Post – 2018-04-20

संतापसूचक शब्द और जल (3)
पीड़ा, तड़प, दर्द

पीड़ा
‘पी’ का अर्थ जल होता है हम जानते हैं, परंतु यह सोचते हुए झिझक होती है पीड़ा उत्कट प्यास और जल के अभाव से संबंध रखती है। विशेषतः इस कारण कि ‘पीड़न’ के साथ पांव से कुचलने का बिंब उभरता है। हाथी के लिए ‘पील’ का प्रयोग इस संभावना को और बढ़ा देता है, परंतु पील फारसी का शब्द है।

तडप
पीड़ा के साथ ही तड़पना शब्द याद आता है । इसमें ‘तड़’ जलर्थक है। तड़ाग का अर्थ जलाशय है। तड़पने के साथ, पानी के अभाव में मछलियों की छटपटाहट का बिंब सामने आ जाता है और प्रायः इसका प्रयोग किसी उग्र और प्राणान्तक अभाव की अवस्था में ही किया जाता है। पीर या पीड़ा के साथ ऐसी विकलता नहीं जुड़ी है।

ऋग्वेद में एक स्थल पर पावों से कुचलने या रौंदने का संदर्भ आया है, जिसमें छिन्न करने का प्रयोग हुआ हैः
अभिव्लग्या चिदद्रिवः शीर्षा यातुमतीनाम् ।
छिन्धि वटूरिणा पदा महावटूरिणा पदा ।। 1.133.2
सायण ने छिंधि का अर्थ चकनाचूर करना और वटूर का अर्थ हाथी के चौड़े पांवों जैसा किया है। हम पीछे देख आये हैं कि छिनाई का प्रयोग कुचलने के लिए नहीं किया जाता परन्तु संस्कृत में तोडकर तितर बितर करने के लिए छिन्न विच्छिन्न करने का प्रयोग चलता है। सामान्य बोलचाल में पावों से रौंदने या दलने, कुचलने का मुहावरा प्रयोग में आता है । छीनना कोई चीज़ जहां नैतिक या भौतिक न्याय से होना चाहिए उससे बलपूर्वक अलग करना- चाहे सिल पत्थर की चिनाई हो, किसी शाखा को झटक कर अलग करना हो, या हमारी संपदा का अपहरण हो, यहाँ तक कि छिन्नभिन्न करने पर भी – यह लागू होता है.

पीड़न का पीटने से और इस क्रिया से उत्पन्न ध्वनि से उत्पन्न मना जा सकता था, पर पीटने के कारण उत्पन्न वेदना के लिए पीड़ा का प्रयोग असंभव न होते हुए भी दूर की कौड़ी लगता है । पिटने या वंचित होने का पीडन में निहित सताने के भाव से कम मेल बैठता है.

पीटने से होने वाला कष्ट शरीर में जहां भी चोट पहुंची हो वहाँ दर्द होने का सूचक है इसलिए यदि कोई यह सुझाये कि यह छड़ी से चोट करने से पैदा ध्वनि का अनुकरण पीड़ा के रूप में हुआ है तो आपत्ति न होगी। एक ही या लगभग एक ही क्रिया से उत्पन्न ध्वनि/ ध्वनियों का अनुकरण ‘सट्’, ‘चट्’, ‘छट्’, ‘हंट’, ‘विप्’, ‘कश्’,आदि रूपों में किया गया है इससे ‘सटाकी’, ‘चटाकी’, ‘सटकी’, ‘सुटुकी’, ‘छड़ी’, ‘हंटर’, ‘व्हिप’, ‘कशा’ आदि की उत्पत्ति हुई है, परंतु ‘हंट’ को छोड़कर, जिसका अर्थ विस्तार शिकार करने अथवा खोज करने की दिशा में हुआ है, दूसरी संज्ञाएँ आघात का संकेत देती है, परंतु इनके कारण जहां दुर्दशा का संदर्भ आता है, वहां भी पीड़ा का पक्ष ओझल रह जाता है। दलित भी यह तो कह सकता है कि मेरा दलन हो रहा है या हमारा दलन किया गया, परंतु यह कहते नहीं पाया जाएगा मुझे दलन हो रहा है। क्रिया का पता चलेगा, परंतु उसकी अनुभूति का पता नहीं चलेगा। ऐसी स्थिति में हमें लौटकर जल से संबंध और जल के अभाव में उत्पन्न विकलता से पीड़ा का संबंध जोड़ना अधिक समीचीन लगता है।

तडप

तड़प के विषय में अब अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती सिवाय यह बताने के कि तर ही> तळ> तड़ बना है।आज भी हम रानी को रानी लिखते हैं और हरियाणवी और राजस्थानी में राणी लिखा और बोला जाता है ।यह ध्वनि परिवर्तन के कारण नहीं है अपितु उस समुदाय के कारण है जो दंत्य ध्वनियों का मूर्धन्य उच्चारण करता था। तुलसी को आज भी मराठी में तुळसी लिखा जाता है। भले तडप मरण के प्रश्न से जुड़ी हुई हो परंतु इसकी अनुभूति ‘स्थाई’ नहीं होती और इसलिए संताप का कारण नहीं बन सकती।

दर्द, दारुण
तर /दर, तरु / दारु, तृप्त/ दृप्त, तर्पण/ दर्पण,आदि से स्पष्ट है आरंभ में दोनों में अर्थभेद नहीं था परंतु इनके अमूर्तन की प्रक्रिया और विकास की दिशा किंचित भिन्न रही है। पर यहां भी दर में अमूर्तन की प्रक्रिया कुछ पहले आरंभ हो जाती है। दर के साथ दरकने का आशय कैसे जुड़ा, यह किसी चीज के दरकने से उत्पन्न ध्वनि का अनुकरण था या नहीं, यह निश्चय के साथ नहीं कह सकते, परंतु ऋग्वेद में दारण, विदारण का प्रयोग ध्वस्त करने, नष्ट करने आदि आशयों में देखने में आता है। इसके लिए कुछ ऋग्वेदिक प्रयोगों पर नजर डालना उपयोगी होगा:

१. इन्द्रेण दस्युं दरयन्त इन्दुभि १.५३.4, इन्द्र सोम विन्दुओं से दस्यु का संहार किया। ग्रिफिथ ने दरयन्त का अर्थ तितर-बितर करना (scattering)
२. वैश्वानर पूरवे शोशुचानः पुरो यदग्ने दरयन्नदीदेः ।। 7.5.3 अग्निदेव ने पुरुओं के लिए धधक कर पुरी को जलाकर फाड़ दिया दिया।
३. वलं रवेण दरयो दशग्वैः ।। 1.62.4 वल को दशग्वों ने हंकार भरते हुए विदीर्ण कर दिया।

इन अंशों पढ़ाते हुए आप इनका दृश्य बिंब बनाना चाहें, तो कठिनाई होगी, क्योंकि इनका संदर्भ स्पष्ट नहीं हो पाता। अब यदि आप व्याख्याकारों के इस सुझाव को मान लें कि जिनको वृत्र आदि असुरों और दानवों के रूप में चित्रित किया गया है वे ऐसे बादल हैं जो पानी नहीं बरसाते और सारा जल अपने पास चुरा कर रखते है बिम्ब स्पष्ट होने लगता है । ऐसा सुझाव देने वालों में ग्रिफिथ भी हैं, और फिर पहले और तीसरे उद्धरणों पर पुनर्विचार करें तो आपको जल बिंदुओं से दस्यु को विदीर्ण करने, और बिजली की कड़क के साथ बादलों को प्रज्ज्वलित करते हुए चीर देने का बिंब आंखों के सामने उपस्थित हो जाएगा। तीसरा मेरे अनुसार मूल्यवान रत्नों के लिए की जाने वाली खुदाई से संबंधित है, परंतु इतना तो संदेहातीत है कि यहां दर का प्रयोग हमें होने वाले दर्द का भी आभास करा देता है।
संस्कृत में दारण और विदारण का प्रयोग चलता है परंतु फारसी में जिस अनुभूति के लिए दर्द का प्रयोग किया जाता है उस अर्थ हम व्यथा (सं. शिरोव्यथा, भोज. कपार बत्थल) या पीड़ा (भोज. पिराइल) का प्रयोग करते हैं। वैदिक में दर्द अनुभूत के लिए नहीं है दारण के लिए ही प्रयोग में आया हैः

