Post – 2016-08-03

निदान 10

तबलीग

”तबलीग का अर्थ जानते हैं डाक्‍साब ?”

जानता तो था, पर इसे समझाने का बोझ शास्‍त्री जी के कंधो पर डाल दिया।

उन्‍होंने अपने कर्तव्‍य का निर्वाह करते हुए बताया, ‘तबलीग का अर्थ होता है धर्म प्रचार । प्रचार के लिए जरूरी होता है नैतिक और तार्किक औचित्‍य। आपकाे शायद पता न हो कि इस पर दूसरे मुस्लिम देशों और ईसाई देशों का कितना पैसा भारत में पंप किया जा रहा है और उसकी हवा उन्‍हें कितना जोम और जुनून में रखती है। इसके प्रकट और प्रच्‍छन्‍न कई रूप हैं और …”

शास्‍त्री जी आगे की कड़ी जोड़ने लगे कि मैं बीच में ही हस्‍तक्षेप कर बैठा, ”इसे आप ने कब से लक्ष्‍य किया ?”

”जो इसे लक्ष्‍य नहीं कर सकता वह जिस अवस्‍था में पहुंचा हुआ है उसका आप से बात करते हुए नाम लूं तो प्रायश्चित्‍त करना होगा, क्‍योंकि तुलसीदास ने उन्‍हें सबसे भला कहा है, और आगे कुछ और जोड़ दिया है।”

”आप को प्रायश्चित्‍त नहीं करना होगा, क्‍योंकि मैं इसे जानता हूं। आपको इसका व्‍यक्तिगत अनुभव न होगा पर मुझे इसका व्‍यक्तिगत अनुभव है। मैं जिस सोसायटी में रहता था उसे भारत का गुटका संस्‍करण कह सकते हैं। पूरे देश के और लभी धर्मो के लोग उसमें रहते हैं। जाहिर है उसमें अनेक मुस्लिम परिवार भी रहते हैं। उसमें एक सज्‍जन है जिन्‍होंने अपना सेवानिवृत्ति के बाद का पूरा जीवन ही इसी कार्य को समर्पित कर रखा है। हाथ में हिन्‍दी की चार पांच पुस्तिकाओं की प्रतियां लिए घूमते हैं और हमें यह जानने का मौका देते हैं कि इस्‍लाम दुनिया का सबसे अच्‍छा मजहब है और इसमें मानवता से प्रेम का ही सन्‍देश दिया गया है। वह कुछ अधिक ऊंची आवाज ही सुन पाते हैं इसलिए अपनी बात कह कर बात पूरी मान लेते हैं। कुर’आन की आयतें इतने प्रभावशाली और मधुर स्‍वर से पढ़कर सुनाते हैं कि अर्थ पल्‍ले न पड़ते हुए भी उसके नाद से ही मन मुग्‍ध हो जाय। मेरे अच्‍छे सम्‍बन्‍ध हैं, दुआ सलाम ही नहीं दूसरे धर्मेतर सवालों पर साथ देने तक के भी। एक बार सोचा अरबी सीखने का् अच्‍छा मौका है, प्रस्‍ताव रखा, सिखाइए, तो बोले अरबी नहीं आती है, पर कोई इन्‍तजाम करेंगे। कुछ दिन बाद ही इधर से इधर आ गया। मैं जानता था, संस्‍कृत के श्‍लोक पढ़ने और मधुर और मोहक स्‍वर में पाठ करने वालों को संस्‍कृत भी आती हो, यह जरूरी नहीं।

उन्‍होंने मेरी सहभागिता को देख कर एक बार सोचा इस आदमी को तो मुसलमान बनाया ही जा सकता है।

कहा, ”एक दिन मैं आपसे मिलने आपके घर (जिसका मतलब हुआ फ्लैट पर) आना चाहता हूं।”

”बिल्‍कुल आइए। खुशी होगी।”

बोले, ‘अकेले नहीं, एक डाक्‍टर साहब हैं उनके साथ ।”

