Post – 2016-04-19

कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है (2)

‘तुमने तो मेरे मुंह की बात छीन ली यार। हम तो तुम्हें निरा गावदी समझते थे। हैरानी तो इस बात पर है कि इन्हीं विकृतियों के कारण, इसी पाखंड के कारण तो हम हिन्दु त्ववादियों का विरोध करते हैं, तो तुम्हेंं बुरा लगता है। तुम्हारे दिमाग को सही होने में इतना समय लगा। चलो, देर से ही सही, सही मुकाम पर तो आए। ये लोग तो इतने अहमक हैं कि सही राह दिखाने के अपराध में ही बेचारे तर्कवादीकलबुर्गी को जान से जाना पड़ा।‘

‘तुम पढ़े लिखे गधे हो, और यह तक नहीं जानते कि तुम किसकी गुलामी कर रहे हो। तुम्हेंं धन, मान, यश किसी भी चारे से फंसा कर, तुम्हा रा इस्तेेमाल किया जा सकता है और किया जाता रहा है और तुम्हारी समझ का यह हाल कि तुम इस जाल को देख भी नहीं पाते, अपनी नासमझी पर शर्मिन्दा होने की जगह उल्टें गर्व करते हुए इसका दिखावा भी करते।

तुमने बात शुरू की सच और गलत से, मैंने गलत के पीछे काम करने वाली सीमाओं के उदाहरण दिए तो हिन्दुत्व पर आ गए और इसी में कलबुर्गी को घुसेड़ कर ईर घाट से वीर घाट की ओर रवाना हो गए और आरोप लगाते हो कि विषयान्त‍र मेरे कारण होता है।

देखो जब किसी समस्या पर विचार हो रहा हो तो संवेदनशील उदाहरणों को बीच में नहीं लाना चाहिए इससे उसका तार्किक पक्ष कमजोर पड़ जाता है और भावुकता हावी हो जाती है और उसमें सहमति-असहमति के पूर्वनिर्मित खेम पूरी धमक से बीच में आ जाते है जिसमें तर्क काम करना बन्द कर देता है। दूसरे को गलत होने का प्रमाण दे कर भी तुम गलत नहीं सिद्ध कर सकते इसलिए एक दूसरे का सर फोड़ कर लहू लुहान भले हो जाओ, किसी का कोई लाभ नहीं होता। यदि किसी व्य वह यह क्ति की हत्या का प्रश्न हो और तुम उसकी मूर्खता या भूल को बताने चलो तो सबसे पहले जो बात सुनने वाले को खटकती है वह यह कि तुम भी उसकी हत्या करने वालों या कराने वालों में शामिल हो, या कम से कम उन्हें बेकसूर मानते हो। बहुत कठिन हो जाता है आपकी जिद से आपको विचलित कर पाना, आप समझने के लिए बात नहीं कर रहे होते हैं, अपनी बात मनवाने के लिए दबाव डाल रहे होते हैं और वह दबाव यदि अनैतिक हो तो भी उसे अनैतिक तक मानने को तैयार नहीं होते। कलबुर्गी के मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए ही मैंने कहा था कि इस पर हम बाद में बात करेंगे। इससे पहले इससे जुड़े दुसरे पहलुओं की पड़ताल करेंगे। और यदि समझ सको तो हम लगातार यही करते भी रहे हैं। फिर भी, यदि तुमने उसको भी घसीट ही लिया तो उस पर ही सही।

‘यदि मैं कहूँ कलबुर्गी की हत्या के प्रश्न को देश, काल, सन्दर्भ और औचित्य से काट कर पेश करने वाले हंगामा करने वाले धूर्त लोग हैं और धूर्तता को कला की कसौटी समझते हैं, तो इसे मानोगे ?’

’तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया?’

’मैं जानता था, तुम ऐसा ही कोई उत्तर दोगे? यह बताओ तुमने कभी शतरंज का खेल देखा है?’

