बदलती आ रही है, देखना आगे भी बदलेगी।
अगर खुद को नहीं बदला तो दुनिया छूट जाएगी।
Post – 2018-04-13
बदलती आ रही है, देखना आगे भी बदलेगी।
अगर खुद को नहीं बदला तो दुनिया छूट जाएगी।
Post – 2018-04-12
भावजगत और जल- 1
भावनाओं के साथ तो यूं भी -उद्गार, -उद्रेक, -प्रवाह, -आवेग जैसे उत्तरपद लग जाते हैं जिसके बाद जल और आर्द्रता से इनके सहज संबंध के विषय में कोई सन्देह रह ही नहीं जाता। हम समग्र विचार जगत या बौद्धिक आयास को भावलोक में रख कर यह चर्चा करना चाहते हैं। मोटे तौर पर वे सभी संकल्पनाएं जिनको भाववाचक संज्ञाओं रखा जाता है। इनकी संख्या विशाल है और इतना तो बिना कहे भी जाना जा सकता है कि इन सभी पर विचार करना किसी एक आदमी के वश की बात नहीं। अत: चुनिन्दा आंकड़ो के आधार पर अपने मन्तव्य को सही सिद्ध करने के संभावित आरोप से बचने के लिए हम इतना ही आश्वासन दे सकते हैं कि हम बिना किसी योजना के अनायास स्मरण आने वाले शब्दों पर विचार करेंगे और यदि किसी ने अपनी ओर से, परीक्षा के लिए ही सही, कोई शब्द या कार्य-व्यापार सुझाया तो उस पर भी विचार करने का प्रयत्न करेंगे।
स्नेह (प्रेम) स्नेह का मूल अर्थ पानी था। यह उसी स्न से व्युत्पन्न है जिससे स्नान, स्नापित (नापित), अं. Snow, , snail, snake,sneak, snook, snipe. यह रोचक है कि अपनी घपलेबाजी में मारिस ब्लूमफील्ड ने मूल भारोपीय जनों का निवास शीतप्रधान देश में सिद्ध करने के लिए यह तर्क दिया था कि वे हिम से परिचित थे. Vedic Concordance जैसी विख्यात कृति का सम्पादक इतना अनाड़ी नहीं हो सकता. जो लोग वैदिक साहित्य के असाधारण पांडित्य और संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार रखते रहे हैं वे भी अपनी ख्याति का किस सीमा तक जाकर दुरूपयोग करते रहे हैं, इसका यह एक नमूना मात्र है,
स्न सर / स्र का वह रूप है जो नासिक्य प्रेमी समुदाय के सांस्कृतिक धारा में प्रवेश का परिणाम था. राजवाड़े ने इनकी वर्तमान में पहचान गुजरात के दक्षिणी अंचल में की थी. गुजराती और सिन्धी पशु व्यापार में अग्रणी थे और इन्होने मध्येशिया में एक बड़े क्षेत्र में अपना कारोबार जमाया था जिसकी उलटी व्याख्या करते हुए वे ही पश्चिमी पंडित सिंतास्ता (सिंधियों का या सैन्धव क्षेत्र) और अन्द्रोनोवो (अन्ध्रवृष्णिकों का नया क्षेत्र ) से चलने वाले आर्यों का आक्रमण दिखाते रहे, जब कि स्थिति उल्टी थी और थी भी आक्रमण के कारण नहीं, पशुपालन विद्या में इनकी अग्रता और पशु व्यापार में रूचि के कारण. यह कम रोचक नही है की वैदिक भाषा पर भी इनकी बोलियों का असर पडा था, पर अधिक नहीं, अतः स्न वाले रूप संस्कृत की तुलना में यूरोपीय बोलियों पर अधिक स्पष्ट है.
श्र = श्रयण, श्रव =स्राव, यश
श्रत-= सत्य-, श्रद्धा =निष्टा पूर्वक विश्वास भाव,
श्रम (पसीना लाने वाला काम),
श्रथ (थक कर निढाल),
श्लथ (थकान के बाद ढीला पड़) ,
शिथिल (ढीला, लापरवाह) आदि के व्युत्पादन में स्र/ स्ल/श्र की भूमिका थी जिससे अंग्रे. के shrink, slim, sleek, slink, slip, slow, sloth, sling आदि की उत्पत्ति की संभावना है.
श्री (सिर/ शिर / चिर; सिरि/ शिरि /चिरि)
घृणा ( घृ- क्षरण – छलकने की ध्वनि) >घृत – पानी (घृतं क्षरन्ति सिन्धवः)> रूधार्थ – घी; घृणि – धूप, पसीना । घृणा – करुणा , बौद्ध मत के विरोध में अर्थपरिवर्तन – घृणा- नफरत.
