Post – 2015-09-11

वही दो चार जुमले हैं न कहने को बचा कुछ भी
कभी चुप रह न पाते थे यह सच तक भूल जाते हैं
ज़माने भर के नग़मे और ज़माने भर के अफ़साने
हमारे गिर्द मंडराते थे ख़ुद क़ासिद बताते हैं
मुहब्बत में अदावत कैसे आकर हो गई शामिल
तुम्हे जब याद करते हैं तो दुश्मन याद आते हैं.
2015-09-11