Post – 2018-04-14

चेत अब भी चेत

हम इतिहास के एक बहुत खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। शायद ऐसी स्थिति दोनों महायुद्धों के दौर में भी एशिया के लिए नहीं आई थी जितनी आज दिखाई दे रही है। दूसरे महयुद्ध के बाद सारे युद्ध एशिया और अफ्रीका में लड़े गए हैं। इनमें भी जहां भी गोरी कौमें आबाद हैं उन पर आँच नहीं आने पाई है। गोरी जातियों में हई मामूली से मामूली हिंसा की घटना को इतना भयानक बना कर दिखाया जाता रहा है जैसे उनके द्वारा किए गए जघन्य अपराधों की तुलना में यही सबसे बड़ा अपराध हो । जिन क्षेत्रों में गोरी जातियां हैं उन्हें सुरक्षित रखना चाहिए। रंगीन जातियां धरती के इतने बड़े भाग को घेरे पड़ी हुई हैं जिनको गोरी जातियों के हाथ में आना चाहिए ।

यह कोई सचेत योजना नहीं है। सचेत योजनाएं उतनी ख़तरनाक नहीं होती। उनकी योजना सर्वविदित होती है इसलिए उनको विफल बनाना या सामना करना कठिन नहीं होता। यह अंतश्चेतना में बना हुआ विश्वास है जो सभी निर्णयों को प्रभावित कर रहा है और आज हम परमाणु युद्ध के लिए दोबारा केवल एशिया के कोने को प्रयोग में लाए जाने की दुर्भावना अमल में आने के कगार पर देख रहे हैं।

यह संकट का एक पहलू है जिसकी ओर मैंने कभी भी संचार माध्यमों को रुख करते नहीं देखा क्योंकि पश्चिमी प्रचारतंत्र की अपराजेयता के आगे बिछे होने के कारण वे सबसे अधिक पश्चिमी दबाव में हैं। पश्चिम के लिए हम हिंदू या मुसलमान नहीं है, एशियाटिक हैं। उनके साझे शत्रु। एशिया को पश्चिम के अधिकार में लाने के लिए उसे एशियाटिकों से मुक्त होना चाहिए। भले यह काम धीरे-धीरे ही हो, परंतु एक-एक करके पूरे एशिया को इस तरह तबाह कर दिया जाए, कि नमूने के तौर पर जितना एशिया बचा रह जाये वह पश्चिम कोई नाता रखे तो शरणागत भाव से ही।

हमारे संचार माध्यम भी सांप्रदायिकता को उभारने, जातिवाद और क्षेत्रवाद को उभारने के काम में जुट कर उनकी योजनाओं के अनुसार ही काम कर रहे हैं जिनको अपना हमदर्द समझ कर कुझ दलों द्वारा अपना सलाहकार बनाया गया है।

बिके हुए प्रचार तंत्र में यह करना कठिन है कब पैसा बोल रहा है और कब आदमी और कब अपने समय का यथार्थ। यह तय करना कठिन है कि सच क्या है और प्रचारित क्या किया जा रहा है। प्रचार की हवा ऐसी प्रखर है कि हर एक दूसरे से आगे बढ़ने के लिए उन्हीं प्रायोजित इबारतों को अधिक जोर से, अधिक आवेशपूर्ण ढंग से, अधिक से अधिक बार और अधिक खतरनाक बनाते हुए प्रचारित करने की होड़ में लगा हुआ है। यह प्रतिस्पर्धा उसी सचाई के दूसरे पहलू को सामने नहीं लाती बल्कि जो बाजार में बिक रहा है उसको अधिक से अधिक उत्तेजक बनाकर अधिक से अधिक खतरनाक बनाने का खेल खेलती है।

सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है बुद्धिजीवियों का प्रचार तंत्र से उठाई गई सामग्री को अपनी ओर से अधिक उत्साह से प्रस्तुत करना और यह मान लेना जो इसमें भाग नहीं ले रहा है वह सचमुच का आपराधिक कुकृतियों का समर्थक है।

यह किसी से छिपा नहीं है अगला वर्ष अगले चुनाव के लिए प्रचार का वर्ष है और इसमें प्रचार तंत्र का जितना जघन्यतम उपयोग किया जाएगा ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मैं पहले भी यह कहता आया हूं की सत्ता की राजनीति करने वालों के लिए देश और समाज नहीं, हर कीमत पर सत्ता ही चाहिए ,उनका दल कोई भी क्यों ना हो । इसलिए सक्रिय राजनीति से जुड़ाव बुद्धिजीवी को उतना ही संदिग्ध उतना ही, खतरनाक और सच कहें तो उतना ही कमीना बना देता है, जितना सत्ता की राजनीति में अपना हिस्सा बटाने के लिए मैदान में उतरने वाले लोग

मैं इस बात पर बार-बार जोर देता रहा हूं अपने क्षेत्र का काम छोड़ कर दूसरे किसी क्षेत्र में हस्तक्षेप स्वयं उस क्षेत्र की गतिविधियों के सही संचालन के लिए भी बाधक है और अपने समय का अपव्यय । बुद्धिजीवियों का हस्तक्षेप तभी आवश्यक हो सकता है जब कानून और व्यवस्था की संस्थाएं राजनीति को द्वारा दुरुपयोग में लाने जाए जाने के कारण अपना काम सही ढंग से न कर रही हूं । भ्रष्ठ अधिकारी भी रकजनीतिक समर्थन के अभाव में लंबे समय तक जन प्रतिरोध का सामना नहीं कर सकता। इसलिए संस्थाओं की विफलता के बाद अपने हस्तक्षेप का अवसर आता है और उस समय उसकी शिथिलता दुखद भी मानी जा सकती है। मैं आज की घटनाओं केंद्र में रखकर बात नहीं करना चाहता। हर रोज दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं सुनने को मिल रही हैं और उनके प्रति उपेक्षा भाव इस सीमा तक बरता जा रहा है कि उनका सूचना मूल्य तक नहीं रह गया है। जब उनके पीछे कोई राजनीतिक कोण तलाश लिया जाए तब तक उनका सही ढंग से उल्लेख तक नहीं होता।

यह बावला समाज 1 दिन में नहीं बना है। इसको बनाने बालों में कुछ दूर तक हम भी हैं । सबसे अधिक वे जिन्होंने शक्ति और धन को सर्वोपरि मानकर निर्लज्जता पूर्ण ढंग से इनका संग्रह करने का प्रयत्न किया और सर्वोच्च पदों पर रहते हुए प्रयत्न किया कि निर्लज्जता हमारे समाज का चारित्रिक गुण बन गया। अनवरत गिरावट से घबराए हुए समाज को और भी नारकीय स्थिति में डालने का काम उन्होंने किया जिन्होंने नैतिकता को अपनी एकमात्र पूंजी बताते हुए सत्ता में आने का रास्ता बनाया और उन कुकृत्यों में शामिल हो गए।

