जादू जो पहाड़ चढ़ कर बोले
गोगिआ पाशा को मैंने केवल टीवी पर देखा. लालबहादुर वर्मा को पिछले साठ सालों से जानता हूँ. कभी सोचा नहीं था की दोनों में कोई समानता भी हो सकती है. अन्तर इतना सा कि पाशा के साथ जो दृष्टिभ्रम था वह वर्मा के साथ करिश्मा बन जाता है= वस्तुगत बदलाव जिसे देखने पर भी सन्देह बना रह जाय।
कालेज के दिनों हमें जोड़नेवाले व्यक्ति थे शिवकुमारलाल श्रीवास्तव जो शरीर से जितने क्षीण थे, मानसिक रूप में उतने ही सशक्त। SFI से जुड़े थे। हम सभी को वामपंथी सोच के निकट लाने में उनकी भूमिका थी, गो विशेष कारणों से वह उसी कांग्रेस से जुड़े, और जुड़ने से पहले गोरखपुर छोड़ गए, जिसके प्रति अपने प्रभाव के दायरे में आनेवालों के मन में वितृष्णा की हद तक विरक्ति पैदा करने के प्रयत्न में लगे रहे थे। उसके बाद उनसे मिलना न हुआ । इसके साथ एक अवसर भी जुड़ा हुआ था, एक आत्मीय संबंन्ध की भी भूमिका थाी परन्तु शिवकुकार लाल श्रीवास्तव का व्यक्तित्व इतना पारदर्शी था कि उन्हें इस तथ्य को जानने के बाद भी अवसरवादी कहने का मन आज तक न हुआ। लगा यह कि इससे पहले वह पूरी निष्ठा से पार्टीलाइन पर चल रहे थे और इस बीच उस पर पुनर्विचार की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की, वहां अब वह भैरवनाथ झा के संपर्क में आ गए थे जो अपने ज्ञान, अनुभव और चातुर्य के बल पर उन्हें इस बात का कायल बनाने में समर्थ थे कि वह जिसे सही मान रहम थे वह गलत है और जिसे गलत मान रहे थे वह उससे कम गलत है।
तर्क का पता मुझे नहीं। मिलते तो पता चलता, परन्तु शिवकुमार लाल को इतना सम्मान देता था कि उन विचारों को गलत मान सकता था, इन प्रकट कारणों के बाद भी उन्हें नहीं। यह दूसरी बात है कि उसके बाद शिवकुमार नाम कहीं देखने सुनने को नहीं मिला और यह भी पता न चला कि वह कब तक इस नश्वर संसार में रहे।
वर्मा जी राजनीति में रूचि रखते थे जो आज तक बनी हुई है. उनकी सर्जनात्मकता राजनितिक और सामाजिक सक्रियता का पर्यावरण तैयार करने में लगती है. उनका व्यक्तिगत जीवन और व्यवहार उनके विचारों से इतना मेल खता है कि उनके संपर्क में आनेवाला व्यक्ति उनके चुंबकीय प्रभाव से बच नहीं पाता।
उनका ज्ञान क्षेत्र मध्यकालीन भारतीय इतिहास है. उसी में शोध किया, उसी के प्रोफेसर रहे, वह इतिहास की समझ को समाज और राजनीति की समझ के लिए ज़रूरी मानते हैं. समाज में इसका बोध पैदा हो, इस उद्देश्य से उन्होंने पत्रिकाएं निकालीं, पुस्तकें लिखीं और विचारविमर्श के लिए नियमित वादगोष्ठियां करते रहे हैं और संवाद के दूसरे माध्यमों की तलाश और आविष्कार करते रहे हैं जिससे उनका एक इतना बड़ा आत्मीय परिवार बन चुका है जिसकी कल्पना जादूगरी से परिचित लोग ही कर सकते है और मुझ जैसे घालमेल वाली समझ रखनेवाले को गोगिआ पाशा की याद ताजा करा सकते हैं।
देवभूमि में सात दिनों दे मुक्त विचारसत्र का आयोजन भी उन्हीं की प्रेरणा से हो रहा था, यह सचाई अंतिम दिनों में ही खुली. इसमें सम्मिलित होने के बाद मैं चकित था और जो देख रहा था उसपर विश्वास करने की कोशिश कर रहा था. इतनी भिन्न योग्यताओं, रुचियों, क्षेत्रों, अवस्थाओं और विचारों के लोग अपनी भिन्नताओं के बावजूद एक दूसरे से जुड़ सकते हैं और इतने मुक्त भाव से अपने विचारों का साझा कर सकते हैं, एक दूसरे से प्रेरित हो सकते हैं और फिर भी किसी प्रकार का समझौता करने को बाध्य नहीं किए जा सकते, यह तो इससे पहले सोचा ही नहीं था और इसका अनुमान ही न किया था की सात दिन के इस सत्र का आरम्भ और समापन सभी की अपनी सीमाओं और दबावों के अनुसार हो सकता है और गणित के देव नियम से सात की संख्या पांच में भी बदल सकती है!
देवभूमि और देवलोक की यही समानता यहां दिखाई दी. पुण्य क्षीण होने पर देवभूमि से भी लोगों को निकल जाना पड़ता है और वे भारत भूमि में आ गिरते हैं. अपना पुण्य तो पांच दिन काम आया बहुतो के भाग्य में एक दो दिन ही बदा था.
अपने विचारों के खुलेपन के बाद भी वर्मा जी वाम चिंतन से जुड़े रहे हैं और इसलिए उनके परिचय परिधि के लोगों का दायरा भी वही है. मेरी सहानुभूति वाम के जिस धड़े से रही है उससे भी कभी जुड़ा नहीं, माओवादी धड़ों को मैं आरम्भ से गलत मानता आया हूं , पर उससे प्रेरित होने वाले तरुणों के प्रति मेरे मन में, उनकी भावना को लेकर, सम्मान और उनकी समझ को लेकर संदेह रहा है. यह सोच कहीं न कही संचारित भी होती होगी इसलिए विचारों की भिन्नता के बाद भी इन धाराओं से जुड़े लोगों के साथ पारस्परिकता बनी रही है. किसी धारा से अलग रहने को मैं वैचारिकता की पहली शर्त मानता हूँ. प्रतिबद्धता वस्तुपरकता में बाधक बनती है, इसलिए अनुशासित संगठनों, दलों और विचारधाराओं को दूसरे अनुशासित संगठनों (सेना, पुलिस, माफिआ) को किसी अभियान की सफलता के लिए जरूरी मानते हुए भी विचारशून्य पाता हूँ. उनकी सारी बुद्धि अपने कार्यभार के कुशल निर्वाह तक सीमित रहती है. इसलिए अपने को प्रतिबद्ध मानकर कृतकार्य अनुभव करने वालों को मैं व्यक्ति के रूप में सम्मान देते हुए भी विचारक के रूप में बौद्धिक रेवडबंदी का शिकार मानता हूँ, यह मेरी पोस्टों में बार बार रेखांकित किया गया है.
वर्मा जी के विचारों में रुझान भले वामपंथी हो, कुछ दूर तक माओवादी हो, परन्तु दिमाग की वह जकड़बंदी नहीं है जो स्वतंत्र चिंतन में बाधक बनती है.