Post – 2016-04-20

रचनाकार का मोर्चा

‘कलबुर्गी के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? क्या तुम उन्हें शहीद नहीं मानते। कल तुम जिस तरह बात कर रहे थे उससे लगा तुम उनके बारे में उूंचा खयाल नहीं रखते, या कहें, तुम्हारी राय उनके बारे में अच्छी नहीं है।‘

‘तुम्हारे बारे में राय खराब है तो इसका मतलब यह तो नहीं हो जाता कि तुम जिस किसी का नाम लो उसके बारे में मेरी राय खराब हो जाएगी। कलबुर्गी लेखक कैसे थे यह मैं नहीं जानता। मुझे कन्नड नाममात्र को आती है जिससे मैं अखबार की खबर का एक पैरा भी पूरे एक दिन में समझ पाता हूं, आधा अंदाज से और आधा कुछ जाने हुए शब्दों के सहारे, इसलिए मूल में उनका वह उपन्या‍स पढ़ नहीं सका जिस पर उन्हें पुरस्कृ्त किया गया था और इस हंगामे में यह तक पता नहीं कर सका कि उसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो चुका है या नहीं।

‘मैं केवल यह कह रहा था कि मृत व्यक्तियों के प्रति सम्मान की हमारी एक लंबी परंपरा है। सामने से गुजरते हुए मुर्दे की जात-धरम पूछे बिना लोग उसे नमस्कार करते रहे हैं। मृत व्यंक्ति के साथ कल्पना से या अपनी जरूरत से कोई कहानी गढ़ कर उसे बड़ा, छोटा या अपने लिए उपयोगी नहीं बनाया जाना चाहिए। वह अपना बचाव नहीं कर सकता, इसलिए उस पर ऐसा अभियोग नहीं लगाया जाना चाहिए जिसका पक्का आधार न हो। ये निष्ठुरता के विविध रूप हैं, परन्तु हाल के दिनों में यही किया जाने लगा है, या कहें, एक खास सोच के लोगों द्वारा, जिनके अध्ययन, ज्ञान और लेखन को देखते हुए उन्हें मूर्ख भी नहीं कहा जा सकता, कुछ पहले से यही किया जाता रहा है, क्योंकि यह चर्चा में आने का छोटा रास्ता रहा है। हाल के दिनों में किसी प्रयोजन से जुड़े व्यक्तियों की लाश को मानवीय बम बनाने के लगातार प्रयत्न हो रहे हैं। मेरी आपत्ति मात्र इससे थी और आज भी है। और तुमसे तो खास तौर से कि मेरे संपर्क में आने के बाद भी तुम दादुर संस्कति से बाहर निकल ही नहीं पाते।

वह मुस्‍कराकर रह गया। कुछ बोला नहीं।

‘कलबुर्गी लेखक किस स्तर के थे, यह निर्णय करना मेरे लिए असंभव है, परन्तु जब तुम तर्कवादी विशेषण लगा कर उनका नाम लेते हो तो उनका अपमान तुम करते हो। तर्कवादी का अर्थ होता है कुतर्कवादी, क्योंकि तर्क सत् तक पहुँचने का माध्यम है, साध्य नहीं, अत: तत्वदर्शी, सत्यान्वेषी, मीमांसक जैसा कोई विशेषण भी उनके कद को छोटा ही करता, पर विशेषण उसका ही विलोम करने की छूट नहीं देता। लेखन और कथन लेखक और वक्ता की सही औकात को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है। जहां विशेष्य (उपमेय) उपस्थित हो या जहां उसकी कृति उपलब्ध हो, विशेषण का प्रयोग उसका और पाठकों का अपमान है। इसका यह मतलब नहीं कि लेखन में तार्किकता का अभाव होना एक गुण है।