Post – 2018-04-12
भावजगत और जल- 1
भावनाओं के साथ तो यूं भी -उद्गार, -उद्रेक, -प्रवाह, -आवेग जैसे उत्तरपद लग जाते हैं जिसके बाद जल और आर्द्रता से इनके सहज संबंध के विषय में कोई सन्देह रह ही नहीं जाता। हम समग्र विचार जगत या बौद्धिक आयास को भावलोक में रख कर यह चर्चा करना चाहते हैं। मोटे तौर पर वे सभी संकल्पनाएं जिनको भाववाचक संज्ञाओं रखा जाता है। इनकी संख्या विशाल है और इतना तो बिना कहे भी जाना जा सकता है कि इन सभी पर विचार करना किसी एक आदमी के वश की बात नहीं। अत: चुनिन्दा आंकड़ो के आधार पर अपने मन्तव्य को सही सिद्ध करने के संभावित आरोप से बचने के लिए हम इतना ही आश्वासन दे सकते हैं कि हम बिना किसी योजना के अनायास स्मरण आने वाले शब्दों पर विचार करेंगे और यदि किसी ने अपनी ओर से, परीक्षा के लिए ही सही, कोई शब्द या कार्य-व्यापार सुझाया तो उस पर भी विचार करने का प्रयत्न करेंगे।
स्नेह (प्रेम) स्नेह का मूल अर्थ पानी था। यह उसी स्न से व्युत्पन्न है जिससे स्नान, स्नापित (नापित), अं. Snow, , snail, snake,sneak, snook, snipe. यह रोचक है कि अपनी घपलेबाजी में मारिस ब्लूमफील्ड ने मूल भारोपीय जनों का निवास शीतप्रधान देश में सिद्ध करने के लिए यह तर्क दिया था कि वे हिम से परिचित थे. Vedic Concordance जैसी विख्यात कृति का सम्पादक इतना अनाड़ी नहीं हो सकता. जो लोग वैदिक साहित्य के असाधारण पांडित्य और संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार रखते रहे हैं वे भी अपनी ख्याति का किस सीमा तक जाकर दुरूपयोग करते रहे हैं, इसका यह एक नमूना मात्र है,
स्न सर / स्र का वह रूप है जो नासिक्य प्रेमी समुदाय के सांस्कृतिक धारा में प्रवेश का परिणाम था. राजवाड़े ने इनकी वर्तमान में पहचान गुजरात के दक्षिणी अंचल में की थी. गुजराती और सिन्धी पशु व्यापार में अग्रणी थे और इन्होने मध्येशिया में एक बड़े क्षेत्र में अपना कारोबार जमाया था जिसकी उलटी व्याख्या करते हुए वे ही पश्चिमी पंडित सिंतास्ता (सिंधियों का या सैन्धव क्षेत्र) और अन्द्रोनोवो (अन्ध्रवृष्णिकों का नया क्षेत्र ) से चलने वाले आर्यों का आक्रमण दिखाते रहे, जब कि स्थिति उल्टी थी और थी भी आक्रमण के कारण नहीं, पशुपालन विद्या में इनकी अग्रता और पशु व्यापार में रूचि के कारण. यह कम रोचक नही है की वैदिक भाषा पर भी इनकी बोलियों का असर पडा था, पर अधिक नहीं, अतः स्न वाले रूप संस्कृत की तुलना में यूरोपीय बोलियों पर अधिक स्पष्ट है.
श्र = श्रयण, श्रव =स्राव, यश
श्रत-= सत्य-, श्रद्धा =निष्टा पूर्वक विश्वास भाव,
श्रम (पसीना लाने वाला काम),
श्रथ (थक कर निढाल),
श्लथ (थकान के बाद ढीला पड़) ,
शिथिल (ढीला, लापरवाह) आदि के व्युत्पादन में स्र/ स्ल/श्र की भूमिका थी जिससे अंग्रे. के shrink, slim, sleek, slink, slip, slow, sloth, sling आदि की उत्पत्ति की संभावना है.
श्री (सिर/ शिर / चिर; सिरि/ शिरि /चिरि)
घृणा ( घृ- क्षरण – छलकने की ध्वनि) >घृत – पानी (घृतं क्षरन्ति सिन्धवः)> रूधार्थ – घी; घृणि – धूप, पसीना । घृणा – करुणा , बौद्ध मत के विरोध में अर्थपरिवर्तन – घृणा- नफरत.
