17 अप्रैल
मौन भी गूॅजता है
तुम जब आवेश में होते हो तो तुमको छेड़ना सींग ताने सांड के सामने खड़ा होने जैसा खतरनाक लगता है। बहस का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। हर बार तुम अपने को ही सही साबित करते हो, और फिर भी कहते हो जीतने की फिक्र में हम रहते हैं।
‘यह तो तुम्हा्रा दुर्भाग्य है कि तुमने पक्ष ही ऐसा चुना है जिसके पास औचित्य नहीं है, तर्क नहीं है, अपने पांवों पर खड़ा हो पाने की शक्ति नहीं है और परनिन्दा् पर जिन्दा रहतेे हो। पैशुनी वृत्ति है, तुम्हारी। तुम्हा्रा सबसे प्रिय कोश लेक्सिको फासिस्टकस है उसी में से भारी भारी विशेषण निकालते हौ और उन्हें दूसरों पर फेंकना चाहते हो लेकिन भारीपन के कारण वे उछल कर तुम्हारे उूपर ही आ गिरते है। मैं तुम्हें बचाना तो चाहता हूँ, यह भी चाहता हूँ कि तुम जीत जाओ पर जीत थाली में परोसी तो जाती नहीं। तुमतो हारने की पूरी तैयारी के साथ दहाड़ते हुए मैदान में उतरते हो। अभी मैं लहक के अंक देख रहा था, बड़ी सार्थक और आज के समय में जरूरी पत्रिका है। लिखने वाले जैसा सोचते हैं वैसे ही लेख भी मिलेंगे, परन्तु इसकी विशेषता है भावोछ्वास की जगह तार्किक बहस की दिशा में बढ़ा जाय जिससे लिखने और पढ़ने वाले दोनों की समझ सुधरे। परन्तु उसमें भी लेखक बहुत डरे हुए लग रहे हैं। सभी सभी से या लगभग सभी से और सबसे अधिक भाजपा के आज के शासन से। एक कहानीकार ने अपने लेख का शीर्षक ही रखा है ‘हम सब लेखक डरे हुए है’।
‘ऐसी इबारतें पढ़ने पर लोगों को हंसी आती है।’
‘क्यों, इसमें हंसने की क्या बात।’
‘एक हो तो समझाउूुं। कहते हैं उूंट की शक्ल ही ऐसी बेडौल है कि वह जिस भी करवट बैठे, हंसी को दबाना पड़ता है। पहली हंसी इस बात पर आएगी कि लेखकों में इतना सामरस्य आ गया है कि उनमें से कोई सभी के मन की बात जान चुका है और सभी की ओर से बयान दे सकता है और यह उम्मीद कर सकता है कि लोग इसे सच मान लेंगे। यह अपने को असाधारण प्रतिभाशाली और लोगों को मूढ़ समाझे बिना संभव ही नहीं है।
‘संपादक से मैंने पूछा कि भई ऐसे लेखों पर अपनी प्रतिक्रिया में जो लोग हंसते हैं उसे क्यों नहीं छापते तो कहा उसके ग्राफिक्स तैयार होने को दे दिए है, अगले अंकों में वह भी छपने लगेगा।’
वह विनोद में शामिल होते हुए बोला, ‘तुम जैसों की बीच सड़क ताजपोशी की जानी चाहिए। इसके अलावा कोई इलाज नहीं।’
मैं हत्प्रभ नहीं हुआ, बोला, ‘मैं जानता था डरा हुआ आदमी दुबक कर, सांस रोक कर, छिप कर बैठता नहीं है वह डर कर लोगों को पीटने लगता है और, जानते हो, लोगों को तुम्हारे इस शक्तिशाली डर के चरित्र का पता चल जाता है इसलिए वे तुम लोगों पर भी हंसते हैं और डर की तुम्हारी परिभाषा पर भी, और इस बात पर भी कि जिसके आने से पहले से ही तुम इतना डरे हुए थे कि दुनिया को बता रहे थे ‘कयामत को रोको, बढ़ी आ रही है’ पर रोक नहीं पाए, क्योंकि वह तुम्हारी मिली भगत से फैले भ्रष्टाचार के खुलासे से पैदा वैकुअम को भरने के लिए चली आ रही थी, कयामत बन कर नहीं सलामत बन कर, इसका दावा करते हुए।