‘कलबुर्गी के बारे में जो कुछ मुझे पता है वह स्वत: नितान्त सज्जन और अपने विचारों पर दृढ़ रहने वाले व्यक्ति थे, कुछ कुछ गैलीलियो से प्रेरित जिसने कोपरनिकस की इस मान्य ता को सही ठहराते हुए इतालवी में किताब लिखी कि धरती ब्रह्मांड का केन्द्र नहीं है और यह सूर्य की परिक्रमा करती है, परन्तु जब इस पर अरस्तूवादियों ने आपत्ति की (कुछ लोग मानते हैं कि आपत्ति प्रोटैस्टेंटो ने की थी) और इस पर प्रतिबन्ध लगाने की बात की, तो वह स्वयं पोप को समझाने वेटिकन में पहुँच गए और जब पोप ने उनसे आगे ऐसी बात न करने का आदेश दिया तो जान बचाने के लिए वह इस पर राजी हो गए। फिर उसी पोप ने सलाह दी कि वह एक ऐसी पुस्तक लिखें जिसमें अरस्तूवादियों से कोपरनिकस का तुलनात्मक अध्ययन हो परन्तु सही अरस्तूवादियों को ठहराया जाय। गैलीलियो ने प्राणरक्षा के लिए यह आदेश मंजूर कर लिया। यह पुस्तक इतनी कलात्मक तन्‍मयता से लिखी कि पोप की इन्विजिशन कमेटी ने भी इसे पास कर दिया, पर जब पता चला कि इससे तो कोपरनिकस के विचारों का प्रचार हो रहा है तो फिर वेटिकन में हंगामा मच गया। उनसे कोपरनिकस की भर्त्सना करने को कहा गया तो जान बचाने के लिए इसके लिए भी तैयार हो गए। जान तो बची और सजा भी कम कर दी गई। उन्हें उनके घर में ही आजीवन कैद का दंड दिया गया। उस बन्दी अवस्था में उन्होंने एक दूसरी किताब लिखी और इसे चुपके से हालैंड के एक प्रकाशक के पास भेजने की जुगत निकाल ही ली और इसके प्रकाशन ने भौतिकी के विषय में यूरोपीय वैज्ञानिकों की सोच ही बदल दी और उनके दबाव में वेटिकन भी आ गया। परन्तु यह सब हो सका क्योंकि कोपरनिकस के कैथोलिको से अच्छे संबंध थे। गैलीलियों के तो मित्र ही पोप बन गए थे। परन्तु गोर्डिनो ब्रूनो जो एक दार्शनिक था, अनीश्वरवादी था, कोपरनिकस के उसी सिद्धान्त के बखान के लिए र्इसा से भी अधिक यातना से गुजरा। सन् 1600 में उसे सलीब से बांध कर जिन्दा जला दिया गया जब कि उन्हीं विचारों का प्रतिपादन करने वाली कोपरनिकस की पुस्तक उससे सोलह साल बाद प्रतिबन्धित हुई क्योंकि जैसा कह आए हैं, कोपरनिकस के संबंध भी चर्च से अच्छे थे और इस सोच से अलग वह पक्के कैथोलिक थे।

‘जो मामूली जानकारी मुझे सुलभ साधनों से मिली है उसके अनुसार कलबुर्गी ने वीरशैव मत के संस्थापक, बासव, उनकी पत्नी और बहन के बारे में कुछ अशोभन तथ्यों को उजागर किया था । उनके ये विचार मार्ग में प्रकाशित हुए थे जिनमें बासवेश्वर की दूसरी पत्नीं नीलंबिके के लिखे वचनों की छानबीन के आधार पर उन्होंने दावा किया था कि अपने पति से उनका शारीरिक संबन्ध न था। इसके बाद में उन्हों ने एक दूसरे लेख में वीरशैव संप्रदाय के एक दूसरे कवि चन्निबासव के विषय में लिखा कि बासव की बहन नागमल्लिके का विवाह एक मोची से हुआ था जिससे वह पैदा हुए थेा। इससे लिंगायत संप्रदाय के लोग आहत हुए थे और लिंगायत मन्दिर के प्रधान ने उनको 1989 में बुला कर आपत्तिजनक अंशों को निकाल देने को कहा तो उन लेखों को उन्होंने अपनी पुस्तक से निकाल दिया था।