Post – 2018-04-12
भावजगत और जल- 1
भावनाओं के साथ तो यूं भी -उद्गार, -उद्रेक, -प्रवाह, -आवेग जैसे उत्तरपद लग जाते हैं जिसके बाद जल और आर्द्रता से इनके सहज संबंध के विषय में कोई सन्देह रह ही नहीं जाता। हम समग्र विचार जगत या बौद्धिक आयास को भावलोक में रख कर यह चर्चा करना चाहते हैं। मोटे तौर पर वे सभी संकल्पनाएं जिनको भाववाचक संज्ञाओं रखा जाता है। इनकी संख्या विशाल है और इतना तो बिना कहे भी जाना जा सकता है कि इन सभी पर विचार करना किसी एक आदमी के वश की बात नहीं। अत: चुनिन्दा आंकड़ो के आधार पर अपने मन्तव्य को सही सिद्ध करने के संभावित आरोप से बचने के लिए हम इतना ही आश्वासन दे सकते हैं कि हम बिना किसी योजना के अनायास स्मरण आने वाले शब्दों पर विचार करेंगे और यदि किसी ने अपनी ओर से, परीक्षा के लिए ही सही, कोई शब्द या कार्य-व्यापार सुझाया तो उस पर भी विचार करने का प्रयत्न करेंगे।
स्नेह (प्रेम) स्नेह का मूल अर्थ पानी था। यह उसी स्न से व्युत्पन्न है जिससे स्नान, स्नापित (नापित), अं. Snow, , snail, snake,sneak, snook, snipe. यह रोचक है कि अपनी घपलेबाजी में मारिस ब्लूमफील्ड ने मूल भारोपीय जनों का निवास शीतप्रधान देश में सिद्ध करने के लिए यह तर्क दिया था कि वे हिम से परिचित थे. Vedic Concordance जैसी विख्यात कृति का सम्पादक इतना अनाड़ी नहीं हो सकता. जो लोग वैदिक साहित्य के असाधारण पांडित्य और संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार रखते रहे हैं वे भी अपनी ख्याति का किस सीमा तक जाकर दुरूपयोग करते रहे हैं, इसका यह एक नमूना मात्र है,
स्न सर / स्र का वह रूप है जो नासिक्य प्रेमी समुदाय के सांस्कृतिक धारा में प्रवेश का परिणाम था. राजवाड़े ने इनकी वर्तमान में पहचान गुजरात के दक्षिणी अंचल में की थी. गुजराती और सिन्धी पशु व्यापार में अग्रणी थे और इन्होने मध्येशिया में एक बड़े क्षेत्र में अपना कारोबार जमाया था जिसकी उलटी व्याख्या करते हुए वे ही पश्चिमी पंडित सिंतास्ता (सिंधियों का या सैन्धव क्षेत्र) और अन्द्रोनोवो (अन्ध्रवृष्णिकों का नया क्षेत्र ) से चलने वाले आर्यों का आक्रमण दिखाते रहे, जब कि स्थिति उल्टी थी और थी भी आक्रमण के कारण नहीं, पशुपालन विद्या में इनकी अग्रता और पशु व्यापार में रूचि के कारण. यह कम रोचक नही है की वैदिक भाषा पर भी इनकी बोलियों का असर पडा था, पर अधिक नहीं, अतः स्न वाले रूप संस्कृत की तुलना में यूरोपीय बोलियों पर अधिक स्पष्ट है.
श्र = श्रयण, श्रव =स्राव, यश
श्रत-= सत्य-, श्रद्धा =निष्टा पूर्वक विश्वास भाव,
श्रम (पसीना लाने वाला काम),
श्रथ (थक कर निढाल),
श्लथ (थकान के बाद ढीला पड़) ,
शिथिल (ढीला, लापरवाह) आदि के व्युत्पादन में स्र/ स्ल/श्र की भूमिका थी जिससे अंग्रे. के shrink, slim, sleek, slink, slip, slow, sloth, sling आदि की उत्पत्ति की संभावना है.
श्री (सिर/ शिर / चिर; सिरि/ शिरि /चिरि)
घृणा ( घृ- क्षरण – छलकने की ध्वनि) >घृत – पानी (घृतं क्षरन्ति सिन्धवः)> रूधार्थ – घी; घृणि – धूप, पसीना । घृणा – करुणा , बौद्ध मत के विरोध में अर्थपरिवर्तन – घृणा- नफरत.
Post – 2018-04-11
दस बराबर सौ
मैंने ‘समस्त’ के पर्यायों में तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, दश और शत का उल्लेख किया ही नहीं जबकि इतिहास के विभन्न चरणों पर, हमारे ज्ञान और मानसिक विकास के विभिन्न चरणों पर इन सभी का समस्त और बहुत सारे के आशय में प्रयोग होता रहा है, और आज भी जब हम तीनों लोक, सातों लोक जैसे का प्रयोग करते हैं तो शायद ही रुक कर सवाल करते हों कि यदि तीन लोक सही है, तो सात लोक सही कैसे हो सकता है? इसके लिए उन्हें दोष भी नहीं दिया जा सकता जो रुक कर सोचते नहीं, क्योंकि अधूरे ज्ञान को पूर्ण और निखोट बनाने का कारोबार भी तब से चालू हो गया जब से ब्राह्मणों ने शिक्षा और ज्ञान का कारोबार संभाला।
अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि सारा ज्ञान उसके पास हो और फिर भी उसे स्वीकार करना पड़े कि कोई ऐसी भी चीज है जिसे वह नहीं जानता, या कोई ऐसा भी प्रश्न है जिसे ले कर उसके मन में कोई संदेह बना रह गया हो। ‘सारी दुनिया’ कहने की जगह जब ‘तीनों लोक’ का प्रयोग चलता था, उससे बहुत आले चला आया था समाज, पर इस बीच गणना के क्षेत्र में जो भी विकास हुआ हो, पुराने मुहावरे अपना अलग प्रभाव रखते थे, इसलिए वे तो बदल नहीं सकते। उन्हीं के माध्यम से पुराना युग भी उपस्थित रहा।
इसी तरह तैयार होते हैं वे अंधेरे कोने जो तब भी बने रहते हैं जब दुनिया बहुत आगे बढ़ जाती है। ज्ञान के स्तर पर सब कुछ बदल चुका होता है पर भावसंपदा और कर्मकांडों, रवाजों और मुहावरों में सुदूर अतीत से लेकर आज तक कोई भेदक परिवर्तन दृष्टिगोचर ही नहीं होता। पंडित जन अज्ञानी समझे जाने के डर से अटकलबाजी से ठोस कल्पनाएं कर बैठते हैं। जब तक ज्ञान की ठेकेदारी नहीं शुरू हुई थी, यह ढकोसलेबाजी भी नहीं थी। उदाहरण के लिए ऋग्वेद तक यदि तीन लोक का मुहावरा चलता भी था, तो लोक दो ही थे, धरती और आकाश – रोदसी उभे। पर ज्ञान के नए कारखाने से समस्त जगत या तीनों लोक आकाश, धरती और पाताल के रूप में पैदा कर दिए गए।
समग्र के आशय में पांच का प्रयोग – पंच जना:, पंच कृष्टी आदि में देखा तो चारों वर्ण और अन्त्यज से हिसाब सही कर दिया गया। समस्त जगत के आशय मे छह का प्रयोगके समाधान के लिए ‘षडुर्वी’ हाजिर, और सातों लोकों का प्रयोग मिला तो धरातल के नीच तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल का नाम भी गिना दिया, नरक और स्वर्ग भले एक एक हों, जरूरत पड़ने पर सप्त वै सवर्गो लोका:, नव वै स्वर्गो लोका:। कच्छ के फेनिल रन्नों को देखकर इसे किसी ने क्षीर सागर की संज्ञा दी तो दधि और मधु के सागर भी अपने भूगोल में जोड़ लिए इसलिए बहुतों की तरह मैं भी मानता हूं कि प्राचीन भारतीय ज्ञानसंपदा की रक्षा करनी है तो उसेे ब्राह्मणों के कारोबारी पाखंड से अलग करना होगा, जिस पर ही आज भी प्राचीन संस्क़ृति की रक्षा के नाम पर अधिक तूफान मचाया जाता है। मुझे सर्वनिषेधवादी सोच का भी विरोध करना होता है और सर्वस्वीकारवादी सोच का भी, पर खड़ा तो सांस्कृतिक बफरलैंड में ही होना होता है जिसमें दोनों के क्षेप्यास्त्रों की चपेट से बचाने को साक्ष्यों के अलावा कुछ नहीं है।
खैर सांस्कृतिक नृतत्व की जितनी प्रचुर संपदा आज भीभारत में अछूती पड़ी है वह दुनिया में अन्यत्र शायद ही कहीं हो। हम जल से संख्या नामों की उत्पत्ति की बात कर रहे हैं, पर गणित के उस घालमेल या नामकरण के उस संकट को क्या कहेंगे जिसमें सात बराबर दस और दस बराबर सौ होते हैं।
इसकी ओर पहले मेरा भी ध्यान नहीं गया था। ऋग्वेद में शत-अरित्रा समुद्रगामी नौकाओं का वर्णन है इस पर खास ध्यान दिया गया है, पर नौकाओं के दूसरे रूपों की ओर ध्यान दिया ही नहीं गया नहीं तो झमेला उठाने वाले मुंह की खाते। इनमें ही एक है दश अरित्रा। सायण सहस्र का अर्थ करते हुए अनेक बार ‘बहुसंख्य’ करते हैं? ऐसा ही वह शतारित्रा का भी करते हैं, अर्थात् संख्यानाम संख्या मान के लिए भी प्रयोग में आता है और बहु और समग्र के आशय में भी। इसके बाद ही मेरा ध्यान इस ओर गया कि दहाई के लिए हम केवल एक बार दश का प्रयोग करते हैं अन्यथा बिना किसी अपवाद के शत का । यह क्रम उन्नीस से ही आरंभ हो जाता है। संस्कृत की तुलना में दूसरी भाषाएं इस दोष से अपेक्षाकृत मुक्त हैं।
इसके बाद ध्यान इस ओर तो जाना ही था कि क्या सप्त भी सत है और इसके नामकरण के पीछे जल का हाथ है? सत/ सद को उलटकर तस/ दस बनाया गया और फिर उसे उलट कर सत बनाया गया और इनके ध्वनिविच्छेदन के लिए सत के बीच ‘प्’ के आगम से उसे ‘सप्त’ कर दिया गया, दस की संख्या मे वर्णविपर्यय के साथ ‘त्’ को ‘द्’ किया गया सौ की संख्या में ‘सत’ के पुराने रूप को स्वीकार किया गया। अब तीनों संख्याएं हुईं सप्त, तस और सत और तालव्य प्रेमी समुदाय के बड़ी संख्या में मिलने के बाद उनके प्रभाव से सप्त, दश और शत का रूप तो स्थिर हुआ पर गणना मे शत दश का भी काम करता रहा जिसे सुधारा नहीं जा सका।
यदि हमारा उक्त अनुमान और तर्करेखा सही है तो आधारभूत तीन संख्याओं के नामकरण में जल की भूमिका के विषय में और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। तृ/तिर/त्रि के जलवाची रूप पर हम विचार कर आए हैे जो तीन के सभी रूपों और भावों को – त्रि, तिरश्च, तृतीय – को समेटता है।
चतुर की चतुराई का नाता भी जल से है- चत/सत, त. चदुप्पु – दलदल,
पंच मे पन् और षट् – मे सत के मूर्धन्यीकरण से अलग कुछ दिखाई नहीं देता।
अष्ट – अस् जिससे अस्ति, एस्त, इज की व्युत्पत्ति है, मूलतः जलर्थक लगता है। इससे ही असन् – खाना, असु – श्वास, अस् काटना (असि), अस्र – रक्त, आंसू आदि निकले हैं जो इस संभावना की पुष्टि करते हैं।
नव में जितनी नवीनता है उतनी ही सजलता, यह नाव, नाविक, से ही आभासित है।
ऐसी स्थिति केवल एक रह जाता है जो कुछ उलझन पैदा करता है। हमें ऐसा लगता है कि इसका मूल ‘ई’ है जिसे हम इहां/यहां में पाते हैं और इसका एक अर्थ जल हुआ करता था जिससे ‘ईंखन’ उछलना, ई/ईर् ‘चलना’ (ईयते, इयर्ति) आदि का संबंध है।
बड़ी संख्याओं के नामकरण में भिन्नताएं हैं ओर उन सभी की चर्चा का औचित्य नहीं पर पौराणिक स्रोतों में सहस्र से आगे अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद, न्यर्बुद, स्वर्बुद, खर्व, निखर्व, शंकु, पद्म,समुद्र, मध्य परार्ध की के मानांक हैं। आर्यभट तथा श्रीधर ने निखर्व के आगे की संख्याओं को महासरोज, शंकु, सरितापति, के आगे अन्त, मध्य और परार्ध को रखा है। इनमें जलपरक भूमिका क्या है इसे समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए । जिन के विषय सन्देह हो उन पर फिर कभी।
Post – 2018-04-11
दस बराबर सौ
मैंने ‘समस्त’ के पर्यायों में तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, दश और शत का उल्लेख किया ही नहीं जबकि इतिहास के विभन्न चरणों पर, हमारे ज्ञान और मानसिक विकास के विभिन्न चरणों पर इन सभी का समस्त और बहुत सारे के आशय में प्रयोग होता रहा है, और आज भी जब हम तीनों लोक, सातों लोक जैसे का प्रयोग करते हैं तो शायद ही रुक कर सवाल करते हों कि यदि तीन लोक सही है, तो सात लोक सही कैसे हो सकता है? इसके लिए उन्हें दोष भी नहीं दिया जा सकता जो रुक कर सोचते नहीं, क्योंकि अधूरे ज्ञान को पूर्ण और निखोट बनाने का कारोबार भी तब से चालू हो गया जब से ब्राह्मणों ने शिक्षा और ज्ञान का कारोबार संभाला।
अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि सारा ज्ञान उसके पास हो और फिर भी उसे स्वीकार करना पड़े कि कोई ऐसी भी चीज है जिसे वह नहीं जानता, या कोई ऐसा भी प्रश्न है जिसे ले कर उसके मन में कोई संदेह बना रह गया हो। ‘सारी दुनिया’ कहने की जगह जब ‘तीनों लोक’ का प्रयोग चलता था, उससे बहुत आले चला आया था समाज, पर इस बीच गणना के क्षेत्र में जो भी विकास हुआ हो, पुराने मुहावरे अपना अलग प्रभाव रखते थे, इसलिए वे तो बदल नहीं सकते। उन्हीं के माध्यम से पुराना युग भी उपस्थित रहा।
इसी तरह तैयार होते हैं वे अंधेरे कोने जो तब भी बने रहते हैं जब दुनिया बहुत आगे बढ़ जाती है। ज्ञान के स्तर पर सब कुछ बदल चुका होता है पर भावसंपदा और कर्मकांडों, रवाजों और मुहावरों में सुदूर अतीत से लेकर आज तक कोई भेदक परिवर्तन दृष्टिगोचर ही नहीं होता। पंडित जन अज्ञानी समझे जाने के डर से अटकलबाजी से ठोस कल्पनाएं कर बैठते हैं। जब तक ज्ञान की ठेकेदारी नहीं शुरू हुई थी, यह ढकोसलेबाजी भी नहीं थी। उदाहरण के लिए ऋग्वेद तक यदि तीन लोक का मुहावरा चलता भी था, तो लोक दो ही थे, धरती और आकाश – रोदसी उभे। पर ज्ञान के नए कारखाने से समस्त जगत या तीनों लोक आकाश, धरती और पाताल के रूप में पैदा कर दिए गए।