१. वाजं दर्दर्षि स किलासि सत्यः ।
२. घ्नन् वृत्राणि वि पुरो दर्दरीति जयन् शत्रूँरमित्रान् पृत्सु साहन् ।। 6.73.2
३. त्वं सूकरस्य दर्दृहि तव दर्दर्तु सूकरः ।7.55.4

क्रमशः

Post – 2018-04-20

संतापसूचक शब्द और जल (3)
पीड़ा, तड़प, दर्द

पीड़ा
‘पी’ का अर्थ जल होता है हम जानते हैं, परंतु यह सोचते हुए झिझक होती है पीड़ा उत्कट प्यास और जल के अभाव से संबंध रखती है। विशेषतः इस कारण कि ‘पीड़न’ के साथ पांव से कुचलने का बिंब उभरता है। हाथी के लिए ‘पील’ का प्रयोग इस संभावना को और बढ़ा देता है, परंतु पील फारसी का शब्द है।

तडप
पीड़ा के साथ ही तड़पना शब्द याद आता है । इसमें ‘तड़’ जलर्थक है। तड़ाग का अर्थ जलाशय है। तड़पने के साथ, पानी के अभाव में मछलियों की छटपटाहट का बिंब सामने आ जाता है और प्रायः इसका प्रयोग किसी उग्र और प्राणान्तक अभाव की अवस्था में ही किया जाता है। पीर या पीड़ा के साथ ऐसी विकलता नहीं जुड़ी है।

ऋग्वेद में एक स्थल पर पावों से कुचलने या रौंदने का संदर्भ आया है, जिसमें छिन्न करने का प्रयोग हुआ हैः
अभिव्लग्या चिदद्रिवः शीर्षा यातुमतीनाम् ।
छिन्धि वटूरिणा पदा महावटूरिणा पदा ।। 1.133.2
सायण ने छिंधि का अर्थ चकनाचूर करना और वटूर का अर्थ हाथी के चौड़े पांवों जैसा किया है। हम पीछे देख आये हैं कि छिनाई का प्रयोग कुचलने के लिए नहीं किया जाता परन्तु संस्कृत में तोडकर तितर बितर करने के लिए छिन्न विच्छिन्न करने का प्रयोग चलता है। सामान्य बोलचाल में पावों से रौंदने या दलने, कुचलने का मुहावरा प्रयोग में आता है । छीनना कोई चीज़ जहां नैतिक या भौतिक न्याय से होना चाहिए उससे बलपूर्वक अलग करना- चाहे सिल पत्थर की चिनाई हो, किसी शाखा को झटक कर अलग करना हो, या हमारी संपदा का अपहरण हो, यहाँ तक कि छिन्नभिन्न करने पर भी – यह लागू होता है.

पीड़न का पीटने से और इस क्रिया से उत्पन्न ध्वनि से उत्पन्न मना जा सकता था, पर पीटने के कारण उत्पन्न वेदना के लिए पीड़ा का प्रयोग असंभव न होते हुए भी दूर की कौड़ी लगता है । पिटने या वंचित होने का पीडन में निहित सताने के भाव से कम मेल बैठता है.

पीटने से होने वाला कष्ट शरीर में जहां भी चोट पहुंची हो वहाँ दर्द होने का सूचक है इसलिए यदि कोई यह सुझाये कि यह छड़ी से चोट करने से पैदा ध्वनि का अनुकरण पीड़ा के रूप में हुआ है तो आपत्ति न होगी। एक ही या लगभग एक ही क्रिया से उत्पन्न ध्वनि/ ध्वनियों का अनुकरण ‘सट्’, ‘चट्’, ‘छट्’, ‘हंट’, ‘विप्’, ‘कश्’,आदि रूपों में किया गया है इससे ‘सटाकी’, ‘चटाकी’, ‘सटकी’, ‘सुटुकी’, ‘छड़ी’, ‘हंटर’, ‘व्हिप’, ‘कशा’ आदि की उत्पत्ति हुई है, परंतु ‘हंट’ को छोड़कर, जिसका अर्थ विस्तार शिकार करने अथवा खोज करने की दिशा में हुआ है, दूसरी संज्ञाएँ आघात का संकेत देती है, परंतु इनके कारण जहां दुर्दशा का संदर्भ आता है, वहां भी पीड़ा का पक्ष ओझल रह जाता है। दलित भी यह तो कह सकता है कि मेरा दलन हो रहा है या हमारा दलन किया गया, परंतु यह कहते नहीं पाया जाएगा मुझे दलन हो रहा है। क्रिया का पता चलेगा, परंतु उसकी अनुभूति का पता नहीं चलेगा। ऐसी स्थिति में हमें लौटकर जल से संबंध और जल के अभाव में उत्पन्न विकलता से पीड़ा का संबंध जोड़ना अधिक समीचीन लगता है।

तडप

तड़प के विषय में अब अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती सिवाय यह बताने के कि तर ही> तळ> तड़ बना है।आज भी हम रानी को रानी लिखते हैं और हरियाणवी और राजस्थानी में राणी लिखा और बोला जाता है ।यह ध्वनि परिवर्तन के कारण नहीं है अपितु उस समुदाय के कारण है जो दंत्य ध्वनियों का मूर्धन्य उच्चारण करता था। तुलसी को आज भी मराठी में तुळसी लिखा जाता है। भले तडप मरण के प्रश्न से जुड़ी हुई हो परंतु इसकी अनुभूति ‘स्थाई’ नहीं होती और इसलिए संताप का कारण नहीं बन सकती।

दर्द, दारुण
तर /दर, तरु / दारु, तृप्त/ दृप्त, तर्पण/ दर्पण,आदि से स्पष्ट है आरंभ में दोनों में अर्थभेद नहीं था परंतु इनके अमूर्तन की प्रक्रिया और विकास की दिशा किंचित भिन्न रही है। पर यहां भी दर में अमूर्तन की प्रक्रिया कुछ पहले आरंभ हो जाती है। दर के साथ दरकने का आशय कैसे जुड़ा, यह किसी चीज के दरकने से उत्पन्न ध्वनि का अनुकरण था या नहीं, यह निश्चय के साथ नहीं कह सकते, परंतु ऋग्वेद में दारण, विदारण का प्रयोग ध्वस्त करने, नष्ट करने आदि आशयों में देखने में आता है। इसके लिए कुछ ऋग्वेदिक प्रयोगों पर नजर डालना उपयोगी होगा:

१. इन्द्रेण दस्युं दरयन्त इन्दुभि १.५३.4, इन्द्र सोम विन्दुओं से दस्यु का संहार किया। ग्रिफिथ ने दरयन्त का अर्थ तितर-बितर करना (scattering)
२. वैश्वानर पूरवे शोशुचानः पुरो यदग्ने दरयन्नदीदेः ।। 7.5.3 अग्निदेव ने पुरुओं के लिए धधक कर पुरी को जलाकर फाड़ दिया दिया।
३. वलं रवेण दरयो दशग्वैः ।। 1.62.4 वल को दशग्वों ने हंकार भरते हुए विदीर्ण कर दिया।