‘इन्हें निकालने के बाद उन्होंने किसी अवसर पर कहा था कि उन्होंने अपनी जान और परिवार की रक्षा की चिंता से कातर हो कर ऐसा किया था ‘पर ऐसा करके मैंने बौद्धिक आत्महत्या कर ली थी।‘

‘1914 में बंगलूर में एक संगोष्ठीं में अन्धविश्वास निवारण बिल के औचित्य पर बोलते हुए उन्होंने यू आर अनन्तमूर्ति की 1996 में प्रकाशित पुस्तक नग्न-पूजन क्यों गलत है इसके लिए उनके द्वारा अपने बचपन के अनुभव का हवाला दिया था जिसमें उन्होंने एक प्रतिमा पर यह जांचने के लिए पेशाब कर दिया था कि देखें देवता इस पर नाराज होते हैं या नहीं और इसके बाद, कहते हैं, दक्षिणपन्थी संगठनों के लोगों ने दोनों लेखको को धमकाया था। संभवत: यही वह पृष्ठभूमि थी जिससे आतंकित अनुभव करते हुए यू आर अनन्तमूर्ति ने अपना वह बयान दिया था कि यदि मोदी के हाथ में सत्ता आई तो वह इस देश में नहीं रहेंगे। इससे पहले भी कलबुर्गी को जान की धमकी मिली थी और उन्होंने राज्य से सुरक्षा की मांग की थी और उन्हें कुछ देर से ही सही, विशेष संरक्षण दिया गया था, जिसके झमेले के कारण उन्होने अगस्त 2015 में सुरक्षा हटा लेने का अनुरोध किया था और सुरक्षा हटा ली गई थी।

उनकी हत्या एक कृतघ्नतापूर्ण, कायरतापूर्ण और अक्षम्य घटना थी, परन्तु अपराधियों को नैतिकता की कसौटी पर तोलने का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि यह उनके परिचित कोश और मूल्य प्रणाली में आता ही नहीं।

एक दृढ़निश्चयी व्‍यक्ति के रूप में कलबुर्गी के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान है ,परन्‍तु उनके लिए नहीं जो उन्‍हें मानवबम बनाने केलिए इन तथ्‍यों को छिपा कर आगजनी करते हैं। वह अपनी समझ से एक सामाजिक विकृति से लड़ रहे थे पर अपने औजारों से नहीं लड़ रहे थे। अपने मोर्चे से हट कर दूसरों के मोर्चे पर खड़े थे जहां पवित्रता के लिए जगह नहीं होती और इसलिए उनको शूर मान सकता हूँ योद्धा नहीं। शूर ही मानव बम बन कर अपने को और अपने जैसे ही अनगिनत लोगों को मिटाते हैं, परन्तु उपद्रव या क्षणिक सफलता से आगे नहीं बढ़ पाते।

मुझे पक्का पता नहीं, पर लगता है कलबुर्गी कम्युनिस्टों के संपर्क में आ गए थे जिनके लिए पुराने लक्ष्य की प्राप्ति अब सपना रह गई है इसलिए किसी तरह की उत्तेजना पैदा करना, अशान्ति पैदा करना ही उनके लिए क्रान्ति का पर्याय बन गया है। गैलीलियो जानता था कि एक ध्येय को प्राप्त करने के लिए क्या तरीके अपनाए जा सकते है़। कलबुर्गी को पता रहा होगा, पर कम्युनिस्टों के संपर्क में आने के बाद यथार्थ हवा और हवा जमीन हो जाती है। बेचारे को दूसरों के भड़कावे में आने का कुफल भोगना पड़ा।‘

’क्या यह अच्छा न होगा कि हम इस पर कल बात करें।‘

मैं तुरत राजी हो गया क्याेंकि आगे क्या कहना है यह सूझ मुझे भी नहीं रहा था।