जायें तो जायें कहां
तुमने तो मुझे सचमुच डरा दिया यार। पर तुम क्या चाहते हो हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और जो कुछ उल्टा सीधा होता है उसे टुकुर टुकर देखते रहें?
यह तो कर ही रहे हो, बस इसमें एक चीज और जुड़ गया है बार-बार खतरे और असुरक्षा की आवाज बुलन्द करके असुरक्षा का विस्तार करना।
असुरक्षा हम बढ़ा रहे हैं? तुम कहते हो हम बढ़ा रहे हैं, असुरक्षा। इतने सारे लोग, इतने सारे क्षेत्रों के, जिनका हमारी पार्टी से कभी सम्बन्ध नहीं रहा चिन्ताग्रस्त होते चले जा रहे हैं, और तुम कहते हो असुरक्षा हम बढ़ा रहे हैं।
“मुझे मुस्लिम लीग के उभार के बाद उसके पीछे से चलने वाली ताकतों की याद आ रही थी जो खास तौर से होली और मुहर्रम के आस पास इशारा करते थे और ‘इस्लाम खतरे में’ के नारे लगने शुरू हो जाते थे और फिर इस्लाम को खतरे से बचाने के लिए दबे सताए लोग जान को हथेली पर ले कर बाहर निकल पड़ते थे और लोग जान बचने के लिए इधर उधर भागने लगते थे । कहीं छुपके से किए इशारे पर, अपनी रोटी सेंकने वालों की शह पर, लगाई गई आग का नीचे तक विस्तार और सबसे अधिक निचले स्तर का हाथ और गर्दन । खुराफात किसी की; हाथ और जान-माल किन्ही औरों का।“
“पर इस तरह के अफवाहों से सु शिक्षित और साहित्य, कला और विज्ञान से जुड़े लोग तो प्रभावित नहीं होते थे।“
मैं हँसने लगा, “यार सबसे अधिक यही लोग प्रभावित होते हैं जो इमोशन की फसल उगाने और काटने के तरीकों में माहिर होते हैं, ‘‘मुसलमानों में खूँ बाकी नहीं है” इसी का दूसरा संस्करण था। उसी अफवाह को, उसी फुसफुसाहट को आवेश की ऊँचाई पर पहुँचा कर नक्कारे की आवाज बना दिया जाता था। सचाई यह कि मुसलमानों में खून था, वह ब दहवासी नहीं थी जो ऐसे बयानों से पैदा कर दी जाती थी। और सोचो ऐसे कवि को अक़्ल के धनी लो गों के बीच भी दार्शनिक कवि कहा जाने लगा था। अभी हाल ही में जिस सिंघल जी का निधन हुआ, वह वैज्ञानिक थे, मुरली मनाहर जो शी भौतिकशास्त्री है जिनके बारे में लाल बहादुर वर्मा ने कहा था उनके फीजिक्स पर मेटाफीजिक्स हावी हो गया, संघ के पूर्व सर चालक रज्जू भैया भी संभवतः भौतिकशास्त्री ही थे। हिटलर तो चित्रकार या वास्तुकार था शायद और बालासाहब तो चित्रकार थे ही। तुम्हें ऐसे अनपढ़ मिल जाएँगे जिनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो, जो चीजों में फर्क करना जानते हों, उन को बिना किसी भावुकता के परखते हों। ज्ञान और विज्ञान जिस कठाले में जा कर रच पच जाते हैं वह है हमारी ज्ञानव्यवस्था। इसलिए आवेशपूर्ण कथन, समर्थन, सहयोग सब आविष्ट मानसिकता की उपज होते हैं, वह प्रेताविष्ट हों यह जरूरी नहीं, प्रेत वे स्वयं पैदा कर सकते हैं, अपनी संचित उूर्जा से। जब मैं कह रहा था कि भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में आवेश अधिक था, तार्किकता कम, वस्तुपरकता लगभग गायब तो यह भी कह रहा था कि ये मार्क्सवादी हो ही नहीं सकते। कुछ ढोंगियों को तुमने रामनामी ओढ़ कर हर तरह के कुकर्म करते देखा हो गा । कुछ सदाचारी भी होते हैं यह भी मानना होगा। अनुपात तय करना मेरे वश में नहीं। उसी तरह ये मार्क्सनामी ओढ़े लोग मार्क्सवादी हों यह जरूरी नहीं। देखना यह चाहिए कि वे तर्क, विवेक, गुणदोष विचार का ध्यान रखते हैं या नारेबाजी में शामिल हो जाते है, ‘सड़ी गली सरकार को एक धक्का और दो’ दुहराने से कोई मार्क्सवादी हो जाता है क्या? ‘जो हक है हमारा हम लेंगे, उससे न जरा भी कम लेंगे’ दुहराने से हक मिलता है क्या? यह भीड़ जुटाने और मजमाबाजी करने के डमरू हैं। डमरू आज भी बज रहा है। अरे कल तो इसमें हमारा सबसे आला डमरूबाज शामिल हो गया। चारों ओर से यही सुनने में आ रहा है कि असुरक्षा बढ़ गई है तो उसकी बीवी को लगा असुरक्षा बढ़ गई होगी इसलिए निकल भागने के लिए एक बिल कहीं बाहर को बनाना चाहिए। अब तक उसको ऐसा नहीं लगा था, बीवी ने कहा तो कान्तासम्मित ही कहा होगा, अब उसे भी असुरक्षा अनुभव होने लगी। अफवाहें इसी तरह फैलती और खतरनाक आयाम लेती हैं, इसलिए हर बार पूछो, क्या हुआ, कहाँ हुआ, उसे तौलो, क्वांटिफाई करो और देखो किसी चीज को अनुपात से बढ़ा कर तिल का ताड तो नहीं बनाया गया है। इसे कहेंगे मार्क्सवादी सोच और मार्क्सवादी समझ और इसके बाद तुम्हारा मार्क्सवादी कार्यभार आरंभ होता है इस अफवाह और बदहवासी के खिलाफ लड़ने का। अकेले पड़ जाओ तो भी लड़ो तर्क देते और प्रतिवाद की तार्किक माँग करते हुए। तुम यह नहीं कर रहे हो। हाथ पर हाथ धरे नारेबाजों के साथ नारेबाजी कर रहे हो। मैं अकेला तुमसे भी लड़ रहा हूँ और उनसे भी और तुम मुझसे भी डरने लगते हो। है न! डरो मत, लड़ो। नफरत मत फैलाओ, नफरत के कारणों की व्याख्या करो, नफरत उस व्यख्या से ही दूर हो जाएगी।“
“इतनी ऊँची हाँकते हो? अकेले के वश का काम है यह?”