मुझे क्‍या आपत्ति हो सकती थी। आए। आने के साथ दो तीन पुस्तिकाएं, जिन्‍हें वह बांटा करते थे, साथ लाए और कहा, इसे पढि़ए। उनमें से एक किसी पीठ के आचार्य का था जो इस्‍लाम की प्रशंसा में था, और दूसरा किसी अन्‍य का, पर वह भी हिन्‍दू ही थे। तीसरे में कुरान के कुछ उच्‍च विचार थे या ऐसा कुछ, यदि आप चाहें तो मेरी सोसायटी के स्‍वागत कक्ष में भी वे रखी रहती हैं, आपको ला कर दे दूंगा, परन्‍तु तब जब उनसे बात हो रही थी एसी नौबत नहीं आई थी। वह अलग अलग लोगों को यह सिद्ध करने के लिए कि इस्‍लाम दुनिया का सर्वश्रेष्‍ठ धर्म है, उन्‍हें सर्वश्रेष्‍ठ बिरादरी में जगह देने के लिए तैयार अवश्‍य थे।”

मैंने पहले सोचा था, उनके साथ आए नौजवान डाक्‍टर किसी विषय के अधिकारी विद्वान होंगे, पता चला वह होमियोपैथ डाक्‍टर थे। यह प्रसंगवश कह गया।

अतिथि सत्‍कार की औपचारिकता पूरी करने के साथ उन पुस्तिकाओं को उलटता पलटता रहा। उन्‍होंने कहा, ‘पहले आप इनको पढ़ जाइए, फिर हम इतने दिन बाद मिलेंगे।’

मैंने उन्‍हें रोक लिया। अपने शेल्‍फ से कुर’आन की एक अरबी हिन्‍दी पाठ वाली, एक सऊदिया से अंग्रेजी में प्रकाशित और एक किसी तबलीगी मुहिम में मेरे अपने जिले के व्‍यक्ति द्वारा मुफ्त भेजी गई प्रतियों, हदीथ और फतवों की किताब जिन्‍हें मैंने एक दो बार नजर से गुजारा था, हदीथ और फतवों की प्रव़त्ति देख कर अधिक पढ़ा भी नहीं था, पर यह मौका दूसरा था, मैंने कहा, ”देखिए मैं इन बारह पन्‍नों वाली किताबों से इस्‍लाम काे नहीं जानता, उसे समझने के लिए मैंने इनकाे पढ़ा है। आप बताइए, आप लोगों में से किसी ने रामायण, महाभारत, गीता, पुराण कुछ भी पढ़ा है।”

”उत्‍तर तो मैं पहले से जानता था। उनको सांप सूंघ गया।

मैंने कहा, ”आप जब कुरान और हदीथ के अलावा कुछ नहीं जानते तो यह कैसे तय कर लिया कि सबसे अच्‍छा धर्म इस्‍लाम ही है। मैं आपको समझने और जानने की कोशिश के बाद अपनी ओर से हमला करूं तो क्‍या आप अपने को बचा पाएंगे।

”मैंने कहा दुबारा आइए जरूर पर मुझसे बहस की तैयारी करके आइये। दूसरे धर्मो और विचारो को समझ कर आइए। मैं यही तो चाहता हूं, हम एक दूसरे को समझे जानें। घोंघाबसन्‍त बन कर न रहे।

”मैंने उन्‍हें विदा किया। वे फिर नहीं आए। पर हमारी मेल-मुलाकात आज भी बदस्‍तूर है। इसे आप भी देखते होंगे।”

”आप कहना क्‍या चाहते हैं।”

”मैं यह कह रहा हूं कि मनुष्‍य में कुछ अनन्‍य काम या आम लोगों से कुछ ऊपर और अलग काम करने की प्रवृत्ति प्रकृति ने उसे दिमाग देने के साथ ही पैदा कर दी। वह नाम कमाने या सबसे ऊपर होने की आकांक्षा में जितने मूर्खतापूर्ण काम कर सकता है उससे गिनीज बुक आफ रिकार्ड्स भरी पड़ी है। उनको उनके इस मंसूबे से समझो। इस तरह के मूर्खों ने अपने घर परिवार को, दुनिया को, बर्वाद करने का खेल भी खेला है और मनुष्‍यता को नई चुनौतियों के लिए तैयार भी किया है। इनकी मूर्खता पर ध्‍यान जाएगा तो पत्‍थर मारोगे, इनके उत्‍सर्ग पर ध्‍यान जाएगा तो फूल चढ़ाओगे। जरूरत समझने के नजरिए में बदलाव करने की है।”

”मगर मैं जो कहना चाहता था, वह तो आपने सुना ही नहीं।”

”उसे कल के लिए रहने दें ।”

Post – 2016-08-02

न ही उस शोर में शामिल न इस सन्‍नाटे में
न मुनाफे की ही सोची न रहे घाटे में ।
कहा कुछ भी तो कहा जोड़ कर न छोड़ कर कुछ
गरूर वालों को भी कुछ तो मिला चॉटे में।
प्‍यार से उनको खार जार में ले जाता हूं
जो फर्क करना जानते न फूल कांटे मे ।
यूं ही भगवान को भगवान नहीं कहते लोग
वह बदल देता है हर शोर को सन्नाटे में ।।

Post – 2016-08-02

निदान -9

इस्‍लामी नैतिकता

”मुस्लिम जगत के पिछड़ेपन के और कौन से कारण आप बताना चाहते थे?”