यह दारुण स्थिति बुद्धिजीवियों से इस बात की अपेक्षा करती है कि वह होश में रहकर संतुलित ढंग से विचार करते हुए, सूचना संग्रह के लिए पर्याप्त समय देने के बाद, इसकी सही जानकारी लेने के बाद, ऐसी भाषा और शैली में, अपनी व्याख्या प्रस्तुत करें जिससे लोग उत्तेजना के बीच सही रास्ते की पहचान कर सके। अगले चुनाव वर्ष के हंगामे के बीच किन-किन जघन्य तरीकों का इस्तेमाल किया जाएगा इसका अनुमान तक नहीं कर सकते, परंतु किया जाएगा इसका पक्का विश्वास है। यदि बुद्धिजीवी विवेक से काम न ले सके, वह चुप भी रहे तो उनका बड़ा उपकार होगा, क्योंकि हंगामे के बीच उनका विचार ही लोगों को सही दिशा दिखा सकता है , परंतु यदि ऐसा ना हो सके तो कम से कम राजनीतिक पक्षधरता छोड़कर वस्तु स्थिति का विश्लेषण करें और स्वयं अपनी साख और समाज के भविष्य की रक्षा करें।

Post – 2018-04-14

चेत अब भी चेत

हम इतिहास के एक बहुत खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। शायद ऐसी स्थिति दोनों महायुद्धों के दौर में भी एशिया के लिए नहीं आई थी जितनी आज दिखाई दे रही है। दूसरे महयुद्ध के बाद सारे युद्ध एशिया और अफ्रीका में लड़े गए हैं। इनमें भी जहां भी गोरी कौमें आबाद हैं उन पर आँच नहीं आने पाई है। गोरी जातियों में हई मामूली से मामूली हिंसा की घटना को इतना भयानक बना कर दिखाया जाता रहा है जैसे उनके द्वारा किए गए जघन्य अपराधों की तुलना में यही सबसे बड़ा अपराध हो । जिन क्षेत्रों में गोरी जातियां हैं उन्हें सुरक्षित रखना चाहिए। रंगीन जातियां धरती के इतने बड़े भाग को घेरे पड़ी हुई हैं जिनको गोरी जातियों के हाथ में आना चाहिए ।

यह कोई सचेत योजना नहीं है। सचेत योजनाएं उतनी ख़तरनाक नहीं होती। उनकी योजना सर्वविदित होती है इसलिए उनको विफल बनाना या सामना करना कठिन नहीं होता। यह अंतश्चेतना में बना हुआ विश्वास है जो सभी निर्णयों को प्रभावित कर रहा है और आज हम परमाणु युद्ध के लिए दोबारा केवल एशिया के कोने को प्रयोग में लाए जाने की दुर्भावना अमल में आने के कगार पर देख रहे हैं।

यह संकट का एक पहलू है जिसकी ओर मैंने कभी भी संचार माध्यमों को रुख करते नहीं देखा क्योंकि पश्चिमी प्रचारतंत्र की अपराजेयता के आगे बिछे होने के कारण वे सबसे अधिक पश्चिमी दबाव में हैं। पश्चिम के लिए हम हिंदू या मुसलमान नहीं है, एशियाटिक हैं। उनके साझे शत्रु। एशिया को पश्चिम के अधिकार में लाने के लिए उसे एशियाटिकों से मुक्त होना चाहिए। भले यह काम धीरे-धीरे ही हो, परंतु एक-एक करके पूरे एशिया को इस तरह तबाह कर दिया जाए, कि नमूने के तौर पर जितना एशिया बचा रह जाये वह पश्चिम कोई नाता रखे तो शरणागत भाव से ही।

हमारे संचार माध्यम भी सांप्रदायिकता को उभारने, जातिवाद और क्षेत्रवाद को उभारने के काम में जुट कर उनकी योजनाओं के अनुसार ही काम कर रहे हैं जिनको अपना हमदर्द समझ कर कुझ दलों द्वारा अपना सलाहकार बनाया गया है।

बिके हुए प्रचार तंत्र में यह करना कठिन है कब पैसा बोल रहा है और कब आदमी और कब अपने समय का यथार्थ। यह तय करना कठिन है कि सच क्या है और प्रचारित क्या किया जा रहा है। प्रचार की हवा ऐसी प्रखर है कि हर एक दूसरे से आगे बढ़ने के लिए उन्हीं प्रायोजित इबारतों को अधिक जोर से, अधिक आवेशपूर्ण ढंग से, अधिक से अधिक बार और अधिक खतरनाक बनाते हुए प्रचारित करने की होड़ में लगा हुआ है। यह प्रतिस्पर्धा उसी सचाई के दूसरे पहलू को सामने नहीं लाती बल्कि जो बाजार में बिक रहा है उसको अधिक से अधिक उत्तेजक बनाकर अधिक से अधिक खतरनाक बनाने का खेल खेलती है।

सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है बुद्धिजीवियों का प्रचार तंत्र से उठाई गई सामग्री को अपनी ओर से अधिक उत्साह से प्रस्तुत करना और यह मान लेना जो इसमें भाग नहीं ले रहा है वह सचमुच का आपराधिक कुकृतियों का समर्थक है।

यह किसी से छिपा नहीं है अगला वर्ष अगले चुनाव के लिए प्रचार का वर्ष है और इसमें प्रचार तंत्र का जितना जघन्यतम उपयोग किया जाएगा ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मैं पहले भी यह कहता आया हूं की सत्ता की राजनीति करने वालों के लिए देश और समाज नहीं, हर कीमत पर सत्ता ही चाहिए ,उनका दल कोई भी क्यों ना हो । इसलिए सक्रिय राजनीति से जुड़ाव बुद्धिजीवी को उतना ही संदिग्ध उतना ही, खतरनाक और सच कहें तो उतना ही कमीना बना देता है, जितना सत्ता की राजनीति में अपना हिस्सा बटाने के लिए मैदान में उतरने वाले लोग

मैं इस बात पर बार-बार जोर देता रहा हूं अपने क्षेत्र का काम छोड़ कर दूसरे किसी क्षेत्र में हस्तक्षेप स्वयं उस क्षेत्र की गतिविधियों के सही संचालन के लिए भी बाधक है और अपने समय का अपव्यय । बुद्धिजीवियों का हस्तक्षेप तभी आवश्यक हो सकता है जब कानून और व्यवस्था की संस्थाएं राजनीति को द्वारा दुरुपयोग में लाने जाए जाने के कारण अपना काम सही ढंग से न कर रही हूं । भ्रष्ठ अधिकारी भी रकजनीतिक समर्थन के अभाव में लंबे समय तक जन प्रतिरोध का सामना नहीं कर सकता। इसलिए संस्थाओं की विफलता के बाद अपने हस्तक्षेप का अवसर आता है और उस समय उसकी शिथिलता दुखद भी मानी जा सकती है। मैं आज की घटनाओं केंद्र में रखकर बात नहीं करना चाहता। हर रोज दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं सुनने को मिल रही हैं और उनके प्रति उपेक्षा भाव इस सीमा तक बरता जा रहा है कि उनका सूचना मूल्य तक नहीं रह गया है। जब उनके पीछे कोई राजनीतिक कोण तलाश लिया जाए तब तक उनका सही ढंग से उल्लेख तक नहीं होता।