समग्र के आशय में पांच का प्रयोग – पंच जना:, पंच कृष्टी आदि में देखा तो चारों वर्ण और अन्त्यज से हिसाब सही कर दिया गया। समस्त जगत के आशय मे छह का प्रयोगके समाधान के लिए ‘षडुर्वी’ हाजिर, और सातों लोकों का प्रयोग मिला तो धरातल के नीच तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल का नाम भी गिना दिया, नरक और स्वर्ग भले एक एक हों, जरूरत पड़ने पर सप्त वै सवर्गो लोका:, नव वै स्वर्गो लोका:। कच्छ के फेनिल रन्नों को देखकर इसे किसी ने क्षीर सागर की संज्ञा दी तो दधि और मधु के सागर भी अपने भूगोल में जोड़ लिए इसलिए बहुतों की तरह मैं भी मानता हूं कि प्राचीन भारतीय ज्ञानसंपदा की रक्षा करनी है तो उसेे ब्राह्मणों के कारोबारी पाखंड से अलग करना होगा, जिस पर ही आज भी प्राचीन संस्क़ृति की रक्षा के नाम पर अधिक तूफान मचाया जाता है। मुझे सर्वनिषेधवादी सोच का भी विरोध करना होता है और सर्वस्वीकारवादी सोच का भी, पर खड़ा तो सांस्कृतिक बफरलैंड में ही होना होता है जिसमें दोनों के क्षेप्यास्त्रों की चपेट से बचाने को साक्ष्यों के अलावा कुछ नहीं है।
खैर सांस्कृतिक नृतत्व की जितनी प्रचुर संपदा आज भीभारत में अछूती पड़ी है वह दुनिया में अन्यत्र शायद ही कहीं हो। हम जल से संख्या नामों की उत्पत्ति की बात कर रहे हैं, पर गणित के उस घालमेल या नामकरण के उस संकट को क्या कहेंगे जिसमें सात बराबर दस और दस बराबर सौ होते हैं।
इसकी ओर पहले मेरा भी ध्यान नहीं गया था। ऋग्वेद में शत-अरित्रा समुद्रगामी नौकाओं का वर्णन है इस पर खास ध्यान दिया गया है, पर नौकाओं के दूसरे रूपों की ओर ध्यान दिया ही नहीं गया नहीं तो झमेला उठाने वाले मुंह की खाते। इनमें ही एक है दश अरित्रा। सायण सहस्र का अर्थ करते हुए अनेक बार ‘बहुसंख्य’ करते हैं? ऐसा ही वह शतारित्रा का भी करते हैं, अर्थात् संख्यानाम संख्या मान के लिए भी प्रयोग में आता है और बहु और समग्र के आशय में भी। इसके बाद ही मेरा ध्यान इस ओर गया कि दहाई के लिए हम केवल एक बार दश का प्रयोग करते हैं अन्यथा बिना किसी अपवाद के शत का । यह क्रम उन्नीस से ही आरंभ हो जाता है। संस्कृत की तुलना में दूसरी भाषाएं इस दोष से अपेक्षाकृत मुक्त हैं।
इसके बाद ध्यान इस ओर तो जाना ही था कि क्या सप्त भी सत है और इसके नामकरण के पीछे जल का हाथ है? सत/ सद को उलटकर तस/ दस बनाया गया और फिर उसे उलट कर सत बनाया गया और इनके ध्वनिविच्छेदन के लिए सत के बीच ‘प्’ के आगम से उसे ‘सप्त’ कर दिया गया, दस की संख्या मे वर्णविपर्यय के साथ ‘त्’ को ‘द्’ किया गया सौ की संख्या में ‘सत’ के पुराने रूप को स्वीकार किया गया। अब तीनों संख्याएं हुईं सप्त, तस और सत और तालव्य प्रेमी समुदाय के बड़ी संख्या में मिलने के बाद उनके प्रभाव से सप्त, दश और शत का रूप तो स्थिर हुआ पर गणना मे शत दश का भी काम करता रहा जिसे सुधारा नहीं जा सका।
यदि हमारा उक्त अनुमान और तर्करेखा सही है तो आधारभूत तीन संख्याओं के नामकरण में जल की भूमिका के विषय में और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। तृ/तिर/त्रि के जलवाची रूप पर हम विचार कर आए हैे जो तीन के सभी रूपों और भावों को – त्रि, तिरश्च, तृतीय – को समेटता है।
चतुर की चतुराई का नाता भी जल से है- चत/सत, त. चदुप्पु – दलदल,
पंच मे पन् और षट् – मे सत के मूर्धन्यीकरण से अलग कुछ दिखाई नहीं देता।
अष्ट – अस् जिससे अस्ति, एस्त, इज की व्युत्पत्ति है, मूलतः जलर्थक लगता है। इससे ही असन् – खाना, असु – श्वास, अस् काटना (असि), अस्र – रक्त, आंसू आदि निकले हैं जो इस संभावना की पुष्टि करते हैं।
नव में जितनी नवीनता है उतनी ही सजलता, यह नाव, नाविक, से ही आभासित है।
ऐसी स्थिति केवल एक रह जाता है जो कुछ उलझन पैदा करता है। हमें ऐसा लगता है कि इसका मूल ‘ई’ है जिसे हम इहां/यहां में पाते हैं और इसका एक अर्थ जल हुआ करता था जिससे ‘ईंखन’ उछलना, ई/ईर् ‘चलना’ (ईयते, इयर्ति) आदि का संबंध है।
बड़ी संख्याओं के नामकरण में भिन्नताएं हैं ओर उन सभी की चर्चा का औचित्य नहीं पर पौराणिक स्रोतों में सहस्र से आगे अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद, न्यर्बुद, स्वर्बुद, खर्व, निखर्व, शंकु, पद्म,समुद्र, मध्य परार्ध की के मानांक हैं। आर्यभट तथा श्रीधर ने निखर्व के आगे की संख्याओं को महासरोज, शंकु, सरितापति, के आगे अन्त, मध्य और परार्ध को रखा है। इनमें जलपरक भूमिका क्या है इसे समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए । जिन के विषय सन्देह हो उन पर फिर कभी।