”इस्‍लामी नैतिकता से जुड़े कुछ विधान जिनके चलते वह आधुनिक अर्थतन्‍त्र की चुनौतिकयों का सामना नहीं कर सकता। जीवन को अर्थतन्‍त्र नियन्त्रित करता है, और मुल्‍लाबाद जीवन से अधिक अपनी पकड़ को बनाए रखना चाहता है, इसलिए पिछड़ापन उसके लिए गर्व का विषय बन जाता है। यह समाज आगे बढ़ ही नहीं सकता।”

”मैं आपकी बात समझा नहीं ।”

” सैयद अहमद यह तो चाहते थे कि अपनी आर्थिक प्रगति के लिए मुसलमान भी उद्योग व्‍यापार में भाग लें, परन्‍तु एक ओर वह ब्रितानी हथकंडों के कारण उद्योग से बचना चाहते थे तो दूसरी ओर हिन्‍दू व्‍याप‍ारियों से प्रतिस्‍पर्धा के बिना उन क्षेत्रों में आपूर्ति को हाथ में लेने की सलाह दे रहे थे जिनमें अभी विदेशी पहल थी, जैसे चमड़़े, हड्डी आदि की आपूर्ति। कारण हिन्‍दू व्‍यापारियाें को इससे परहेज था। अंग्रेजों को इसके लिए किसी देसी आपूर्तितन्‍त्र की जरूरत थी, क्‍योंकि यह काम संभालने में उन्‍हें असुविधा होती थी। इसलिए अधिक संभव है यह सुझाव भी उनका ही रहा हो। जिन क्षेत्रों में हिन्‍दू व्‍यापारी घुसे हुए थे उनमें उनके साथ प्रतिस्‍पर्धा में वे टिक न सकते थे। इससे व्‍यापारिक गतिविधियों के लिए एक छोटा सा कोना ही मिल पाता था। मिला भी। जूते वगैरह की दूकानें भी पहले मुस्लिम दूकानदारों के हाथ में हुआ करती थी, यह मैंने अपने बचपन में देखा था।

”इस्‍लाम में बड़े कारोबार के लिए बैंक प्रणाली का विकास नहीं हो सकता था क्‍योंकि जिस मत में व्‍याज को ही वर्जित माना जाता हो उसमें बैकप्रणाली का विकास संभव नहीं। इसके अभाव में कोई किसी को अपना पैसा क्‍यों देगा ? अब अपनी जमा पूंजी का ही सहारा रह जाता है। मध्‍यकालीन ऐश आराम वाली जिन्‍दगी के आदी हो जाने के कारण और, परिश्रम से बचने की आदत के कारण अमीरों के पास भी पूंजी का निर्माण नहीं हो सकता था और अपनी आरामतलबी में खलल डालते हुए वे किसी कारोबार में फंसना भी पसन्‍द नहीं कर सकते थे। इसलिए केवल भारत में ही नहीं, अन्‍य मुस्लिम देशों में भी सूद लेने की मनाही और उसक परिणाम स्‍वरूप बैंक प्रणाली का अभाव मुसलमानों के आर्थिक पिछडेपन एक बहुत बड़ा कारण रहा है। सम़ृद्धदेशों में भी समृद्धि के बावजूद आर्थिक पिछड़ापन।”

”व्‍याज को वर्जित करार देने का कारण क्‍या रहा हो सकता है ?”

