Post – 2016-04-16

हम न अपने हुए न अपनों के

‘अम्बेडकर दिवस पर कार्यक्रम तो अनेक हुए लेकिन सबसे मजेदार था जेएनयू की छात्राओं का मनुस्म़ृति के पन्ने जलाना। मुझे तो बहुत मजा आया, तुम्हें कैसा लगा?

‘तुम बता सकते कि कितने ग्राम या कितने मिलीलिटर मजा आया तो मैं उसको दूना या तीनगुना करके अपने मजे का हिसाब दे पाता। तुम तो सारे काम लगभग करते करते रह जाने वाले अन्दाज में करते हो।’

‘हैरान हूँ तुम्हें भी मजा आया इसमें। तुम तो कई बार मनुस्मृति की तारीफ कर चुके हो और जिसने भी तुम्हें पढ़ा या सुना होगा तुम्हें मनुवादी मानता होगा। तुम अपने मजे की बात झेंप मिटाने के लिए तो नहीं कर रहे हो?’

‘देखो, तुम मोदी को गाली देने के आदी हो इसलिए यह नहीं देख पाए कि अच्छे दिन आने के उनके वादे कितनी तेजी से पूरे हो रहे है। महिला सशक्तीेकरण, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अब नारा ही नहीं रह गया है। दो साल के भीतर देखो तो महिलाऍं वह काम करने लगी हैं जिसे इससे पहले कभी किया नहीं। भूमाता का ब्रिगेड बना कर शनि के मन्दिर में स्त्रियों के लिए वर्जित क्षेत्र में प्रवेश का अधिकार हो, या शबरी माला मन्दिर में प्रवेश हो या सेना में प्रवेश हो या मनुस्मृति दहन हो, ये सारे आयोजन महिलाओं द्वारा पहली बार हो रहे हैं। इससे मुझे तो मजा आना ही था और कई गुना आना था, तुम जानते हो मैं किसका वकील हूँ। लेकिन मजा थोडा किरकिरा हो गया।’

उसके चेहरे पर थोड़ी देर पहले झुंझलाहट आ गई थी। मजा किरकिरा होने की बात सुनते ही चमक आ गई। अभी वह कुछ बोलने की तैयारी कर ही रहा था कि मैं उससे पूछ बैठा, ‘लेकिन तुम बताओ, तुम कब से मोदी के भक्त बन गए और मोदी की योजनाओं की सफलता से तुम्हें कैसे मजा आने लग गया?’

कुछ देर के लिए वह कामा में चला गया। कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या कहे। दो चार डुबकियों के बाद बाहर निकला तो आवाज में आत्माविश्वास लौट आया था, ‘तुमको यह पता नहीं कि यह सब मोदी के विरोध में किया जा रहा था, भाजपा की मनुवादी मानसिकता के विरोध में।‘

‘यदि इसकी योजना तुम लोगों ने बनाई हो तो मैं तुम्हारी बात मान लेता हूँ। मैं तो, तुम जानते हो, आधी बातें जानकारी के आधार पर कहता हूँ आधा अनुमान के आधार पर, लेकिन कभी जानबूझ कर हेराफेरी नहीं नहीं, पहली बार यदि कुछ घटित हो तो औचित्य यह कहता है कि इस बात पर ध्यान दो कि वह कौन सी नई बात हुई है जिससे पहली बार कोई घटना या क्रिया सामने आई है तो मुझे अकेला यही कारण दिखाई दिया। सत्ता का परिवर्तन। फिर यह दिखाई दिया कि पहले आठ मार्च को जेएनयू के विद्यार्थी परिषद के पुराने छात्र नेताओं ने मनुस्मृति के पन्नों की फोटो कापी जलाई और अगले दिन इस समय के विद्यार्थी परिषद के छात्रनेताओं ने यही किया जिसके लिए उनसे जवाब भी तलब किया गया, और इन दोनों में तुम्हारे लोग साथ नहीं थे, तो मैंने सोचा ये छात्राऍं विद्यार्थी परिषद से जुड़ी हों या नहीं, परन्तु मोदी के आह्वान से ही प्रेरित रही होंगी। इसे नकारने के लिए तो पक्का सबूत चाहिए। यदि तुम्हें इस बात की पक्की जानकारी हो कि यह सब तुमने कराया था तो मैं तुम्हें प्रमाण मान कर इसे मोदी को हटाने की मुहिम का हिस्सा मानने को भी तैयार हूँ। सत्य की खोज करने वाले को प्रमाण के विरुद्ध जाने का साहस हो ही नहीं सकता। लेकिन मेरी नजर में भी कुछ तो कमी रह ही गई थी। न तो एबीवीपी के बन्दों में इतनी अक्‍ल कि कौन सी चीज कैसे जलाई जाती है, न तुम्हारी ब्रिगेड की महिलाओं में जो आन्दोलन तो कर रही होंगी मोदी को हटाने की और उसका नतीजा होगा पुजारिनों की संख्या में बढ़त और उस मानसिकता के विस्तार में मदद जिसको तुम मिटाने पर आमादा हो।

