मैं इतिहास के भीतर चल रहा था वह इतिहास के बाहर. हम दोनों घडी-वक़्त के साथ थे इसलिए मेरा बायाँ हाथ उस अदृश्य, पर चnबकीय रेखा, से सटा था और उसका दायाँ. हम अपने समय को और आने वाले समय को समझना चाहते थे, इसलिए, एक दूसरे से बहस करना चाहते थे. मैंने कहा भीतर आ जाओ.
उसने कहा तंग दायरे में मेरा दम घुटता है. बाहर इतना खुलापन है. आना तुम्हे होगा.
मैंने कहा खुलापन तो है पर बाहर अन्धेरा है. अँधेरे में शक पैदा होता है. लोग समझने से पहले गला काट लेते हैं.
उसने कहा इतिहास में तो यही होता रहा है. मुझे उससे डर लगता है.
मैंने कहा यहाँ नया कुछ नहीं होगा. जो होना था हो चुका. बची उसकी रोशनी है.
उसने कहा तुम केवल रोशनी को देख रहे हो, उस काठ को नहीं जिसके जलने से रोशनी पैदा हो रही है और साथ ही धुँआ भी जो तुम्हें दीखता ही नहीं.
मैंने कहा धुँआ हो या रोशनी, भण्डार यही है. यहीं से बाहर जाता है धुँआ और प्रकाश, लुकाठा और मशाल. भीतर आकर ही चुनाव किया जा सकता है कि हमें क्या चाहिए. जो नहीं चाहिए उसे रोका कैसे जाय. फैसला भीतर पहुँच कर ही हो सकता है, बाहर रहकर नहीं.
उसको बात जँची. बोला, रुको. पार्टी से पूछ कर आता हूँ.
लौटा तो बोला, मैं तुम्हारे वाम हूँ, तुम तुम मेरे दक्खिन. जब दिशाएँ ही अलग हैं तो तुमसे बात कैसे हो सकती है. हो तभी सकती है जब मैं दक्षिणपंथी होने का खतरा उठाऊँ. मुझे पार्टी के साथ रहना है अपने साथ नहीं.