हमारा दुर्भाग्य या सौभाग्य यह है कि हम बौद्धिक हैं। सोचने, समझने और लिखने के सारे काम अकेले ही किए जाते हैं। दूसरों पर नजर रख कर सोचोगे, लिखोगे तो जिन पर नजर रखोगे उनका तुम्हारी चेतना में प्रच्छन्न प्रवेश हो जाएगा। तुम्हारे विचार में मलिनता आ जाएगी। ऐसा विचार खुद अपनी दीवार तैयार करके, उससे टकरा कर लौट कर तुम्हारे पास आ जाता है। तुम्हारे विचार अपनी पूरी ईमानदारी से दूसरों तक पहुँचे, वे यदि सहमत हों तो, उनके कथन-लेखन के माध्यम से वे दूसरों तक पहुँचें। इस तरह बनता है वह महावृत्त जिसमें व्यक्ति के रूप में अकेले होते हुए भी तुम विचारों के स्तर पर एक बड़े समुदाय के साथ होते हो जो भीड़ बन कर तुम्हारे साथ खड़े नहीं होते, अपनी अपनी जगह पर मुस्तैदी से खड़े होते हैं। जो तुम्हारी बात नहीं मानते हैं, तुम्हारे विचारों और अपने विचारों के टकराव से जो चमक पैदा होती है उसे मशाल बनाते हैं इसलिए वे तुम्हारे अनुयायी नहीं होते, विचार बन्धु होते है जिनके अपने विचार है। तुम जब पार्टी के साथ होते हो, पार्टीजन होते हो, तो तुम्हारे पास विचार नहीं होते। तुम मान लेते हो पार्टी के पास विचार हो सकते हैं, और तुम उसकी लाइन पकड़ लेते हो। लाइन का एक मतलब मछली मारने की कँटिया भी होता है । तो लग्गी उसके हाथ में और मछली की तरह लाइन में फंसे तुम। तुम हो कर भी होते ही नहीं, सिवाय एक छटपटाहट के ।“
आज वह चुपचाप सुन रहा था।
“गणित जानते हो। भीड़ में लोग कहने को जुड़ते हैं, पर दर असल गुणित होते हैं। आवेग के कारण यदि बौद्धिकता आधी भी रह गई तो उन असंख्य लोगों के जुडने के कारण आधा असंख्य आधों से गुणित होता हुआ उस शून्य के निकट पहुँच जाता है जिसमें विवेक रह ही नहीं जाता, इसे मास हिस्टीरिया कहते हैं। लोग जब कहते हैं कि संख्या इतनी बढ़ गई तो मैं गणितज्ञों से पूछता हूँ, गणित मेरी कमजोर है इसलिए, कि विवेक का स्तर नैनोमीटर से तय करके बताओ भाई।
करने को तुम्हें बस यह है कि तुम अपने को सच्चा मार्क्सवादी सिद्ध करो। और उस नौटंकीवाले छोरे से मुलाकात हो तो उसे भी समझाना कि कलाकार तू बड़ा है, ठान ले तो आदमी से चूहा बन कर भी दिखा सकता है, परन्तु आदमी के रूप में तू खासा अच्छा लगता है। कि चूहा बन कर जीने का चुनाव करने से बेहतर है, आदमी बन कर जी। तुझे कुछ होने का नहीं, तू जितना सुरक्षित है उतना अपनी प्लस जेड सेक्योरिटी के बाद भी देश का प्रधानमंत्री तक सुरक्षित नहीं है जिस पर पत्थर फेंकने वालों में तू भी शामिल हो गया, पर यह नहीं जानता कि उसकी गलती क्या है, तेरी जोरू को भले पता हो कि उसकी गलती क्या है।
11/24/2015 12:24:49 PM