‘और जहॉं तक महिलाओं द्वारा मनुस्म़ृति को जलाने की बात है, यह तो उस पुरानी मान्यता की पुष्टि करने जैसा हुआ जिसमें लोग यह विश्वा‍स करते थे कि महिलाओं में अक्ल कुछ कम होती है। और उस कहावत को जानते हो, जो महिलाओं के बारे में चीन में प्रचलित थी। वे मानते थे कि महिलाओं में आत्मा ही नहीं होती। तो महिलाओं को किसी काम पर लगाओ तो सबसे पहले खुद तैयारी कर लो कि उन्हें किस मोर्चे पर किस तैयारी के साथ लगाना ठीक रहेगा, लेकिन इसके लिए पहले खुद अपना दिमाग सही रखना होगा जो है ही नहीं।

‘तुम लोग सोचने समझने की क्षमता खो चुके हो, जुआड़ियों की तरह बाजी जीतने के लिए तरकीबें सोचते हो, जुए की लत से होने वाले समय, धन के अपव्यय और नैतिक गिरावट पर सोचने की जरूरत ही नहीं समझते, इसलिए तुम तथ्यों को आधा छिपाते और आधा दिखाते हो, उनमें घाल मेल करते हो। जुआडियों का ध्यान जिस ओर नहीं जाता उस ओर दूसरों का ध्यान गए बिना रह नहीं पाता इसलिए तुम्हारे और जनसाधारण के आकलन में इतना अंतर होता है कि जनवाणी तुम्हें मृत्युघोष बन कर सुनाई देती है।

मैं अपने रौ में होता हूँ तो भूल जाता हूँ कि अगले पर क्या बीत रही है। उसने बोलने के लिए बीच में कई बार मुंह खोला पर मुझे रुकता न पा कर चुप लगा गया था, अब चुप हुआ तो उसने कहा, ‘अब तुम्हारे स्टीम का दबाव कम हो गया हो तो मैं कुछ सीधे सवाल करूँ?’

बोलते बोलते मेरा गला सूख चला था। मैंने इशारे से ही कहा कि वह अपने सवाल करे।

उसका पहला प्रश्न धमकी का था, ‘महिलाओं के बारे में जो टिप्पणी तुमने की है उस पर महिला आयोग तुम्हे अपनी अदालत में तलब कर सकता है?’

मैंने जवाब देना उचिन न समझा, इशारे से कहा, और कुछ?

‘तुम को हमारे तरीके में कौन सी कमी दिखाई दी ?’

मैंने वही तरीका अपनाया, ‘और कुछ?’

