Post – 2015-09-12

न रात थी न तो दिन था न अँधेरा न उजास
महज़ क़यास था, धुँधलाया हुआ एक क़यास.
जो जैसा है उसे वैसा ही मानते हैं लोग
यह बस क़यास था अब तक है महज़ एक क़यास.
क्यों सच को मानने-कहने से लोग डरते हैं
क्यों सच को सुनते ही खो बैठते है होशोहवास.
इस पशोपेश में लो ज़िन्दगी तमाम हुई
न जीर्ण शीर्ण मगर घिस तो चला है ही लिबास.
नाउमीदी के सिरे पर है उमीदों की किरन
आखिरी साँस से पहले तो मिलेगा ही जवाब.
मेरे क़यास मेरी आबरू तेरे हाथों
मैंने भगवान को देखा न कभी होते उदास.
9/12/2015 8:29:35 PM