यह बावला समाज 1 दिन में नहीं बना है। इसको बनाने बालों में कुछ दूर तक हम भी हैं । सबसे अधिक वे जिन्होंने शक्ति और धन को सर्वोपरि मानकर निर्लज्जता पूर्ण ढंग से इनका संग्रह करने का प्रयत्न किया और सर्वोच्च पदों पर रहते हुए प्रयत्न किया कि निर्लज्जता हमारे समाज का चारित्रिक गुण बन गया। अनवरत गिरावट से घबराए हुए समाज को और भी नारकीय स्थिति में डालने का काम उन्होंने किया जिन्होंने नैतिकता को अपनी एकमात्र पूंजी बताते हुए सत्ता में आने का रास्ता बनाया और उन कुकृत्यों में शामिल हो गए।

यह दारुण स्थिति बुद्धिजीवियों से इस बात की अपेक्षा करती है कि वह होश में रहकर संतुलित ढंग से विचार करते हुए, सूचना संग्रह के लिए पर्याप्त समय देने के बाद, इसकी सही जानकारी लेने के बाद, ऐसी भाषा और शैली में, अपनी व्याख्या प्रस्तुत करें जिससे लोग उत्तेजना के बीच सही रास्ते की पहचान कर सके। अगले चुनाव वर्ष के हंगामे के बीच किन-किन जघन्य तरीकों का इस्तेमाल किया जाएगा इसका अनुमान तक नहीं कर सकते, परंतु किया जाएगा इसका पक्का विश्वास है। यदि बुद्धिजीवी विवेक से काम न ले सके, वह चुप भी रहे तो उनका बड़ा उपकार होगा, क्योंकि हंगामे के बीच उनका विचार ही लोगों को सही दिशा दिखा सकता है , परंतु यदि ऐसा ना हो सके तो कम से कम राजनीतिक पक्षधरता छोड़कर वस्तु स्थिति का विश्लेषण करें और स्वयं अपनी साख और समाज के भविष्य की रक्षा करें।

Post – 2018-04-14

चेत अब भी चेत

हम इतिहास के एक बहुत खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। शायद ऐसी स्थिति दोनों महायुद्धों के दौर में भी एशिया के लिए नहीं आई थी जितनी आज दिखाई दे रही है। दूसरे महयुद्ध के बाद सारे युद्ध एशिया और अफ्रीका में लड़े गए हैं। इनमें भी जहां भी गोरी कौमें आबाद हैं उन पर आँच नहीं आने पाई है। गोरी जातियों में हई मामूली से मामूली हिंसा की घटना को इतना भयानक बना कर दिखाया जाता रहा है जैसे उनके द्वारा किए गए जघन्य अपराधों की तुलना में यही सबसे बड़ा अपराध हो । जिन क्षेत्रों में गोरी जातियां हैं उन्हें सुरक्षित रखना चाहिए। रंगीन जातियां धरती के इतने बड़े भाग को घेरे पड़ी हुई हैं जिनको गोरी जातियों के हाथ में आना चाहिए ।

यह कोई सचेत योजना नहीं है। सचेत योजनाएं उतनी ख़तरनाक नहीं होती। उनकी योजना सर्वविदित होती है इसलिए उनको विफल बनाना या सामना करना कठिन नहीं होता। यह अंतश्चेतना में बना हुआ विश्वास है जो सभी निर्णयों को प्रभावित कर रहा है और आज हम परमाणु युद्ध के लिए दोबारा केवल एशिया के कोने को प्रयोग में लाए जाने की दुर्भावना अमल में आने के कगार पर देख रहे हैं।

यह संकट का एक पहलू है जिसकी ओर मैंने कभी भी संचार माध्यमों को रुख करते नहीं देखा क्योंकि पश्चिमी प्रचारतंत्र की अपराजेयता के आगे बिछे होने के कारण वे सबसे अधिक पश्चिमी दबाव में हैं। पश्चिम के लिए हम हिंदू या मुसलमान नहीं है, एशियाटिक हैं। उनके साझे शत्रु। एशिया को पश्चिम के अधिकार में लाने के लिए उसे एशियाटिकों से मुक्त होना चाहिए। भले यह काम धीरे-धीरे ही हो, परंतु एक-एक करके पूरे एशिया को इस तरह तबाह कर दिया जाए, कि नमूने के तौर पर जितना एशिया बचा रह जाये वह पश्चिम कोई नाता रखे तो शरणागत भाव से ही।

हमारे संचार माध्यम भी सांप्रदायिकता को उभारने, जातिवाद और क्षेत्रवाद को उभारने के काम में जुट कर उनकी योजनाओं के अनुसार ही काम कर रहे हैं जिनको अपना हमदर्द समझ कर कुझ दलों द्वारा अपना सलाहकार बनाया गया है।

बिके हुए प्रचार तंत्र में यह करना कठिन है कब पैसा बोल रहा है और कब आदमी और कब अपने समय का यथार्थ। यह तय करना कठिन है कि सच क्या है और प्रचारित क्या किया जा रहा है। प्रचार की हवा ऐसी प्रखर है कि हर एक दूसरे से आगे बढ़ने के लिए उन्हीं प्रायोजित इबारतों को अधिक जोर से, अधिक आवेशपूर्ण ढंग से, अधिक से अधिक बार और अधिक खतरनाक बनाते हुए प्रचारित करने की होड़ में लगा हुआ है। यह प्रतिस्पर्धा उसी सचाई के दूसरे पहलू को सामने नहीं लाती बल्कि जो बाजार में बिक रहा है उसको अधिक से अधिक उत्तेजक बनाकर अधिक से अधिक खतरनाक बनाने का खेल खेलती है।

सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है बुद्धिजीवियों का प्रचार तंत्र से उठाई गई सामग्री को अपनी ओर से अधिक उत्साह से प्रस्तुत करना और यह मान लेना जो इसमें भाग नहीं ले रहा है वह सचमुच का आपराधिक कुकृतियों का समर्थक है।

यह किसी से छिपा नहीं है अगला वर्ष अगले चुनाव के लिए प्रचार का वर्ष है और इसमें प्रचार तंत्र का जितना जघन्यतम उपयोग किया जाएगा ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मैं पहले भी यह कहता आया हूं की सत्ता की राजनीति करने वालों के लिए देश और समाज नहीं, हर कीमत पर सत्ता ही चाहिए ,उनका दल कोई भी क्यों ना हो । इसलिए सक्रिय राजनीति से जुड़ाव बुद्धिजीवी को उतना ही संदिग्ध उतना ही, खतरनाक और सच कहें तो उतना ही कमीना बना देता है, जितना सत्ता की राजनीति में अपना हिस्सा बटाने के लिए मैदान में उतरने वाले लोग

