पतन ही उत्थान का मूल मन्त्र है
‘तुम्हेंं पता है रोहित के भाई और उसकी मां ने धर्मान्तारण का निर्णय लिया है।’
‘देखो किसी को अगर कोई धर्म पसन्द नहीं है तो उसे उसको छोड़ देना चाहिए। यदि धर्म सचमुच इतना जरूरी है कि इसके बिना जीवन चल ही नहीं सकता तो जो धर्म सही लगे उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। पहले इस देश में यह बहुत साधारण सी घटना हुआ करती थी। लोग किसी भी धर्म के किसी पक्ष से आकृष्ट हो कर अपना धर्म बदल लिया करते थे। धर्म की राजनीति करने वाले, उनके मठाधीशों के लिए यह अपने साम्राज्य की समस्या हुआ करती थी। जैसे राजा का राज्य विस्तार होता है तो उसी के अनुसार उसका राजस्व बढ़ता है और इसके लिए राजा खून खराबा करते रहे हैं और सौ तरह के उपद्रव करते रहे हैं, विशाल सेनाएं रखते रहे हैं, यह जानते हो। उसी तरह धर्मसत्ता की आय और प्रभाव पर उसमें सम्मिलित होने या उससे अलग होने वालों के कारण प्रभाव पड़ता रहा है। अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए, या धर्म सत्ता का विस्तार करने के लिए ये महन्त और मठाधीश भी झगड़े झमेले करते रहे हैं। धर्मानुयायी का ध्यान उसके आत्मिक और आध्यात्मिक पक्ष की ओर होता है, इसलिए दूसरा धर्म मानने वालों से उसकाे कोई फर्क नहीं पड़ता था। एक ही परिवार में एक व्यक्ति शिव का उपासक तो दूसरा शक्ति का, तीसरा विष्णु का और चौथा किसी को न मानने वाला । कभी कभी एक ही परिवार में एक सनातनी और दूसरा जैन। ऐसा पति पत्नी तक के बीच होता था।
‘मेरे बाबा नित्य आमिष भोजी और उनकी कामना यह कि उनके बाद कोई मांसाहार न करे इसलिए पिता जी को विष्णु का गुरुमन्त्र दिलवाया और अपने ही घर में खान पान के मामले में अछूत बन गए। वे बर्तन जिनमें वह मांस-मछली पकाते थे उनको धोने के बाद भी इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता था कि दूसरे किसी बर्तन से उसका स्पर्श न हो। थाली कटोरी का काम पत्तल और दोने से। तो यह चुनाव धार्मिक लोगों के लिए पारस्परिक सद्भाव में कभी बाधक नहीं था, जब कि महन्तों और मठाधीशों में, पंडों और अखाड़ेबाजों में मार पीट होती रहती थी, वे इसके लिए अपने अखाडि़या साधु रखते थे जिनका सैनिकों के रूप में प्रयोग किया जाता था। इन महन्तों , मठाधीशों, मन्दिरों के पुजारियों का अपना चरित्र उस मत में सच्ची निष्ठा रखने वाले अनुयायियों या भक्तों की तुलना में बहुत हेय होता था। सत्ता से जुड़ी सभी विकृतियां उनमें सामान्य होती थीं और उनके अखाडि़ए तो गुंडागर्दी के बिना जीवित रह ही नहीं सकते थे। धर्मसत्ता पर अधिकार जमाए लोगों के लिए धर्म एक जायदाद था और इसका सीधा संबंध राजसत्ता की तरह राजकोष की संपन्नता से था और इसीलिए मठों, मन्दिरों के पास अकूत धन होता था। सामान्य जन उन देवालयों और प्रतिमाओं में प्रतिष्ठित देवों के प्रति भक्ति रखते थे परन्तु उन्हीं के पुजारियों की छीना झपट को समझने के कारण उनके प्रति कोई आदर नहीं था। फिर भी आरती वही कराते, चढ़ावे उन्हें ही मिलते और विशेष अवसरों और समारोहों पर प्रधान भूमिका उनकी ही होती थी। वे पैसे के लोभ में कासी-करवट तक करा सकते थे।‘
‘कासी करवट करा सकते थे, मतलब।‘
‘मतलब अभी नहीं बताउूंगा, कभी प्रसंग आ गया तो बाद में। अभी तो यह समझो कि यह धर्म बदलने का मामला नहीं है। होता तो इसकी ओर ध्यांन देने की जरूरत न थी। यह धर्मपरिवर्तन की राजनीति का मामला है और उसके माध्यम से कुछ हासिल करने की कोशिश का मामला है, उनके लिए भी और तुम्हारे लिए भी। उन्होंने कुछ हासिल करने की कोशिश भी की, परन्तु शायद वह इस घटना की पब्लिसिटी के अनुपात में कुछ कम लगा हो, इसलिए उससे सन्तुष्ट नहीं लगते। परन्तु तुम्हारी और इस खबर को महत्व देने वाले माध्यमों की दशा अधिक चिन्तानजनक है। दोनो सनसनी और टीआरपी या पता नहीं क्या कहा जाता है उसे, जिससे विज्ञापन का दर बढ़ता है, उसके पीछे पागल हैं। इनकी भूमिका सत्ता पर कब्जा जमाए या जमाने के लिए प्रयत्नशील लोगों के सन्दैर्भ में मठों और पंडों के अखाडि़या पहलवानों जैसी है। ऐसे लोगों का न अपना चरित्र होता है न दिमाग।‘
’तुम ऐसा अपने बारे में तो कह सकते हो, दूसरों के बारे में इतने विश्वास से कोई दावा कैसे कर सकते हो। अपने को कहते मार्क्ससवादी हो और सेवा उनकी कर रहे हो जिन्हें सारी दुनिया हिटलरवादी मानती है।‘
’देखो, मार्क्सवादी मैं इसलिए हूं कि सत्ता के इन दोनों रूपों के चरित्र का, उनके पीछे के आर्थिक आधार का और लाभ के वितरण का तन्त्र मुझे दिखाई देता जिसे रस्मी मार्क्सिवादी देख नहीं पाते या देखने से बचते हैं और दिखाया जाय तो तिलमिला उठते हैं। सत्ता से जुड़ने के बाद मार्क्सावाद अपना सत्व खो देता है।
