हुए तुम दोस्त जिनके दुश्मन उनका आसमाँ क्यों हो
“भारतीय कम्युनिस्टों की सबसे बड़ी कमी यह है कि वे संजीदा नहीं रहे हैं, न अपने काम के प्रति, न अपने दल के प्रति, न देश के प्रति न ही मानवता के प्रति। वे रोमानी रहे हैं, आवेश में अपनी पहचान तक भूल जाते रहे हैं। “ मैंने सुबह की छूटी कड़ी को जोड़ते हुए कहा।
“और क्या सोचते हो तुम?”
” जिसे भी हाथ लगाया वह काम से गया। मैं सोचजा हूं इतना अशुभ हाथ क्या कम्युनिज्म का ही होना था जो मानवता की उदात्ततम आकांक्षा है?”
“और क्या सोचते हो तुम?”
“सोचता हूं प्रवेश का मुहूर्त गलत हो गया। यजमान भी निखट्टू और पुरोधा भी अनाड़ी, न वेदी का मान ठीक न समिधा का प्रबन्ध, मन्त्र रचे ही न गये पाठ क्या होता। उद्गाता मिले सिरफिरे, खुद ही मनमाने मन्त्र बना कर गाने लगे। यह महायज्ञ संपादित कैसे होता यार?”
जाहिर है मैं उसे खिझा रहा था। इसमें उस अन्याय का बदला लेने का दबा भाव भी रहा हो सकता है जो मुझे झेलना पड़ा था और जिससे तंग आकर मैंने पक्षधरता के आदर्श को सम्मान तो दिया पर दूसरे पाले में खड़ा हो कर जिरह करने लगा।
“तुम इतने पश्चगामी हो चुके हो कि मन्त्र-तन्त्र और यज्ञ-याग की दुनिया में जा कर आज की दुनिया को समझने का प्रयत्न कर रहे हो?”
“नहीं, तुमने अपनी नासमझी में अपनी इतनी दुर्गति की कि उसे बयान करने के लिए कई हजार पीछे लौटने पर ही तुम्हारे यथार्थ को बयान करने का प्रतीकविधान और रूपक मिल पाया।
“तुम्हारी समझ का यह हाल कि देखा रूस में रक्त क्रान्ति हुई तो क्रान्ति की बात तो भूल गए। याद रह गया रक्त पात। रक्त बहाने पर खुश होने लगे। हिंसा और उपद्रव को हथियार बनाने की सोचने लगे। तुम्हें राज थापर की किताब से एक और अंश की याद दिलाऊँ । विभाजन के दौर में खून खराबा मचा हुआ था। इससे पीड़ित राज ने जब कामरेड डांगे से दुखड़ा रोया तो जानते हो उनका उत्तर क्या था? राज के शब्दों में ही सुनोः
Dange looked at me impassively, with almost a gleam of secret delight. ‘Don’t worry, Raj,’ he said. ‘Let our people taste blood, let them learn how to draw it. It will make the coming revolution easier.’ 43
“तो यह थी तुम्हारी क्रान्ति की समझ और यह था मानवीय संवेदना का रूप। यह था देश प्रेम और पीड़ितों दुखियारों का पक्ष। डांगे के ही कार्यकाल में आपात काल आया था और उन्होंने ही उसका समर्थन किया था, यह जानते ही हो।
“भाई रूस में जनता और सेना के बीच की दीवार बहुत पतली थी। युद्ध छिड़ने पर अपने लबादे, घोड़े, जीन और बन्दूक के साथ जनता के बीच से नौजवानों को लामबन्द होना पड़ता था। कहो जनता हथियारबन्द थी और उसके आक्रोश को सैन्य बल से दबाया नहीं जा सकता था। सेना ने विद्रोहियों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था, यह तुम जानते हो। तुम्हारे यहाँ गाँधी जैसा अहिंसक का रोना यह था कि अंग्रेजों ने हमसे हथियार छीन कर हमें नामर्द बना दिया। इस निहत्थी जनता को तुम क्रान्ति में उतारना चाहते थे और उतारा तो बलि का बकरा बना दिया। आज तक यह मुगालता दूर नहीं हुआ। मेरा एक प्यारा सा कवि था, मुझसे दस पन्द्रह साल छोटा था। तेजस्वी। उसकी कविता की एक पंक्ति याद आ रही है, ‘‘जवाब दर सवाल है कि इन्कलाब चाहिए।’ कविता में, साहित्य में इन्कलाब न हो तो कविता कविता नहीं, साहित्य साहित्य नही। इन्कलाब के राग मजदूरों के नारों में आज भी मिलेंगे। बस इसी रूमानियत ने अक्ल पर परदा डाल दिया। जागते हुए भी सपने दिखाई देने लगे, जमीनी सचाई आँखों से ओझल हो गई।
“गाँधी ने इस देश को पहचाना था और इसके सही हथियार को पहचाना था। वह था सत्यव्रत और सत्याग्रह। अहिंसात्मक प्रतिरोध। इसने औरंगजेब जैसे दुराग्रही को झुकाकर रख दिया था।”
“यार, कब हुए गाँधी और उनसे कितने पहले हुआ औरंगजेब।”