मैं इस बात पर बार-बार जोर देता रहा हूं अपने क्षेत्र का काम छोड़ कर दूसरे किसी क्षेत्र में हस्तक्षेप स्वयं उस क्षेत्र की गतिविधियों के सही संचालन के लिए भी बाधक है और अपने समय का अपव्यय । बुद्धिजीवियों का हस्तक्षेप तभी आवश्यक हो सकता है जब कानून और व्यवस्था की संस्थाएं राजनीति को द्वारा दुरुपयोग में लाने जाए जाने के कारण अपना काम सही ढंग से न कर रही हूं । भ्रष्ठ अधिकारी भी रकजनीतिक समर्थन के अभाव में लंबे समय तक जन प्रतिरोध का सामना नहीं कर सकता। इसलिए संस्थाओं की विफलता के बाद अपने हस्तक्षेप का अवसर आता है और उस समय उसकी शिथिलता दुखद भी मानी जा सकती है। मैं आज की घटनाओं केंद्र में रखकर बात नहीं करना चाहता। हर रोज दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं सुनने को मिल रही हैं और उनके प्रति उपेक्षा भाव इस सीमा तक बरता जा रहा है कि उनका सूचना मूल्य तक नहीं रह गया है। जब उनके पीछे कोई राजनीतिक कोण तलाश लिया जाए तब तक उनका सही ढंग से उल्लेख तक नहीं होता।

यह बावला समाज 1 दिन में नहीं बना है। इसको बनाने बालों में कुछ दूर तक हम भी हैं । सबसे अधिक वे जिन्होंने शक्ति और धन को सर्वोपरि मानकर निर्लज्जता पूर्ण ढंग से इनका संग्रह करने का प्रयत्न किया और सर्वोच्च पदों पर रहते हुए प्रयत्न किया कि निर्लज्जता हमारे समाज का चारित्रिक गुण बन गया। अनवरत गिरावट से घबराए हुए समाज को और भी नारकीय स्थिति में डालने का काम उन्होंने किया जिन्होंने नैतिकता को अपनी एकमात्र पूंजी बताते हुए सत्ता में आने का रास्ता बनाया और उन कुकृत्यों में शामिल हो गए।

यह दारुण स्थिति बुद्धिजीवियों से इस बात की अपेक्षा करती है कि वह होश में रहकर संतुलित ढंग से विचार करते हुए, सूचना संग्रह के लिए पर्याप्त समय देने के बाद, इसकी सही जानकारी लेने के बाद, ऐसी भाषा और शैली में, अपनी व्याख्या प्रस्तुत करें जिससे लोग उत्तेजना के बीच सही रास्ते की पहचान कर सके। अगले चुनाव वर्ष के हंगामे के बीच किन-किन जघन्य तरीकों का इस्तेमाल किया जाएगा इसका अनुमान तक नहीं कर सकते, परंतु किया जाएगा इसका पक्का विश्वास है। यदि बुद्धिजीवी विवेक से काम न ले सके, वह चुप भी रहे तो उनका बड़ा उपकार होगा, क्योंकि हंगामे के बीच उनका विचार ही लोगों को सही दिशा दिखा सकता है , परंतु यदि ऐसा ना हो सके तो कम से कम राजनीतिक पक्षधरता छोड़कर वस्तु स्थिति का विश्लेषण करें और स्वयं अपनी साख और समाज के भविष्य की रक्षा करें।

Post – 2018-04-14

भावजगत और जल
आज हम हर्ष, विषाद ईर्ष्या द्वेष, करुणा, तितिक्षा,अस्तेय, और अपरिग्रह पर विचार करेंगे।

हर्ष, हर> ह्री- लज्जा, ह्रास – क्षय, और हर्ष- प्रसन्नता के बीच क्या कोई संबंध हो सकता है ? यदि तर ,तरु,तृ.

मा नः वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः ।
मा हृणानस्य मन्यवे ।। 1.25.2 क्रुद्धस्य
यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना, प्रवृद्धेन, प्रचंड
अनु त्वा पत्नीः हृषितं वयश्च, हर्षित
अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो, हर्षित आनन्दमग्न
सुन्वद्भ्यो रन्धया कं चिदव्रतं हृणायन्तं चिदव्रतम् । 1.132.4
कंचिद् – सर्वं अपि, क्रोषन्तं
श्रवस्यवो हृषीवन्तो, हर्ष से भरे हुए
यथा देव न हृणीषे न हंसि, न अप्रसन्न होओ, न हमारी जान लो
हृणीयमानो अप हि मदैयेः प्र मे देवानां व्रतपा उवाच । क्रोध करते हुए
राजाना क्षत्रमहृणीयमाना सहस्रस्थूणं बिभृथः सह द्वौ ।। 5.62.6 अकुप्यन्तौ
किं मे हव्यमहृणानो जुषेत, अकुप्यन्
किमस्मभ्यं जातवेदो हृणीषे द्रोघवाचस्ते निर्ऋथं सचन्ताम्
कृधी नो अह्रयो देव सवितः. अलज्जित,
उद्गो ह्रदमपिबज्जर्हृषाणः,
अर्चन्ति तोके तनये परिष्टिषु मेधसाता वाजिनमह्रये धने ।। 10.147.3 अलज्जाकरे धने
पादनिचृत्, (5 ह्रसीयसी वा ) गायत्री
पुरू सहस्रा जनयो न पत्नीः दुवस्यन्ति स्वसारो अह्रयाणम् । 1.62.10
पुरू सहस्रा जनयो न पत्नीः दुवस्यन्ति स्वसारो अह्रयाणम् । 1.62.10
त्वोतो वाज्यह्रयोऽभि पूर्वस्मादपरः । प्र दाश्वाँ अग्ने अस्थात् ।। 1.74.8
वरेण्यं वृणीमहे अह्रयं वाजमृग्मियम् ।3.2.4
उभा शंसा सूदय सत्यतातेऽनुष्ठुया कृणुह्यह्रयाण ।। 4.4.14
परिं चिद् वष्टयो दधुर्ददतो राधोऽह्रयं सुजाते अश्वसूनृते ।। 5.79.5 {21} ()

ये नः राधांस्यह्रया मघवानो अरासत सुजाते अश्वसूनृते ।। 5.79.6
अग्र एति युवतिरह्रयाणा प्राचिकितत्सूर्यं यज्ञं अग्निम् ।। 7.80.2
आ नो विश्वान्यश्विना धत्तं राधांस्यह्रया ।
उपस्तुतिं भोजः सूरिर्यो अह्रयः ।। 8.70.13
कृधी नो अह्रयो देव सवितः

तव राधः सोमपीथाय हर्षते ।

Post – 2018-04-14

भावजगत और जल
आज हम हर्ष, विषाद ईर्ष्या द्वेष, करुणा, तितिक्षा,अस्तेय, और अपरिग्रह पर विचार करेंगे।

हर्ष, हर> ह्री- लज्जा, ह्रास – क्षय, और हर्ष- प्रसन्नता के बीच क्या कोई संबंध हो सकता है ? यदि तर ,तरु,तृ.