इन अंशों पढ़ाते हुए आप इनका दृश्य बिंब बनाना चाहें, तो कठिनाई होगी, क्योंकि इनका संदर्भ स्पष्ट नहीं हो पाता। अब यदि आप व्याख्याकारों के इस सुझाव को मान लें कि जिनको वृत्र आदि असुरों और दानवों के रूप में चित्रित किया गया है वे ऐसे बादल हैं जो पानी नहीं बरसाते और सारा जल अपने पास चुरा कर रखते है बिम्ब स्पष्ट होने लगता है । ऐसा सुझाव देने वालों में ग्रिफिथ भी हैं, और फिर पहले और तीसरे उद्धरणों पर पुनर्विचार करें तो आपको जल बिंदुओं से दस्यु को विदीर्ण करने, और बिजली की कड़क के साथ बादलों को प्रज्ज्वलित करते हुए चीर देने का बिंब आंखों के सामने उपस्थित हो जाएगा। तीसरा मेरे अनुसार मूल्यवान रत्नों के लिए की जाने वाली खुदाई से संबंधित है, परंतु इतना तो संदेहातीत है कि यहां दर का प्रयोग हमें होने वाले दर्द का भी आभास करा देता है।
संस्कृत में दारण और विदारण का प्रयोग चलता है परंतु फारसी में जिस अनुभूति के लिए दर्द का प्रयोग किया जाता है उस अर्थ हम व्यथा (सं. शिरोव्यथा, भोज. कपार बत्थल) या पीड़ा (भोज. पिराइल) का प्रयोग करते हैं। वैदिक में दर्द अनुभूत के लिए नहीं है दारण के लिए ही प्रयोग में आया हैः

१. वाजं दर्दर्षि स किलासि सत्यः ।
२. घ्नन् वृत्राणि वि पुरो दर्दरीति जयन् शत्रूँरमित्रान् पृत्सु साहन् ।। 6.73.2
३. त्वं सूकरस्य दर्दृहि तव दर्दर्तु सूकरः ।7.55.4

क्रमशः

Post – 2018-04-20

संतापसूचक शब्द और जल (3)
पीड़ा, तड़प, दर्द

पीड़ा
‘पी’ का अर्थ जल होता है हम जानते हैं, परंतु यह सोचते हुए झिझक होती है पीड़ा उत्कट प्यास और जल के अभाव से संबंध रखती है। विशेषतः इस कारण कि ‘पीड़न’ के साथ पांव से कुचलने का बिंब उभरता है। हाथी के लिए ‘पील’ का प्रयोग इस संभावना को और बढ़ा देता है, परंतु पील फारसी का शब्द है।

तडप
पीड़ा के साथ ही तड़पना शब्द याद आता है । इसमें ‘तड़’ जलर्थक है। तड़ाग का अर्थ जलाशय है। तड़पने के साथ, पानी के अभाव में मछलियों की छटपटाहट का बिंब सामने आ जाता है और प्रायः इसका प्रयोग किसी उग्र और प्राणान्तक अभाव की अवस्था में ही किया जाता है। पीर या पीड़ा के साथ ऐसी विकलता नहीं जुड़ी है।

ऋग्वेद में एक स्थल पर पावों से कुचलने या रौंदने का संदर्भ आया है, जिसमें छिन्न करने का प्रयोग हुआ हैः
अभिव्लग्या चिदद्रिवः शीर्षा यातुमतीनाम् ।
छिन्धि वटूरिणा पदा महावटूरिणा पदा ।। 1.133.2
सायण ने छिंधि का अर्थ चकनाचूर करना और वटूर का अर्थ हाथी के चौड़े पांवों जैसा किया है। हम पीछे देख आये हैं कि छिनाई का प्रयोग कुचलने के लिए नहीं किया जाता परन्तु संस्कृत में तोडकर तितर बितर करने के लिए छिन्न विच्छिन्न करने का प्रयोग चलता है। सामान्य बोलचाल में पावों से रौंदने या दलने, कुचलने का मुहावरा प्रयोग में आता है । छीनना कोई चीज़ जहां नैतिक या भौतिक न्याय से होना चाहिए उससे बलपूर्वक अलग करना- चाहे सिल पत्थर की चिनाई हो, किसी शाखा को झटक कर अलग करना हो, या हमारी संपदा का अपहरण हो, यहाँ तक कि छिन्नभिन्न करने पर भी – यह लागू होता है.

पीड़न का पीटने से और इस क्रिया से उत्पन्न ध्वनि से उत्पन्न मना जा सकता था, पर पीटने के कारण उत्पन्न वेदना के लिए पीड़ा का प्रयोग असंभव न होते हुए भी दूर की कौड़ी लगता है । पिटने या वंचित होने का पीडन में निहित सताने के भाव से कम मेल बैठता है.

पीटने से होने वाला कष्ट शरीर में जहां भी चोट पहुंची हो वहाँ दर्द होने का सूचक है इसलिए यदि कोई यह सुझाये कि यह छड़ी से चोट करने से पैदा ध्वनि का अनुकरण पीड़ा के रूप में हुआ है तो आपत्ति न होगी। एक ही या लगभग एक ही क्रिया से उत्पन्न ध्वनि/ ध्वनियों का अनुकरण ‘सट्’, ‘चट्’, ‘छट्’, ‘हंट’, ‘विप्’, ‘कश्’,आदि रूपों में किया गया है इससे ‘सटाकी’, ‘चटाकी’, ‘सटकी’, ‘सुटुकी’, ‘छड़ी’, ‘हंटर’, ‘व्हिप’, ‘कशा’ आदि की उत्पत्ति हुई है, परंतु ‘हंट’ को छोड़कर, जिसका अर्थ विस्तार शिकार करने अथवा खोज करने की दिशा में हुआ है, दूसरी संज्ञाएँ आघात का संकेत देती है, परंतु इनके कारण जहां दुर्दशा का संदर्भ आता है, वहां भी पीड़ा का पक्ष ओझल रह जाता है। दलित भी यह तो कह सकता है कि मेरा दलन हो रहा है या हमारा दलन किया गया, परंतु यह कहते नहीं पाया जाएगा मुझे दलन हो रहा है। क्रिया का पता चलेगा, परंतु उसकी अनुभूति का पता नहीं चलेगा। ऐसी स्थिति में हमें लौटकर जल से संबंध और जल के अभाव में उत्पन्न विकलता से पीड़ा का संबंध जोड़ना अधिक समीचीन लगता है।

तडप

तड़प के विषय में अब अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती सिवाय यह बताने के कि तर ही> तळ> तड़ बना है।आज भी हम रानी को रानी लिखते हैं और हरियाणवी और राजस्थानी में राणी लिखा और बोला जाता है ।यह ध्वनि परिवर्तन के कारण नहीं है अपितु उस समुदाय के कारण है जो दंत्य ध्वनियों का मूर्धन्य उच्चारण करता था। तुलसी को आज भी मराठी में तुळसी लिखा जाता है। भले तडप मरण के प्रश्न से जुड़ी हुई हो परंतु इसकी अनुभूति ‘स्थाई’ नहीं होती और इसलिए संताप का कारण नहीं बन सकती।

दर्द, दारुण
तर /दर, तरु / दारु, तृप्त/ दृप्त, तर्पण/ दर्पण,आदि से स्पष्ट है आरंभ में दोनों में अर्थभेद नहीं था परंतु इनके अमूर्तन की प्रक्रिया और विकास की दिशा किंचित भिन्न रही है। पर यहां भी दर में अमूर्तन की प्रक्रिया कुछ पहले आरंभ हो जाती है। दर के साथ दरकने का आशय कैसे जुड़ा, यह किसी चीज के दरकने से उत्पन्न ध्वनि का अनुकरण था या नहीं, यह निश्चय के साथ नहीं कह सकते, परंतु ऋग्वेद में दारण, विदारण का प्रयोग ध्वस्त करने, नष्ट करने आदि आशयों में देखने में आता है। इसके लिए कुछ ऋग्वेदिक प्रयोगों पर नजर डालना उपयोगी होगा:

१. इन्द्रेण दस्युं दरयन्त इन्दुभि १.५३.4, इन्द्र सोम विन्दुओं से दस्यु का संहार किया। ग्रिफिथ ने दरयन्त का अर्थ तितर-बितर करना (scattering)
२. वैश्वानर पूरवे शोशुचानः पुरो यदग्ने दरयन्नदीदेः ।। 7.5.3 अग्निदेव ने पुरुओं के लिए धधक कर पुरी को जलाकर फाड़ दिया दिया।
३. वलं रवेण दरयो दशग्वैः ।। 1.62.4 वल को दशग्वों ने हंकार भरते हुए विदीर्ण कर दिया।

इन अंशों पढ़ाते हुए आप इनका दृश्य बिंब बनाना चाहें, तो कठिनाई होगी, क्योंकि इनका संदर्भ स्पष्ट नहीं हो पाता। अब यदि आप व्याख्याकारों के इस सुझाव को मान लें कि जिनको वृत्र आदि असुरों और दानवों के रूप में चित्रित किया गया है वे ऐसे बादल हैं जो पानी नहीं बरसाते और सारा जल अपने पास चुरा कर रखते है बिम्ब स्पष्ट होने लगता है । ऐसा सुझाव देने वालों में ग्रिफिथ भी हैं, और फिर पहले और तीसरे उद्धरणों पर पुनर्विचार करें तो आपको जल बिंदुओं से दस्यु को विदीर्ण करने, और बिजली की कड़क के साथ बादलों को प्रज्ज्वलित करते हुए चीर देने का बिंब आंखों के सामने उपस्थित हो जाएगा। तीसरा मेरे अनुसार मूल्यवान रत्नों के लिए की जाने वाली खुदाई से संबंधित है, परंतु इतना तो संदेहातीत है कि यहां दर का प्रयोग हमें होने वाले दर्द का भी आभास करा देता है।
संस्कृत में दारण और विदारण का प्रयोग चलता है परंतु फारसी में जिस अनुभूति के लिए दर्द का प्रयोग किया जाता है उस अर्थ हम व्यथा (सं. शिरोव्यथा, भोज. कपार बत्थल) या पीड़ा (भोज. पिराइल) का प्रयोग करते हैं। वैदिक में दर्द अनुभूत के लिए नहीं है दारण के लिए ही प्रयोग में आया हैः

१. वाजं दर्दर्षि स किलासि सत्यः ।
२. घ्नन् वृत्राणि वि पुरो दर्दरीति जयन् शत्रूँरमित्रान् पृत्सु साहन् ।। 6.73.2
३. त्वं सूकरस्य दर्दृहि तव दर्दर्तु सूकरः ।7.55.4

क्रमशः

Post – 2018-04-19

सभावती विदथी एव सं वाक्

मैं सोशल मीडिया को एक पवित्र मंच मानता हूं । इसकी मर्यादा की रक्षा करते हुए ही हम वैचारिक आदान-प्रदान के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं। यह विश्व की सबसे बड़ी महासभा है अतः इसके सदस्य के रूप में हमारक उत्तरदायित्व भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है।

पुरानी बातें कुछ लोगों को बासी और बेकार लगती है परंतु इसके बाद भी अपने घर परिवार की मूल्यवान चीजें वे भी भचा कर रखते हैं। इस देश में सभा की मर्यादाओं में एक मर्यादा यह रही है की ऊंची आवाज में या आरोप लगाते हुए या अनर्गल बात न की जाए ताकि वाद विवाद का स्वस्थ पर्यावरण बना रहे । ऋग्वेद का मैं अक्सर हवाला देता हूं क्योंकि मेरा अधिकतम समय ऋग्वेद की पेथियां उलटते पलटते बीता है और उसके वाक्य मेरी स्मृति में दर्ज हैं और मेरे लिए निर्देशक का काम करते हैं, इसलिए इस विषय में भी वहीं से बात शुरू करें। सुपेशा, अपने शरीर को अच्छी तरह वस्त्र में ढकी हुई स्त्री़ की उपमा सभा में प्रयोग में आने वाली संयत और मर्यादित तथा सांकेतिक भाषा से दी गई हैः
गुहा चरन्ती मनुषः न योषा सभावती विदथी एव सं वाक् ।। 1.167.3

एक अन्य प्रसंग में ऊंची आवाज में गर्हित कथन को दंडनीय मानने का संकेत है -समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया । यहां गधे का वध करने की बात नहीं की जा रही है, यह तो उनके लिए बहुत उपयोगी पशु था, और उसका स्वभाव भी बदलना उनके वश में न था। यह है सभा में ऊंची आवाज में अनर्गल प्रलाप वाला व्यक्ति।

बाद के कालों में गणराज्यों में भी इस मर्यादा का बहुत ही कठोरता से पालन किया जाता था।

जो लोग प्राचीन उपलब्धियों को बड़े गर्व से याद करते हैं उनका गर्व भी याद के साथ ही समाप्त हो जाता है उनके आचरण में मैंने आदर्शों का पालन तो दूर उनके निकट पहुंचने की गंभीर कोशिश तक देख नहीं पाता। जो अतीत के गौरवशाली पक्ष को अपनी जुगिप्सा से याद करते हैं उन्होंने तो कर्कश, विक्षोभकारी, उद्वेगकारी उद्गारों को अपने क्रान्तिकारी तेवर की पहचान बना रखा है। उनकी कर्कशता और आक्रामकता के कारण, जौ समय समय पर नितान्त कुरुचिपूर्ण हो जाती है, हमारी गौरवशाली संस्था, संसद में भी विचार विमर्श नहीं हो पाता फिर एक ऐसे मंच के विषय में बहुत अधिक आशाएं पालना उचित नहीं, जिसमें शामिल लोगों के चेहरे नहीं दिखाई देते, केवल उनके कथन ही परिक्रमा लगाते रहते हैं, अर्थात आमने सामने का लिहाज तक नहीं रहता। फिर भी, मैं घोर आसावादी होने के कारण बीच-बीच में संयत भाषा के प्रयोग के लिए आग्रह करता रहता हूं, क्योंकि वही एक चीज है जो विरोधी विचारों के बीच भी आदान प्रदान का रास्ता बनाए रख सकती है।

.ह देख कर दुख होता है कि जिनका मैं उनके अध्ययन, ज्ञान, आयु और काम के कारण आदर करता हूं वह भी अक्सर शिथिल भाषा का प्रयोग करते हैं,अपनी समझ से गालियां भी देते हैं और जब तक उनकी गालियां उनकी सांकेतिकता के बाद भी अभद्र प्र तीत होती हैं। ऐसे लोगों के प्रति आदर घटता है। वामी, कामी, प्रेस्टीच्यूट, भक्त, जैसे प्रयोग तो इतने धड़ल्ले से होने लगे हैं कि जैसे इनका प्रयोग करते समय व्यक्ति को कहीं कोई झिझक महसूस ही न हो।

आज मैंने एक पोस्ट में सड़क की गाली प्रयोग होते हुए देखा। मैं याद दिला दूं हमारे मित्रों की गालियां किसी अन्य तक पहुंचती हों या नहीं, जैसा मैंने हिंसक, अपमानजनक व्यवहार के बारे में कहा था, वह हो किसी के साथ, मुझ तक अवश्य पहुंचता है, उसी तरह गालियां किसी को भी दी जाएं। मुझे अवश्य पहुंचती है , क्योंकि मैं उस समाज से अपने को अभिन्न मानता हूं, जिसका वह भी एक सदस्य है। वह जो कर रहा है मेरे समाज का ही एक व्यक्ति कर रहा है। अपने आचरण पर उसे लज्जा भले न आती हो मुझे लज्जा अनुभव होती है।

मैं मानता हूं एक लेखक की भूमिका एक नैदानिक, एक चिकित्सक, और एक शिक्षक की होती है, इसलिए मैं बार-बार ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करता हूं । यह प्रयास व्यर्थ भी नही गया है । इसलिए मैं उस व्यक्ति का नाम लिए बिना कुछ बातें अंतिम रूप से कहना चाहता हूं।

1. जब आप गंदे शब्दों का प्रयोग करते हैं तो सबसे पहले आप की जबान गंदी होती है। जिसके लिए आपने गंदे शब्दों का प्रयोग किया, उस तक वे पहुंचे या न पहुंचे हैं परंतु, आप की जबान तो आपके मुंह में रह ही जाती है। उस जवान को अपने मुंह में रख करें आप सुखी नहीं अनुभव कर सकते और यदि करते हैं तो आपको शक्ल से मनुष्य होते हुए भी जीव कोटि में अपनी सही जगह का पता अवश्य लगाना चाहिए।