”मैं उस दौर के अरबी अर्थतन्‍त्र के बारे में जो रोमन साम्राज्‍य के पतन के बाद या कहें उग्र ईसाइयत के उभार के बाद अरब देशों में रही होगी कोई जानकारी नहीं रखता। यह एक तरह की अराजकता का दौर था इसलिए ईसाई देशों का व्‍यापार तन्‍त्र इससे प्रभावित हुआ। रोम का पूर्वी देशों के साथ होने वाला व्‍यापार तन्‍त्र नष्‍ट हो गया। पर स्थिति कोई भी हो जनता की जरूरते किसी न किसी रूप में पूरी की जाती हैं और अनुमान है कि रोम के व्‍यापार तन्‍त्र के कमजोर पड़ने पर पहल अरबों के हाथ आई और इसमें नये नये मालदार बने परिवारों में समृद्धि के साथ मौजमस्‍ती, नाचगाना, जुआ आदि में परिवारों की बर्वादी के अनुभव आम रहे हो सकते हैं। संभव है लूटपाट के संभावित खतरों के कारण व्‍याज की दर भी इतनी बढ़ गई हो कि उसके कारण बहुत से लोग बर्वाद हो जाते रहे हों। यह सब मेरा अनुमान मात्र है, यह समझने का कि क्‍यों इस्‍लाम में व्‍याज को हराम या वर्जित मान लिया गया। नाच गाने बजाने आदि पर या कहे कलात्‍मक अभिव्‍यक्तियों पर भी रोक लगा दी गई। मूर्तिकला और चित्रकला को तो बढ़ावा मिल ही नहीं सकता है। कला केवल कलात्‍मक लिखावट और ज्‍यामितीय तक्षण तक सीमित रह गई । ये सभी एक दूसरे से जुड़े प्रश्‍न लगते हैं। कम से कम मुझे।”

”बात कुछ समझ में आ रही है।”

”बात को समझने का प्रयत्‍न कीजिए। मेरी जानकारी या व्‍याख्‍या पर भरोसा न कीजिए। इस पर आप लोगों को काम करना चाहिए । आप के संगठन का तो सीधा टकीराव मुसलमान से ही दिखाई देता है। मानिए, दुश्‍मन ही सही। दुश्‍मन की रगों को भी तो जानिए। यह आपने अंग्रेजों से ही सीखा होता कि जिन दिनों वे मुसलमानों को अपना दुश्‍मन नंबर एक मानते थे, उनको सेना में नहीं रखते थे, लगानवसूली का पुराना धंधा भी छीन लिया था, उस समय भी उनकी हर एक चीज का कितनी बारीकी से अध्‍ययन करते रहे और 1858 के क्रूर दमन के बाद भी उनके द्वारा की गई अंग्रेजों की सैकड़ो हत्‍याओं के बावजूद वे उनके दमन के लिए जो भी तरीका अपनाते रहे हो, साथ ही ठंडे दिमाग से उस मानसिकता को समझने का भी प्रयत्‍न करते रहे और इसका परिणाम था कि वे दुश्‍मन को भी दोस्‍त बना सके और जिनके साथ उसकी दोस्ती हो सकती थी उसी के विरोध में उसे खड़ा कर दिया। आप लोग तो बात बात में जय बजरंगबली कह कर छुट्टी कर देते हैं। मैं बहुत सारी बातें अनुमान के आधार पर कहता हूं और इन्‍हें आधिकारिक मानने से अच्‍छा है इस पर सन्‍देह करते हुए स्‍वयं अधिक गहराई से समस्‍या को समझना। बोलने बतियाने में अधपके विचार भी सामने तो आते ही हैं। बस इस सीमा का ध्‍यान रख कर मुझसे बात कीजिए।

”तो मैं कह रहा था मुस्लिम देशों में पूंजीवादी विकास हो नहीं सकता था और साम्‍यवाद जो उनकी सोच के सबसे निकट था उस ओर उनके मुल्‍ले उन्‍हें जाने नहीं दे सकते थे। इसका एक बहुत अच्‍छा उदाहरण अल्‍जीरिया का था जो भी औपनिवेशिक शासन में था पर फ्रेंच की शिक्षा के कारण उसमें एक मध्‍यवर्ग भी पैदा हो चुका था। इसने साम्‍यवादी रास्‍ता अपनाना चाहा पर मुल्‍लातन्‍त्र के कारण वह विफल हो गया
A clear indication of radicalization of the Islamic movement is reflected in an article published in its journal Humanisme Musulman, in 1965, a declaration that was similar to the tatalitarianism of Islamic fundamentalism in Egypt, Syria, and Iran. According to the article, all political parties, all regimes and all leaders who do not base themselves on Islam are illegal.and dangerous. A communist party, a secular party, a Marxist party, a Natinalist party, (the latter putting in question the unity of the Muslim world) can not exist in the land of Islam.

