Post – 2018-04-18

मैं छाती चीर कर भी अपना सच दिखला नहीं सकता

राजनीतिक जुमलेबाजी के माहौल में जहां सच दलों के साथ बदलता रहता है समस्या विचारों की हत्या करने और उन्हें जीवित रखने के बीच चुनाव की होती है। समस्या बड़बोलेपन और तर्कसंगत विचारों को संयुक्त भाषा में रखने के विकल्पों में से एक के चुनाव की होती है। जिन लोगों के पास पूरा सच और एकमात्र सच जमा होता है, वे अपने से असहमत होने वालों की नैतिक या भौतिक हत्या करने के लिए किसी सीमा तक जा सकते हैं। सच पर कब्जा करने में वे इतनी जल्दबाजी करते हैं कि पूरी इमारत सुनने से पहले अपने नतीजे निकाल लेते हैं । नतीजे निकालने नहीं होते, वे उनके स्टाक में होते हैं और वे उनको अमल में लाने के तिए मौके की तलाश में रहते हैं इसनिए उनकी आहट मिलते ही उन्हे दबोच लेते हैं। ऐसे लोगों की आक्रामक सचाई के भीतर से वास्तविकता की खोज करना असंभव बना दिया जाता है। मेरा यह बोध दिनों अधिक प्रखर हुआ है और उसी अनुपात में मेरी असुरक्षा की भावना बढ़ी है।

अभी इमरजेंसी लगी नहीं थी पर संजय गांधी की बदतमीजियां और उन पर इंदिरा गांधी का मौन सार्वजनिक हो चुका था। संजय गांधी ने एक महिला जज को मिनी बस में थप्पड़ मारा था। जब इसकी सूचना मिली तो मुझे लगा वह थप्पड़ मेरे गाल पर भी पडा है। ठीक ऐसा ही अनुभव तब हुआ था एक SP के साथ उन्होंने ऐसा ही बर्ताव किया था। ठीक ऐसा ही हर त्रासदी के साथ होता है। मुझे ऐसा इसलिए लगता है की चेतना के स्तर पर मैं स्वतः भुक्तभोगी की स्थिति में पहुंच जाता हूं।

कई बार बस से गुजरते बाहर सड़क पर किसी अन्याय को, खासकर किसी स्त्री या बच्चे पर, होते देख कर अक्सर चीख पड़ता था, और लोग चौंक कर देखने लगते तो लज्जित भी अनुभव करता था कि आखिर देखा तो कई ने था, किसी के मुंह से चीख या फटकार क्यों नहीं लिकली। यदि विश्वास होता मै दूसरों से अधिक संवेदनशील हूं, तो लज्जित अनुभव न करता। व्याधि मानता हूं, पर है तो है।

सामाजिक त्रासदियों पर जो लोग ऐसी स्थितियों में राजनीति प्रेरित रुख अपनाते हैं वे मुझे संवेदनाशून्य, क्रूर और डरावने लगते हैं। वास्तविक अपराधियों को छिपाने बचाने और बलि के लिए किसी को भी चुन कर जल्द से जल्द शूली पर चढ़ा देने का उनका न्याय मुझे आतंकित करता है। उनका दुश्मन कोई और होता है और उसे अपने रास्ते से हटाने क् लिए हत्या किसी और की कर रहे होते। कराला काली की तरह उन्हें केवल बलि चाहिए, जो भी राह में आ जाय।

Post – 2018-04-18

मैं छाती चीर कर भी अपना सच दिखला नहीं सकता

राजनीतिक जुमलेबाजी के माहौल में जहां सच दलों के साथ बदलता रहता है समस्या विचारों की हत्या करने और उन्हें जीवित रखने के बीच चुनाव की होती है। समस्या बड़बोलेपन और तर्कसंगत विचारों को संयुक्त भाषा में रखने के विकल्पों में से एक के चुनाव की होती है। जिन लोगों के पास पूरा सच और एकमात्र सच जमा होता है, वे अपने से असहमत होने वालों की नैतिक या भौतिक हत्या करने के लिए किसी सीमा तक जा सकते हैं। सच पर कब्जा करने में वे इतनी जल्दबाजी करते हैं कि पूरी इमारत सुनने से पहले अपने नतीजे निकाल लेते हैं । नतीजे निकालने नहीं होते, वे उनके स्टाक में होते हैं और वे उनको अमल में लाने के तिए मौके की तलाश में रहते हैं इसनिए उनकी आहट मिलते ही उन्हे दबोच लेते हैं। ऐसे लोगों की आक्रामक सचाई के भीतर से वास्तविकता की खोज करना असंभव बना दिया जाता है। मेरा यह बोध दिनों अधिक प्रखर हुआ है और उसी अनुपात में मेरी असुरक्षा की भावना बढ़ी है।

