Post – 2017-06-10

जादू जो पहाड़ चढ़ कर बोले

गोगिआ पाशा को मैंने केवल टीवी पर देखा. लालबहादुर वर्मा को पिछले साठ सालों से जानता हूँ. कभी सोचा नहीं था की दोनों में कोई समानता भी हो सकती है. अन्तर इतना सा कि पाशा के साथ जो दृष्टिभ्रम था वह वर्मा के साथ करिश्मा बन जाता है= वस्तुगत बदलाव जिसे देखने पर भी सन्देह बना रह जाय।

कालेज के दिनों हमें जोड़नेवाले व्यक्ति थे शिवकुमारलाल श्रीवास्तव जो शरीर से जितने क्षीण थे, मानसिक रूप में उतने ही सशक्त। SFI से जुड़े थे। हम सभी को वामपंथी सोच के निकट लाने में उनकी भूमिका थी, गो विशेष कारणों से वह उसी कांग्रेस से जुड़े, और जुड़ने से पहले गोरखपुर छोड़ गए, जिसके प्रति अपने प्रभाव के दायरे में आनेवालों के मन में वितृष्णा की हद तक विरक्ति पैदा करने के प्रयत्न में लगे रहे थे। उसके बाद उनसे मिलना न हुआ । इसके साथ एक अवसर भी जुड़ा हुआ था, एक आत्मीय संबंन्ध की भी भूमिका थाी परन्तु शिवकुकार लाल श्रीवास्तव का व्यक्तित्व इतना पारदर्शी था कि उन्हें इस तथ्य को जानने के बाद भी अवसरवादी कहने का मन आज तक न हुआ। लगा यह कि इससे पहले वह पूरी निष्ठा से पार्टीलाइन पर चल रहे थे और इस बीच उस पर पुनर्विचार की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की, वहां अब वह भैरवनाथ झा के संपर्क में आ गए थे जो अपने ज्ञान, अनुभव और चातुर्य के बल पर उन्हें इस बात का कायल बनाने में समर्थ थे कि वह जिसे सही मान रहम थे वह गलत है और जिसे गलत मान रहे थे वह उससे कम गलत है।

तर्क का पता मुझे नहीं। मिलते तो पता चलता, परन्तु शिवकुमार लाल को इतना सम्मान देता था कि उन विचारों को गलत मान सकता था, इन प्रकट कारणों के बाद भी उन्हें नहीं। यह दूसरी बात है कि उसके बाद शिवकुमार नाम कहीं देखने सुनने को नहीं मिला और यह भी पता न चला कि वह कब तक इस नश्वर संसार में रहे।

वर्मा जी राजनीति में रूचि रखते थे जो आज तक बनी हुई है. उनकी सर्जनात्मकता राजनितिक और सामाजिक सक्रियता का पर्यावरण तैयार करने में लगती है. उनका व्यक्तिगत जीवन और व्यवहार उनके विचारों से इतना मेल खता है कि उनके संपर्क में आनेवाला व्यक्ति उनके चुंबकीय प्रभाव से बच नहीं पाता।

उनका ज्ञान क्षेत्र मध्यकालीन भारतीय इतिहास है. उसी में शोध किया, उसी के प्रोफेसर रहे, वह इतिहास की समझ को समाज और राजनीति की समझ के लिए ज़रूरी मानते हैं. समाज में इसका बोध पैदा हो, इस उद्देश्य से उन्होंने पत्रिकाएं निकालीं, पुस्तकें लिखीं और विचारविमर्श के लिए नियमित वादगोष्ठियां करते रहे हैं और संवाद के दूसरे माध्यमों की तलाश और आविष्कार करते रहे हैं जिससे उनका एक इतना बड़ा आत्मीय परिवार बन चुका है जिसकी कल्पना जादूगरी से परिचित लोग ही कर सकते है और मुझ जैसे घालमेल वाली समझ रखनेवाले को गोगिआ पाशा की याद ताजा करा सकते हैं।

देवभूमि में सात दिनों दे मुक्त विचारसत्र का आयोजन भी उन्हीं की प्रेरणा से हो रहा था, यह सचाई अंतिम दिनों में ही खुली. इसमें सम्मिलित होने के बाद मैं चकित था और जो देख रहा था उसपर विश्वास करने की कोशिश कर रहा था. इतनी भिन्न योग्यताओं, रुचियों, क्षेत्रों, अवस्थाओं और विचारों के लोग अपनी भिन्नताओं के बावजूद एक दूसरे से जुड़ सकते हैं और इतने मुक्त भाव से अपने विचारों का साझा कर सकते हैं, एक दूसरे से प्रेरित हो सकते हैं और फिर भी किसी प्रकार का समझौता करने को बाध्य नहीं किए जा सकते, यह तो इससे पहले सोचा ही नहीं था और इसका अनुमान ही न किया था की सात दिन के इस सत्र का आरम्भ और समापन सभी की अपनी सीमाओं और दबावों के अनुसार हो सकता है और गणित के देव नियम से सात की संख्या पांच में भी बदल सकती है!

