Post – 2016-04-23

अंतहीन दुख

‘देखो, कल मैं तुम्हारी स्थिति देख कर चुप कर गया था, पर यह समझ लो कि रचनाकार के पास कोई ऐसा अधिकार नहीं होता जिससे दूसरों को वंचित रखा गया हो। हां, उसके पास एक चीज दूसरों से अधिक होती है। यह है कर्तव्य की चेतना, उत्तरदायित्व का बोझ! इसके निर्वाह की क्षमता से ही यह सिद्ध होता है कि उसकी हैसियत क्या है। इसे उलट कर भी कह सकते हैं, ज्यों-ज्यों सर्जक की हैसियत उूंची होती जाती है उसका दायित्व-बोध बढ़ता जाता है और इसके चलते वह स्वयं अपने अधिकारों का भी अधिक संयम से प्रयोग करता है मानो उसके पास अधिकार हों ही नहीं, कर्तव्‍य ही कर्तव्‍य हो। यही उसे सत्ता के लिए संघर्ष करने या सत्ता से जुड़ने वालों की, अपने ‘अधिकारों’ के विस्तार की विक्षिप्तता में अपने दायित्व को भूल चुके लोगों की तुलना में अधिक बड़ा बनाता है और इसी के कारण वह राजनीति से आगे मशाल लेकर चलने वाला पथप्रदर्शक होता है न कि उसके पीछे चलने वाली भिखारियों की टोली में से एक जो राजनीतिक पक्षधरता और राजनीति की गलाजत के चलते सांस्कृतिक अनाथों की स्थिति में पहुंच गया हे और इसके लिए जिम्मेजदार तुम हो। तुम्हें बताउूं कि अधिकारों की मांग भी भिखारियों का कशकोल लेकर चलने जैसा ही है, अन्यथा अधिकार मांगे नहीं जाते, न पिनक में जो सूझ गया उसे पाने के लिए हड़बोंग करने से पाए जाते हैं। उनकी रक्षा की जाती है और इसके लिए उन अवरोधों की सही पहचान जरूरी होती है और इसकी स्पष्ट मांग की जाती है और ऐसा संभव न होने पर ही इसे पाने के तरीकों की खोज करनी होती है।

‘तुम्हें तो वह नजारा याद भी न होगा, शायद देखा भी न हो, जब लोगों की नींद गली या सड़क से आने वाली ‘दे अल्ला के नाम तुझको मौला रक्खे’ की करुण ध्वननि से टूटती थी। संभव है तुमने देखा भी न हो, क्योंकि नेहरू ने देश का सिर उूंचा करने और दरिद्रता दूर करने के लिए भीख मांगने और देने काे अपराध बना दिया था और उसके बाद वह सांस्कृंतिक विरासत ही खत्म हो गई। मैंने उससे प्रभावकारी संगीत देखा ही नहीं जिसमें यह पता होता था कि यह खासी कमाई कर लेता है, इसके बाद भी लोगों का दिल पसीज जाता था, और वे उस कलात्मक आर्तध्वनि पर निछावर हो कर पैसा धेला उधर फेंक ही देते थे। यदि याद हो तो याद होगा कि यह एक युगलबन्दी हुआ करती थी। पता नहीं इसे युगलबन्दीे कहा जा सकता है या नहीं। वे दो का दल बना कर चलते। एक ठेलानुमा चौकी पर अपंग बन कर बैठा हुआ और आर्त स्वर में कहता, ‘दे अल्ला के नाम’ और दूसरा उसको ठेलता हुआ, लगभग थका हुआ, एक एक कदम अब-गिरा-कि-तब की अदायगी से बढ़ाता हुआ, थके ही नहीं मरे सुर में टेक लगाता हुआ, ‘तुझको मौला रक्खे। पर आवाज इतनी साफ कि बहरे को भी सुनाई दे जाय। ‘ लोग जानते हुए कि यह नाटक है, उसे देखने से बचने के लिए कुछ दे बैठते थे। मैंने इससे प्रभावशाली स्ट्रीट ड्रामा आज तक नहीं देखा, और नुक्कड़ नाटकों के अभिनेता उनके पांवों की धूल बराबर भी नहीं लगे।