अभी इमरजेंसी लगी नहीं थी पर संजय गांधी की बदतमीजियां और उन पर इंदिरा गांधी का मौन सार्वजनिक हो चुका था। संजय गांधी ने एक महिला जज को मिनी बस में थप्पड़ मारा था। जब इसकी सूचना मिली तो मुझे लगा वह थप्पड़ मेरे गाल पर भी पडा है। ठीक ऐसा ही अनुभव तब हुआ था एक SP के साथ उन्होंने ऐसा ही बर्ताव किया था। ठीक ऐसा ही हर त्रासदी के साथ होता है। मुझे ऐसा इसलिए लगता है की चेतना के स्तर पर मैं स्वतः भुक्तभोगी की स्थिति में पहुंच जाता हूं।

कई बार बस से गुजरते बाहर सड़क पर किसी अन्याय को, खासकर किसी स्त्री या बच्चे पर, होते देख कर अक्सर चीख पड़ता था, और लोग चौंक कर देखने लगते तो लज्जित भी अनुभव करता था कि आखिर देखा तो कई ने था, किसी के मुंह से चीख या फटकार क्यों नहीं लिकली। यदि विश्वास होता मै दूसरों से अधिक संवेदनशील हूं, तो लज्जित अनुभव न करता। व्याधि मानता हूं, पर है तो है।

सामाजिक त्रासदियों पर जो लोग ऐसी स्थितियों में राजनीति प्रेरित रुख अपनाते हैं वे मुझे संवेदनाशून्य, क्रूर और डरावने लगते हैं। वास्तविक अपराधियों को छिपाने बचाने और बलि के लिए किसी को भी चुन कर जल्द से जल्द शूली पर चढ़ा देने का उनका न्याय मुझे आतंकित करता है। उनका दुश्मन कोई और होता है और उसे अपने रास्ते से हटाने क् लिए हत्या किसी और की कर रहे होते। कराला काली की तरह उन्हें केवल बलि चाहिए, जो भी राह में आ जाय।

Post – 2018-04-17

संतापसूचक शब्द और जल (2)

अर – जल से व्युत्पन्न शब्दों में ‘अरण्ड’ आता है । बार बार इस बात की याद दिलाना जरूरी नहीं की घी, तेल आदि के लिए रूढ़ शब्दों का मूल अर्थ पानी रहा है। इस मामले में अर का अर्थ तेल, या पानी जैसा द्रव पदार्थ है, जिसमें इसके फल की आकृति ‘अंड’ या गोलाकार जोड़कर अरंड बना है और उसमें हीनार्थक ‘-ई’ लगाकर ‘अरंडी’ शब्द बना है। इसका अर्थ है कि ‘अर’ का भी प्रयोग भी कभी तेल के लिए कर लिया जाता था ।

कुछ लोग यह समझते हैं, और इसमें संस्कृत के विद्वान और कोशकार भी शामिल हैं, कि तेल के लिए संस्कृत शब्द ‘तैल’ है। तिलहनों में सबसे पहले तिल की खेती आरम्भ हुई, और तेल तिल से निकला है, इसलिए उसका अपत्यार्थक रूप तैल है। मैं एक बार किसी अन्य प्रसंग में बता चुका हूं कि दिल्ली की स्थानीय भाषा में है आज भी पानी के लिए तेल शब्द का प्रयोग जब तब होता है, यह मुझे अपने पार्क के माली से पता चला था। मैंने उसे पौधों में पानी देने को कहा तो उसने खुरपी से मिट्टी उलटकर कहा, ‘ताऊ यामें घणों तेल है।’ ऋग्वेद में सिंचित भूमि के लिए तिल्विल का प्रयोग हुआ हैः

भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले वा सनेम मध्वो अधिगर्तस्य ।। 5.62.7 यह है सोम की बुवाई का तरीका है, भूमि को अच्छी तरह जोत कर (भद्रे क्षेत्रे), उसे नम (तिल्विल) बना कर, नालियां बनाकर, नालियों में सोम के टुकड़े बोए जाते थे। जिनको यह भ्रम बना रह गया हो कि सोम गन्ना नहीं था, वे गन्ने की बुवाई के बारे में जानकारी बढ़ा सकते हैं।

सभ्यता के विकास को समझने मैं सहायक संकेतों में इस तरह की सूचनाएं बहुत महत्वपूर्ण है। तेल का पता मनुष्य को बहुत बाद में चला। पहले वह अरंडी को पत्थर पर कूट कर उसके गूदे से बालों को मसलकर उन्हें चिकना बनाता था । इस तरह की प्राचीन सूचनाएं बहुत बाद तक कैसे स्थांतरित होती रहीं, यह सोच कर हैरानी होती है। तेल के आविष्कार के कई हजार साल बाद, यह सूचना कालिदास को उपलब्ध थी, जिन्होंने कण्व आश्रम के छात्रों के संदर्भ में इसका और वल्कल का उल्लेख किया है।

जो भी हो, तेल के विषय में जानकारी तिल की खेती आरंभ होने से पहले भारतीय समाज को थी। अतः खाने चबाने के लिए तिल को कूटते समय उन्हें इसके भीतर आर्द्रता या चिकनाई का पता चला होगा इसलिए तिल के लिए उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया गया होगा। संभवतया नामकरण तैल किया गया हो, और बाद में भूल सुधारने की कोशिश में है एक नई भूल कर दी गई हो।

संताप
संताप में उपसर्ग ‘सं’ का अर्थ जल है, इसी तरह प्रताप, अनुताप, आदि में भी, प्र ( प्ल), और अनु का अर्थ भी जल है। स्वयं ताप और तप पानी की बूंद के गिरने से उत्पन्न ध्वनि के अनुकरण की देन हैं, इसलिए इनका प्रयोग आग और धूप प्रभाव के आशय में होने लगा। परंतु, यह निर्मितियां धातु प्रत्यय और उपसर्ग की भाषाई युक्ति का विकास होने के बाद की हैं, जब इन्होंने एक नया रूढ़ आशय ग्रहण कर लिया था, इसलिए वर्तमान विवेचन में हम इनको जल से सीधे व्युत्पन्न नहीं मान सकते। यही बात पश्चाताप पर भी लागू होती है। मैंने ‘अनु’ का अर्थ भी जल बताया है जबकि हम इसके उपसर्ग रूप से ही परिचित हैं, इसलिए इसका अर्थ जल करना प्रयत्नसाध्य लग सकता है। परंतु एक तो दूसरे सभी उपसर्गों का एक अर्थ जल है, दूसरे अनुक और अनूक दो ही ऐसे शब्द हैं जिनमें अनु का प्रयोग उपसर्ग के रूप में नहीं हुआ लगता है। पहले का अर्थ लालची है, आकांक्षी है और कामना लालसा आदि के लिए सभी शब्द जल से संबंधित है। मेरे अनुमान का आधार केवल इतना ही है। तप/टप = जल और अं . tub तथा आँखों के दबदबाने के सम्बन्ध को इसी तर्क से समझा जा सकता है.

सताना । यातना। यंत्रणा
शातन या चातन, जिनसे सत् और सताना का संबंध है, उस क्रिया की देन हैं जो किसी रसीले डंठल, या लता का रस निकालने के लिए की जाती थी। अर्थात कूटना, कुचलना या पीसना। इस सिरे से विचार करने पर हम पाते हैं भोजपुरी का जांत शब्द जो चात, सात की शृंखला में आता है, यंत्र की अपेक्षा पुराना है (यद्यपि इसका नासिक्य प्रयोग यंत्र से प्रभावित लगता है) और यंत्र संस्कृतीकरण है, जिससे यातना और यंत्रणा की उत्पत्ति हुई है। गणित करना और खंडित करना दोनों का अर्थ एक ही था बंगाल में आज भी आटा पिसाने को गुणा करना का प्रयोग चलता है। विषाद,अवसाद और निषाद आदि में यही सातना और सताना पाया जा सकता है, जबकि प्रसाद में हिस्सा पाने, अर्थात बंटवारे का भाव तथा प्रसीद में पसीजने या द्रवित होने का भाव है जो जल की याद दिलाता है।

