Post – 2015-10-17

“भाई देखो, जब तुमसे बात करता हूँ तो तुम क़ायल कर देते हो. फिर मन में दुविधा पैदा हो जाती है. भाजपा की करतूतों से ऊब कर दूसरे साहित्यकार उससे अलग हो रहे हैं ..”
मैंने बीच ही में टोक दिया, “अलग तो हो ही नहीं सकते.”
“क्या बकते हो?”, वह खीझ उठा.
मैंने कहा, “अलग तो वह हो सकता है जो पहले लगा रहा हो. तुम कह सकते हो जो कांग्रेस के राज में सत्ता से लगे जुड़े थे, वे अब उसके सत्ता से बाहर हो जाने के बाद सत्ता से अलग-थलग पड़ गए हैं.”
“चलो वही सही. मुहावरे का फेर है. वे अलग-थलग पड़ गए हैं और इस मौके का फ़ायदा उठा कर उससे जुड़ गए हो. गलत कहा?”
“तुम ग़लत तो हो ही नही सकते. मूर्ख कभी गलत हो ही नही सकते, क्योंकि वे कुछ कहते ही नही. केवल तोहमत लगाते हैं.”
“इतने सारे जो लोग हैं क्या वे मूर्ख हैं.”
“मैं तुम्हे मूर्ख कह रहा हूँ, तुमने इतने सारे लोगों को समेट लिया.”
“वे भी तो बिना कुछ कहे तोहमत ही लगाते रहे हैं. प्रतिभा में अनेक तुमसे ऊपर ही पड़ेंगे.”
“अनेक नहीं सभी. परन्तु तुम जानते हो संस्कृत में लाइलाज मूर्खता की कहानियाँ पंडितों को लेकर ही मिलाती हैं. अज्ञानी गलती करता है. मुझसे बहुत गलतियां होती हैं. ज्ञानी लोग मूर्खताएं करते हैं. जब कोई ज्ञानी लोभ, मोह, क्रोध, जलन, दम्भ, भय आदि में कुछ करता है तो मूर्खताएँ ही करता है.”
“पर…” वह कुछ कहने को हुआ. मैंने उसे रोक दिया, .”जब कोई यह सोच कर कुछ करता है कि दूसरे क्या सोचेंगे, तब वह नहीं सोचता, उसकी कल्पना में दूसरे जो कुछ सोचेंगे उसे वह अपना सोचा मान लेता है. खाप की मानसिकता. इसमें सच को झूठ और झूठ को सच मान लिया जाता है. जब कोई सोचता है तब वह इस बात पर ध्यान नहीं देता कि दूसरे क्या सोचते हैं या क्या सोचेंगे या पहले क्या सोचा या माना जाता रहा है. वह केवल वस्तुस्थिति पर ध्यान देता है. सत्य का सीधा साक्षात्कार. वह तत्वद्रष्टा होता है, क्रांतदर्शी हो जाता है. ऋषि हो जाता है. इसकी शक्ति उसे अपनी आँखों पर भरोसा करने से मिलती है. वह एक ख़ास माने में त्रिकालदर्शी हो जाता है, भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों को देख लेता है.”
“और तुम वही हो.” उसने व्यंग से हँसते हुए कहा.
“पहली बार तुमने एक सही बात कही है. चलो अभी दिखाता हूँ इसका प्रमाण.” मैं उसे खींच कर घर तक लाया और अपनी किताब ‘भारत: तब से अबतक’ सामने रख दी.” देखो इसमें तीनों काल आगये न.”
उसने इतने ज़ोर का ठहाका लगाया कि रसोई में रखे बर्तन तक खड़खड़ा उठे, “इस नाम से ही तुम त्रिकालदर्शी हो गये?” .
मैंने कहा, यह लेख पढ़ो. यह किताब १९९६ में छापी थी. यह लेख पहले ‘तीसरी दुनिया’ में छापा था. पता नही कितने साल पहले. शीर्षक तुम देख रहे हो ‘खुदा वह वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू’. आज जो लोग शोक मना रहे हैं उन्हें आज से पचीस साल पहले मैंने चेताया था कि जो नाटक चला रहा है उसका परिणाम क्या होगा. इसके लिए तुम ज़िम्मेदार होगे. इसमें जो कुछ कहा गया था वह आगे चलकर अक्षरशः सत्य हुआ.” लंबा लेख, १९ पन्नों का. वह उसमें डूब गया और मैं चाय के इंतज़ाम में. चाय लाकर रख दी वह बीच बीच में चुस्की लेता हुआ उसी में खोया रहा. और जब मेरी और रुख किया तो आँखों में विस्मय. मेरा ही लेख एक ख़ास पन्ने पर खोल कर मेरे सामने रख दिया: