#शब्दवेध(73)
दंडवत प्रमाण
दंडवत प्रणाम से आप परिचित हैं, दंडवत प्रहार का अर्थ समझने में समय लगता है, परंतु अर्थ सही निकलता है। एक में अपने स्वाभिमान का इसलिए समर्पण कि आप की गिरावट का प्रशस्तिगान किया जाता है। दूसरे में किसी ग्रंथ या विचार या मान्यता को डंडे की तरह ऐसे विचारों, स्थापनाओं और खोजों को दबाने या खतरनाक सिद्ध करने की चेष्टा की जीती है, जिनका खंडन नहीं हो पाता। दोनों में आभासिक अंतर है, पर समर्पण का भाव दोनों में एक जैसा है।
दंडवत प्रमाण का सहारा लेने वाले बहुत पढ़े-लिखे लोग होते हैं, पर के वे दिमाग को सूचनाओं के गोदाम की तरह उपयोग में लाते हैं। उनकी नजर में कुछ व्यक्ति मान्यताएं और ग्रंथ इतने आप्त होते हैं कि उनसे किसी तरह की विचलन को इसी आधार पर गलत सिद्ध किया जा सकता है।
डंडा भाँजने के सभी रूप सत्य तक पहुँचने में बाधक है, परन्तु सबसे खतरनाक है आत्मप्रमाण – अपने सही होने पर इतना विश्वास की आप किसी विषय, व्यक्ति या मान्यता पर अपने सुविचारित या अविचारित मत की घोषणा कर दें और यह मान लें कि आप के विषय में पहले से बनी राय के कारण लोग इसे मान लेंगे।
जहां तक मानने का प्रश्न है लोग मानते तो इन सभी प्रमाणोंं को हैं परन्तु इनमें जो चीज गायब होती है वह है प्रमाण और जो प्रयोग में आता है वह है डंडा। पर्याप्त साक्ष्य, प्रमाण और संगत तर्क पेश किए बिना यदि आप अपना सुविचारित विचार प्रकट करते हैं तो आप अपना इस्तेमाल एक डंडे के रूप में ही करते हैं।
हमने दो दिन पहले एक बहुत विवादास्पद बात कही थी, परंतु प्रसंग ऐसा था उनके समर्थन में प्रमाण प्रस्तुत न कर सका था। मैं इसे अकादमिक लेखन का एक बड़ा दोष मानता हूं इसलिए उसका विवेचन जरूरी था। यह कथन था के भारोपी अध्ययन आरंभ होने से पहले का भाषाशास्त्र, (फिलालॉजी), भाषाशास्त्र था, और कहते हैं संस्कृत से यूरोपीय भाषा की खोज के साथ तुलनात्मक भाषाशास्त्र का जन्म हुआ (it was the study of Sanskrit which formed the foundation of Comparative Philology, मै. मु, चिप्स खंड 4). और इसको भाषा का विज्ञान बनाने का प्रयत्न किया गया ( My principal object in claiming for the Science of Language the name of a physical science, was to make it quite clear, once for all, that Comparative Philology was totally distinct from ordinary Philology, …, वही). इससे पहले भाषा के किसी अध्ययन को विज्ञान नहीं कहा जाता था इसलिए यह एक तरह से भाषाविज्ञान का आरंभ था, (One of the great charms of this new science is that there is still so much to explore, so much to sift, so much to arrange. वही)। हैरानी की बात यह है कि जो बहुत कुछ खोजा जाना था उसने कुछ ऐसा गुल खिलाया कि भाषा अध्ययन की इतनी वैज्ञानिक शाखाएँ विकसित हुईं कि वे अपनी सटीकता में भौतिकी और ज्योतिर्विज्ञान से प्रतिस्पर्धा करती हैं जब कि उस अधीति को ही जिससे भाषाविज्ञान का जन्म हुआ था उसे भाषाविज्ञान के दरबार से इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि वह विज्ञान की अपेक्षाओं पर सही नहीं उतर सकी। यह फैसला सस्युर का था, और अपनी परिणति में यह सही था। परन्तु इसके लिए उन्होंने जो तर्क गढ़ा था वह गलत था, वास्तविक कारण की उन्हें समझ न थी या समझ थी तो वह स्वयं भी उससे इतने ग्रस्त थे कि उसे सही नाम नहीं दे सकते थे। जो कारण बताया था वह इतना गलत था कि भाषा की प्रकृति की उनकी समझ पर संदेह होता है और वह भी इस सचाई को स्वीकार करते हुए कि मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ।