यहां का शासन 1970 में फिर वाम की ओर झुका परन्‍तु उसका उद्देश्‍य थ्‍ाा अब वे दुहरा जिहाद करने जा रहे हैं, पर पता है किसके खिलाफ :
against forces of international athiesm and in Algeria, against the Fracophone Marxist voluntary brigades thaज were leading the agricultural revolution and against the decadent morals of the West.

एक समय था इस्‍लाम ने अपनी पूरी माइथालोजी, पूरा इतिहास, नाम और रीतिरिवाज, त्‍यौहार उसी ईसाइयत से लिए थे क्‍योंकि मुहम्‍मद साहब के उदय समय जो अनेक मतमतान्‍तर अरब देशों में चल रहे थे उनमें सबसे प्रभावशाली ईसाइयत ही थी, और अब उसका सिरे से निषेध ।

मैंने इतने दूर के दृष्‍टान्‍त को इसलिए रखा कि यह बता सकूं कि यत्र यत्र इस्‍लाम: तत्र तत्र मनोबन्‍ध:। राष्‍ट्रीयता के प्रति भी वही रवैया जब कि पूरा देश उन्‍हीं का ।यह न समझें कि इस सोच के पीछे किसी की सोच या किसी तन्‍त्र के कारिन्‍दाें की कारगुजारी नहीं है। मुस्लिम मुल्‍लातन्‍त्र खलीफाओं के दौर में एक प्रबल तन्‍त्र था और आज उस तन्‍त्र को पूंजीवादी अमेरिका ने अपनी मुट्ठी में कर चुका है जिससे उसमें औद्योगिक विकास संभव ही न हो पाए। उसे अपने कठमुल्‍लेपन से बाहर निकलने का रास्‍ता ही न रहे, वह आगे बढ़ने की जगह कई शताब्‍दी पहले की लड़ाई में जुटा रहे। उसके मालोजर पर अमेरिकी कारोबार चले। उसे देख कर छटपटाए पर फिर भी कारगर हथियार और रणनीति विकसित करने की जगह उसके इशारे पर उसको काटने दौड़े ।

”उनके लिए व्‍याज हराम है, बस अपना पैसा सुरक्षित चाहिए, इसलिए बैंक अपना चल नहीं सकता। उसका पैसा अमेरिकी बैंकों में जमा रहे और उसे इसका दुहरा लाभ हो। सारा पैसा दूसरे के घर गाड कर वह उस पर और निर्भर हो जाये, विश्‍व करेंसी पर अमेरिकी कब्‍जा रहे, उसके अपने देश में व्‍याजदर को न्‍यूनतम पर रखने का अवसर बना रहे और अरब देशों के पैसे से ही वह अपने कारोबार का प्रसार कर सके। दूसरे देशों को मानिटरी फंड के माध्‍यम से कर्ज दे कर उस पर व्‍याज कमाए । अपने देश में बैंक दर जितना ही कम, उद्योग धन्‍धों के लिए उतनी ही कर्ज सुलभ।

” इसलिए आतंकवाद को पिछले रास्‍ते से उभारना, मुल्‍लातन्‍त्र को मजबूती देना और शिक्षा आदि में मद्रसों और मकतबों को पिछले दरवाजे से नैतिक समर्थन और भौतिक मदद देना और सउदी अरब जैसे अपने प्रभाव के देशों के माध्‍यम से माध्‍यम से मुल्‍लातन्‍त्र और मस्जिद और नमाज को बढ़ावा देना और तबलीगी मुहिम के माध्‍यम से कट्टरता का प्रसार, मुस्लिम देशों में यह खुशफहमी पैदा करके कि उनका आतंकवाद कल उनको दुनिया पर कब्‍जा जमाने में सहायक होगा, यूरोप उनके डर से थर्रा उठा है, उनके प्रतिभाशाली नौजवानों की प्रतिभा का विनाशकारी उपयोग उसकी योजना का अंग बनाना। इतनी जटिल योजना बनाने की योग्‍यता अभी किसी मुस्लिम देश में आई नहीं है।”

’ जहां तक मैं समझता हूं, मुसलमानों में प्रतिभा की कमी तो नहीं है।‘’ शास्त्री जी ने प्रश्न नहीं किया, अपने विचार का अनुमोदन या निषेध चाहते थे।‘’

