कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है
‘तुम दिन में कितनी बार सच बोलते हो और कब, कोई हिसाब रखते हो?’
‘याद नहीं आज से कितने साल पहले कोई झूठ मेरे मुंह से निकला हो।, निकला तो होगा, मनुष्य जो ठहरा परन्तु झूठ बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता।’
‘जानते हो ऐसों को क्या कहते है? पैथोलोजिकल लायर, झूठ बोलने का मनोरोगी, हैबिचुअल लायर, आदतन झूठ बोलने वाला। वह सच बोलता नहीं और यह मानने को तैयार ही नहीं होता कि वह कभी झूठ बोलता है। जिसके बारे में जो आया बक जाते हो सोचते भी नहीं कि इससे तुम्हारे बारे में लोग क्या राय बनाएंगे। बोलते समय सोच कर बोला करो, झूठ का प्रतिशत कम होने लगेगा।‘
’यही तो वह बारीक फर्क है हमारे तुम्हारे, कहो, सच और झूठ में। सच सहज मुह से निकल जाता है, जो देखा और समझा है उसके अनुपात को घटाए-बढ़ाए बिना, सन्दर्भ में हेर-फेर किए बिना कह देना होता है। इसके लिए साहस की जरूरत होती है, कई बार अपने आप से, अपने हितों से टकराना होता है।, बहुतों से संबंध बिगड़ जाते हैं, नौबत जान बचाने और जान से जाने के दो विकल्पोंप में से एक की रह जाती है। पहले को चुनने के साथ तुम मर जाते हो, दूसरे के बाद तुम मार दिए जाते हो। परन्तु झूठ को सच बनाने के लिए सोचना होता है, कहानियॉं गढ़नी होती हैं, और इसके बाद भी चालाक से चालाक झूठा और उसका वकील अपराधियों की तरह कुछ कडि़यां ऐसी छोड़ जाता है कि उसका झूठ पकड़ में आ जाता है।’
और जानते हो, झूठ की एक और पहचान है। उसके पास तर्क नहीं होता, कहानियां होती है और दूसरों पर आरोपित करके उस प्रहार से बने सुरंग के माध्यम से अन्य देशों और समाजों में पहुुंच जाना भी। इसलिए उन्हें अपने दावे अधिक जोरदार ढंग से करने होते हैं, और वह जोर ही उसके झूठ होने का प्रमाण बन जाता है, जैसे यदि कोई कहे, ‘हां हां मैं अपने बाप का ही बेटा हूँ’ तो आप मान लेते हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ है और इसे यह व्यक्ति भी जानता है और उसे छिपाने की कोशिश कर रहा है। इसीलिए कीर्तन-भजन, पाठ और पूजा करने कराने वालों के विषय में मेरी मोटी राय है कि इनमें सच्ची भक्ति और निष्ठा का अभाव होता है और ये प्रदर्शनीय धर्मश्रद्धा की आड़ में जघन्य से जघन्य अपराध कर सकते हैं या इनका यह दिखावा जघन्य अपराधों की मनोग्लाोनि से मुक्ति का उपाय होता है जिसे क्षतिपूर्ति कहा जाता है। परन्तु एक विचित्र बात यह कि ये धर्मभीरु और मन के ‘सरल’ होते हैं, धर्म और निष्ठा को केवल वहीं भूल जाते है और यह भी मनोरुग्णता की अभिव्यक्ति के रूप में जिसके प्रति वे सावधान तक नहीं होतें, जहाँ लाभ और लोभ सभी मूल्यों और आदर्शों पर हावी हो जाते हैं और उनके इस प्रकोप को समझने में स्वयं उनसे भी भूल होती है।
‘ क्षतिपूर्ति के तरीके, दान दक्षिणा और धर्म-कार्य के तमाशे इसी से पैदा होते हैं जिसमें चरितनायक अपने चरित्र को ढकने के प्रयत्न में अपने ही मनोजगत का आवरण बन जाता है। तुम जानते हो ठगों का इतिहास। एक ओर वे विष्णु के उन्हीं पर्यायों – दामोदर, नारायण और वासुदेव – के संकेतों से उस व्यतक्ति की हत्या कर देते थे जिसके विषय में उन्हें यह अनुमान होता था कि उसके पास कुछ धन है और दूसरी ओर शक्ति के इतने नैष्ठिक उपासक होते थे कि अपने को सच्चा उपासक सिद्ध करने के लिए वे अपना सिर भी चढ़ा सकते थे। मेरे परिचितो-मित्रों में बहुत से पूजा-पाठ करने वाले, उसका नगर ढिढोरा पीटने वाले, व्रत रखने वाले, पांचो नमाज पढ़ने वाले सभी हैं और मैं यह सोच कर कि उनका दिल न दुखे उनकी आलोचना नहीं करता, परन्तु उनकी धर्मनिष्ठा और सत्यानिष्ठा पर विश्वास भी नहीं करता।
मेरा ध्यान उनके कथन पर नहीं, उनके कथन और कृत्य की संगति पर होता है। उसका अभाव देख कर उनको सहन करना होता है परन्तु बहुत से ऐसे काम है जिनकी प्रकृति धर्मवाह्य होती है और उनमें ऐसे लोगों के सहयोग की जरूरत होती है। हम किसी ऐसे दुश्मन से लड़ रहे होते हैं जिनमें वह हम सबको धर्म, लिंग, जाति निरपेक्ष रूप में दोहन कर रहा होता है और उस स्थिति में ये सभी हमारे अपने हो जाते हैं। अन्या्य के विरोध में इनका अपना हो जाना कोई छोटी उपलब्धि तो नहीं।‘
(कल पूरा करेंगे इस लेख को)।