’तुम नारों के पीछे मत जाओ, क्या तुम नहीं मानते कि मनुस्मृतति में शूद्रों के लिए तो आपत्तिजनक और घृणित बातें कही ही गई हैं, स्त्रियों के विषय में भी बहुत सी बातें आपत्तिजनक है और इसलिए छात्राओं का मनुस्मृति को जलाना सर्वथा उचित था? फिर तुम स्वयं उनके इस कृत्य का, चाहे जिनके भी समझाने पर मान बैठे कि जो उन्‍होंने किया उसे गलत ठहराना मनुवाद का प्रमाण नहीं है।‘

अब मुझे बोलने में कोई असुविधा नहीं थी, इसलिए जब इस बार कहा, ‘और कुछ ?’ तो वह जिसका आत्मविश्वास प्रत्येक प्रश्न के साथ रिक्टर पैमाने पर उछलता जा रहा था, यह देख कर कि उसके प्रहार का मुझ पर कोई असर हुआ ही नहीं, एक दम नीचे आ गया। उसने हारे हुए से स्वर में कहा, ‘और कुछ नहीं।‘

मैंने कहा, ‘देखो, पहले तो मुझे यह स्वी्कार करना चाहिए कि मैं आवेश में आ गया था, नहीं तो, इतनी लंबी तकरीर न झाड़ देता। यदि एक-एक बात पूरी करने के बाद तुम्हारी प्रतिक्रिया जानने के लिए रुकता तो तुम कायदे के सवाल भी कर सकते थे, और मैं उनका सटीक उत्‍तर भी दे सकता था। तुमने जो सवाल किए वे जान बचाने के लिए किए, जिनसे मुझे कोई लाभ न हुआ और यदि तुम, मैं जो जवाब दूँ उससे कुछ न सीखना चाहो तो, तुम्हें भी कोई लाभ न होगा। सच तो यह है कि तुमको मैं समझाने का लाख प्रयत्न करूं तो भी तुम समझ न पाओगे, क्योंकि तुम समझना नहीं, बाजी जीतना चाहते हो। ऐसे लोग सही का मतलब जीत और गलत का मतलब हार मान लेते हैं जब कि अक्सर यह होता है कि जो सही होता है वह अपने सही होने के आत्मविश्वास के कारण अपने को सही साबित करने के तिकड़म का इस्‍तेमाल नहीं करता और गलत लोगों के द्वारा गलत सिद्ध कर दिया जाता है।

‘तुमने मुझे महिला आयोग के बुलावे की धमकी देते हुए उस आयोग के समक्ष अपने को अपराधी सिद्ध कर दिया क्योंकि तुमने यह मान लिया कि मैंने जो कहा है, जिन हवालों और संदर्भों में कहा है उनको समझने की योग्यता तक उनमें न होगी, इसलिए वे अपनी समझ का अवमूल्यन करने के दुस्साहस के लिए तुम्हें बुला तो सकती हैं, पर बुलाऍंगी नहीं, उन्हें अधिक जरूरी काम होंगे।

‘तुम अंबेडकर का नाम लेते हो, और उन्हीं को दुहराते हो। जानते हो इतिहास को दुहराने के बारे में मार्क्स ने त्रासदी और भड़ैती का प्रयोग किया था History repeats itself, first as tragedy, second as farce.। तुम इतिहास को बदलने की कोशिश में लगातार अतीत की भड़ैती कर रहे हो। पर उसे भी सलीके से नहीं कर पाते।

‘’तुम्हें पता है बाबा साहब अंबेडकर ने जब 25 दिसंबर 1927 को मनुस्मृति को
जलाने को एक प्रतीकात्मक प्रतिरोध बनाया था तो उन्‍होंने एक उस ग्रंथ की महिमा की रक्षा और व्यर्थता को प्रतीक बद्ध करते हुए एक यज्ञ वेदी बनवाई थी। एक यज्ञकुंड बनवाया था। उसमें चंदन की लकडियों को इंधन के रूप में चयनित किया था, सामने गांधी की छवि रखी थी और गांधीवाद के सामाजिक सरोकार और व्यवहार को चुनौती देते हुए अपना प्रतीकात्मीक प्रतिरोध दर्ज कराया था।