‘लोग उस समय तुम्हारी बातों में नहीं आए पर तुम्हारे बोलने से पूरी तरह बेअसर भी नहीं रहे, झिझक तो गए ही थे। फिर धीरे धीरे भूल गए थे उस हाहाकार को जो तुमने तब मचाया था। अब जब तुम डरने की बात करते हो तो वे तुम्हारे डर की असलियत का इतिहास समझ कर भी हंसते हैं। और अगर तुमने अपने अपने राम पढ़ा है तो उसमें राम को सत्ता से वंचित करने के खेल में जिन लोगों ने जी जान लड़ा दिया था वे डर जाते हैं कि सत्ता में आने के बाद वह उनसे बदला लेंगे। वह बदले का इरादा तक नहीं रखते, उनके हितों का ध्यान रखते हैं, पर उन पर यह प्रकट भी कर देते हैं कि वह जानते हैंकि उन्हों ने उनके साथ क्या किया था और आज भी क्या सोच और कर रहे हो। उनके शत्रु इस बोध से ही उससे अधिक त्रस्ते और अपमानित अनुभव करते हैं जितना वास्तव में उत्पी्डित और अपमानित किए जाने पर अनुभव करते। यह उपन्यास लिखते समय मेरे मन में कहीं नही था कि ऐसा कोई शासक भारतीय राजनीति में आएगा जो इसी नीति का अनुसरण करेगा।
‘जिन लोगों ने उस उपन्यास को पढ़ रखा है उन्हें लगता है डरे हो भी सकते हैं, परन्तु सहानुभूति डरने वाले के प्रति पैदा नहीं होती क्योंकि डराने वाला ही क्षमादान देता दिखाई देता है, इसलिए वे ऐसी कातरता से अविचलित हो कर ऐसों के प्रति ऐसे स्नेनह संबंध जोड़ते हुए हँसते हैं जिसके लिए दहेज की जरूरत पड़ती है।’
ऐसे प्रहार पर तिलमिलाने का उसका हक बनता था। उसकी मुखमुद्रा देख कर ही मैं बचाव की मुद्रा में आ गया, ‘देखो, हमारा अपने उूपर ही जब वश नहीं चलता तो लोक के विषय में तो कहा ही जाता है कि वह निरंकुश होता है। मेरी सहानुभूति तुम्हारे साथ है और विवशता अपने साथ। यह बताओ, यदि सच्चे मन से मैं तुम्हारी कोई मदद करना चाहूं और कुछ सलाह दूं तो उस पर ध्यान दोगे?‘
वह कुछ बोला नहीं, उलझन में मेरी ओर देखने लगा।
मैंने कहा, ‘मैंने तुम्हारी जन्मकुंडली और कर्मफल तालिका कई बार तुम्हें अपनी नियति से अवगत कराने के लिए बनाई भी है, तुम्हें दिखाई भी है। कमजोर दिमाग के हो इसलिए भूल गए होगे। अब तुम्हें याद दिलाउूं कि तुम क्रान्ति और रिवोल्यूशन का अन्तर तक नहीं जानते । परिणति में दोनों एक हैं पर अवधारणा अलग है। क्रान्ति का अर्थ है एक सीमा रेखा को पार करके दूसरे क्षेत्र में चले जाना, रिवोल्यूशन में चक्कर खाने और उलट देने का आशय जुड़ा है। तुम उलटफेर को आगे बढ़ने, एक सीमा रेखा को पार करके दूसरी में प्रवेश करने और आगे बढ़ने का क्रम उसके चरम तक जारी रखने से अधिक जरूरी समझते हो। तुम पहले की चीजों और उपलब्धियों को बचाने की चिन्ता करते हुए अपने को समृद्ध नहीं करते, नया संसार बसाएंग, नया इंसान बनाएंगे के आवेश में अपनी परंपरालब्ध पूँजी को उसकी विकृतियों के साथ उसी तरह स्वांहा कर डालते हो जिस तरह ईसाइयत के सत्ताधारियों ने अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए किया था।
‘मेरी पहली सलाह यह है कि तुम अपनी भाषा को समझो, उसमें बोलना सीखो, उसके माध्यम से अपने समाज की मानसिक बनावट को समझो और फिर अपने समाज के साथ संपर्क साधो। यह उस यथार्थवाद की पहली कड़ी है जिसको समझे बिना ही लोगा यथार्थवाद पर पुस्तकें लिख डालते हैं और वे पुस्तकें किसी के काम नहीं आतीं, सिर्फ उनकी महिमा बढ़ाने के काम आती है कि उनके नाम यह भी एक पुस्तक है।
‘दूसरी सलाह है तुम सोचने की आदत डालो, और सोचने के लिए जरूरी है कि अधिकारी विद्वानों या बहुसंख्य जनों के विचारों से अप्रभावित रह कर वस्तुस्थिति पर विचार करो। पूरा हिन्दू समाज मानता है कि गंगाजल अमृतोपम है, इससे प्रभावित हो कर उस गंगाजल को पीने से बचों जो गन्दा जल हो चुका है । अपने विचार बन्धुओं और विश्वास बन्धुओं के दबाव में मत आओ। ऐसा करते ही तुम अकिंचन हो जाते हो, जिसके पास दिल, दिमाग, विचार और राेटी कपड़़ा कुछ नहीं है।