’शतरंज मेरा प्रिय खेल है, यह तुम जानते हो।‘

’जानता हूँ और तुमसे यह भी छिपा नहीं है कि मैं इस खेल से घबराता हूँ, क्योंकि इसमें सभी गोटें अपनी अपनी चाल चलती हैं, एक पर दूसरे का नियम लागू नहीं होता। जाहिर है खेल नहीं जानता परन्तु यह जानता हूं कि यदि कोई अगले खिलाड़ी की आंख में धूल झोंक कर उसकी गोट इधर उधर सरका दे तो नतीजा क्या होगा। जिसको ऐसी घटिया तरकीब अपनानी पड़ी वह लगभग हारा हुआ था। अपने को बचा नहीं सकता था। पर अब पर जीत उसी की होगी। अर्थात् यहां का वहां कर देना और इसके बाद जो मर रहा था उसे बचाना और जो बचा हुआ था उसे मारने जैसा हुआ। व्यक्ति को वहां रख दो, क्योंकि होते तो वे विभिन्न हैसियतों वाले इन्सानों के ही प्रतीक, तो बचने वाले को मारना, मरने वाले को बचाना हुआ। अपराध के सिरे से अपराधी को बचाना और एक निर्दोष व्यक्ति को अपराधी करार देना हुआ। शतरंज के खिलाड़ी हो तो इतनी बात तो मानोगे ही।’

वह उलझन में पड़ गया। असहमत होना संभव न था इसलिए अनमने स्वर में बोला, ‘चलो मान लिया।‘

‘जो बात व्य़क्ति के साथ हुई वही किसी दल, संस्था , देश, समाज या सभ्यता के साथ भी हो सकती है। यानी, इनके बीच एक के कारनामे संचार माध्यमों और विचार माध्यमों को धूल झोंकने के काम पर नियुक्त करके बड़े पैमाने पर भी हो सकते हैं। स्था‍न की हेर फेर जैसे ही परिणाम कालगत हेरफेर से भी हो सकते हैं।‘

वह एक क्षण को ठिठका, फिर कुछ और आजिज आए स्वर में कहा, ‘हो सकता है यार, तुम्हारा सिद्धान्त निरूपण सिर माथे, इसके आगे भी तो बढ़ो।‘

बताओ ‘कलबुर्गी की हत्या कहॉं हुई थी, वहां का शासन किसके हाथ में था? वहां की कानून व्यवस्था के लिए कौन उत्तरदायी था? ‘

‘तुम जानते हो।‘

’जानता हूं, पर तुम इसे छिपाते हो इसलिए तुमसे कबूल करवाना चाहता था।‘

वह झुंझलाया तो, पर चुप रहा।

मैंने कहा, ‘चलो, इसका उत्तर देने में तुम्हें असुविधा हो रही है। इसे छोड़ देते है। पर यह बताओ जिस प्रशासन में दाभोलकर और पनसारे मारे गए थे वह किसका था? उस समय वहां की कानून व्यवस्था के लिए कौन जिम्मेरदार था?’

अभी कुछ और सवाल हैं। आज कल पुरस्कारों की भीड़ लगी हुई है। इस हद तक कि पुरस्कृत होना गले में तौक लटकाने के समान हो गया है। पुरस्कार तो चार पांच मुझे भी मिले पर मेरे परिचय में कहीं उसे स्थान नहीं मिलेगा। फिर भी क्या रचना को जिन भी कारणों और बाध्यताओं के तहत पुरस्कृ त किया जाता है, उनमें यह व्यक्त या निहित रूप में प्रतिश्रुत होता है कि हम इस नायाब लेखक के किसी भी लेख या विचार की जिम्मेदारी लेते हैं और उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी मेरी है। मैं नहीं जानता नोबेल समिति ऐसा करती है या नहीं, कोई और ऐसा करता है या नहीं, और लेखक पर आगे जो भी बीते उसके लिए कार्रवाई करने का दायित्व उस पर आता है या नहीं, तुम अधिक जानते हो। इतना तो बता ही सकते हो।‘

वह चुप रहा।

‘लगता है तुम भी सहमत हो कि कानून और व्यवस्था पुरस्कार देने वाली संस्थाओं के अधिकार में नहीं है और हो भी तो लेखक के सभी विचारों और कारनामों की जिम्मेदारी पुरस्‍कार देने वाले नहीं लेते। यदि तुम इससे सहमत नहीं हो तो साफ बता देना।

अब उसके लिए बैठना भी मुहाल हो गया। उसने घोषणा कर दी, ‘मैं जा रहा हूँ।‘ वह उठ रहा था कि मैने उसका हाथ पकड़ कर बैठा लिया, ‘देखो, उधर, उस बेंच पर बैठे कुछ लोग हमारी ओर ही देख रहे थे। उनको हमारे शब्द सुनाई पड़े हों या नहीं, चेहरे की रंगत हो सकता है दिखाई पड़ रही हो। तुम उठ कर जाओगे तो वे सोचेंगे, ‘हार कर जा रहा है।‘ मैं तुम्हारी इज्जत बचाने के लिए कुछ देर बैठे रहने की और अपनी मुख मुद्रा सही करने की सलाह देता हूँ।‘