संस्कृत के आचार्यों का यह विचार रहा है कि उपसर्ग के प्रभाव से धातुओं में नया अर्थ पैदा हो जाता है, (उपसर्गेण धात्वर्थो बलाद अन्यत्र नीयते) परंतु यह अर्थ नया नहीं होता जातीय अवचेतन में बने रह गए पुरातन आशयों का पुनर आविष्कार होता है। भाषा में बलपूर्वक कुछ भी नहीं होता, परंतु इसके तरीके इतनी जटिल और दूरगामी हैं कि उनको पकड़ पाने में हम हमेशा सफल नहीं हो सकते।

क्रमशः

Post – 2018-04-17

संतापसूचक शब्द और जल (2)

अर – जल से व्युत्पन्न शब्दों में ‘अरण्ड’ आता है । बार बार इस बात की याद दिलाना जरूरी नहीं की घी, तेल आदि के लिए रूढ़ शब्दों का मूल अर्थ पानी रहा है। इस मामले में अर का अर्थ तेल, या पानी जैसा द्रव पदार्थ है, जिसमें इसके फल की आकृति ‘अंड’ या गोलाकार जोड़कर अरंड बना है और उसमें हीनार्थक ‘-ई’ लगाकर ‘अरंडी’ शब्द बना है। इसका अर्थ है कि ‘अर’ का भी प्रयोग भी कभी तेल के लिए कर लिया जाता था ।

कुछ लोग यह समझते हैं, और इसमें संस्कृत के विद्वान और कोशकार भी शामिल हैं, कि तेल के लिए संस्कृत शब्द ‘तैल’ है। तिलहनों में सबसे पहले तिल की खेती आरम्भ हुई, और तेल तिल से निकला है, इसलिए उसका अपत्यार्थक रूप तैल है। मैं एक बार किसी अन्य प्रसंग में बता चुका हूं कि दिल्ली की स्थानीय भाषा में है आज भी पानी के लिए तेल शब्द का प्रयोग जब तब होता है, यह मुझे अपने पार्क के माली से पता चला था। मैंने उसे पौधों में पानी देने को कहा तो उसने खुरपी से मिट्टी उलटकर कहा, ‘ताऊ यामें घणों तेल है।’ ऋग्वेद में सिंचित भूमि के लिए तिल्विल का प्रयोग हुआ हैः

भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले वा सनेम मध्वो अधिगर्तस्य ।। 5.62.7 यह है सोम की बुवाई का तरीका है, भूमि को अच्छी तरह जोत कर (भद्रे क्षेत्रे), उसे नम (तिल्विल) बना कर, नालियां बनाकर, नालियों में सोम के टुकड़े बोए जाते थे। जिनको यह भ्रम बना रह गया हो कि सोम गन्ना नहीं था, वे गन्ने की बुवाई के बारे में जानकारी बढ़ा सकते हैं।

सभ्यता के विकास को समझने मैं सहायक संकेतों में इस तरह की सूचनाएं बहुत महत्वपूर्ण है। तेल का पता मनुष्य को बहुत बाद में चला। पहले वह अरंडी को पत्थर पर कूट कर उसके गूदे से बालों को मसलकर उन्हें चिकना बनाता था । इस तरह की प्राचीन सूचनाएं बहुत बाद तक कैसे स्थांतरित होती रहीं, यह सोच कर हैरानी होती है। तेल के आविष्कार के कई हजार साल बाद, यह सूचना कालिदास को उपलब्ध थी, जिन्होंने कण्व आश्रम के छात्रों के संदर्भ में इसका और वल्कल का उल्लेख किया है।

जो भी हो, तेल के विषय में जानकारी तिल की खेती आरंभ होने से पहले भारतीय समाज को थी। अतः खाने चबाने के लिए तिल को कूटते समय उन्हें इसके भीतर आर्द्रता या चिकनाई का पता चला होगा इसलिए तिल के लिए उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया गया होगा। संभवतया नामकरण तैल किया गया हो, और बाद में भूल सुधारने की कोशिश में है एक नई भूल कर दी गई हो।