‘’प्रतिभा की कमी पिछड़े से पिछड़ देश और समाज में भी नहीं हुआ करती और सच कहें तो आदमी का दिमाग चूहे के दिमाग से कुछ ही कदम आगे है। पर उस प्रतिभा को अपने विकास की सही जमीन मिली है या नहीं। यदि औद्योगिक विकास ही न होगा, आपकी तकनीकी प्रतिभा भी तो दूसरों के उपयोग में आएगी और वह भी यदि उसका अकुंठित विकास हुआ तो। यदि उसे गलत दिशा में मोड़ने वाली ताकतें उसके भीतर ही मजबूत हैं और वे मजबूत बनी रहें इसमें दुनिया की सबसे मजबूत ताकत की दिलचस्पी हो तो वह ध्वंसात्मक दिशा लेगी जिसका वह दुहरा इस्तेमाल करेगा। डरने का नाटक करके, ‘यह मारा, वह मारा,’ करेगा और उसका हौसला बढ़ाएगा और उसके कुकृत्यों को जघन्यतम रूप में विज्ञापित करके उसे इतना बदनाम करके रखेगा कि उसके विरुद्ध कभी जरूरत होने पर क्रूरतम उपाय भी उसे मुक्तिदाता बना देगा, ‘दुष्टदलन रघुनन्‍दन, जगमंगलकारी। जय जगदीश हरे।‘’

”शास्त्री जी अपना सिर खुजलाने लगे । सिर खुजलाने का एक लाभ होता है, यदि कोई विचार भीतर न धंस रहा हो, सिर के ऊपर ही रेंग रहा हो तो सिर खुजलाने से सिर के कुछ पोर खुल जाते हैं और उसे भीतर उतरने में मदद मिलती है। परन्तु उन्हें असली मजा तब आया जब मैंने कहा, ”ये सब महज मेरे खयाल हैं। इनको अधिक गंभीरता से मत लीजिएगा। अपनी आदत है किसी भी विषय पर बोलते चले जाने की। जिसे नहीं जानता उस पर अधिक विश्वास से बोल लेता हूं इसलिए मेरी नजर में एक ही समाधान है, मुस्लिम समाज में एक मुखर और निडर और अपने समाज के हित के लिए कृतसंकल्प बुद्धिजीवीवर्ग का विकास। पर आप मेरी बात मान मत लीजिएगा। नीम हकीम का इलाज खतरा बढ़ाता है, ऐसा मुहावरों में दर्ज है।‘’

शास्त्री जी ने उठने की तैयारी के साथ कहा, ‘’मानना मुझे है नहीं, मेरे मानने से कुछ होना नहीं। जिन्हें मानना चाहिए वे आपको पढ़ेंगे ही नहीं। जय जय जय जय हे।‘’

Post – 2016-08-01

निदान 8

मध्यवर्ग का अभाव

”प्राच्यविदों ने प्राचीन भारत का जिस तरह आकलन किया था और विलसन और मैक्समुलर ने मिल के जिस तोड़ मरोड़ का खंडन किया था क्या यह भी एक कारण है कि तथाकथित मार्क्सवादी इतिहासकार उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह् लगाते रहे।”

”इसमें सचाई तो है, परन्तु, परन्‍तु आधी क्‍योंकि उसी मैक्‍समूलर के काल निर्धारण को वे इस तरह पीटते रहे जैसे यह वैज्ञानिक सत्‍य हो जब कि स्‍वयं मैक्‍समुलर ने माना था कि यह एक अटकलबाजी है और आज कोई यह नहीं बता सकता कि यह ईसवी सन से दो हजार साल पुराना है या ढाई हजार या तीन हजार। जिन बातों को प्रामाणिक ढंग से कहा, वे केवल उनका विरोध करते रहे क्‍योंकि प्राचीन भारत का जैसा वे चित्र पेश करना चाहते थे, करते रहे थे, उसमें उनकी टिप्‍पणियां बाधक थीं। परन्‍तु यदि इस ओर मुड़ेंगे या यह बताने चलेंगे कि दूसरे यूरोपीय इतिहासकारों ने प्राचीनकाल और मध्य’काल के विषय में क्या विचार व्यक्त किए हैं, तो विषयान्तर होगा। सच तो यह है कि मैं किसी पश्चिमी विद्वान के विचार को, वह प्रशंसा में हो या निन्दा में कूटनीतिक दायरे से बाहर नहीं मानता इसलिए उन पर भरोसा करने की जगह उनको जांचते परखते हुए पढ़ने की सलाह देता हूं।

