होती है?

– यहीं तो बुद्धिजीवी की भूमिका, सही शिक्षा प्रणाली और सही नीति की भूमिका, मानव चेतना को सही दिशा देने से शिक्षा की भूमिका का प्रश्न उठता है! जब इसका लोप होता है, इसमें स्खलन आता है तो अराजक प्रवृत्तियाँ जोर मारती हैं, जब इनको सुनिश्चित करने वाली संस्थाएँ अपना काम करती हैं तो समाज की कारक शक्तियाँ सही दिशा ले पाती हैं।

– शिक्षा से तुम्हारा मतलब केवल अमीरों और राजकुलों से जुड़े लोगों की शिक्षा से है या ब्राह्मणों की शिक्षा से? दूसरे लोगों को शिक्षा का अधिकार था ही नहीं!

– भारतीय शिक्षा प्रणाली में अक्षरज्ञान की शिक्षा से अलग साहित्य के माध्यम से लोक शिक्षण की ओर भी ध्यान दिया गया था। साहित्यिक कृतियों, इतिहास, पुराण आदि के श्रवण को पुण्यलाभ से जोड़ कर इन्हें बार बार सुनने और जीवन में उतारने का आयोजन था। मैं जब शिक्षा की बात कर रहा था तो मेरा ध्यान इस व्यापक शिक्षा पर ही था और इसके माध्यम से ही समाज में सन्देश जाता था कि हमें रामवत आचरण करना चाहिए, रावणवत नहीं!

– यहीं से मूल्यव्यवस्था में धार्मिकता का प्रवेश होता है और हम हिन्दू आदर्ष और मुस्लिम आदर्ष में मानवीय मूल्यों को बाँट कर एक दूसरे पर सन्दह करने लगते हैं और एक दूसरे को समझने से जानबूझ कर इन्कार करने लगते हैं।

– तुम ठीक कहते हो, पर असली प्रश्न जिससे हमने अपनी बात आरंभ की थी वह यह कि हम सोचते विचारते समय भी पूरे होश हवास से काम नहीं लेते। यदि लें तो बहुत सी गुत्थियां स्वतः समाप्त हो जायँ और इसका सीधा तरीका है हम अपने विचारों को भावनाओं से कुहाच्छन्न न होने दें जिससे समस्या के चरित्र को समझ सकें और उसका कोई समाधान भी खोज सकें!