2. यदि किसी के पास सही तर्क प्रमाण और साक्ष्य हों तो कठोर भाषा की आवश्यकता ही न पड़े। दूसरे व्यक्ति को निरुत्तर करने के लिए उतना ही पर्याप्त है। इसलिए गर्हित भाषा का प्रयोग करने वाला स्वतः यह स्वीकार करता है कि वह गलत है उसके पास केवल घृणा और दुर्भावना है अर्थात गाली तो वह दे रहा है परंतु हर दृष्टि से गर्हित वही सिद्ध होता है।

3. यह एक ऐसा वेदर-ओ-दीवार का घर है जिसमें किसी के भी प्रवेश की छूट है अतः आयु, शिक्षा, संस्कार लिंग और धर्म की सीमाओं की चिंता किए बिना सभी लोग किसी चर्सचा में म्मिलित हो सकते हैं और होते हैं । उनमें जो असभ्य हैं उनको चुटकी बजा कर सभ्य तो नहीं बनाया जा सकता, परंतु उनकी एक कमजोरी का फायदा अवश्य उठाया जा सकता है । उनमें सभी अपने को अधिक चालाक, अधिक विट्टी और अधिक ऊंची हैसियत का दिखाने का प्रयत्न अवश्य करते हैं। यदि इस मंच से जुड़कर वे यह दिखाना चाहते हैं कि वे सचमुच अच्छी हैसियत के हैं तो भाषा के माधयम से ही उन्हें यह सिद्ध करना चाहिए कि वे अच्छे खानदान के हैं, उनके माता-पिता अच्छे संस्कारों के हैं या थे, और वे भी अच्छी संगत में रहे हैं। यदि इसका ध्यान रखें तो Facebook पर प्रयोग में आने वाली भाषा का स्तर सुधर सकता है और अपने विचारों को तर्क और प्रमाणों के साथ भावावेश से बचकर प्रकट करने की आदत पड़ सकती है।

Post – 2018-04-19

सभावती विदथी एव सं वाक्

मैं सोशल मीडिया को एक पवित्र मंच मानता हूं । इसकी मर्यादा की रक्षा करते हुए ही हम वैचारिक आदान-प्रदान के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं। यह विश्व की सबसे बड़ी महासभा है अतः इसके सदस्य के रूप में हमारक उत्तरदायित्व भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है।

पुरानी बातें कुछ लोगों को बासी और बेकार लगती है परंतु इसके बाद भी अपने घर परिवार की मूल्यवान चीजें वे भी भचा कर रखते हैं। इस देश में सभा की मर्यादाओं में एक मर्यादा यह रही है की ऊंची आवाज में या आरोप लगाते हुए या अनर्गल बात न की जाए ताकि वाद विवाद का स्वस्थ पर्यावरण बना रहे । ऋग्वेद का मैं अक्सर हवाला देता हूं क्योंकि मेरा अधिकतम समय ऋग्वेद की पेथियां उलटते पलटते बीता है और उसके वाक्य मेरी स्मृति में दर्ज हैं और मेरे लिए निर्देशक का काम करते हैं, इसलिए इस विषय में भी वहीं से बात शुरू करें। सुपेशा, अपने शरीर को अच्छी तरह वस्त्र में ढकी हुई स्त्री़ की उपमा सभा में प्रयोग में आने वाली संयत और मर्यादित तथा सांकेतिक भाषा से दी गई हैः
गुहा चरन्ती मनुषः न योषा सभावती विदथी एव सं वाक् ।। 1.167.3

एक अन्य प्रसंग में ऊंची आवाज में गर्हित कथन को दंडनीय मानने का संकेत है -समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया । यहां गधे का वध करने की बात नहीं की जा रही है, यह तो उनके लिए बहुत उपयोगी पशु था, और उसका स्वभाव भी बदलना उनके वश में न था। यह है सभा में ऊंची आवाज में अनर्गल प्रलाप वाला व्यक्ति।

बाद के कालों में गणराज्यों में भी इस मर्यादा का बहुत ही कठोरता से पालन किया जाता था।

जो लोग प्राचीन उपलब्धियों को बड़े गर्व से याद करते हैं उनका गर्व भी याद के साथ ही समाप्त हो जाता है उनके आचरण में मैंने आदर्शों का पालन तो दूर उनके निकट पहुंचने की गंभीर कोशिश तक देख नहीं पाता। जो अतीत के गौरवशाली पक्ष को अपनी जुगिप्सा से याद करते हैं उन्होंने तो कर्कश, विक्षोभकारी, उद्वेगकारी उद्गारों को अपने क्रान्तिकारी तेवर की पहचान बना रखा है। उनकी कर्कशता और आक्रामकता के कारण, जौ समय समय पर नितान्त कुरुचिपूर्ण हो जाती है, हमारी गौरवशाली संस्था, संसद में भी विचार विमर्श नहीं हो पाता फिर एक ऐसे मंच के विषय में बहुत अधिक आशाएं पालना उचित नहीं, जिसमें शामिल लोगों के चेहरे नहीं दिखाई देते, केवल उनके कथन ही परिक्रमा लगाते रहते हैं, अर्थात आमने सामने का लिहाज तक नहीं रहता। फिर भी, मैं घोर आसावादी होने के कारण बीच-बीच में संयत भाषा के प्रयोग के लिए आग्रह करता रहता हूं, क्योंकि वही एक चीज है जो विरोधी विचारों के बीच भी आदान प्रदान का रास्ता बनाए रख सकती है।

.ह देख कर दुख होता है कि जिनका मैं उनके अध्ययन, ज्ञान, आयु और काम के कारण आदर करता हूं वह भी अक्सर शिथिल भाषा का प्रयोग करते हैं,अपनी समझ से गालियां भी देते हैं और जब तक उनकी गालियां उनकी सांकेतिकता के बाद भी अभद्र प्र तीत होती हैं। ऐसे लोगों के प्रति आदर घटता है। वामी, कामी, प्रेस्टीच्यूट, भक्त, जैसे प्रयोग तो इतने धड़ल्ले से होने लगे हैं कि जैसे इनका प्रयोग करते समय व्यक्ति को कहीं कोई झिझक महसूस ही न हो।

आज मैंने एक पोस्ट में सड़क की गाली प्रयोग होते हुए देखा। मैं याद दिला दूं हमारे मित्रों की गालियां किसी अन्य तक पहुंचती हों या नहीं, जैसा मैंने हिंसक, अपमानजनक व्यवहार के बारे में कहा था, वह हो किसी के साथ, मुझ तक अवश्य पहुंचता है, उसी तरह गालियां किसी को भी दी जाएं। मुझे अवश्य पहुंचती है , क्योंकि मैं उस समाज से अपने को अभिन्न मानता हूं, जिसका वह भी एक सदस्य है। वह जो कर रहा है मेरे समाज का ही एक व्यक्ति कर रहा है। अपने आचरण पर उसे लज्जा भले न आती हो मुझे लज्जा अनुभव होती है।

मैं मानता हूं एक लेखक की भूमिका एक नैदानिक, एक चिकित्सक, और एक शिक्षक की होती है, इसलिए मैं बार-बार ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करता हूं । यह प्रयास व्यर्थ भी नही गया है । इसलिए मैं उस व्यक्ति का नाम लिए बिना कुछ बातें अंतिम रूप से कहना चाहता हूं।

1. जब आप गंदे शब्दों का प्रयोग करते हैं तो सबसे पहले आप की जबान गंदी होती है। जिसके लिए आपने गंदे शब्दों का प्रयोग किया, उस तक वे पहुंचे या न पहुंचे हैं परंतु, आप की जबान तो आपके मुंह में रह ही जाती है। उस जवान को अपने मुंह में रख करें आप सुखी नहीं अनुभव कर सकते और यदि करते हैं तो आपको शक्ल से मनुष्य होते हुए भी जीव कोटि में अपनी सही जगह का पता अवश्य लगाना चाहिए।

