लेखक भी आदमी होता है
‘जानते हो आज मैंने एक बहुत बड़ी खोज की। लेखक भी आदमी होता है।‘ मैंने उसे छेड़ने के लिए कहा।
आश्चर्य का अभिनय करते हुए उसने कहा, ‘इतनी ऐतिहासिक खोज तुमने कैसे कर डाली यार। मैं तो सोचता था इतनी उूंची खोज करने में तुम्हारी पूरी जिन्दगी लग जाएगी और तुम्हारे विरुद में तुम्हारे समाधि लेख पर यह पंक्ति लिखी होगी और उसके उूपर मोटे अक्षरो में लिखा होगा लाइफ एचीवमेंट ऑफ भगवान सिंह ! नथिंग मोर, नथिंग लेस। यार अंग्रेजी में एपिटाफ का रोब कुछ अधिक पड़ता है। मैं ध्यान रखूंगा लिखवाना तो मुझे ही पड़ेगा।’‘
वह हंसा तो उसके अट्टहास में, लाज बचाने के लिए, मैं भी शामिल हो गया!
हंसी थमी तो वह बोला, ‘मैं तो जमाने से कहता आ रहा हूं कि तुम कोई बात सलीके से रख ही नहीं सकते! यदि मुझे कहना होता तो कहता, ‘लेखक दूसरे आदमियों से कुछ अधिक आदमी होता है और आदमीयत की यह अधिकता ही उसके भीतर दबाव डालती है तो उसकी अभिव्यक्ति कला का रूप ले लेती है और वह कलाकार बन जाता है।‘
बात यह भी पते की थी, दाद देने की लाचारी थी, बोला ‘साल में एक बार तुम भी इतनी पते की बात कह जाते हो कि मैं चकित रह जाता हूं कि पत्थर में यह फूल कैसे खिल उठा! खैर उससे अगली खोज यह कि छोटा लेखक अपने को समाज से बड़ा समझता है और बड़ा लेखक अपने को समाज से छोटा समझता है।‘
‘’यह उतनी मूर्खतापूर्ण् बात तो न हुई फिर भी इसका रहस्य क्या है?’
’गलती हमारे पुरखों की है। उन्हों ने कहा तो कुछ सोच कर ही होगा, क्योंकि कवि का उनका अर्थ था तत्वदर्शी, लेकिन अपने जीवन की पहली तुकबन्दी करते ही, यदि संस्कृत का ज्ञान न हुआ तो भी, पहला आभास जो किसी तुक्कड़ को होता है वह यह कि तुक का बैठ जाना कविता है और तुक बैठाने वाला कवि और फिर तो उसके कानों में ‘कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू’ का संगीत गूंजने लगता है।
‘तुम्हें एक मजेदार आपबीती सुनाउूं।‘
वह उत्सुकता में मेरी ओर मुड़ गया।
’मैं दूसरी कक्षा में पहुँचा तो या उससे पहले ही एक तुकबन्दीु कर बैठा। अब तो इतना ही याद है कि दूसरी कक्षा में मुझे दो साल लगाने पड़े थे और उसका कुछ संबंध इस तुकबंदी से है। इसकी पहली पंक्ति रामनेति नामक एक प्रतिभाशाली छात्र की थी। वह उस समय मिडल स्कल की सातवीं कक्षा का छात्र था। बड़े भाई साहब ने उसकी तारीफ यह बताते हुए की कि इसकी तारीफ उसके हेडमास्टर रामसुरंजन सिंह ने स्वयं की थी। पंक्ति थी ‘अर्जुन के हाथ में था धनुष बाण किसी दिन’ आगे की पंक्तियां क्या थीं यह याद नहीं। अपनी तुकबन्दी में आगे की पंक्तियां मैने चुुपके से जोड़ीं,
‘मारा था भीष्म बीर काे दस बाण किसी दिन।
अर्जुन का प्यारा लड़का अभिमन्यु किसी दिन।
रण में मरा था बालक वह बीर किसी दिन।
और जब मैंने इसे झिझकते हुए लोगों को सुनाया तो बात फैल गई और मैं चुपके चुपके इस बात का कायल हो गया कि परमात्मा ने मुझे कवि बनाया है। यह विश्वास पक्का तब हुआ जब उसी साल स्कूल जाते समय रास्ते में पड़ने वाले एक बरसाती नाले में मैं फिसल कर गिर गया और सराबोर हो कर वापस लौट आया, पर किसी से यह कहने का साहस नहीं कि मेरे साथ क्या दुर्घटना घटी है। विमाता से सहानुभूति की आशा न थी, और बाबा से कहने का साहस इसलिए नहीं कि उस दिन बहन के यहॉं बहुरावत भेजने के लिए मिठाइयां बन रही थीं जिसके लिए दो हलवाई नियुक्त थे। संकोच यह कि कहीं बाबा यह न समझ लें कि मैं मिठाई के लोभ में अपने को जान बूझ कर भिगो कर लौट आया हूँ। बात आत्मसम्मांन की थी इसलिए दासे पर एक कोने में चुपचाप बैठा प्रतीक्षा करता रहा कि कपड़ा सूख जाय और बरसाती हवा का कमाल कि मै बीमार पड़ा तो महीनों के लिए। यदि यह मियादी बुखार था तो कई मियादी बुखारों के बराबर, पर दवा के नाम पर तुलसी का काढ़ा, नीम की ढेंपी का काढ़ा। वैद्यनाथ की जूड़ी ताप शीशियां। विस्तर से उठ नहीं पाता था। बुखार उतरा तब तक शरीर अस्थिशेष रह गया था, पेट बाहर को फूल आया था, बाल झड़ गए थे और रात में आंखों से कुछ दीखता नहीं था।‘
’यह पवांरा ले कर क्यों बैठ गए तुम?’
‘यह बताने के लिए कि जब सभी लोग इस बात से निराश हो चुके थे कि मैं बचूंगा भी या नहीं, मैं बिस्तहर पर लेटा सोचता, ‘मैं मर नहीं सकता। यदि मारना ही होता तो परमात्मां ने मुझे कवि न बनाया होता।‘
‘वह तो ठीक है, पर इसकी यहां क्योंं जरूरत पड़ गई?’
‘यह बताने के लिए कि जब कोई साहित्यकार, पत्रकार, चित्रकार, यह याद दिलाता है कि वह दूसरे लोगों से उूपर है, उसकी जान अधिक कीमती है, दूसरे सभी यातना भोगते रहे, उसके सुख सुविधा का ध्यान रखा जाना चाहिए, तो मुझे लगता है बौद्धिक के रूप में वह बालिश रह गया है। उसकी मानवीय संवेदना समाप्त हो गई है। वह केवल अपने बारे में सोचता है, समाज के बारे में नहीं। ऐसे रचनाकार अपनों के अपने हैं, किसी और के अपने नहीं। वे यह तक नहीं जानते कि कविता के बिना भी समाज जीवित रह सकता है पर अनाज के बिना नहीं और उनकी महिमा उस अगण्य के से आती है जो खुद तो धूप और शीत की मार खाता है और दुनिया को रोटी खिलाता है।‘ मुझे अपनी रौ में यह ध्यान ही न रहा कि वह अपनी आंखें पोंछ रहा है।