देवभूमि और देवलोक की यही समानता यहां दिखाई दी. पुण्य क्षीण होने पर देवभूमि से भी लोगों को निकल जाना पड़ता है और वे भारत भूमि में आ गिरते हैं. अपना पुण्य तो पांच दिन काम आया बहुतो के भाग्य में एक दो दिन ही बदा था.

अपने विचारों के खुलेपन के बाद भी वर्मा जी वाम चिंतन से जुड़े रहे हैं और इसलिए उनके परिचय परिधि के लोगों का दायरा भी वही है. मेरी सहानुभूति वाम के जिस धड़े से रही है उससे भी कभी जुड़ा नहीं, माओवादी धड़ों को मैं आरम्भ से गलत मानता आया हूं , पर उससे प्रेरित होने वाले तरुणों के प्रति मेरे मन में, उनकी भावना को लेकर, सम्मान और उनकी समझ को लेकर संदेह रहा है. यह सोच कहीं न कही संचारित भी होती होगी इसलिए विचारों की भिन्नता के बाद भी इन धाराओं से जुड़े लोगों के साथ पारस्परिकता बनी रही है. किसी धारा से अलग रहने को मैं वैचारिकता की पहली शर्त मानता हूँ. प्रतिबद्धता वस्तुपरकता में बाधक बनती है, इसलिए अनुशासित संगठनों, दलों और विचारधाराओं को दूसरे अनुशासित संगठनों (सेना, पुलिस, माफिआ) को किसी अभियान की सफलता के लिए जरूरी मानते हुए भी विचारशून्य पाता हूँ. उनकी सारी बुद्धि अपने कार्यभार के कुशल निर्वाह तक सीमित रहती है. इसलिए अपने को प्रतिबद्ध मानकर कृतकार्य अनुभव करने वालों को मैं व्यक्ति के रूप में सम्मान देते हुए भी विचारक के रूप में बौद्धिक रेवडबंदी का शिकार मानता हूँ, यह मेरी पोस्टों में बार बार रेखांकित किया गया है.

वर्मा जी के विचारों में रुझान भले वामपंथी हो, कुछ दूर तक माओवादी हो, परन्तु दिमाग की वह जकड़बंदी नहीं है जो स्वतंत्र चिंतन में बाधक बनती है.

Post – 2017-06-10

एक टिप्पणी
स्वामीनाथन रिपोर्ट २००६ में आई थी . उसे जिन्होंने लागू नही किया वे आज दंगे करा रहे हैं क्योंकि सत्ता में न रहे तो देश को आग के हवाले कर देंगे. शत्रु देशों से मदद मांगेंगे, उपद्रवकारियों और आतंकवादियों को बचाने का काम करेंगे. भाजपा का देशप्रेम इस बात से जाहिर है की सत्ता से, तिकड़म के बल पर भी बाहर होने पर उसने गरिमा का त्याग नहीं किया.अलोकतांत्रिक तरीकों से काम न लिया .