मा नः वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः ।
मा हृणानस्य मन्यवे ।। 1.25.2 क्रुद्धस्य
यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना, प्रवृद्धेन, प्रचंड
अनु त्वा पत्नीः हृषितं वयश्च, हर्षित
अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो, हर्षित आनन्दमग्न
सुन्वद्भ्यो रन्धया कं चिदव्रतं हृणायन्तं चिदव्रतम् । 1.132.4
कंचिद् – सर्वं अपि, क्रोषन्तं
श्रवस्यवो हृषीवन्तो, हर्ष से भरे हुए
यथा देव न हृणीषे न हंसि, न अप्रसन्न होओ, न हमारी जान लो
हृणीयमानो अप हि मदैयेः प्र मे देवानां व्रतपा उवाच । क्रोध करते हुए
राजाना क्षत्रमहृणीयमाना सहस्रस्थूणं बिभृथः सह द्वौ ।। 5.62.6 अकुप्यन्तौ
किं मे हव्यमहृणानो जुषेत, अकुप्यन्
किमस्मभ्यं जातवेदो हृणीषे द्रोघवाचस्ते निर्ऋथं सचन्ताम्
कृधी नो अह्रयो देव सवितः. अलज्जित,
उद्गो ह्रदमपिबज्जर्हृषाणः,
अर्चन्ति तोके तनये परिष्टिषु मेधसाता वाजिनमह्रये धने ।। 10.147.3 अलज्जाकरे धने
पादनिचृत्, (5 ह्रसीयसी वा ) गायत्री
पुरू सहस्रा जनयो न पत्नीः दुवस्यन्ति स्वसारो अह्रयाणम् । 1.62.10
पुरू सहस्रा जनयो न पत्नीः दुवस्यन्ति स्वसारो अह्रयाणम् । 1.62.10
त्वोतो वाज्यह्रयोऽभि पूर्वस्मादपरः । प्र दाश्वाँ अग्ने अस्थात् ।। 1.74.8
वरेण्यं वृणीमहे अह्रयं वाजमृग्मियम् ।3.2.4
उभा शंसा सूदय सत्यतातेऽनुष्ठुया कृणुह्यह्रयाण ।। 4.4.14
परिं चिद् वष्टयो दधुर्ददतो राधोऽह्रयं सुजाते अश्वसूनृते ।। 5.79.5 {21} ()

ये नः राधांस्यह्रया मघवानो अरासत सुजाते अश्वसूनृते ।। 5.79.6
अग्र एति युवतिरह्रयाणा प्राचिकितत्सूर्यं यज्ञं अग्निम् ।। 7.80.2
आ नो विश्वान्यश्विना धत्तं राधांस्यह्रया ।
उपस्तुतिं भोजः सूरिर्यो अह्रयः ।। 8.70.13
कृधी नो अह्रयो देव सवितः

तव राधः सोमपीथाय हर्षते ।

Post – 2018-04-14

भावजगत और जल
आज हम हर्ष, विषाद ईर्ष्या द्वेष, करुणा, तितिक्षा,अस्तेय, और अपरिग्रह पर विचार करेंगे।

हर्ष, हर> ह्री- लज्जा, ह्रास – क्षय, और हर्ष- प्रसन्नता के बीच क्या कोई संबंध हो सकता है ? यदि तर ,तरु,तृ.

मा नः वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः ।
मा हृणानस्य मन्यवे ।। 1.25.2 क्रुद्धस्य
यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना, प्रवृद्धेन, प्रचंड
अनु त्वा पत्नीः हृषितं वयश्च, हर्षित
अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो, हर्षित आनन्दमग्न
सुन्वद्भ्यो रन्धया कं चिदव्रतं हृणायन्तं चिदव्रतम् । 1.132.4
कंचिद् – सर्वं अपि, क्रोषन्तं
श्रवस्यवो हृषीवन्तो, हर्ष से भरे हुए
यथा देव न हृणीषे न हंसि, न अप्रसन्न होओ, न हमारी जान लो
हृणीयमानो अप हि मदैयेः प्र मे देवानां व्रतपा उवाच । क्रोध करते हुए
राजाना क्षत्रमहृणीयमाना सहस्रस्थूणं बिभृथः सह द्वौ ।। 5.62.6 अकुप्यन्तौ
किं मे हव्यमहृणानो जुषेत, अकुप्यन्
किमस्मभ्यं जातवेदो हृणीषे द्रोघवाचस्ते निर्ऋथं सचन्ताम्
कृधी नो अह्रयो देव सवितः. अलज्जित,
उद्गो ह्रदमपिबज्जर्हृषाणः,
अर्चन्ति तोके तनये परिष्टिषु मेधसाता वाजिनमह्रये धने ।। 10.147.3 अलज्जाकरे धने
पादनिचृत्, (5 ह्रसीयसी वा ) गायत्री
पुरू सहस्रा जनयो न पत्नीः दुवस्यन्ति स्वसारो अह्रयाणम् । 1.62.10
पुरू सहस्रा जनयो न पत्नीः दुवस्यन्ति स्वसारो अह्रयाणम् । 1.62.10
त्वोतो वाज्यह्रयोऽभि पूर्वस्मादपरः । प्र दाश्वाँ अग्ने अस्थात् ।। 1.74.8
वरेण्यं वृणीमहे अह्रयं वाजमृग्मियम् ।3.2.4
उभा शंसा सूदय सत्यतातेऽनुष्ठुया कृणुह्यह्रयाण ।। 4.4.14
परिं चिद् वष्टयो दधुर्ददतो राधोऽह्रयं सुजाते अश्वसूनृते ।। 5.79.5 {21} ()

ये नः राधांस्यह्रया मघवानो अरासत सुजाते अश्वसूनृते ।। 5.79.6
अग्र एति युवतिरह्रयाणा प्राचिकितत्सूर्यं यज्ञं अग्निम् ।। 7.80.2
आ नो विश्वान्यश्विना धत्तं राधांस्यह्रया ।
उपस्तुतिं भोजः सूरिर्यो अह्रयः ।। 8.70.13
कृधी नो अह्रयो देव सवितः

तव राधः सोमपीथाय हर्षते ।

Post – 2018-04-13

भावजगत और जल- 2

(हम विवेचन को इसलिए संक्षिप्त रखना चाहते हैं कि अधिक सामग्री होने पर उसे आत्मसात करने में पाठकों कठिनाई हो सकती है। चर्चा लंबी चलेगी और जिनकी इसमें गहरी रुचि है वे ही अपने धैर्य को बनाए रख पाएंगे।)