संताप
संताप में उपसर्ग ‘सं’ का अर्थ जल है, इसी तरह प्रताप, अनुताप, आदि में भी, प्र ( प्ल), और अनु का अर्थ भी जल है। स्वयं ताप और तप पानी की बूंद के गिरने से उत्पन्न ध्वनि के अनुकरण की देन हैं, इसलिए इनका प्रयोग आग और धूप प्रभाव के आशय में होने लगा। परंतु, यह निर्मितियां धातु प्रत्यय और उपसर्ग की भाषाई युक्ति का विकास होने के बाद की हैं, जब इन्होंने एक नया रूढ़ आशय ग्रहण कर लिया था, इसलिए वर्तमान विवेचन में हम इनको जल से सीधे व्युत्पन्न नहीं मान सकते। यही बात पश्चाताप पर भी लागू होती है। मैंने ‘अनु’ का अर्थ भी जल बताया है जबकि हम इसके उपसर्ग रूप से ही परिचित हैं, इसलिए इसका अर्थ जल करना प्रयत्नसाध्य लग सकता है। परंतु एक तो दूसरे सभी उपसर्गों का एक अर्थ जल है, दूसरे अनुक और अनूक दो ही ऐसे शब्द हैं जिनमें अनु का प्रयोग उपसर्ग के रूप में नहीं हुआ लगता है। पहले का अर्थ लालची है, आकांक्षी है और कामना लालसा आदि के लिए सभी शब्द जल से संबंधित है। मेरे अनुमान का आधार केवल इतना ही है। तप/टप = जल और अं . tub तथा आँखों के दबदबाने के सम्बन्ध को इसी तर्क से समझा जा सकता है.

सताना । यातना। यंत्रणा
शातन या चातन, जिनसे सत् और सताना का संबंध है, उस क्रिया की देन हैं जो किसी रसीले डंठल, या लता का रस निकालने के लिए की जाती थी। अर्थात कूटना, कुचलना या पीसना। इस सिरे से विचार करने पर हम पाते हैं भोजपुरी का जांत शब्द जो चात, सात की शृंखला में आता है, यंत्र की अपेक्षा पुराना है (यद्यपि इसका नासिक्य प्रयोग यंत्र से प्रभावित लगता है) और यंत्र संस्कृतीकरण है, जिससे यातना और यंत्रणा की उत्पत्ति हुई है। गणित करना और खंडित करना दोनों का अर्थ एक ही था बंगाल में आज भी आटा पिसाने को गुणा करना का प्रयोग चलता है। विषाद,अवसाद और निषाद आदि में यही सातना और सताना पाया जा सकता है, जबकि प्रसाद में हिस्सा पाने, अर्थात बंटवारे का भाव तथा प्रसीद में पसीजने या द्रवित होने का भाव है जो जल की याद दिलाता है।

संस्कृत के आचार्यों का यह विचार रहा है कि उपसर्ग के प्रभाव से धातुओं में नया अर्थ पैदा हो जाता है, (उपसर्गेण धात्वर्थो बलाद अन्यत्र नीयते) परंतु यह अर्थ नया नहीं होता जातीय अवचेतन में बने रह गए पुरातन आशयों का पुनर आविष्कार होता है। भाषा में बलपूर्वक कुछ भी नहीं होता, परंतु इसके तरीके इतनी जटिल और दूरगामी हैं कि उनको पकड़ पाने में हम हमेशा सफल नहीं हो सकते।

क्रमशः

Post – 2018-04-17

संतापसूचक शब्द और जल (2)

अर – जल से व्युत्पन्न शब्दों में ‘अरण्ड’ आता है । बार बार इस बात की याद दिलाना जरूरी नहीं की घी, तेल आदि के लिए रूढ़ शब्दों का मूल अर्थ पानी रहा है। इस मामले में अर का अर्थ तेल, या पानी जैसा द्रव पदार्थ है, जिसमें इसके फल की आकृति ‘अंड’ या गोलाकार जोड़कर अरंड बना है और उसमें हीनार्थक ‘-ई’ लगाकर ‘अरंडी’ शब्द बना है। इसका अर्थ है कि ‘अर’ का भी प्रयोग भी कभी तेल के लिए कर लिया जाता था ।