Post – 2017-06-09

शास्त्रज्ञता और शास्त्रवादिता

शास्त्र का एक अर्थ शस्त्र भी है। यह अज्ञान का ही उच्छेदन नहीं करता, दूसरे के रहस्यों को जान कर हम उसका सर्वनाश तक कर सकते हैं और वह भी उसके हितू बन कर। पश्चिम के विद्वान आपकी सेवा के लिए आप की भाषा से लेकर संस्कृति तक को जानने का प्रयत्न नहीं करत।वे आप की हर चीज को इतनी अच्छी तरह जानना चाहते हैं जितनी अच्छी तरह आप भी नहीं जानते और इसके साथ ही इस प्रयत्न में रहते हैं कि आप स्वयं उन क्षेत्रों का अध्ययन न करें और जानकारी के मामले में उन पर निर्भर रहें। कहें जिस तरह वे हथियार बनाते हैं, उसका कारोबार करते हैं, कुछ खींच तान कर उसे आपको बेचते या बेचने से इन्कार कर देते हैं, आपके क्षेत्र में तनाव पैदा करके उनकी बिक्री का पर्यावरण तैयार करते हैं, आपका शत्रु यदि उन हथियारों को खरीदने की स्थिति में नहीं है तो उसे किसी बहाने अपना हथियार खरीदने के लिए अपनी शर्तो पर झुकने को मजबूर करते हुए आर्थिक सहायता भी देते हैं जिससे आप अपनी सुरक्षा के लिए चिन्तित हो कर आयुधबाजार के खरीदारों की कतार में खड़े हो सकें और देर सवेर उसके गाहक बन सकें। वे अपने हथियारों का अंबार जुटाते हैं परन्तु उनका परीक्षण करके उनका विज्ञापन और अपनी शक्ति का विज्ञापन करते हुए, बिना बोले, इस विज्ञापन के माध्यम से ही, यह सन्देश भेजने का प्रयत्न करते हैं कि जो हमसे टकराएगा वह चूर चूर हो जाएगा। परन्तु जब उत्तर कोरिया जैसा कोई माचिस के आकार का देश चुनौती देता है कि मैं तेरी धज्जियां उड़ा सकता हूं तो आक्रामकता का गरूर ‘बचें तो कैसे बचें’, में बदल जाती है और मिसाइलरोधी मिसाइलों के विज्ञापन का रूप ले लेती है। मैं उत्तर कोरिया के बारे में जो कुछ जानता हूं उसके कारण उसके शासक से घृणा करता हूं, पर जिनके प्रचार से यह जान पाता हूं, उन पर विश्वास न होने के कारण, केवल उसके आपराधिक बताए जाने वाले कारनामों पर ध्यान देता हूं और उसके प्रतिफलन या परिणामों का आकलन करता हूं तो घृणा जिज्ञासा में बदल जाती है। मेरे बच्चे अमेरिका में हैं. उनका आग्रह है कि मैं उनके पास जाऊं. नहीं जाना चाहता, इसलिए उन्हें मेरे लिए स्वयं आना पड़ता है. मैं अपने काम के कारण कहीं जाना नहीं चाहता। परन्तु एक बार इस सचाई को जानने के लिए समस्त असुविधाओं के होते हुए उत्तर कोरिया जाने का मन करता है कि उसके बारे में प्रचारित बातों में सचाई का अंश कितना है। इसका प्रयास कभी न किया । इसका कारण यह कि मेरी इच्छा जानने के बाद जिस उत्तर कोरिया का दर्शन कराया जाएगा, वह एक दूसरे झूठ से प्रेरित और चालित होगा।

फैलने की आदत है, फैल गया। कहना यह था कि जो काम आयुध निर्माता अपने तरीके से करते हैं वही काम तीसरी दुनिया के देशों के लिए ज्ञान का उत्पादन करने वाले करते है। वे इस बात का प्रबंध करते हैं कि वे देश जिस तरह अपनी सामरिक जरूरतों के दबाव में उसके अस्त्र-शस्त्र का गाहक बने रहते और उनके इशारे पर लड़ते झगड़ते रहते है, उसी तरह ज्ञान के क्षेत्र में उनकी गहरी जानकारी का इस्तेमाल वह आपको नियंत्रित करने, आपके घर में कलह पैदा करने में सफल रहें।और आप उन समस्याओं के समाधान के लिए उनकी किताब, उनके ज्ञान. उनकी सलाह या अपने अध्येताओं की आप्तता के विषय में उनके अनुमोदन या उपहास को अपने निर्णय का आधार मान लेते हैं तो आप बिना किसी प्रतिघात के, उनके सम्मुख ध्वस्त हो जाते है।
हथियार प्रकृति के अनमोल दायों को विषाक्त करके दूसरों के दमन, उत्पीड़न, मानवता के संहार की योजना का अंग है जिससे उनका अपना समाज भी कुशिक्षित होता है।

कुशिक्षित समाज, दिगभ्रमित होता है पर ज्ञान के लिए उन्हीं स्रोतों पर निर्भर होता है इसलिए उसके दो रूप हो जाते हैं. एक है पश्चिमी देशों के सामान्य जनों की मानसिकता के निर्माण का जिसके मन में यह विश्वास पैदा किया जाता है की ये सभी देश कितने दुष्ट हैं, कितने जाहिल हैं, उनका बौद्धिक स्तर कितना गिरा हुआ है की वे किसी क्षेत्र में ऐसा एक भी विद्यां पैदा नहीं क्र सकते जो नई सैद्धानिकी दे सके, और इनको सही करने के लिए इनके साथ जो कुछ भी किया जाय वह ठीक है. दूसरा रूप उस ज्ञान पर पलने वाले भारत जैसे देशों में देखने को मिलता है जहाँ इसकी दो तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं . पहली है पश्चिमी ज्ञान पर अधिकाधिक निर्भरता और दूसरी अपने जातीय अंधे कुँए से आज की समस्याओं के समाधान की कोशिश ।