वह बैठ गया।

मैंने कहा, ‘सब कुछ स्वाभाविक लगे इसलिए इस बीच हम कुछ सोचते विचारते भी रहें तो अच्छा रहेगा।’

वह बैठ तो शान्ति से गया, पर मेरे प्रश्ने की अनसुनी कर दी।

’अब हम यदि एक निरपेक्ष और नि:संग चिन्तक की तरह उपलब्ध सूचनाओं और आंकड़ों का विश्ले षण करते हुए किसी नतीजे पर पहुंचना चाहें तो, इसके निम्न फलागम निकलते हैं:
1. कांग्रेस शासन में बुद्धिजीवियों का संकट बढ़ जाता है और इसके लिए आपात काल का होना या न होना भी माने नहीं रखता।
2. बुद्धिजीवी उस शासन में इतना डरा रहता है कि वह मारा जाता है तब भी कानून व्यवस्था को उत्तरदायी कहने का साहस नहीं जुटा पाता है।
3. चालाक बुद्धिजीवी सत्ता के भय, प्रलोभन या या सुविधाओं की तलाश में उसे आश्रयदाता मान लेते हैं और अपना स्वत्व और स्वााभिमान बेच कर अवसर का उपयोग और अहंकार का प्रदर्शन करते हैं।
4. तुम जिनको कलाकार, साहित्ययकार, विचारक मान कर उनकी संख्या गिनने लगते हो, वे जरखरीदों की जमात का हिस्सा बन चुके होते हैं। अपने गोत को बढ़ते देख गर्व भी अनुभव करते हैं, परन्तु उनके बारे में पता लगा कर बताओ कि क्या उनमें कोई ऐसा भी है जो सीधी या उल्टीे नाक पकड़ने की कवायद करते हुए कांग्रेस का टुकड़खोर नहीं बन गया था। कुछ तो होंगे ही, मैं केवल उनका नाम जानना चाहता हूँ।

वह भड़क उठा। तुम मुझे टुकड़खोर कह रहे हो ? मैं मैं’ वह आवेश में इतना असंतुलित हो गया कि मैं-मैं में-में के रूप में सुनाई देने लगा और वाक्य पूरा ही न हो पाया।

मैंने उसकी मदद करनी चाही, ‘मुहावरे कुछ खुरदरे होते हैं, और सच कहो तो खुरदरी जिन्दगी जीने वालों के द्वारा ही बनाए जाते हैं। इनका बुरा मत मानो, पर इस प्रश्नो का उत्तर अवश्य तलाश करो कि जिन्होंने भूत-प्रेत-पिशाच- निशाचर को रोग निवारण का उचित तरीका माना वे हिन्दू समाज से ले कर दूसरे सभी समाजों में रहे हैं या नहीं और एक समय सभ्यता की परिभाषा ही यह रही है या नहीं कि उसमें अन्धविश्वास और वशीकरण के कितने चोर दरवाजे बनाए गए हैं? आज भी वह बहुत अधिक बदली नहीं है, अभी मदर टेरेसा को संत घोषित किए जाने के लिए यह पता लगाया जा रहा था कि उन्होंने कितने चमत्कार किए हैं, किए भी हैं या नहीं।‘

परेशानी उसके माथे से पसीना बन कर चू रही थी। बोलने के लिए सही इबारत नहीं मिल रही थी। मैंने इस बेचैनी का उपयोग करते हुए कहा, ‘यह भी पता लगाना कि क्यों मोदी के शासन के साथ इस तरह की घटनाएं बन्दं हो गई हैं या कम हो गई हैं और बोलने का पहला अवसर पाते ही उस जमाने की सारी गन्दगी जिन्होंने सहेज कर रखी थीं वे उसके सिर डालने की कोशिश क्‍यों कर रहे है जिसने उन्हें प्रलोभन और भय से मुक्ते करके स्वतंत्र हो कर अपने विचार प्रकट करने का अवसर दिया। क्या ऐसे बुद्धिजीवियों का बुद्धि से कोई संबंध रह गया है। कलबुर्गी की पड़ताल हम कल करेंगे।