2. यदि किसी के पास सही तर्क प्रमाण और साक्ष्य हों तो कठोर भाषा की आवश्यकता ही न पड़े। दूसरे व्यक्ति को निरुत्तर करने के लिए उतना ही पर्याप्त है। इसलिए गर्हित भाषा का प्रयोग करने वाला स्वतः यह स्वीकार करता है कि वह गलत है उसके पास केवल घृणा और दुर्भावना है अर्थात गाली तो वह दे रहा है परंतु हर दृष्टि से गर्हित वही सिद्ध होता है।

3. यह एक ऐसा वेदर-ओ-दीवार का घर है जिसमें किसी के भी प्रवेश की छूट है अतः आयु, शिक्षा, संस्कार लिंग और धर्म की सीमाओं की चिंता किए बिना सभी लोग किसी चर्सचा में म्मिलित हो सकते हैं और होते हैं । उनमें जो असभ्य हैं उनको चुटकी बजा कर सभ्य तो नहीं बनाया जा सकता, परंतु उनकी एक कमजोरी का फायदा अवश्य उठाया जा सकता है । उनमें सभी अपने को अधिक चालाक, अधिक विट्टी और अधिक ऊंची हैसियत का दिखाने का प्रयत्न अवश्य करते हैं। यदि इस मंच से जुड़कर वे यह दिखाना चाहते हैं कि वे सचमुच अच्छी हैसियत के हैं तो भाषा के माधयम से ही उन्हें यह सिद्ध करना चाहिए कि वे अच्छे खानदान के हैं, उनके माता-पिता अच्छे संस्कारों के हैं या थे, और वे भी अच्छी संगत में रहे हैं। यदि इसका ध्यान रखें तो Facebook पर प्रयोग में आने वाली भाषा का स्तर सुधर सकता है और अपने विचारों को तर्क और प्रमाणों के साथ भावावेश से बचकर प्रकट करने की आदत पड़ सकती है।

Post – 2018-04-19

सभावती विदथी एव सं वाक्

मैं सोशल मीडिया को एक पवित्र मंच मानता हूं । इसकी मर्यादा की रक्षा करते हुए ही हम वैचारिक आदान-प्रदान के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं। यह विश्व की सबसे बड़ी महासभा है अतः इसके सदस्य के रूप में हमारक उत्तरदायित्व भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है।

पुरानी बातें कुछ लोगों को बासी और बेकार लगती है परंतु इसके बाद भी अपने घर परिवार की मूल्यवान चीजें वे भी भचा कर रखते हैं। इस देश में सभा की मर्यादाओं में एक मर्यादा यह रही है की ऊंची आवाज में या आरोप लगाते हुए या अनर्गल बात न की जाए ताकि वाद विवाद का स्वस्थ पर्यावरण बना रहे । ऋग्वेद का मैं अक्सर हवाला देता हूं क्योंकि मेरा अधिकतम समय ऋग्वेद की पेथियां उलटते पलटते बीता है और उसके वाक्य मेरी स्मृति में दर्ज हैं और मेरे लिए निर्देशक का काम करते हैं, इसलिए इस विषय में भी वहीं से बात शुरू करें। सुपेशा, अपने शरीर को अच्छी तरह वस्त्र में ढकी हुई स्त्री़ की उपमा सभा में प्रयोग में आने वाली संयत और मर्यादित तथा सांकेतिक भाषा से दी गई हैः
गुहा चरन्ती मनुषः न योषा सभावती विदथी एव सं वाक् ।। 1.167.3

एक अन्य प्रसंग में ऊंची आवाज में गर्हित कथन को दंडनीय मानने का संकेत है -समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया । यहां गधे का वध करने की बात नहीं की जा रही है, यह तो उनके लिए बहुत उपयोगी पशु था, और उसका स्वभाव भी बदलना उनके वश में न था। यह है सभा में ऊंची आवाज में अनर्गल प्रलाप वाला व्यक्ति।

बाद के कालों में गणराज्यों में भी इस मर्यादा का बहुत ही कठोरता से पालन किया जाता था।

जो लोग प्राचीन उपलब्धियों को बड़े गर्व से याद करते हैं उनका गर्व भी याद के साथ ही समाप्त हो जाता है उनके आचरण में मैंने आदर्शों का पालन तो दूर उनके निकट पहुंचने की गंभीर कोशिश तक देख नहीं पाता। जो अतीत के गौरवशाली पक्ष को अपनी जुगिप्सा से याद करते हैं उन्होंने तो कर्कश, विक्षोभकारी, उद्वेगकारी उद्गारों को अपने क्रान्तिकारी तेवर की पहचान बना रखा है। उनकी कर्कशता और आक्रामकता के कारण, जौ समय समय पर नितान्त कुरुचिपूर्ण हो जाती है, हमारी गौरवशाली संस्था, संसद में भी विचार विमर्श नहीं हो पाता फिर एक ऐसे मंच के विषय में बहुत अधिक आशाएं पालना उचित नहीं, जिसमें शामिल लोगों के चेहरे नहीं दिखाई देते, केवल उनके कथन ही परिक्रमा लगाते रहते हैं, अर्थात आमने सामने का लिहाज तक नहीं रहता। फिर भी, मैं घोर आसावादी होने के कारण बीच-बीच में संयत भाषा के प्रयोग के लिए आग्रह करता रहता हूं, क्योंकि वही एक चीज है जो विरोधी विचारों के बीच भी आदान प्रदान का रास्ता बनाए रख सकती है।

.ह देख कर दुख होता है कि जिनका मैं उनके अध्ययन, ज्ञान, आयु और काम के कारण आदर करता हूं वह भी अक्सर शिथिल भाषा का प्रयोग करते हैं,अपनी समझ से गालियां भी देते हैं और जब तक उनकी गालियां उनकी सांकेतिकता के बाद भी अभद्र प्र तीत होती हैं। ऐसे लोगों के प्रति आदर घटता है। वामी, कामी, प्रेस्टीच्यूट, भक्त, जैसे प्रयोग तो इतने धड़ल्ले से होने लगे हैं कि जैसे इनका प्रयोग करते समय व्यक्ति को कहीं कोई झिझक महसूस ही न हो।

आज मैंने एक पोस्ट में सड़क की गाली प्रयोग होते हुए देखा। मैं याद दिला दूं हमारे मित्रों की गालियां किसी अन्य तक पहुंचती हों या नहीं, जैसा मैंने हिंसक, अपमानजनक व्यवहार के बारे में कहा था, वह हो किसी के साथ, मुझ तक अवश्य पहुंचता है, उसी तरह गालियां किसी को भी दी जाएं। मुझे अवश्य पहुंचती है , क्योंकि मैं उस समाज से अपने को अभिन्न मानता हूं, जिसका वह भी एक सदस्य है। वह जो कर रहा है मेरे समाज का ही एक व्यक्ति कर रहा है। अपने आचरण पर उसे लज्जा भले न आती हो मुझे लज्जा अनुभव होती है।

मैं मानता हूं एक लेखक की भूमिका एक नैदानिक, एक चिकित्सक, और एक शिक्षक की होती है, इसलिए मैं बार-बार ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करता हूं । यह प्रयास व्यर्थ भी नही गया है । इसलिए मैं उस व्यक्ति का नाम लिए बिना कुछ बातें अंतिम रूप से कहना चाहता हूं।

1. जब आप गंदे शब्दों का प्रयोग करते हैं तो सबसे पहले आप की जबान गंदी होती है। जिसके लिए आपने गंदे शब्दों का प्रयोग किया, उस तक वे पहुंचे या न पहुंचे हैं परंतु, आप की जबान तो आपके मुंह में रह ही जाती है। उस जवान को अपने मुंह में रख करें आप सुखी नहीं अनुभव कर सकते और यदि करते हैं तो आपको शक्ल से मनुष्य होते हुए भी जीव कोटि में अपनी सही जगह का पता अवश्य लगाना चाहिए।