”उनमें से किसी का अध्ययन न तो व्यर्थ है न विश्वसनीय। प्राचीन भारत के विषय में तो दो दशक पहले तक का भी हमारा ज्ञान बहुत अधूरा था।

”मैं जिस तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहता था वह यह कि मुस्लिम शिक्षा पर हंटर का जादू चल गया और चल इसलिए गया कि अमीर मुसलमानों के मन में वे ग्रन्थियां पहले से थीं जिनको उसने अपनी रपट में तूल दे कर सांप्रदायिक भावना उभारने का प्रयत्न किया था। उसकी वह पुस्तक ‘The Indian Musalmans: Are They Bound in Conscience to Rebel Against the Queen?’ 1871 में आई थी जब कि सैयद अहमद की उपयोगिता भांप कर अंग्रेज कूटनीतिक जाल उससे एक दशक पहले से रोप कर उनको अपने शीशे में उतारने में लगे थे। वे मुसलमानों का गुस्सा अंग्रेजों की ओर से हटा कर हिन्दुओं की ओर मोड़ना चाहते थे क्यों कि 1858 के क्रूर दमन के बाद भी मुसलिम विद्रोह जारी था। उन्हाेंने सबसे अधिक परेशानी पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त में पैदा की थी जहां बार बार कठोर कार्रवाई करने, गांव के गांव जला देने के बाद भी उनको अधिकार जमाने में कामयाबी नहीं मिल रही थी और इसका सबसे रोचक पहलू यह था कि इसके लिए नैतिक और भौतिक समर्थन ब्रिटिश राज में ही वहाबी नेताओं द्वारा जुटाया जा रहा था, जिनका मुस्लिम समुदाय पर गहरा असर था।

”यह बात तो एक बार आप कह ही चुके हैं आप यह बताएं आपकी समझ से मुसलमानों के पिछड़ेपन का कारण क्या हो सकता है।”

”यह बात किसी मुसलमान से न कहिएगा, क्यों कि उनको लगातार जिस तरह के ईरानी श्रेष्ठताबोध में पाला गया है, वे इसे स्वीतकार नहीं करेंगे। हम आज से हजार दो हजार साल पहले के हिन्दू समाज के सामान्य आचार व्यवहार से परिचित नहीं हैं, परन्तु उसमें राजा और दरबार में कुछ मर्यादाओं और प्रतिबन्धों का चलन तो था परन्तु पश्चिमी तर्ज की वह तड़क भड़क, वह दरवारी संस्‍‍कृति, सलीके और आन बान का प्रदर्शन न रहा होगा और उसे आप सरलता कहेंगे, वे लद्धड़ता कहेंगे। यह कहिए कि वे पिछड़ क्यों गए या पिछड़ते क्यों चले गए तो यह बात उनकी समझ में आ जाएगी।”

” मैंने हंटर का जिस प्रसंग में नाम लिया था वह यह कि उसका यह जादू चल ही गया कि मुसलमान हिन्‍दुओं पर राज कर चुके हैं, उनको अपने से तुच्‍छ समझते रहे हैं इसलिए वे उन्‍हीं स्‍कूलों में हिन्‍दू बच्‍चों के साथ बैठ कर पढ़ नहीं सकते। उनमें अशिक्षा का यही कारण है और अंग्रेजी शिक्षा के अभाव में उन्‍हें नौकरियां नहीं मिल पा रही हैं, उनकी दशा दिनो दिन खराब होती जा रही है और इसलिए इस दिशा में सरकार को कुछ करना चाहिए।

इस दिशा में केवल सरकार ही कुछ करती आ रही है चाहे वह ब्रितानी रही हो या कांग्रेसी ।

”चलिए, यही सही। परन्‍तु जिन्हें अंग्रेजी शिक्षा मिली वे भी अपनी मान्यताओं में इतने पुरातनपंथी तो हैं ही कि मध्यकाल से बाहर नहीं आना चाहते।”

‘इसके कई कारण हैं। एक तो वह सांस्कृहतिक मनोग्रस्तता है जिसमें वे मद्रसे से निकले, अाधुनिक शिक्षा तक पहुंचे भी तो अपने अलग स्कूाल, अलग कालेज, अलग विश्वसविद्यालय की मांग करते रहे। इसमें जैसा कहा, सैयद अहमद भी आ गए थे। इससे जो लगाव के बीच भी अलगाव पैदा होता है वह निजी घरौंदे तैयार करता है, एक निजी संसार, जिसमें बन्द या लगभग बन्द, सीक्रेटिव मानसिकता पनपती है।