‘यह रहस्य केवल मेरी समझ में आता है और इसलिए मैं उस कोटि की पवित्रता और निस्पृहता का निर्वाह करना चाहता हूं जो धार्मिक और समाजसेवी व्यक्तियों में होती है।
‘मैं कोई नयी बात कहता भी नहीं। केवल उन बातों की ओर ध्यामन दिलाता चलता हूं जिन्हें हम सभी जानते हैं परन्तु बहुत से लोग अपनी हितबद्धताके कारण उन्हेंं प्रयत्नपूर्वक भूलने या झुठलाने का या घालमेल करने का प्रयत्न करते हैं। तुम उसी कोटि में आते हो, राजनीतिक दलों से जुड़े लोग तो सत्ता हथियाने के लिए या किसी दूसरे को सत्ता से हटाने के लिए किसी तरह का अपराध कर और करा सकते हैं और करते आए हैं। उन पर भरोसा करके स्वयं उनको नहीं समझा जा सकता, किसी समस्या या अन्य व्यक्ति की तो बात ही अलग है।
‘तुमने अच्छा किया कि रोहित बेमुला का प्रसंग आरंभ कर दिया। दलित समस्या पर चर्चा के लिए ऐसे व्यक्ति से उपयुक्त कोई हो नहीं सकता जो दलित होने का दावा करता है परन्तु इसको प्रमाणित करने की स्थिति में नहीं है।
‘मैंने उसकी आत्महत्या से पहले लिखे गए पत्र को कई बार पढ़ा है और मैं आज तक उस कारण को नहीं समझ पाया तुम उस पत्र के कुछ वाक्यों पर गौर करो:
1. I feel a growing gap between my soul and my body. And I have become a monster.
2. I loved Science, Stars, Nature, but then I loved people without knowing that people have long since divorced from nature. Our feelings are second handed. Our love is constructed. Our beliefs colored.
3. The value of a man was reduced to his immediate identity and nearest possibility. To a vote. To a number. To a thing. Never was a man treated as a mind. As a glorious thing made up of star dust. In every field, in studies, in streets, in politics, and in dying and living.
4. In understanding love, pain, life, death. There was no urgency. But I always was rushing. Desperate to start a life.
5. All the while, some people, for them, life itself is curse. My birth is my fatal accident. I can never recover from my childhood loneliness. The unappreciated child from my past.
6. I am not sad. I am just empty. Unconcerned about myself. That’s pathetic. And that’s why I am doing this.
7. Know that I am happy dead than being alive.
8. No one is responsible for my this act of killing myself.
9. No one has instigated me, whether by their acts or by their words to this act.
10. This is my decision and I am the only one responsible for this.
11. Do not trouble my friends and enemies on this after I am gone.
इन पंक्तियों को ध्याrन से पढ़ो, लुकाठे की तरह नहीं। समझने की कोशिश करो कि इतने सुलझे और संवेदनशील तरुण में जिसकी महत्वाकांक्षाएं ही उसे किसी प्रकार के आत्मघाती कदम से रोकने के लिए पर्याप्त हैं। वह कौन सा तत्व हो सकता है, कौन सी स्थिति जिसमें ये सभी घटक चेतना को इस हद तक झकझोर दें कि वह भीतर से खाली अनुभव करे। ‘
‘तुम सौ बार पढ़ो तो भी तुम्हारी समझ में वह बात नहीं आएगी जो सभी की जहन और जबान पर स्वत: आ जाती है।‘
मैंने हंसना चाहा पर हंस न सका। बेचारगी में पूछा, ‘यह बताओ, जवानी में तुमने कभी किसी लड़की से इस हद तक प्यार किया है कि वह अवस्था आ जाय जिसमें वह अनुभव करता है कि उसके बिना जी नहीं सकता, मेरी जान फिकरा नहीं रह जाता, अन्तरात्मा की आवाज बन जाता है। हां, किया तो था एक बार, पागल भी हो चले थे, पर वह सफल हो गया एक दूसरे पागलपन के मोल पर परन्तु यदि विफल हो जाता तो। फिर से पढ़ो इन पंकि्तयों को, इस पत्र में आए लव शब्द के विविध आशयों को, अपनी प्रतिभा के बल पर कायम इस विश्वास को कि जाति पांत का अवरोध पार करने के लिए यही काफी है और कल्पना करो वर्ण की दीवार टूटती नहीं, उसका किसी अन्य से विवाह हा जाता है या इसे केवल इस कारण ही ठुकरा दिया जाता है। इसके बाद भी वह चाहता है कि उसकी बदनामी न होने पाए। जेसा माहौल है उसमें उसे डर भी है कि इसका राजनीतीकरण किया जा सकता है और वह बड़े जोरदार ढंग से ऐसा न करने की अपील भी करता है परन्तु सक्रिय राजनीति में तो लोग मुरदों के सीने पर कदम रखते हुए अपनी कुर्सी तक पहुंच जाते है और इसमें उन्हें मजा भी अधिक आता है।