Post – 2018-04-11
दस बराबर सौ
मैंने ‘समस्त’ के पर्यायों में तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, दश और शत का उल्लेख किया ही नहीं जबकि इतिहास के विभन्न चरणों पर, हमारे ज्ञान और मानसिक विकास के विभिन्न चरणों पर इन सभी का समस्त और बहुत सारे के आशय में प्रयोग होता रहा है, और आज भी जब हम तीनों लोक, सातों लोक जैसे का प्रयोग करते हैं तो शायद ही रुक कर सवाल करते हों कि यदि तीन लोक सही है, तो सात लोक सही कैसे हो सकता है? इसके लिए उन्हें दोष भी नहीं दिया जा सकता जो रुक कर सोचते नहीं, क्योंकि अधूरे ज्ञान को पूर्ण और निखोट बनाने का कारोबार भी तब से चालू हो गया जब से ब्राह्मणों ने शिक्षा और ज्ञान का कारोबार संभाला।
अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि सारा ज्ञान उसके पास हो और फिर भी उसे स्वीकार करना पड़े कि कोई ऐसी भी चीज है जिसे वह नहीं जानता, या कोई ऐसा भी प्रश्न है जिसे ले कर उसके मन में कोई संदेह बना रह गया हो। ‘सारी दुनिया’ कहने की जगह जब ‘तीनों लोक’ का प्रयोग चलता था, उससे बहुत आले चला आया था समाज, पर इस बीच गणना के क्षेत्र में जो भी विकास हुआ हो, पुराने मुहावरे अपना अलग प्रभाव रखते थे, इसलिए वे तो बदल नहीं सकते। उन्हीं के माध्यम से पुराना युग भी उपस्थित रहा।
इसी तरह तैयार होते हैं वे अंधेरे कोने जो तब भी बने रहते हैं जब दुनिया बहुत आगे बढ़ जाती है। ज्ञान के स्तर पर सब कुछ बदल चुका होता है पर भावसंपदा और कर्मकांडों, रवाजों और मुहावरों में सुदूर अतीत से लेकर आज तक कोई भेदक परिवर्तन दृष्टिगोचर ही नहीं होता। पंडित जन अज्ञानी समझे जाने के डर से अटकलबाजी से ठोस कल्पनाएं कर बैठते हैं। जब तक ज्ञान की ठेकेदारी नहीं शुरू हुई थी, यह ढकोसलेबाजी भी नहीं थी। उदाहरण के लिए ऋग्वेद तक यदि तीन लोक का मुहावरा चलता भी था, तो लोक दो ही थे, धरती और आकाश – रोदसी उभे। पर ज्ञान के नए कारखाने से समस्त जगत या तीनों लोक आकाश, धरती और पाताल के रूप में पैदा कर दिए गए।
समग्र के आशय में पांच का प्रयोग – पंच जना:, पंच कृष्टी आदि में देखा तो चारों वर्ण और अन्त्यज से हिसाब सही कर दिया गया। समस्त जगत के आशय मे छह का प्रयोगके समाधान के लिए ‘षडुर्वी’ हाजिर, और सातों लोकों का प्रयोग मिला तो धरातल के नीच तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल का नाम भी गिना दिया, नरक और स्वर्ग भले एक एक हों, जरूरत पड़ने पर सप्त वै सवर्गो लोका:, नव वै स्वर्गो लोका:। कच्छ के फेनिल रन्नों को देखकर इसे किसी ने क्षीर सागर की संज्ञा दी तो दधि और मधु के सागर भी अपने भूगोल में जोड़ लिए इसलिए बहुतों की तरह मैं भी मानता हूं कि प्राचीन भारतीय ज्ञानसंपदा की रक्षा करनी है तो उसेे ब्राह्मणों के कारोबारी पाखंड से अलग करना होगा, जिस पर ही आज भी प्राचीन संस्क़ृति की रक्षा के नाम पर अधिक तूफान मचाया जाता है। मुझे सर्वनिषेधवादी सोच का भी विरोध करना होता है और सर्वस्वीकारवादी सोच का भी, पर खड़ा तो सांस्कृतिक बफरलैंड में ही होना होता है जिसमें दोनों के क्षेप्यास्त्रों की चपेट से बचाने को साक्ष्यों के अलावा कुछ नहीं है।
खैर सांस्कृतिक नृतत्व की जितनी प्रचुर संपदा आज भीभारत में अछूती पड़ी है वह दुनिया में अन्यत्र शायद ही कहीं हो। हम जल से संख्या नामों की उत्पत्ति की बात कर रहे हैं, पर गणित के उस घालमेल या नामकरण के उस संकट को क्या कहेंगे जिसमें सात बराबर दस और दस बराबर सौ होते हैं।