कुछ लोग यह समझते हैं, और इसमें संस्कृत के विद्वान और कोशकार भी शामिल हैं, कि तेल के लिए संस्कृत शब्द ‘तैल’ है। तिलहनों में सबसे पहले तिल की खेती आरम्भ हुई, और तेल तिल से निकला है, इसलिए उसका अपत्यार्थक रूप तैल है। मैं एक बार किसी अन्य प्रसंग में बता चुका हूं कि दिल्ली की स्थानीय भाषा में है आज भी पानी के लिए तेल शब्द का प्रयोग जब तब होता है, यह मुझे अपने पार्क के माली से पता चला था। मैंने उसे पौधों में पानी देने को कहा तो उसने खुरपी से मिट्टी उलटकर कहा, ‘ताऊ यामें घणों तेल है।’ ऋग्वेद में सिंचित भूमि के लिए तिल्विल का प्रयोग हुआ हैः

भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले वा सनेम मध्वो अधिगर्तस्य ।। 5.62.7 यह है सोम की बुवाई का तरीका है, भूमि को अच्छी तरह जोत कर (भद्रे क्षेत्रे), उसे नम (तिल्विल) बना कर, नालियां बनाकर, नालियों में सोम के टुकड़े बोए जाते थे। जिनको यह भ्रम बना रह गया हो कि सोम गन्ना नहीं था, वे गन्ने की बुवाई के बारे में जानकारी बढ़ा सकते हैं।

सभ्यता के विकास को समझने मैं सहायक संकेतों में इस तरह की सूचनाएं बहुत महत्वपूर्ण है। तेल का पता मनुष्य को बहुत बाद में चला। पहले वह अरंडी को पत्थर पर कूट कर उसके गूदे से बालों को मसलकर उन्हें चिकना बनाता था । इस तरह की प्राचीन सूचनाएं बहुत बाद तक कैसे स्थांतरित होती रहीं, यह सोच कर हैरानी होती है। तेल के आविष्कार के कई हजार साल बाद, यह सूचना कालिदास को उपलब्ध थी, जिन्होंने कण्व आश्रम के छात्रों के संदर्भ में इसका और वल्कल का उल्लेख किया है।

जो भी हो, तेल के विषय में जानकारी तिल की खेती आरंभ होने से पहले भारतीय समाज को थी। अतः खाने चबाने के लिए तिल को कूटते समय उन्हें इसके भीतर आर्द्रता या चिकनाई का पता चला होगा इसलिए तिल के लिए उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया गया होगा। संभवतया नामकरण तैल किया गया हो, और बाद में भूल सुधारने की कोशिश में है एक नई भूल कर दी गई हो।

संताप
संताप में उपसर्ग ‘सं’ का अर्थ जल है, इसी तरह प्रताप, अनुताप, आदि में भी, प्र ( प्ल), और अनु का अर्थ भी जल है। स्वयं ताप और तप पानी की बूंद के गिरने से उत्पन्न ध्वनि के अनुकरण की देन हैं, इसलिए इनका प्रयोग आग और धूप प्रभाव के आशय में होने लगा। परंतु, यह निर्मितियां धातु प्रत्यय और उपसर्ग की भाषाई युक्ति का विकास होने के बाद की हैं, जब इन्होंने एक नया रूढ़ आशय ग्रहण कर लिया था, इसलिए वर्तमान विवेचन में हम इनको जल से सीधे व्युत्पन्न नहीं मान सकते। यही बात पश्चाताप पर भी लागू होती है। मैंने ‘अनु’ का अर्थ भी जल बताया है जबकि हम इसके उपसर्ग रूप से ही परिचित हैं, इसलिए इसका अर्थ जल करना प्रयत्नसाध्य लग सकता है। परंतु एक तो दूसरे सभी उपसर्गों का एक अर्थ जल है, दूसरे अनुक और अनूक दो ही ऐसे शब्द हैं जिनमें अनु का प्रयोग उपसर्ग के रूप में नहीं हुआ लगता है। पहले का अर्थ लालची है, आकांक्षी है और कामना लालसा आदि के लिए सभी शब्द जल से संबंधित है। मेरे अनुमान का आधार केवल इतना ही है। तप/टप = जल और अं . tub तथा आँखों के दबदबाने के सम्बन्ध को इसी तर्क से समझा जा सकता है.

