Post – 2015-09-10

खुद को मैं ‘गर आपके ही आईने में देखता.
मानिए सच आप जो कुछ देखते हैं देखता.
आप दिखलाते अगर दिन में भी तारे चाँद तो
मैं भी कहता मरहवा जो कुछ दिखाते देखता.
रात में कहते की सूरज को अभी हाज़िर करो
मैं क़ज़ा को याद करता आप का मुंह देखता.
देखने को क्या बचा है इस निज़ामे हुस्न में
कौन कब तक देखता हाँ कौन क्या क्या देखता.
मैंने जब भगवान से पूछा कि क्या दीखा तुझे
हंस के बोला ‘खुद ही गुम हूँ मैं भला क्या देखता’-
2015-09-10