इसकी ओर पहले मेरा भी ध्यान नहीं गया था। ऋग्वेद में शत-अरित्रा समुद्रगामी नौकाओं का वर्णन है इस पर खास ध्यान दिया गया है, पर नौकाओं के दूसरे रूपों की ओर ध्यान दिया ही नहीं गया नहीं तो झमेला उठाने वाले मुंह की खाते। इनमें ही एक है दश अरित्रा। सायण सहस्र का अर्थ करते हुए अनेक बार ‘बहुसंख्य’ करते हैं? ऐसा ही वह शतारित्रा का भी करते हैं, अर्थात् संख्यानाम संख्या मान के लिए भी प्रयोग में आता है और बहु और समग्र के आशय में भी। इसके बाद ही मेरा ध्यान इस ओर गया कि दहाई के लिए हम केवल एक बार दश का प्रयोग करते हैं अन्यथा बिना किसी अपवाद के शत का । यह क्रम उन्नीस से ही आरंभ हो जाता है। संस्कृत की तुलना में दूसरी भाषाएं इस दोष से अपेक्षाकृत मुक्त हैं।
इसके बाद ध्यान इस ओर तो जाना ही था कि क्या सप्त भी सत है और इसके नामकरण के पीछे जल का हाथ है? सत/ सद को उलटकर तस/ दस बनाया गया और फिर उसे उलट कर सत बनाया गया और इनके ध्वनिविच्छेदन के लिए सत के बीच ‘प्’ के आगम से उसे ‘सप्त’ कर दिया गया, दस की संख्या मे वर्णविपर्यय के साथ ‘त्’ को ‘द्’ किया गया सौ की संख्या में ‘सत’ के पुराने रूप को स्वीकार किया गया। अब तीनों संख्याएं हुईं सप्त, तस और सत और तालव्य प्रेमी समुदाय के बड़ी संख्या में मिलने के बाद उनके प्रभाव से सप्त, दश और शत का रूप तो स्थिर हुआ पर गणना मे शत दश का भी काम करता रहा जिसे सुधारा नहीं जा सका।
यदि हमारा उक्त अनुमान और तर्करेखा सही है तो आधारभूत तीन संख्याओं के नामकरण में जल की भूमिका के विषय में और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। तृ/तिर/त्रि के जलवाची रूप पर हम विचार कर आए हैे जो तीन के सभी रूपों और भावों को – त्रि, तिरश्च, तृतीय – को समेटता है।
चतुर की चतुराई का नाता भी जल से है- चत/सत, त. चदुप्पु – दलदल,
पंच मे पन् और षट् – मे सत के मूर्धन्यीकरण से अलग कुछ दिखाई नहीं देता।
अष्ट – अस् जिससे अस्ति, एस्त, इज की व्युत्पत्ति है, मूलतः जलर्थक लगता है। इससे ही असन् – खाना, असु – श्वास, अस् काटना (असि), अस्र – रक्त, आंसू आदि निकले हैं जो इस संभावना की पुष्टि करते हैं।
नव में जितनी नवीनता है उतनी ही सजलता, यह नाव, नाविक, से ही आभासित है।
ऐसी स्थिति केवल एक रह जाता है जो कुछ उलझन पैदा करता है। हमें ऐसा लगता है कि इसका मूल ‘ई’ है जिसे हम इहां/यहां में पाते हैं और इसका एक अर्थ जल हुआ करता था जिससे ‘ईंखन’ उछलना, ई/ईर् ‘चलना’ (ईयते, इयर्ति) आदि का संबंध है।
बड़ी संख्याओं के नामकरण में भिन्नताएं हैं ओर उन सभी की चर्चा का औचित्य नहीं पर पौराणिक स्रोतों में सहस्र से आगे अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद, न्यर्बुद, स्वर्बुद, खर्व, निखर्व, शंकु, पद्म,समुद्र, मध्य परार्ध की के मानांक हैं। आर्यभट तथा श्रीधर ने निखर्व के आगे की संख्याओं को महासरोज, शंकु, सरितापति, के आगे अन्त, मध्य और परार्ध को रखा है। इनमें जलपरक भूमिका क्या है इसे समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए । जिन के विषय सन्देह हो उन पर फिर कभी।
Post – 2018-04-11
कल की पोस्ट में सर्व और विश्व जिनका भी अर्थ एक ही है, विचार करने से रह गए। सर्व का सर = जल, जलाशय से नाता स्पष्ट है। विश्व का मूल विष है । विष् =जल, >प्रवाह > फैलाव>अनन्त, समस्त > विषुव, विषूवृत या विषुवत रेखा । अग्नि की दिशा में इसका विकास विष्णु का जनक है यह हम देख आए हैं।
अंग्रेजी के सगोत शब्द जो सूझ गया वह लिख दिया। इनको जांच परख के बाद नहीं लिखता। उसका समय नहीं रहता इसलिए उन्हें या उन जैसे दूसरे, मुझसे छूटे दूसरे पर्यायों को जांचने की जरूरत है।
Post – 2018-04-11
कल की पोस्ट में सर्व और विश्व जिनका भी अर्थ एक ही है, विचार करने से रह गए। सर्व का सर = जल, जलाशय से नाता स्पष्ट है। विश्व का मूल विष है । विष् =जल, >प्रवाह > फैलाव>अनन्त, समस्त > विषुव, विषूवृत या विषुवत रेखा । अग्नि की दिशा में इसका विकास विष्णु का जनक है यह हम देख आए हैं।
अंग्रेजी के सगोत शब्द जो सूझ गया वह लिख दिया। इनको जांच परख के बाद नहीं लिखता। उसका समय नहीं रहता इसलिए उन्हें या उन जैसे दूसरे, मुझसे छूटे दूसरे पर्यायों को जांचने की जरूरत है।