कामना
कम्- जल,
> कमल- जल का फूल,
> कंपन- कंपकपी- ठंढे पानी में भींगने का परिणाम,
>कंबु- शंख,
>कमंडल, जलपात्र,
>कंबोज- जल से घिरा प्रदेश, ठंडा प्रदेश,
> कामना- 1. *जल की चाह, > २. आकांक्षा,
>काम्य – वांछित,
>कमनीय – सुंदर, जिस की कामना की जाए,
काम – आकांक्षा (कामः तदग्रे समवर्तत …), २. आसक्ति,
>कामदेव – आसक्ति का मानाविकरण ।
> कामिनी / कामुक
कम – अल्प, हीन, >कमी (हम पहले देख आए हैं कि लघुता और विराटता सूचक सभी शब्द
जल के पर्यायों से व्युत्पन्न हैं ।
फारसी – कम – अल्प/ निम्न (कम-अज-कम ) > कमजोर/ कमबख्त/ २. कमीना- नीच

इच्छा
इष् -. सोमलता को कुचलने पर फूटने वाले रस की ध्वनि (हिन्वानो वाचं इष्यसि पवमानविधर्मणि); पतली धार से पानी के निकलने की आवाज,
इष – १. जल, २. सोमरस,
> इच्छा – जल की कामना, आकांक्षा,
> इष्ट- इच्छित, उद्दिष्ट – अभिप्रेत,
> अनिष्ट – हानि,
> इष्टि- वृष्टि की कामना, इस कामना से किया जाने वाला रीतिविधान, यज्ञ, पुत्रेष्टि- पुत्र की कामना, पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाने वाला यज्ञ,
Eng. ease, wish, wishtful,
(अस+इष) अक्षि > ईक्षण – देखना,
Eng. eye, wise, vision
> ईश (नमो देवेभ्यो नम ईश एषां)- स्वामी, ईश्वर,
> ईषत् – तनिक, जरा सा, थोड़ा सा
इश् -ऊपर होना, अधिकार करना, अधीन बनाना (मा नो दुःशंस ईशता विवक्षसे)।
ईशे, (मा व स्तेन ईशत माघशंसः)
ईशते (महः राजान ईशते),
ईशिषे (त्वं ईशिषे वसूनाम् ),
इष्यति (व्रतेष्वपि सोम इष्यते।
ईशते – स्वामी बनता है अपने अधिकार में लेता है
तेजी से बाहर निकलना ( इष्यन् वाचमुपवक्तेव होतुः), तेजी से दौड़ना,
इषु – बाण,
इषुधि- तरकश,
Eng. issue ,निर्गम, वाद विषय,
इष्य – होने वाला, आगे आने वाला, भविष्य सूचक विभक्ति।

क्षमा / क्षान्ति – सहनशीलता, अपकार बदला न लेना,

धातुपाठ में चमु-, छमु-, जमु-, झमु अदने, और क्षमूष् सहने दिया गया है। ऐसी स्थिति में जाहिर है क्षमा और क्षान्ति के व्युत्पादन के लिए एक अलग धातु की कल्पना की गई।
चमु-, छमु-, जमु-, झमु- को खाने तक सीमित रखा गया, हम जानते हैं खाने और पीने में पहले अंतर नहीं किया जाता था और उस सीमा तक मुख विवर से ग्रहण किए जाने वाले सभी पदार्थों के लिए पीने या खाने का प्रयोग होता है । आदमी सिगरेट पीता है । गुस्सा पी जाने की सलाह दी जाती है। इसलिए हम चमु-, छमु-, जमु-, झमु जल के अर्थ में भी ग्रहण कर सकते थे। हम इनके साथ शमु को भी जोड़ सकते थे।
पदान्ते इत् स्यात के तर्क से अन्त्य उकार का लोप होने पर ये सभी एक ही नाद श्रंखला – चं / (चम् / चन्), छं / (छम् / छन्). जं /( जम् / जन्), झं /( झम्, झन्), सं /( सम् / सन्), शं /(शम् / शन्), क्षं/(क्षम्, क्षन्) में आ जाते हैं। अदन से इनका संबंध सीधा हो या न हो, परंतु पानी पीने से इनका संबंध बहुत स्पष्ट है।
पानी का दूसरा गुण शांत करना शमन करना होता है आग को बुझाने या क्रोध को शमित करने का होता ह, वह भी इन से जुड़ा हुआ है। चं, सं, शं परस्पर परिवर्तनीय हैं और शेष ध्वनियां घोषीकरण और महाप्राणीकरण मात्र है, और इन ध्वनियों के प्रति अनुराग रखने वाली बोलियों के कारण है इसलिए अनुनादी आधार पर हमारे लिए कोई समस्या नहीं पैदा करतीं।

चम् का प्रयोग ऋग्वेद में द्रव को उठाने के लिए प्रयुक्त चमू, चम्वी और चमस् और
क्रिया रूप चनस्यति (पुरुभुजा चनस्यतम्),
चन- भी के आशय में अव्ययों के निर्माण में(शूने भूम कदा चन, भवति किं चन प्रियम्, नहि अस्या अपरं चन जरसा मरते पतिः) आदि मैं पाते हैं। हम पहले कह आए हैं कि सर्वनामों, उपसर्गों, अव्ययों और विभक्तियों के निर्माण में जलपरक शब्दों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
सामान्य व्यवहार में
> चंबल,
> चमक,
> चमत्कार,
> चंदन,
> चंद्र,
> चंचल आदि में जल और जल के गुणों से संबंधित प्रयोग देखे जा सकते हैं।
जोरदार बारिश की ध्वनि का अनुकरण छमाछम के रूप में किया जाता है।
> शं का प्रयोग शांति, कल्याणकारी (शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे )
> शमन,
> शंभू,
> शांति आदि में देखा जा सकता है।
इस चर्चा को अधिक विस्तार देकर बोझिल बनाने की अपेक्षा हम इतना ही संकेत करना जरूरी समझते हैं कि अनुनादी ध्वनियों में संस्कृत की तुलना में बोलचाल की भाषाएं अधिक भरोसे की है और इसलिए उनमें पाए जाने वाले उच्चारण को अधिक प्राचीन या मूलभूत मानना होगा। हमारा विचार है कि क्षमा के लिए अलग से एक धातु की कल्पना संस्कृत भाषाविदों को इसलिए करनी पड़ी कि वे अनुमान के आधार पर शब्दों के मूल घटकों की तलाश कर रहे थे, न कि उस नैसर्गिक स्रोत की ओर ध्यान दे रहे थे जिसकी स्पष्ट समझ वैदिक भाषाविदों को थी।

Post – 2018-04-13

भावजगत और जल- 2

(हम विवेचन को इसलिए संक्षिप्त रखना चाहते हैं कि अधिक सामग्री होने पर उसे आत्मसात करने में पाठकों कठिनाई हो सकती है। चर्चा लंबी चलेगी और जिनकी इसमें गहरी रुचि है वे ही अपने धैर्य को बनाए रख पाएंगे।)