2. यदि किसी के पास सही तर्क प्रमाण और साक्ष्य हों तो कठोर भाषा की आवश्यकता ही न पड़े। दूसरे व्यक्ति को निरुत्तर करने के लिए उतना ही पर्याप्त है। इसलिए गर्हित भाषा का प्रयोग करने वाला स्वतः यह स्वीकार करता है कि वह गलत है उसके पास केवल घृणा और दुर्भावना है अर्थात गाली तो वह दे रहा है परंतु हर दृष्टि से गर्हित वही सिद्ध होता है।

3. यह एक ऐसा वेदर-ओ-दीवार का घर है जिसमें किसी के भी प्रवेश की छूट है अतः आयु, शिक्षा, संस्कार लिंग और धर्म की सीमाओं की चिंता किए बिना सभी लोग किसी चर्सचा में म्मिलित हो सकते हैं और होते हैं । उनमें जो असभ्य हैं उनको चुटकी बजा कर सभ्य तो नहीं बनाया जा सकता, परंतु उनकी एक कमजोरी का फायदा अवश्य उठाया जा सकता है । उनमें सभी अपने को अधिक चालाक, अधिक विट्टी और अधिक ऊंची हैसियत का दिखाने का प्रयत्न अवश्य करते हैं। यदि इस मंच से जुड़कर वे यह दिखाना चाहते हैं कि वे सचमुच अच्छी हैसियत के हैं तो भाषा के माधयम से ही उन्हें यह सिद्ध करना चाहिए कि वे अच्छे खानदान के हैं, उनके माता-पिता अच्छे संस्कारों के हैं या थे, और वे भी अच्छी संगत में रहे हैं। यदि इसका ध्यान रखें तो Facebook पर प्रयोग में आने वाली भाषा का स्तर सुधर सकता है और अपने विचारों को तर्क और प्रमाणों के साथ भावावेश से बचकर प्रकट करने की आदत पड़ सकती है।

Post – 2018-04-18

आतंकित और असुरक्षित अनुभव करने का अधिकार

सुनते हैं आसिफा उस बकरवाल की लड़की है लड़की थी जिसने सबसे पहले सियाचिन पर पाकिस्तानियों की गतिविधि की सूचना भारतीय सैनिकों को दी थी. यह गलत भी हो सकता है. सुना है वह पिता भी CBI इंक्वायरी चाहता है। भी गलत हो सकता है। सुना है वह भी इस केस की सुनवाई जम्मू कश्मीर से बाहर कहीं चाहता है। यह भी किसी का गढा हुआ बयान हो सकता है। सुनते हैं आंदोलन करने वाले वकील भी सीबीआई जांच की मांग कर रहे थे, जिसकी मांग जिन्हें अभियुक्त बनाया गया है, वे कर रहे थे. हो सकता है ऐसा करना भी अभियुक्तों का समर्थन करना हो। सुना है असहायता वे नारको टेस्ट कराने की मांग कर रहे हैं। हो सकता है, यह न्याय प्रक्रिया में बाधा डालने का उन का तरीका हो।

सामान्यतः किसी जांच प्रक्रिया में कोई भी जांचकर्ता एक साथ अनेक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए अपनी जांच आरंभ करता है क्योंकि उनके संदर्भ में कुछ प्रमाण होते हैं। जिनके सबसे शशक्त प्रमाण होते हैं उनको वह पहले जांचता है और आगे बढ़ने पर उसके खंडित होने पर वह उसको छोड़कर दूसरी संभावनाओं पर ध्यान देता है। यह भी संभव है कि वह सभी संभावनाओं को एक साथ टटोलना आरंभ करें परंतु साक्ष्य या बयान में किसी एक कड़ी के अनमेल होने पर पूरी जांच की दिशा बदल जाती है। इस मामले में मैंने हर कड़ी को असंभव पाया।

हो सकता है मेरे सोचने का देखने का तरीका गलत हो। हो सकता है, जम्मू कश्मीर सरकार अभियुक्तों को सिद्धदोष ठहराने और जल्दी से जल्दी फांसी देने को उचित न्याय मानती हो। हमारे बहुत से मित्र जो मुझसे कम संवेदनशील नहीं हैं, चाहते हैं कि जल्द से जल्द अभियुक्तों को फांसी दे कर न्याय की माग को पूरा कर दिया जाए। किसी भी कारण से किसी तरह की देरी उन्हें सहन नहीं है।

हो सकता है, मैं अपनी चिंता प्रकट करके स्वयं अपराधियों का साथ दे रहा हूं। परंतु इन सारी और पहले से तय सच्चाईयों के बीच मुझे असुरक्षित अनुभव करने का अधिकार तो है ही। मैं स्वयं अपने को ऐसी स्थिति में रख कर देखता हूं तो प्रचार तंत्र और शासन तंत्र की शक्ति के साथ बुद्धिजीवियों गठजोड़ के सामने अपने को यह सोच कर कितना असहाय पाता हूं कि मेरी उम्र ज्ञान स्वभाव सभी के बावजूद इन्हीं की दुहाई देते हुए घृणा को और उग्र करते मेरे ऊपर ऐसा प्रहार हो सकता है और मैं निर्दोष होते हुए भी अपने को निर्दोष साबित नहीं कर सकता।

वास्तविक अपराधियों को छिपाने बचाने और बलि के लिए किसी को भी चुन कर फांसी पर चढ़ा देने का यह न्याय मुझे आतंकित करता है। मेैरे मित्र कहते हैं, आतंकित और असुरक्षित अनुभव करने का अधिकार भी केवल उन्हें है, मुझे नहीं है।

Post – 2018-04-18

आतंकित और असुरक्षित अनुभव करने का अधिकार

सुनते हैं आसिफा उस बकरवाल की लड़की है लड़की थी जिसने सबसे पहले सियाचिन पर पाकिस्तानियों की गतिविधि की सूचना भारतीय सैनिकों को दी थी. यह गलत भी हो सकता है. सुना है वह पिता भी CBI इंक्वायरी चाहता है। भी गलत हो सकता है। सुना है वह भी इस केस की सुनवाई जम्मू कश्मीर से बाहर कहीं चाहता है। यह भी किसी का गढा हुआ बयान हो सकता है। सुनते हैं आंदोलन करने वाले वकील भी सीबीआई जांच की मांग कर रहे थे, जिसकी मांग जिन्हें अभियुक्त बनाया गया है, वे कर रहे थे. हो सकता है ऐसा करना भी अभियुक्तों का समर्थन करना हो। सुना है असहायता वे नारको टेस्ट कराने की मांग कर रहे हैं। हो सकता है, यह न्याय प्रक्रिया में बाधा डालने का उन का तरीका हो।

सामान्यतः किसी जांच प्रक्रिया में कोई भी जांचकर्ता एक साथ अनेक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए अपनी जांच आरंभ करता है क्योंकि उनके संदर्भ में कुछ प्रमाण होते हैं। जिनके सबसे शशक्त प्रमाण होते हैं उनको वह पहले जांचता है और आगे बढ़ने पर उसके खंडित होने पर वह उसको छोड़कर दूसरी संभावनाओं पर ध्यान देता है। यह भी संभव है कि वह सभी संभावनाओं को एक साथ टटोलना आरंभ करें परंतु साक्ष्य या बयान में किसी एक कड़ी के अनमेल होने पर पूरी जांच की दिशा बदल जाती है। इस मामले में मैंने हर कड़ी को असंभव पाया।

हो सकता है मेरे सोचने का देखने का तरीका गलत हो। हो सकता है, जम्मू कश्मीर सरकार अभियुक्तों को सिद्धदोष ठहराने और जल्दी से जल्दी फांसी देने को उचित न्याय मानती हो। हमारे बहुत से मित्र जो मुझसे कम संवेदनशील नहीं हैं, चाहते हैं कि जल्द से जल्द अभियुक्तों को फांसी दे कर न्याय की माग को पूरा कर दिया जाए। किसी भी कारण से किसी तरह की देरी उन्हें सहन नहीं है।