‘जब आज तुम मनुस्मृति को जलाते हो तो किसे जलाते हो? वह तो 1927 में ही जल गई थी और अदालत ने उस मीठे पानी के सरोवर पर सबका अधिकार बहाल कर दिया था जिससे अछूतों को वंचित कर दिया गया था। प्रश्न प्रतीकात्मकता का है तो क्या तुम बता सकते हो कि तुम मनुस्मृति को जलाते हो या उसकी राख को जो जल नहीं सकती। बाबा साहब ने उसे जलाया हो या नहीं, भारतीय संविधान के बाद तो वह राख हो ही गई। आज तुम राख को जलाने की मूर्खता से अपनी साख को राख करना चाहते हो या इस भ्रम में जीवित रहना चाहते हो कि जो हमारे कोप और हमारी कारसाजी का शिकार हो गया वह जान से गया।‘

‘एक और, और आखिरी बात। तुम इतने बदहवास हो कि मनुवादी और मनुस्मृतिवादी का अन्तर तक नहीं जानते। मनुवादी का अर्थ है मानवतावादी, जिस अर्थ में तुम इसका प्रयोग करते हो वह है मनुस्मृतिवादी अर्थात् मानव समाज के संचालन के किसी काल में गिनाए गए नियमों और व्यवस्थाओं का बन्धन जिसके कुछ विधान मानवतावादी नहीं भी हो सकते हैं।

एक और बात पर ध्यान दो। मनुवाद अर्थात् उस समाज का इतिहास आज से नौ हजार साल पीछे जाता है जिसने खेती आरंभ की। खेती के आरंभ का श्रेय हमारी पौराणिक प्रतीकात्मकता में मनु को दिया गया है। वह प्रतीक कथा किसी अन्य स्रोत से उपलब्ध सामग्री से अधिक विश्वसनीय है। मनु हमारे प्रतीकबद्ध इतिहास में कृषि और उसके साथ उत्पन्न रक्षा आदि की व्य्वस्थाओं के भी प्रतीक हैं इसलिए पहले विधान निर्माता। इसके विस्तार में जाने का कोई लाभ नहीं।

‘और यह बता दू कि महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान का जितना ध्यान मनु को था उतना ध्यान आज का समाज दे तो अखबारों में ग्राहक संख्या बढ़ाने के लिए सनसनी पैदा करने वाली खबरों को जितनी प्रधानता दी जाती है वे कम हो जाऍंगी जिनसे जरूरी खबरें दब जाती हैं और हमारा सत्यबोध उससे प्रभावित होता है। सम्य जगत के जिस भी समाज से तुलना करो, एत्रुस्कन समाज के नंगधडंगपन को छोड़ कर, नारी को भारत में जितनी सुरक्षा और उन सीमाओं में जितनी छूट मिली रही है वह दुनिया के किसी देश में नहीं। और तुम तो यार अपने को मार्क्सवादी कहते हो, जानते हो मार्क्स ने सामाजिक प्रगति का मानदंड किसे बनाया है: Social progress can be measured by the social position of the female sex. और जानते हो, दूसरी सभ्य ताओं के लोग भारत में स्त्री की स्थिति को देख कर चकित रह जाते रहे हैं। पत्नी जीवित है तो उसके बिना कोई आयोजन अधूरा है, वह आधा अंग है, अर्धांगिनी है और छोड़ो तुम जब अपने दिमाग से काम लेने लगना और तक कोई समस्या खड़ी हो तो मुझे याद करना।

तुम जब दो हजार साल पहले के भारतीय विधान और आज के नियम विधान को
एक तराजू पर रख कर फैलसा दोगे तो मैं तुमसे बहस नहीं करूँगा, तुम जहॉं पड़ जाओगे पड़े रहने दूँगा। पर जब सोचने समझने को कुछ न बचेगा तो रोने कलपने के अलावा क्या बचेगा, तुम्हारे हिस्से़ का रोना भी मुझे ही रोना होगा। तुम को तो अपनी अधोगति का बोध तक न होगा।