उनका मानना था कि द्विकालिक आँकड़ों के बीच तुलना संभव नहीं। जो विज्ञान में संभव नहीं वह शास्त्र में कैसे मान्य हो सकता था। पहले वह शास्त्र था, अब वह शास्त्र भी नहीं रह गया। इसके बाद भी इसके सुर अलापे जाते रहे, और इसके बाद भी अलापे जाते रहे कि इस कोरस में वे भी शामिल थे जो सस्युर को सही मानते थे, क्योंकि किसी ने सस्युर का खंडन नहीं किया था।
मैं इस इकहरी समझ के लिए सस्युर को इसलिए गलत पाता हूँ कि प्रकृति की तरह भाषा में नया दिखने वाला भी न तो नया होता है न नया नहीं होता। इस रहस्य को रूसी भाषाविदों ने समझा था जिसका सार भाषा पर स्तालिन के विचारों में प्राप्त होता है जिसमें उन्होंने घोषित किया था कि भाषा के मामले में आधार और अधिरचना के सवाल नहीं पैदा होते क्योंकि इनमें आने वाले परिवर्तनों के बाद भी भाषा नहीं बदलती। मुहावरा बदल कर देखें तो पता चलेगा कि भाषा में जो कुछ उपलब्ध है, किसी भाषा में किसी चरण पर सुलभ है वह विद्यमान है, वर्तमान है और इसके बीच तुलना संभव हैं।
यह कैसे संभव है कि जिस अधीति के गहन विमर्श से भाषाविज्ञान की उत्पत्ति हुई उसी को वैज्ञानिकता का गरिमा से वंचित कर दिया गया। जिसके ध्वनि आदि के कतिपय नियमों को आज तक चुनौती नहीं दी गई उनके निष्कर्ष उन मान्यताओं के विपरीत थे । इससे आश्चर्यजनक बात क्या हो सकती है कि विलियम जोंस ने यह मान कर कि कोई भाषा किसी ऐसे देश की नहीं हो सकती जिसमें वह बोली न जाती हो, भारत में संस्कृत केवल ब्राह्मण बोलते हैं इसलिए इस भाषा को बोलने वाले अपनी भाषा लिए बाहर से आए होंगे। ईरान को ऐसा केन्द्रीय देश मान कर खोज आरंभ की पर पाया कि फारसी का संस्कृत से वही संबंध है जो अपभ्रंशों का। नवें और अपने अंतिम व्याख्यान में उन्होंने घोषित किया कि जिस जननी भाषा की वह तलाश कर रहे थे वह नोआ तक पीछे जाने पर नहीं मिली। मिली वह भाषा जिसकी प्रकृति भारतीय थी और जिसके बोलने वाले पूर्वी भूमध्यसागर के तट पर और इथोपिया पर हावी थे और इन्हीं लोगों ने जो नौवहन में भी अग्रणी थे इटली और ग्रीस पर अपना, आपनी भाषा और संस्कृति का आधिपत्य स्थापित किया था।
उनका यह अध्ययन पुराणकथाओं पर आधारित था। इसके शताधिक वर्ष बाद हूयूगो विंकलर ने हत्तूसा से उपलब्ध कीलाक्षर में अंकित पट्टिटों का पाठ करके यह सिद्ध किया था कि यहाँ सचमुच भारतीय आर्यभाषा बोली जाती थी। फिर तो ज्ञान और विज्ञान कुछ कहता है, आप इसकी चुनौती स्वीकार नहीं कर सकते फिर भी लगातार उल्टे नतीजे निकालते हैं। इससे हैरानी की बात क्या हो सकती है। हैरानी की व्याख्या भी मैक्समुलर से ही समझ लें: Wonder, no doubt, arises from ignorance, but from a peculiar kind of ignorance; from what might be called a fertile ignorance: an ignorance which, if we look back at the history of most of our sciences, will be
found to have been the mother of all human knowledge हम इसमें ‘समस्त धुप्पलबाजी की जननी’ अपनी जानकारी के आधार पर जोड़ सकते हैं।