यह अन्धशास्त्रवाद का रूप ले लेती है। इसमें अपने वेदों पुराणों, कुरआन और हदीस में जो कुछ लिखा है वह अकाट्य बन जाता है। यह इतना हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण होता है की हमारी चेतना को आत्मनिर्भर बनाने की जगह पश्चिमी विषाक्त विचारों को स्वीकार्य बनाने का काम करता है. आत्मविमुखता पैदा करता है। इसका एक नमूना कल एक प्रतिक्रिया में देखने को मिली. वेद में कुछ भी गलत नहीं लिखा है। सच यह है की पूरब का ज्ञानशास्त्र हो या पश्चिम का मुक्ति दोनों से चाहिए। यह मुक्ति कहीं से टपकेगी नहीं, इनके आलोचनात्मक पाठ से और समस्याओं की पूर्वाग्रह मुक्त विवेचना से ही आ सकती है। वेद में ऐसा कुछ नहीं है जो पुनर्विचार की अपेक्षा न रखता हो। जो ऐसा नहीं कर सकते वे ज्ञान की बंद गली के बादशाह हैं। उनके पास विचार नहीं होता पर विश्वास अडिग होता है। मूर्ख उतना खतरनाक नहीं होता जितना शास्त्रजड़. वह सीखने और सोचने की क्षमता तक खो चुका होता है और मां के गर्भ से पैदा होने के बावजूद अपने को ब्रह्म के मुख से पैदा हुआ मान कर अपने को दूसरों से जन्मना श्रेष्ठ मान सकता है. वे मुस्लिम मुल्लों की आलोचना कर सकते हैं पर यह भूल जाते हैं की वे स्वयं हिन्दू मुल्ला हैं और उनका वश चले तो हिन्दू समाज को वही बना दें जो मुस्लिम समाज को उनके मुल्लों ने बना रखा है.

Post – 2017-06-08

Bhagwan Singh
कल 10:23 अपराह्न बजे · Ghaziabad ·
देवलोक का बुलावा
देवलोक का बुलावा यमलोक का बुलावा नहीं है. मरने के बाद ही देवलोक पहुंचा जा सकता है, देवलोक के देवलोक बनने से हज़ारों साल बाद स्वर्ग की और उससे भी हज़ारों साल बाद यमराज, यमलोक और यमदूत की संकल्पनाओं का जन्म हुआ.चित्रगुप्त की, ब्रह्मा द्वारा टांकी से भालपट्ट पर भाग्यलेख लिखने की कल्पना तो और भी बाद की, लिपि, आरेखन और मुद्राओं आदि पर टंकन के विकास के बाद की है. भौतिक और तकनीकी विकास के अनुरूप ही मनुष्य का बौद्धिक विकास हुआ है और उस विकसित बुद्धि ने नए प्रयोग और भौतिक प्रगति के मार्ग प्रशस्त किए हैं. कहें इनका विकास द्वंद्वात्मक पद्धति से हुआ है.हमारा दसियों हज़ार साल का इतिहास भाषा के माध्यम से ही तैयार किया जा सकता है.

मुंह मत बिचकाइये कि अपनी संस्कृति की चर्चा करते हुए मैंने, वर्ष और संवत्सर के रहते हुए म्लेच्छ भाषा का ‘साल’ क्यों लिख दिया. यह जो सम्वत-सर का सर है न, वही ईरानी प्रभाव में साल बना है, और यह जो म्लेच्छ भाषा का सन है वह चन (जो पानी से उछल कर चन, चान और सन बन गया और एक और तो अंग्रेजी में सूरज का वाचक हो गया और दूसरी ओर काल का जिसे आप त्रिकाल के सनत, सनातन और सनन्दन में मूर्त चिर नवजात, नग्न पर सभी देवों और त्रिदेवों को तुच्छ समझने वाले त्रिविभक्त होकर भी एक कालदेव की बहुत बाद में विकसित अवधारणाओं में देख सकते है) म्लेच्छ भाषा का सन बना है.हज़ार तो सहस्र का तद्भव है ही.(‘मो तों नातो अनेक मानिये जो भावे’ का हिंदी अनुवाद करते हुए इसे इस रूप में पढ़ें ‘अपने उनके नाते अनेक, मानें वह जो सबको भावे’, तो आप को यह मेरी भाषा की सही समझ दे पाएगी). ना इंग्लिश ना फ़ारसी सड़क छाप बकवास. यही आदर्श हमारा, यही अंजाम हमारा!