हो सकता है, मैं अपनी चिंता प्रकट करके स्वयं अपराधियों का साथ दे रहा हूं। परंतु इन सारी और पहले से तय सच्चाईयों के बीच मुझे असुरक्षित अनुभव करने का अधिकार तो है ही। मैं स्वयं अपने को ऐसी स्थिति में रख कर देखता हूं तो प्रचार तंत्र और शासन तंत्र की शक्ति के साथ बुद्धिजीवियों गठजोड़ के सामने अपने को यह सोच कर कितना असहाय पाता हूं कि मेरी उम्र ज्ञान स्वभाव सभी के बावजूद इन्हीं की दुहाई देते हुए घृणा को और उग्र करते मेरे ऊपर ऐसा प्रहार हो सकता है और मैं निर्दोष होते हुए भी अपने को निर्दोष साबित नहीं कर सकता।

वास्तविक अपराधियों को छिपाने बचाने और बलि के लिए किसी को भी चुन कर फांसी पर चढ़ा देने का यह न्याय मुझे आतंकित करता है। मेैरे मित्र कहते हैं, आतंकित और असुरक्षित अनुभव करने का अधिकार भी केवल उन्हें है, मुझे नहीं है।

Post – 2018-04-18

आतंकित और असुरक्षित अनुभव करने का अधिकार

सुनते हैं आसिफा उस बकरवाल की लड़की है लड़की थी जिसने सबसे पहले सियाचिन पर पाकिस्तानियों की गतिविधि की सूचना भारतीय सैनिकों को दी थी. यह गलत भी हो सकता है. सुना है वह पिता भी CBI इंक्वायरी चाहता है। भी गलत हो सकता है। सुना है वह भी इस केस की सुनवाई जम्मू कश्मीर से बाहर कहीं चाहता है। यह भी किसी का गढा हुआ बयान हो सकता है। सुनते हैं आंदोलन करने वाले वकील भी सीबीआई जांच की मांग कर रहे थे, जिसकी मांग जिन्हें अभियुक्त बनाया गया है, वे कर रहे थे. हो सकता है ऐसा करना भी अभियुक्तों का समर्थन करना हो। सुना है असहायता वे नारको टेस्ट कराने की मांग कर रहे हैं। हो सकता है, यह न्याय प्रक्रिया में बाधा डालने का उन का तरीका हो।

सामान्यतः किसी जांच प्रक्रिया में कोई भी जांचकर्ता एक साथ अनेक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए अपनी जांच आरंभ करता है क्योंकि उनके संदर्भ में कुछ प्रमाण होते हैं। जिनके सबसे शशक्त प्रमाण होते हैं उनको वह पहले जांचता है और आगे बढ़ने पर उसके खंडित होने पर वह उसको छोड़कर दूसरी संभावनाओं पर ध्यान देता है। यह भी संभव है कि वह सभी संभावनाओं को एक साथ टटोलना आरंभ करें परंतु साक्ष्य या बयान में किसी एक कड़ी के अनमेल होने पर पूरी जांच की दिशा बदल जाती है। इस मामले में मैंने हर कड़ी को असंभव पाया।

हो सकता है मेरे सोचने का देखने का तरीका गलत हो। हो सकता है, जम्मू कश्मीर सरकार अभियुक्तों को सिद्धदोष ठहराने और जल्दी से जल्दी फांसी देने को उचित न्याय मानती हो। हमारे बहुत से मित्र जो मुझसे कम संवेदनशील नहीं हैं, चाहते हैं कि जल्द से जल्द अभियुक्तों को फांसी दे कर न्याय की माग को पूरा कर दिया जाए। किसी भी कारण से किसी तरह की देरी उन्हें सहन नहीं है।

हो सकता है, मैं अपनी चिंता प्रकट करके स्वयं अपराधियों का साथ दे रहा हूं। परंतु इन सारी और पहले से तय सच्चाईयों के बीच मुझे असुरक्षित अनुभव करने का अधिकार तो है ही। मैं स्वयं अपने को ऐसी स्थिति में रख कर देखता हूं तो प्रचार तंत्र और शासन तंत्र की शक्ति के साथ बुद्धिजीवियों गठजोड़ के सामने अपने को यह सोच कर कितना असहाय पाता हूं कि मेरी उम्र ज्ञान स्वभाव सभी के बावजूद इन्हीं की दुहाई देते हुए घृणा को और उग्र करते मेरे ऊपर ऐसा प्रहार हो सकता है और मैं निर्दोष होते हुए भी अपने को निर्दोष साबित नहीं कर सकता।

वास्तविक अपराधियों को छिपाने बचाने और बलि के लिए किसी को भी चुन कर फांसी पर चढ़ा देने का यह न्याय मुझे आतंकित करता है। मेैरे मित्र कहते हैं, आतंकित और असुरक्षित अनुभव करने का अधिकार भी केवल उन्हें है, मुझे नहीं है।

Post – 2018-04-18

मैं छाती चीर कर भी अपना सच दिखला नहीं सकता

राजनीतिक जुमलेबाजी के माहौल में जहां सच दलों के साथ बदलता रहता है समस्या विचारों की हत्या करने और उन्हें जीवित रखने के बीच चुनाव की होती है। समस्या बड़बोलेपन और तर्कसंगत विचारों को संयुक्त भाषा में रखने के विकल्पों में से एक के चुनाव की होती है। जिन लोगों के पास पूरा सच और एकमात्र सच जमा होता है, वे अपने से असहमत होने वालों की नैतिक या भौतिक हत्या करने के लिए किसी सीमा तक जा सकते हैं। सच पर कब्जा करने में वे इतनी जल्दबाजी करते हैं कि पूरी इमारत सुनने से पहले अपने नतीजे निकाल लेते हैं । नतीजे निकालने नहीं होते, वे उनके स्टाक में होते हैं और वे उनको अमल में लाने के तिए मौके की तलाश में रहते हैं इसनिए उनकी आहट मिलते ही उन्हे दबोच लेते हैं। ऐसे लोगों की आक्रामक सचाई के भीतर से वास्तविकता की खोज करना असंभव बना दिया जाता है। मेरा यह बोध दिनों अधिक प्रखर हुआ है और उसी अनुपात में मेरी असुरक्षा की भावना बढ़ी है।

अभी इमरजेंसी लगी नहीं थी पर संजय गांधी की बदतमीजियां और उन पर इंदिरा गांधी का मौन सार्वजनिक हो चुका था। संजय गांधी ने एक महिला जज को मिनी बस में थप्पड़ मारा था। जब इसकी सूचना मिली तो मुझे लगा वह थप्पड़ मेरे गाल पर भी पडा है। ठीक ऐसा ही अनुभव तब हुआ था एक SP के साथ उन्होंने ऐसा ही बर्ताव किया था। ठीक ऐसा ही हर त्रासदी के साथ होता है। मुझे ऐसा इसलिए लगता है की चेतना के स्तर पर मैं स्वतः भुक्तभोगी की स्थिति में पहुंच जाता हूं।

कई बार बस से गुजरते बाहर सड़क पर किसी अन्याय को, खासकर किसी स्त्री या बच्चे पर, होते देख कर अक्सर चीख पड़ता था, और लोग चौंक कर देखने लगते तो लज्जित भी अनुभव करता था कि आखिर देखा तो कई ने था, किसी के मुंह से चीख या फटकार क्यों नहीं लिकली। यदि विश्वास होता मै दूसरों से अधिक संवेदनशील हूं, तो लज्जित अनुभव न करता। व्याधि मानता हूं, पर है तो है।

सामाजिक त्रासदियों पर जो लोग ऐसी स्थितियों में राजनीति प्रेरित रुख अपनाते हैं वे मुझे संवेदनाशून्य, क्रूर और डरावने लगते हैं। वास्तविक अपराधियों को छिपाने बचाने और बलि के लिए किसी को भी चुन कर जल्द से जल्द शूली पर चढ़ा देने का उनका न्याय मुझे आतंकित करता है। उनका दुश्मन कोई और होता है और उसे अपने रास्ते से हटाने क् लिए हत्या किसी और की कर रहे होते। कराला काली की तरह उन्हें केवल बलि चाहिए, जो भी राह में आ जाय।