कामना
कम्- जल,
> कमल- जल का फूल,
> कंपन- कंपकपी- ठंढे पानी में भींगने का परिणाम,
>कंबु- शंख,
>कमंडल, जलपात्र,
>कंबोज- जल से घिरा प्रदेश, ठंडा प्रदेश,
> कामना- 1. *जल की चाह, > २. आकांक्षा,
>काम्य – वांछित,
>कमनीय – सुंदर, जिस की कामना की जाए,
काम – आकांक्षा (कामः तदग्रे समवर्तत …), २. आसक्ति,
>कामदेव – आसक्ति का मानाविकरण ।
> कामिनी / कामुक
कम – अल्प, हीन, >कमी (हम पहले देख आए हैं कि लघुता और विराटता सूचक सभी शब्द
जल के पर्यायों से व्युत्पन्न हैं ।
फारसी – कम – अल्प/ निम्न (कम-अज-कम ) > कमजोर/ कमबख्त/ २. कमीना- नीच

इच्छा
इष् -. सोमलता को कुचलने पर फूटने वाले रस की ध्वनि (हिन्वानो वाचं इष्यसि पवमानविधर्मणि); पतली धार से पानी के निकलने की आवाज,
इष – १. जल, २. सोमरस,
> इच्छा – जल की कामना, आकांक्षा,
> इष्ट- इच्छित, उद्दिष्ट – अभिप्रेत,
> अनिष्ट – हानि,
> इष्टि- वृष्टि की कामना, इस कामना से किया जाने वाला रीतिविधान, यज्ञ, पुत्रेष्टि- पुत्र की कामना, पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाने वाला यज्ञ,
Eng. ease, wish, wishtful,
(अस+इष) अक्षि > ईक्षण – देखना,
Eng. eye, wise, vision
> ईश (नमो देवेभ्यो नम ईश एषां)- स्वामी, ईश्वर,
> ईषत् – तनिक, जरा सा, थोड़ा सा
इश् -ऊपर होना, अधिकार करना, अधीन बनाना (मा नो दुःशंस ईशता विवक्षसे)।
ईशे, (मा व स्तेन ईशत माघशंसः)
ईशते (महः राजान ईशते),
ईशिषे (त्वं ईशिषे वसूनाम् ),
इष्यति (व्रतेष्वपि सोम इष्यते।
ईशते – स्वामी बनता है अपने अधिकार में लेता है
तेजी से बाहर निकलना ( इष्यन् वाचमुपवक्तेव होतुः), तेजी से दौड़ना,
इषु – बाण,
इषुधि- तरकश,
Eng. issue ,निर्गम, वाद विषय,
इष्य – होने वाला, आगे आने वाला, भविष्य सूचक विभक्ति।

क्षमा / क्षान्ति – सहनशीलता, अपकार बदला न लेना,

धातुपाठ में चमु-, छमु-, जमु-, झमु अदने, और क्षमूष् सहने दिया गया है। ऐसी स्थिति में जाहिर है क्षमा और क्षान्ति के व्युत्पादन के लिए एक अलग धातु की कल्पना की गई।
चमु-, छमु-, जमु-, झमु- को खाने तक सीमित रखा गया, हम जानते हैं खाने और पीने में पहले अंतर नहीं किया जाता था और उस सीमा तक मुख विवर से ग्रहण किए जाने वाले सभी पदार्थों के लिए पीने या खाने का प्रयोग होता है । आदमी सिगरेट पीता है । गुस्सा पी जाने की सलाह दी जाती है। इसलिए हम चमु-, छमु-, जमु-, झमु जल के अर्थ में भी ग्रहण कर सकते थे। हम इनके साथ शमु को भी जोड़ सकते थे।
पदान्ते इत् स्यात के तर्क से अन्त्य उकार का लोप होने पर ये सभी एक ही नाद श्रंखला – चं / (चम् / चन्), छं / (छम् / छन्). जं /( जम् / जन्), झं /( झम्, झन्), सं /( सम् / सन्), शं /(शम् / शन्), क्षं/(क्षम्, क्षन्) में आ जाते हैं। अदन से इनका संबंध सीधा हो या न हो, परंतु पानी पीने से इनका संबंध बहुत स्पष्ट है।
पानी का दूसरा गुण शांत करना शमन करना होता है आग को बुझाने या क्रोध को शमित करने का होता ह, वह भी इन से जुड़ा हुआ है। चं, सं, शं परस्पर परिवर्तनीय हैं और शेष ध्वनियां घोषीकरण और महाप्राणीकरण मात्र है, और इन ध्वनियों के प्रति अनुराग रखने वाली बोलियों के कारण है इसलिए अनुनादी आधार पर हमारे लिए कोई समस्या नहीं पैदा करतीं।

चम् का प्रयोग ऋग्वेद में द्रव को उठाने के लिए प्रयुक्त चमू, चम्वी और चमस् और
क्रिया रूप चनस्यति (पुरुभुजा चनस्यतम्),
चन- भी के आशय में अव्ययों के निर्माण में(शूने भूम कदा चन, भवति किं चन प्रियम्, नहि अस्या अपरं चन जरसा मरते पतिः) आदि मैं पाते हैं। हम पहले कह आए हैं कि सर्वनामों, उपसर्गों, अव्ययों और विभक्तियों के निर्माण में जलपरक शब्दों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
सामान्य व्यवहार में
> चंबल,
> चमक,
> चमत्कार,
> चंदन,
> चंद्र,
> चंचल आदि में जल और जल के गुणों से संबंधित प्रयोग देखे जा सकते हैं।
जोरदार बारिश की ध्वनि का अनुकरण छमाछम के रूप में किया जाता है।
> शं का प्रयोग शांति, कल्याणकारी (शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे )
> शमन,
> शंभू,
> शांति आदि में देखा जा सकता है।
इस चर्चा को अधिक विस्तार देकर बोझिल बनाने की अपेक्षा हम इतना ही संकेत करना जरूरी समझते हैं कि अनुनादी ध्वनियों में संस्कृत की तुलना में बोलचाल की भाषाएं अधिक भरोसे की है और इसलिए उनमें पाए जाने वाले उच्चारण को अधिक प्राचीन या मूलभूत मानना होगा। हमारा विचार है कि क्षमा के लिए अलग से एक धातु की कल्पना संस्कृत भाषाविदों को इसलिए करनी पड़ी कि वे अनुमान के आधार पर शब्दों के मूल घटकों की तलाश कर रहे थे, न कि उस नैसर्गिक स्रोत की ओर ध्यान दे रहे थे जिसकी स्पष्ट समझ वैदिक भाषाविदों को थी।

Post – 2018-04-13

भावजगत और जल- 2

(हम विवेचन को इसलिए संक्षिप्त रखना चाहते हैं कि अधिक सामग्री होने पर उसे आत्मसात करने में पाठकों कठिनाई हो सकती है। चर्चा लंबी चलेगी और जिनकी इसमें गहरी रुचि है वे ही अपने धैर्य को बनाए रख पाएंगे।)