”‍फिर पहले तो शिक्षा केवल उनके अमीर घरानों तक सीमित रही, आज भी शिक्षित मुसलमानों में आधे अपने ऊंचे घराने की बात करते मिल जाएगे, क्योंकि उनमें मुल्ला और मौलवी तो थे, उस बड़े पैमाने पर शिक्षा जीवी वर्ग नहीं था जो हिन्दुओं में ब्राह्मणों और कायस्थों के रूप में बहुत पहले से मौजूद था। इसने अंग्रेजी शिक्षा का अवसर मिला तो उसे बढ़ कर अपनाया, जब कि मुल्ला मौलवी उसके विरोध में लगे रहे अत: जिस भी पैमाने पर मकतब मद्रसे चलाने वाला वर्ग था वह उसी को कायम रखने की जद्दोजहद में लगा रहा। सैयद अहमद को भी लंबी लड़ाई तो इन्‍हीं से लड़नी पड़ी जिसमें उन्‍हें आधी ही जीत मिल पाई। हिन्दू़ समाज में आरंभ से ही सभी प्रकार का नेतृत्व आरंभ से शिक्षित मध्यवर्ग के हाथ में रहा है और इस दौर में भी रहा और इसने इसे शक्तिशाली और मुखर बनाया। इस हद तक मुखर‍ कि वह हिन्दू मूल्यों और मान्यताओं की धज्जियां तक उड़ा सके।

”मुसलिम समाज में नेतृत्व अमीरों और रईसों के हाथ में आ जाया जिनकी शिक्षा में न तो पहले गहरी रु‍चि थी न बाद में या थी तो शेरो शायरी तक। हिन्दू समाज के नेत़त्व में जमीदारों और रजवाड़ों के लिए कोई जगह न थी, न उनकी कोई भागीदारी थी। उनके हित और मुस्लिम रईसों ताल्लेकेदारों के सरोकार बिल्कुल एक जैसे थे और यदि नेतृत्व इनके हाथ में आया होता तो ठीक उसी तरह के खेल शुरू होते। वे अधिक से अधिक सरकार से अपनी सुरक्षा और कुछ इज्जत अफजाई की मांग कर सकते थे जिन्हेंव वे भारी मोल दे कर खरीद भी सकते थे। जनसाधारण की दशा में सुधार लाने वाली कोई मांग वे भी न रखते।

एक बार इनके मुस्लिम लीग के रूप में इन रईसों का एक मुखर संगठन बन जाने के बाद हिन्दू हिन्दू सभा की स्थापना 1909 में हुई जिसने आगे चल कर हिन्दूे महासभा और राष्ट्रीय स्वीयं सेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद का जन्म दिया, जिनका रवैया हिन्दू राजाओं और जमींदारों के प्रति नरम भले रहा हो परन्तु इसकी स्थापना से लेकर इसके संचालन में भी अग्रणी भूमिका जमीदारों या रियासतदारों की न होकर सुशिक्षित हिन्दू मध्यवर्ग की रही।

मध्य वर्ग किसी भी समाज का सबसे ऊर्जावान और विविध संभावनाओं से भरपूर वर्ग होता है जिसकी समाज को आगे ले जाने में ही नहीं अपनी रक्षणीय संपदा की रक्षा और व्यंवस्थाक में भी निर्णायक भूमिका होती है।

”मुसलमानों में भारत में तो फिर भी स्थिति कुछ भिन्न मिलेगी। पूरे इस्लामी जगत में किसी देश में मुखर और प्रभावशाली मध्यवर्ग नहीं पैदा हो सका और शिक्षा के प्रसार के बाद भी भारत में भी अजागलस्तन की तरह ही है। अनुत्‍पादक। इस्लामीमूल्यों और मान्य‍ताओं में इतना दबा हुआ कि वह परदा प्रथा और तलाक और एकाधिक विवाह जैसे मामलों पर भी चुप लगाए रहता है। वह भी सारे सुधार और अधिकारों की सारी लड़ाइयां हिन्‍दू समाज में ही चाहता है जिसके मध्‍यवर्ग ने अनेकानेक कुरीतियों को दूर किया और अधूरे और कालसाध्‍य समस्‍याओं पर भी जुझारू तेवर रखता है। पूरे इस्लाभमी जगत के पिछड़े पन का मैं इसे मुख्यल कारण मानता हूं, यद्यपि कारण और भी हैं जिनकी चर्चा कल करूंगा ।