मेरी तीसरी सलाह दूसरी से जुड़ी हुई है। यह मत सोचो कि बहुत सारे लोग एक साथ मिल कर एक तरह के विचारों का समर्थन करें तो इसका मतलब यह है कि वे सोचते भी हैं। सोचना-समझना एक निजी काम है, मैंने यह कई बार दुहराया है, पर तुम्हारे सारे काम यूनियन बना कर होते है और उसके नियमों केा मान लेने के बाद उनसे असहमति तक गद्दारी समझी जाती है जब कि उनका सही पर्याय अंग्रेजी के फूल्स पैराडाइज मुहावरे में ही मिला सकता है।
‘ मैं कहता हूँ तुम एक नए मार्क्सकवाद की जरूरत को समझो। उस कविता को तो हजारों, लाखों, करोड़ों बार दुहराया गया होगा हम उसे फिर दुहरा देते हैं और वह भी अपनी याददाश्त के बल पर नहीं, लहक अंक 26-27 संयुक्तांक मे शैलेन्द्र चौहान के एक लेख के अन्त में उद्ध़ृत पा कर। कविता निम्न प्रकार उद्ध़ृत है जो ठीक ही होगा:
जब नाजी कम्युनिस्टों के लिए आए
मैं खामोश रहा।
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नही था
जब उन्होंने सोशल डेमोक्रैट्स को जेल में बन्द किया
मै खामोश रहा
क्योंकि मैं सोशल डेमोक्रैट नही था
जब वो यूनियन के मजदूरों के पीछे आए मै बिल्कुल नहीं बोला
क्योंकि मैं मजदूर यूनियन का सदस्य नहीं था
जब वो यहूदियों के लिए आए मैं खामोश रहा
क्योोकि मैं यहूदी नहीं था
लेकिन जब वो मेरे पीछे आए तब बोलने के लिए कोई बचा नहीं था
क्यों कि मैं अकेला था।
इसका पाठ बहुत सरल है। इसका एक भारतीय पाठ बनता है, कहीं का पत्थर कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा। और तुम्हारा वैचारिक आधार भानुमती का पिटारा और तुम्हारे हमखयाल भानुमती के कुनबे में ही आते हैं जिनका यथार्थ से कोई मेल नहीं बैठता।
” जैसे बच्चों को कुछ राइम रटा दिए जाते हैं और लोग लंबी प्रतीक्षा करते हैं कि उनके बाल बच्चे होंगे तो उन्हें भी वे वे ही लोरियां सुनाएंगे और रटाएंगे और इसके आधार पर यह सिद्ध करेंगे कि मेरा लाड़ला कितना होनहार है। वैसा ही कुछ तुम करते आए हो। पहले लाेगों को बाध्य करो कि वे सोचे समझे बिना जिसे तुम नाजी कहो उसे नाजी मान लें और फिर घबराहट में अपने अंत से बचने के लिए जिस को तुम नाजी कह चुके उस पर टूट पडें। पर बार बार इस राग को सुन कर उनके मन में तुमसे उूब पैदा होती है।
‘भारतीय सन्द र्भ में इसकी एक पैरोडी भी बनती है। सुनने का साहस है?’
उसके चेहरे से लग रहा था कि वह मेरी बातों से उूब रहा है परन्तु जब चुनौती पेश आ गई तो पीछे कैसे हटता, गो बोला हंसते हुए ही, ‘सुनाओ। उसे भी सुन लेंगे।‘
तुमने जब देश के विभाजन का समर्थन किया हम चुप रहे, समझ न सके कि यह हुआ कैसे है
तुमने जब गोलियों से दुनिया को बदलने के उत्साेह में
हमारी बोली तक हम से छीन ली
हम चुप रहे
क्योंकि हमे गोली की मार और बोली के असर का अन्दाज न था,
जब तुमने मजदूरों के हित में मिलों और कारखानों को बन्द करा दिया
हम चुप थे
जानते नहीं थे पसीने और पेशाब की गन्ध का अन्तर
बहा दोनो रहे थे पसीना हम और …
तुमने यूनियनबाजी में कारोबार को चौपट किया
अर्थतन्त्र को पंगु बनाया
शिक्षा को नष्ट किया
विचारकों को संघबद्ध करके राजनीतिज्ञों का अखाडि़या पहलवान बना दिया
हम चुप थे
इस आशा में कि कोई तो लिखेगा हमारा हाल
अब जब तुम अपने दशकों पुराने नारे को दुहराते हुए संकटमोचन बनने का नाटक करते हो,
हम चुप है
क्योंकि तुम्हा री सलाह मान कर बोलना तक भूल चुके हैं।