“मैं जानता हूँ दोनों के काल का अन्तर, पर तुम नहीं जानते कि सत्याग्रह इस देश का बहुत पुराना हथियार है और इसने बादशाहों को झुकने पर मजबूर किया है। इसकी रीढ़ है अपमान सह कर भी सत्य के साथ खड़ा होना। बल्कि अपमान को अमृत और सम्मान को विष समझना। तुम तो पढ़ते लिखते ही रहे हो और मनुस्मृति को तो अंगीठी जलाने का रद्दी कागज ही समझते हो, पर उसी मनुस्मृति में यह भी लिखा है,
सम्मानात् ब्राह्मणो नित्यं उद्विजेत् विषात् इव। अमृतस्येव च आकांक्षेत् अवमानस्य सर्वदा।। 2.163
“तो यदि इतिहास की गहरी समझ होती तो अपने आयुधागार में से सबसे प्रभावी आयुध निकाला होता।
“तुम अपने इतिहास को नहीं जानते इसलिए इस देश की जनता को भी न तो जान सके न प्यार कर सके। उसे हिन्दू मुसलमान बना कर देखते रहे और उनकी उपेक्षा करते रहे जो इन दायरों को धता बता कर अपने रीति-रिवाज और सम्मान के साथ शताब्दियों से इस देश में रहे हैं और अपने लिए इससे अच्छा देश किसी अन्य देश को मानते ही नही। तुम लोग अपने को प्यार करते रहे। यश और लाभ की चिन्ता में अपने को बेचते हुए, अपने अतीत को बेचते हुए, अपने बाप दादों को बेचते हुए।
“दूसरे देशों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की विशेषता यह है कि उनमें एक कम्युनिस्ट पार्टी है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कई धड़े हैं और उनमें से प्रत्येक दूसरों को गलत मानता है और मैं सभी से सहमत हो जाता हूँ लेकिन सिर्फ इस बात पर।”
“कभी तो गंभीरता से बात किया करो।”
“मखौल नहीं कर रहा हूँ। एक विशेषता और है भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों की कि ये उन देशों की जानकारी रखते हैं जिनसे मदद मिलती रही है, अपने देश और समाज को नहीं जानते न इससे प्यार करते हैं। जब कि दूसरे देशों की कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपने देश को दूसरे देशों से अधिक जानती हैं और अपने देश को प्यार भी करती हैं।”
“क्या बेतुकी बात करते हो!”
“प्यार करने के लिए समाज को समझने की जरूरत होती है और समाज को समझने के लिए इतिहास को जानना जरूरी होता है क्योंकि हम अपने पूरे इतिहास को जीते हैं, केवल वर्तमान को नहीं, यह मैं कह आया हूँ।
“तुम इतिहास को नहीं जानते। उसे जानने के लिए जिन भाषाओं का ज्ञान जरूरी है उन्हें भी तुमने किनारे लगा दिया। नादानी में तुम अपने इतिहास से डरते हो इसलिए तुम्हें अपना समाज भी डरावना लगता है। डरावने इतिहास से बचने के लिए तुम इतिहास गढ़ते हो और गढ़े हुए इतिहास में समाज को कस कर रखना चाहते हो। यह हो नहीं पाता और तुम्हारे इतिहास और इतिहासबोध की धज्जियाँ उड़ जाती हैं। फिर तुम समाज को अपनी इच्छा के अनुसार बनाना चाहते हो और उसे समझने का काम तब तक के लिए स्थगित कर देते हो, जब तक वह तुम्हारे मनचाहे रूप में बन कर तैयार न हो जाय। वह बनने की जगह बिगड़ता चला जाता है। इतिहास की समझ स्थगित होती चली जाती है। तुम समस्याओं के भूत खड़े करते हो और उनसे लड़ते हो और समस्याये उग्र होती चली जाती हैं। तुमने प्रगतिशीलता के नाम पर प्रतिगामी शक्तियों से लड़ने के लिए उन्हें उभारा और अब वे तुम्हारे ऊपर ही भारी पड़ रही हैं। तुमने यह सोचा ही नहीं कि हमारी प्रगतिशीलता की समझ सही है या गलत। सही है तो उल्टे परिणाम क्यों आ रहे हैं?
“अर्थ व्यवस्था की तुम्हारी समझ यह कि पूँजीवाद के आने से पहले ही तुमने उससे लड़ाई मोल ले ली। राष्ट्रीय पूँजीवाद को विकसित ही नहीं होने दिया। इन सब बातों की जानकारी जैसी होनी चाहिए वह तो है नहीं पर इतनी मोटी बात समझ में आती है कि जिन हथकंडों के कारण कल कारखाने ही बन्द होने लगें, कहें मजदूरों की संख्या और ताकत बढ़ने के स्थान पर घटने लगे, वह उसी मजदूर वर्ग के साथ विष्वासघात हुआ जिसको एकत्र पाकर लगा कि इनके बल पर क्रान्ति की जा सकती है। नतीजा आर्थिक और औद्योगिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनने के स्थान पर हम पुनः बाजार बनते चले गए। राष्ट्रीय पूँजी का पलायन होने लगा। मर गया देश ज़िंदा रह गया इंक़लाब ज़िंदाबाद का नारा जिनकी आवाज़ बुलंद करने वालों की बोलती बंद होती जा रही है.
11/23/2015 9:30:07 PM