सताना । यातना। यंत्रणा
शातन या चातन, जिनसे सत् और सताना का संबंध है, उस क्रिया की देन हैं जो किसी रसीले डंठल, या लता का रस निकालने के लिए की जाती थी। अर्थात कूटना, कुचलना या पीसना। इस सिरे से विचार करने पर हम पाते हैं भोजपुरी का जांत शब्द जो चात, सात की शृंखला में आता है, यंत्र की अपेक्षा पुराना है (यद्यपि इसका नासिक्य प्रयोग यंत्र से प्रभावित लगता है) और यंत्र संस्कृतीकरण है, जिससे यातना और यंत्रणा की उत्पत्ति हुई है। गणित करना और खंडित करना दोनों का अर्थ एक ही था बंगाल में आज भी आटा पिसाने को गुणा करना का प्रयोग चलता है। विषाद,अवसाद और निषाद आदि में यही सातना और सताना पाया जा सकता है, जबकि प्रसाद में हिस्सा पाने, अर्थात बंटवारे का भाव तथा प्रसीद में पसीजने या द्रवित होने का भाव है जो जल की याद दिलाता है।

संस्कृत के आचार्यों का यह विचार रहा है कि उपसर्ग के प्रभाव से धातुओं में नया अर्थ पैदा हो जाता है, (उपसर्गेण धात्वर्थो बलाद अन्यत्र नीयते) परंतु यह अर्थ नया नहीं होता जातीय अवचेतन में बने रह गए पुरातन आशयों का पुनर आविष्कार होता है। भाषा में बलपूर्वक कुछ भी नहीं होता, परंतु इसके तरीके इतनी जटिल और दूरगामी हैं कि उनको पकड़ पाने में हम हमेशा सफल नहीं हो सकते।

क्रमशः

Post – 2018-04-17

मैं हड़प्पा सभ्यता या प्राचीन भारत पर लिखते हुए ऋग्वेदिक काल के बाद कई शताब्दियों तक चलते रहने वाले प्राकृतिक विपर्यय या महादुर्भिक्ष को 1987 से लगातार एक निर्णायक मोड़ के रूप में रेखांकित करता आया हूं। साथ ही दावा करता आया हूं कि दूसरी सभ्यताओं की जननी वैदिक सभ्यता है। जिन की रुचि हो वे खड्गपुर आइ.आइ.टी की वैज्ञानिक खोज को पढ़ सकते हैंः
https://l.facebook.com/l.php?u=https%3A%2F%2Fwww.thebetterindia.com%2F137899%2Fiit-kharagpur-indus-valley-civilisation%2F%3Ffb%3Dquickbytesorganic&h=ATP8lQsNq5eHUHjUEvXjrnFbJ8B9LRi1NwHsE8ZCVBclMRjkUpnPPek9HclgsEvGStUbjIxhqodAcDEchbkZ6flSbr2mahmIl4BKeA-o8sMDCnchunKb&s=1

Post – 2018-04-17

मैं हड़प्पा सभ्यता या प्राचीन भारत पर लिखते हुए ऋग्वेदिक काल के बाद कई शताब्दियों तक चलते रहने वाले प्राकृतिक विपर्यय या महादुर्भिक्ष को 1987 से लगातार एक निर्णायक मोड़ के रूप में रेखांकित करता आया हूं। साथ ही दावा करता आया हूं कि दूसरी सभ्यताओं की जननी वैदिक सभ्यता है। जिन की रुचि हो वे खड्गपुर आइ.आइ.टी की वैज्ञानिक खोज को पढ़ सकते हैंः
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Post – 2018-04-17

मैं हड़प्पा सभ्यता या प्राचीन भारत पर लिखते हुए ऋग्वेदिक काल के बाद कई शताब्दियों तक चलते रहने वाले प्राकृतिक विपर्यय या महादुर्भिक्ष को 1987 से लगातार एक निर्णायक मोड़ के रूप में रेखांकित करता आया हूं। साथ ही दावा करता आया हूं कि दूसरी सभ्यताओं की जननी वैदिक सभ्यता है। जिन की रुचि हो वे खड्गपुर आइ.आइ.टी की वैज्ञानिक खोज को पढ़ सकते हैंः
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Post – 2018-04-17