कामना
कम्- जल,
> कमल- जल का फूल,
> कंपन- कंपकपी- ठंढे पानी में भींगने का परिणाम,
>कंबु- शंख,
>कमंडल, जलपात्र,
>कंबोज- जल से घिरा प्रदेश, ठंडा प्रदेश,
> कामना- 1. *जल की चाह, > २. आकांक्षा,
>काम्य – वांछित,
>कमनीय – सुंदर, जिस की कामना की जाए,
काम – आकांक्षा (कामः तदग्रे समवर्तत …), २. आसक्ति,
>कामदेव – आसक्ति का मानाविकरण ।
> कामिनी / कामुक
कम – अल्प, हीन, >कमी (हम पहले देख आए हैं कि लघुता और विराटता सूचक सभी शब्द
जल के पर्यायों से व्युत्पन्न हैं ।
फारसी – कम – अल्प/ निम्न (कम-अज-कम ) > कमजोर/ कमबख्त/ २. कमीना- नीच

इच्छा
इष् -. सोमलता को कुचलने पर फूटने वाले रस की ध्वनि (हिन्वानो वाचं इष्यसि पवमानविधर्मणि); पतली धार से पानी के निकलने की आवाज,
इष – १. जल, २. सोमरस,
> इच्छा – जल की कामना, आकांक्षा,
> इष्ट- इच्छित, उद्दिष्ट – अभिप्रेत,
> अनिष्ट – हानि,
> इष्टि- वृष्टि की कामना, इस कामना से किया जाने वाला रीतिविधान, यज्ञ, पुत्रेष्टि- पुत्र की कामना, पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाने वाला यज्ञ,
Eng. ease, wish, wishtful,
(अस+इष) अक्षि > ईक्षण – देखना,
Eng. eye, wise, vision
> ईश (नमो देवेभ्यो नम ईश एषां)- स्वामी, ईश्वर,
> ईषत् – तनिक, जरा सा, थोड़ा सा
इश् -ऊपर होना, अधिकार करना, अधीन बनाना (मा नो दुःशंस ईशता विवक्षसे)।
ईशे, (मा व स्तेन ईशत माघशंसः)
ईशते (महः राजान ईशते),
ईशिषे (त्वं ईशिषे वसूनाम् ),
इष्यति (व्रतेष्वपि सोम इष्यते।
ईशते – स्वामी बनता है अपने अधिकार में लेता है
तेजी से बाहर निकलना ( इष्यन् वाचमुपवक्तेव होतुः), तेजी से दौड़ना,
इषु – बाण,
इषुधि- तरकश,
Eng. issue ,निर्गम, वाद विषय,
इष्य – होने वाला, आगे आने वाला, भविष्य सूचक विभक्ति।

क्षमा / क्षान्ति – सहनशीलता, अपकार बदला न लेना,

धातुपाठ में चमु-, छमु-, जमु-, झमु अदने, और क्षमूष् सहने दिया गया है। ऐसी स्थिति में जाहिर है क्षमा और क्षान्ति के व्युत्पादन के लिए एक अलग धातु की कल्पना की गई।
चमु-, छमु-, जमु-, झमु- को खाने तक सीमित रखा गया, हम जानते हैं खाने और पीने में पहले अंतर नहीं किया जाता था और उस सीमा तक मुख विवर से ग्रहण किए जाने वाले सभी पदार्थों के लिए पीने या खाने का प्रयोग होता है । आदमी सिगरेट पीता है । गुस्सा पी जाने की सलाह दी जाती है। इसलिए हम चमु-, छमु-, जमु-, झमु जल के अर्थ में भी ग्रहण कर सकते थे। हम इनके साथ शमु को भी जोड़ सकते थे।
पदान्ते इत् स्यात के तर्क से अन्त्य उकार का लोप होने पर ये सभी एक ही नाद श्रंखला – चं / (चम् / चन्), छं / (छम् / छन्). जं /( जम् / जन्), झं /( झम्, झन्), सं /( सम् / सन्), शं /(शम् / शन्), क्षं/(क्षम्, क्षन्) में आ जाते हैं। अदन से इनका संबंध सीधा हो या न हो, परंतु पानी पीने से इनका संबंध बहुत स्पष्ट है।
पानी का दूसरा गुण शांत करना शमन करना होता है आग को बुझाने या क्रोध को शमित करने का होता ह, वह भी इन से जुड़ा हुआ है। चं, सं, शं परस्पर परिवर्तनीय हैं और शेष ध्वनियां घोषीकरण और महाप्राणीकरण मात्र है, और इन ध्वनियों के प्रति अनुराग रखने वाली बोलियों के कारण है इसलिए अनुनादी आधार पर हमारे लिए कोई समस्या नहीं पैदा करतीं।

चम् का प्रयोग ऋग्वेद में द्रव को उठाने के लिए प्रयुक्त चमू, चम्वी और चमस् और
क्रिया रूप चनस्यति (पुरुभुजा चनस्यतम्),
चन- भी के आशय में अव्ययों के निर्माण में(शूने भूम कदा चन, भवति किं चन प्रियम्, नहि अस्या अपरं चन जरसा मरते पतिः) आदि मैं पाते हैं। हम पहले कह आए हैं कि सर्वनामों, उपसर्गों, अव्ययों और विभक्तियों के निर्माण में जलपरक शब्दों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
सामान्य व्यवहार में
> चंबल,
> चमक,
> चमत्कार,
> चंदन,
> चंद्र,
> चंचल आदि में जल और जल के गुणों से संबंधित प्रयोग देखे जा सकते हैं।
जोरदार बारिश की ध्वनि का अनुकरण छमाछम के रूप में किया जाता है।
> शं का प्रयोग शांति, कल्याणकारी (शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे )
> शमन,
> शंभू,
> शांति आदि में देखा जा सकता है।
इस चर्चा को अधिक विस्तार देकर बोझिल बनाने की अपेक्षा हम इतना ही संकेत करना जरूरी समझते हैं कि अनुनादी ध्वनियों में संस्कृत की तुलना में बोलचाल की भाषाएं अधिक भरोसे की है और इसलिए उनमें पाए जाने वाले उच्चारण को अधिक प्राचीन या मूलभूत मानना होगा। हमारा विचार है कि क्षमा के लिए अलग से एक धातु की कल्पना संस्कृत भाषाविदों को इसलिए करनी पड़ी कि वे अनुमान के आधार पर शब्दों के मूल घटकों की तलाश कर रहे थे, न कि उस नैसर्गिक स्रोत की ओर ध्यान दे रहे थे जिसकी स्पष्ट समझ वैदिक भाषाविदों को थी।

Post – 2018-04-13

बदलती आ रही है, देखना आगे भी बदलेगी।
अगर खुद को नहीं बदला तो दुनिया छूट जाएगी।