खाद की खेती करने वाले
तुम्हें सारे ठीकरे कम्युनिस्टों के सिर ही फोड़ने होते हैं।’
‘तुम अपने सिर की हिफाजत के लिए ठीकरे फोड़ने का नाम ले रहे हो, मेरा वश चले तो पत्थर फोड़ू और वो भी इतने बड़े जो मुझसे उठ न पाएंगे। कम्बख्तों ने देश और समाज का सत्यानाश करके रख दिया। कम्यु़निस्ट कहने से कोई कम्युनिस्ट हो जाता है। दुनिया में कहीं कम्युानिज्म स्थापित नहीं हुआ और यह जानते हुए जो ढकोसलेबाज अपने को कम्युनिसट कहते हैं वे गेरुआ पहन कर अपने को योगी, साधु, साध्वी , सन्यासी, संत कहने वाले कुकर्मियों से किस माने में अच्छे हैं? न रामनामी पहनने से कोई रामभक्त हो जाता है न मार्क्सनामी ओढ़ने से मार्क्सवादी। नाम नहीं, आचरण और गुण ही यह सिद्ध करते हैं कि कोई क्या है। तुम्हे कितने प्रमाण चाहिए यह स्वीकार करने के लिए कि भारत में कम्युनिस्ट का मतलब मुस्लिम लीग की आत्मा, मानवतावादी मुखौटा और असंभव को संभव मानने और उस पर अपार राष्ट्रीय संसाधनों को बर्वाद करने वाला देशद्रोह होता है?‘
उसने जोरदार ठहाका लगाया, ‘फिर से कहना! फिर से कहना तो! अरे भई, इतने लंबे साथ के बाद भी मैं तो यह समझ ही नहीं पाया था कि तुम इतने प्रबल मूर्ख हो। अपने को मार्क्सवादी कहते हो, अब समझ में आया, दावे में कुछ नहीं रखा है। मार्क्सवाद एक दर्शन है, उसमें नादानों को घुसने की इजाजत नहीं है। नादानों का स्वाागत उनके यहां होता है जो सांस्कृ्तिक राष्ट्रवाद के जनक हैं और जो अबोध वय में ही बच्चों को झूठे बहानों से अपनी वाहिनी में भर्ती करके उनके दिमाग की धुलाई करने लगते हैं और सांस्कृतिक विस्फोटको में बदल देते हैं।‘
‘दुख होता है, यह सोच कर कि तुम जिन शब्दोंं का इस्तेमाल करते हो, उनको ईंट पत्थर मान कर किसी न किसी पर फेंकने का काम ही लेते हो। उनकी बनावट और आशय समझने की चिन्ता नहीं करते। तुमने ठीक कहा कि संघ में अबोध अवस्था में ही बच्चों को भरती करने की सूझ किसी तत्वदर्शी के मन में पैदा हुई थी। परन्तु वह उन्हें आत्मरक्षा के लिए प्रशिक्षित करना चाहता था जैसे आज कल सामाजिक अभद्रता के शिकार लड़कों और विशेषत- लड़कियों को आत्मरक्षा के लिए प्रशिक्षित किया जाने लगा है। वह उनमें सहभागिता और आत्मविश्वास पैदा करना चाहता था। जिनको तुमने स्वयं अबोध कहा, जिनके मस्तिष्क में कुछ है ही नहीं, उनकी धुलाई की जरूरत क्यों पड़ेगी? ब्रेनवाशिंग की जरूरत वहां पड़ती है जहां किसी विचार या उसके किसी इतर आकर्षक पक्ष से आकर्षित हो कर सुपठित लोग किसी संस्था में जाते हैं, उन्हें नया धर्म, विचारधारा, विश्वासधारा और यहां तक कि विनाशधारा कहो तो मुझे आपत्ति न होगी, क्योंंकि, अन्ततोगत्वा वे होती विनाशधाराएं ही हैं, जो सांस्कृरतिक आत्महत्या के लिए प्रोत्साहित और विवश करती हैं। दिमागी धुलाई की इनकी शर्तों पर ध्याेन दो:
1. पहले से जो जानते थे उसे मिटा दो;
2. जो तुम्हारे विश्वासबन्धु नहीं हैं उनको मिटा दो;
3. जो ज्ञान तुम्हारे विचारस्रोत से अनमेल हो उसे मिटा हो।
4. जिस ज्ञान से हमारी सिखाई बातों के निष्प्रभाव होने का खतरा हो उन्हें पढ़ो ही नहीं और इतना गर्हित बना दो कि उनकी ओर मुड़ने से लोग कतरायें।
और जो मॉग नहीं की जाती है, न बताई जाती है, वह यह कि:
5. नादानो, जब इतनी चीजों को मिटा ही चुके हो तो तुम्हें जीने का क्या अधिकार है, अपनी हस्ती को भी मिटा दो तब तुम्हें मर्तबा मिलेगा। और जानते हो, जादू इस तरह काम करता है कि लोग मर्तबा पाने के लिए अपनी हस्ती तक को मिटाने को तैयार हो जाते हैं पर यह नहीं जानते कि वह मर्तबा है क्या जो उस दुर्लभ अवसर को हमसे छीन लेता है जो किसी रहस्यजमय संयोग से हमें जीने, आनन्द लेने, और यदि समाज में कुछ बुराइयॉ हैं तो उन्हें मिटाने या कम करने का अवसर देती है।
‘जानते हो अपने जीवन को नकारने, अपने को अपमानित करने, अपने से घृणा करने पर गर्व करने की प्रवृत्ति का जातीय नाम क्या है ?’