मैं अन्य उलझनों के कारण अधिक व्यस्तता के बाद भी इस हठ के कारण कि आज की पोस्ट हर हाल में लिखनी ही है, लिखता तो हूं, पर वह कई बार अधूरा भी रह जाता है और उसमें गलतियां भी रह जाती हैं। कल भी ऐसा हुआ। दो मित्रों ने उसकी तारीफ भी की जिसे पढ़ कर खिन्नता हुई। यदि उन्होंने इसे पढ़ा तो गलतियों की ओर संकेत क्यों नहीं किया, और नहीं पढ़ा तो सराहना क्यों की। कृपया भविष्य में इसका ध्यान रखें। इस भुलावे में पोस्ट संपादित करने में अनावश्यक विलंब हुआ।

अब हम पिछली पोस्ट की में कुछ तथ्य संक्षेप में जोड़ना जरूरी समझते हैंः

जिस आरा की व्याख्या करते हुए सायण ने इसे तीक्ष्णाग्र लौहदंड कहा है उसी से चिराई का आरा निकला है इसे आसानी से समझा जा सकता है, परन्तु अं. आर्ट art, आर्टिकल artcle, और संभवतः आर्टिकुलेट artiiculate का भी संबध है और सं. अर्दन= पीडन का भी, ऎसी दशा में जनार्दन का क्या अर्थ हुआ परमात्मा या कालदेव जिसका दर्शन कृष्ण अर्जुन को कराते हैं और अर्जुन उनको जनार्दन के रूप में संबोधित करते हैं और इस तरह यह विष्णु के पर्यायों में से एक बन जाता है.
अल से अललाना = विकल होकर अस्पष्ट ध्वनि में आर्तनाद करना . ऋग्वेद में अललाभवंती का प्रयोग ऊंचाई से गिरती जलधारा की ध्वनि के कारण क्रिया विशेषण के रूप में किया गया है और संभवतः अलल टप्पू जैसे प्रयोगों में प्रकट हो जाता है.
अल में लकार के मूर्धन्य होने पर आंड = डंक का अग्रभाग, अड़ना = *खूंटा गाड़ना, अड़ना, अडाना, अडियल, अड्डा और अड्डेबाजी का सम्बन्ध दिखाई देता है.

Post – 2018-04-17

मैं अन्य उलझनों के कारण अधिक व्यस्तता के बाद भी इस हठ के कारण कि आज की पोस्ट हर हाल में लिखनी ही है, लिखता तो हूं, पर वह कई बार अधूरा भी रह जाता है और उसमें गलतियां भी रह जाती हैं। कल भी ऐसा हुआ। दो मित्रों ने उसकी तारीफ भी की जिसे पढ़ कर खिन्नता हुई। यदि उन्होंने इसे पढ़ा तो गलतियों की ओर संकेत क्यों नहीं किया, और नहीं पढ़ा तो सराहना क्यों की। कृपया भविष्य में इसका ध्यान रखें। इस भुलावे में पोस्ट संपादित करने में अनावश्यक विलंब हुआ।

अब हम पिछली पोस्ट की में कुछ तथ्य संक्षेप में जोड़ना जरूरी समझते हैंः

जिस आरा की व्याख्या करते हुए सायण ने इसे तीक्ष्णाग्र लौहदंड कहा है उसी से चिराई का आरा निकला है इसे आसानी से समझा जा सकता है, परन्तु अं. आर्ट art, आर्टिकल artcle, और संभवतः आर्टिकुलेट artiiculate का भी संबध है और सं. अर्दन= पीडन का भी, ऎसी दशा में जनार्दन का क्या अर्थ हुआ परमात्मा या कालदेव जिसका दर्शन कृष्ण अर्जुन को कराते हैं और अर्जुन उनको जनार्दन के रूप में संबोधित करते हैं और इस तरह यह विष्णु के पर्यायों में से एक बन जाता है.
अल से अललाना = विकल होकर अस्पष्ट ध्वनि में आर्तनाद करना . ऋग्वेद में अललाभवंती का प्रयोग ऊंचाई से गिरती जलधारा की ध्वनि के कारण क्रिया विशेषण के रूप में किया गया है और संभवतः अलल टप्पू जैसे प्रयोगों में प्रकट हो जाता है.
अल में लकार के मूर्धन्य होने पर आंड = डंक का अग्रभाग, अड़ना = *खूंटा गाड़ना, अड़ना, अडाना, अडियल, अड्डा और अड्डेबाजी का सम्बन्ध दिखाई देता है.