‘मैं तुम्हारा ध्यान दो चीजों की ओर दिलाना चाहूँगा। मध्यकाल ने सामान्य जनों को अपनी लूट खसोट से यतीमों की जमात में तो बदल दिया परन्तु उसने यतीमी को उस कलात्मक उूंचाई पर भी पहुंचा दिया जिसमें लोगों का दिन कलादर्शन से आरंभ होता था और आंसू पोंछते समाप्त होता था। आज इस मुहावरे को कुछ बदल दिया गया है, दे अल्ला के नाम को बदल कर दे कल्‍ला के नाम कर दिया गया है और तुझको मौला रखे की जगह तुझको माल्या रखे, पर माल्या‍ को उसके प्रतीक में ग्रहण करो, पुरुष रूप् में नहीं। उस तरह जैसे एक जमाने में टाटा बिड़ला का अर्थ पूंजीवाद हुआ करता था जो आज अडानी और अंबानी हो गया है, मैं इसमें घालमेल तन्‍त्र को स्‍थान देते हुए माल्या को केन्द्रं में रखना चाहता हूं।‘

अब तक वह बिना किसी प्रतिवाद के सुनता रहा और सहसा प्रश्न कर बैठा, ‘कल रात नींद अच्छी तरह आई थी।’

इतने सारगर्भित भाषण के बाद उसके इस प्रश्न ने नीचे की जमीन ही खिसका दी।

इस उद्रेक बिन्दु पर जिसमें मैं स्वयं भी तर-ब-तर था इस प्रश्न की तुक न थी! मैंने हैरानी से देखा तो बोला, ‘कल जहां खत्म किया था आज वहीं से शुरू हो गए। रात में सपने भी इसी के देखते रहे होगे। कोई दूसरा विषय नहीं सूझता तुमको।‘

‘ऐसे हवालों से तुमको घबराहट होती है यह जानता तो था, पर सोचा ही नहीं। कल भी तुम रो पड़े थे, यह भूल गया था मुझे। पर मैं मजा लेने के लिए बात नहीं करता, बदमजगी पैदा न हो इसका ध्यान अवश्य रखता हूं। कल तुम्हें आंसू किस बात पर आ गए थे, बताओगे?‘

‘जब तुमने किसानों के महत्व की बात की तो मुझे सहसा आत्महत्या करने वाले किसानों की याद हो आई। फिर आज के सूखे की ओर ध्यान गया । फिर अपनी प्यास बुझाने के लिए बूंद बूंद पानी के लिए तरसते लोगों की कतार याद आई और अपने को उनकी स्थिति में रखने की कोशिश की तो लगा आंखों के आगे अंधेरा छा गया है। कुछ समय लगा यह समझने में कि आंखे डबडबा आई हैं इसलिए ऐसा लग रहा है फिर आंखें पोंछने लगा।‘

विचार भी भौतिक यथार्थ को बदल सकते हैं, अन्यथा उसके इस कथन के साथ मुझे गले में कुछ अटकता सा न लगता और फिर हृदय में वह हूक न अनुभव होती कि सांस लेना भारी पड़ जाता। इसके बाद न उसका साहस मुझे देखने का हो रहा था न मेरा उसे जैसे किसी न किसी रूप में हम भी इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। मौसम वसन्त का है, वृक्ष किशलयों से लदे चमक रहे थे पर उधर दृष्टि गई तो उन पर एक काली पर्त सी जमी दिखाई दी। आंखें शून्‍य में जा टिकी थीं। स्थिति असह्य हो गई तो मैंने कहा, ‘चलो एक चक्कर लगा लें।‘

वह बिना बोले ही उठ खड़ा हुआ। अपने सामान्य व्यवहार के विपरीत हम साथ चलते हुए भी चुपचाप चलते रहे और लौट कर बैठे तो भी कुछ समय तक अबोला रहा। फिर एक कराह की तरह मेरे मुंह से निकला, ‘हमने कमीनेपन को कमाल की उूंचाई पर पहुंचा दिया है।‘
उसे खटका तो, पर न आगे उसने कोई सवाल किया न मेरा कुछ कहने को जी हुआ।