उसे तो इसकी उम्मीद ही न थी। मेरा प्रतिवाद करने के लिए जिस तैयारी के साथ आया था उसके असले बेकार जा रहे थे। बेचारगी में बोला, ‘तुम्हीं बताओ।‘
‘सामी मत। और जैसा कि मैंने कहा था, सामी मतों का मूल भी, धर्मान्तरित करने वाले तन्त्र का जन्मस्थान भी, भारत ही है। कोसंबी ने ठीक ही कहा था कि बौद्ध धर्म धर्मान्तारण कराने वाला पहला धर्म था, पर यह नहीं समझाया था कि बौद्धमत ने सबसे पहले धर्म के उस वैज्ञानिक अर्थ को संकुचित करते हुए अपने को सही सिद्ध करने या मान्य बनाने के लिए प्रयोग किया और सत्य की दुहाई देने वाले इस मत का आरंभ ही धूर्तता से हुआ। तुम जानते हो न कि बौद्ध मत में भी बुद्ध की उत्पत्ति से पहले का इतिहास उनके पूर्वजन्मों तक सीमित है, शेष इतिहास लुप्त है। दूसरे विचार और विश्वास उस सीमा तक ही इतिहास में जगह पाते हैं जिनसे बौद्धमत की श्रेष्ठता प्रमाणित हो। बौद्धमत और उसका अनुकरण करने वाले सामी मतों में अन्तर केवल यह है कि बौद्धमत में विचार के लिए जगह है, सामी मतों में इसके लिए जगह नहीं है। वे सभी अन्तिम सत्य पर पहुँचे हुए विश्वास है जिनमें तर्क, विमर्श या आत्मनिरीक्षण से परहेज किया जाता है। भारतीय कम्युनिज्म एक मजहब है, उसमें ये सभी लक्षण पाए जाते हैं। मार्क्सवाद एक दर्शन है, दर्शन होने के कारण ही उसमें भी विचार के लिए स्थान है, जब कि कम्युनिज्म सबसे नया सामी मत है और उसका अन्य सामी मतों से जो भी विरोध हो उसके सबसे बड़े शत्रु गैरसामी मत ही हैं और इसी तर्क से भारतीय कम्युनिज्म एक मजहब है समीक्षा से परे है। इसके सपनों से आकर्षित हो कर लोग इसके पास आते हैं और एक बार फंस जाने के बाद न उनके अपने सपने रह जाते है न ही अपने मंसूबे। सभी बलिपशु की तरह काम करते हैं और बलिपशु बनने के गौरव पर मंत्रमुग्ध रहते हैं।‘
वह कुछ नर्वस हो रहा था। नर्वसनेस की उस अवस्थ में पहुंचा लग रहा था जहां बेहोश होने की नौबत आ जाती है। मैंने उसकी सहायता के लिए उससे शिकायत की, ‘हम तो लेखकीय आचार संहिता पर बात करना चाहते थे। तुमने अंधी गली में उतार दिया। आज का दिन तो व्यर्थ गया ही।‘
व्यर्थ कुछ नहीं जाता मेरे दोस्त। सड़ी चीजें भी खाद बन कर फूलों के रूप में खिलती है। सड़े विचार भी अपनी सड़ांध से बचने के लिए नई चिन्ताधाराओं और विचारधाराओं को जन्मे देते है।जैसे तुम्हारी सड़ी गली मान्यताओं की खाद से कम्युृनिज्म ने जन्म लिया।‘
‘और उसने तुम्हें आदमी से खाद में बदल दिया।”’