जिस व्यक्ति ने मुझे देवलोक में, अर्थात कौसानी में आने को आमंत्रित किया था उसका नाम मैं आजतक नहीं जान पाया. वहाँ गया, उससे मिला, पर मिलने वालों में कौन वह था, जिसने मुझे पहली बार, दो महीने पहले, आमंत्रित करते हुए यह प्रस्ताव रखा था कि हम जून में १ से ७ तक कौसानी में एक स्थल पर कुछ बुद्धिजीवियों के साथ एक सप्ताह गुजारने का कार्यक्रम बना रहे है. आप का नंबर बहुत प्रयास से मिला. मैंने इस आवाज को अपरिचित पाकर भी यह न पूछा कि वह व्यक्ति जो मुझे जानता है वह कहीं इस बात से अपमानित न अनुभव करे कि मैं उसे जानता तक नहीं.

मेरे साथ यह ग्रंथि है. मैं उपेक्षा झेल सकता हूँ अपनी उपेक्षा करने वालों की भी उपेक्षा नहीं कर सकता. यदि कोई मेरा अपमान कर बैठे तो उसे झेल लेता हूँ, परन्तु प्रतिशोध में भी उसका अपमान करने की नहीं सोच पाता, अपमानित होने पर उसे जो पीडा होगी उसकी कल्पना से व्यग्र अनुभव करता हूँ. यह असामान्य आचरण है. मैं इसे सही नहीं मानता और इसे समझने में भी विफल रहा हूँ इसलिए आज, पहली बार इसका रहस्य मेरे सामने इस बुलावे के सन्दर्भ में खुला है. मैं इसे आप सबसे साझा करना चाहता हूँ.

मैं उन अपमानजनक स्थितियों से अपने शैशव से लेकर बाल्यकाल तक निरंतर गुजरा हूँ जिनसे मिलती जुलती पर अधिक आहत करने वाली परिस्थितियों से उन्हें गुजरना पड़ा जिन्हे हम अतिदलित कहते हैं. पर शेष शूद्रों की संतानों को भी उन उत्पीड़नों से नहीं गुजरना पड़ता है. कुछ मामलों में अस्पृश्य माने जाने वाले दलितों में भी नही. कारण मेरी पीड़ा और अपमान मातृस्नेह से वंचित और विमाता के प्रतिशोध की ज्वाला से पैदा हुआ था और इसकी सबसे बड़ी विडम्बना यह कि मुझसे बड़े भाई और बहन जो उसके अन्याय पर विद्रोह कर बैठते थे उनसे वह डरने लगी थी. मैं जो इतना छोटा था कि यह मान बैठा था कि मेरी दिवंगत मां ही नाराज हो कर चली गई थी अब वही वापस आई है और उससे मिलते ही पूछ बैठा था, ‘तुम मुझसे नाराज होकर कहाँ चली गई थीं?’ इसे भ्रम या स्मृतिदोष माननेवालों से मै बहस नहीं कर सकता परन्तु मुझे यह भ्रम है कि यह सुनकर वह विचलित हो गई थी. किंचित द्रवित.

परन्तु यही तो इस बात का भी प्रमाण था कि दूसरों की तुलना में मेरी माँ मुझमें अधिक ज़िंदा है और अपने जीवन से अपनी सौत की स्मृति तक को मिटाना उसकी नैसर्गिक ज़रूरत थी. उसे सीधी चुनौती देनेवालों की माँ मर चुकी थी, उनसे वह दूसरे हथियारों से लड़ सकती थी, परन्तु मुझसे वह मुझे मिटा कर निबटना चाहती थी और मैं मिटने से बचने के लिए उसके अन्याय को सहते हुए भी इस भय से कि यदि उसे किसी ने समझाते हुए भी उसके अन्याय की गाथा सुना दी तो वह मेरे प्राण ले लेगी और उसके अपने प्रति व्यवहार से मैं सोचता था कि वह ऐसा कर भी सकती है, वह मेरे साथ क्या व्यवहार करेगी इसकी कल्पना करते ही सोचना बंद कर देता था और आज भी बंद करने जा रहा था कि वे अनुभव याद आ गए .

कई बार सोचता हूँ सवर्णों के अपमान को सहने वाले , आज की भाषा में दलित, अपना अपमान झेल कर भी अपमान करनेवालों का मनसा, वाचा, कर्मणा किसी तरह अपमान करने से बचने वाले क्या विवशता में ही ऐसा करते थे या उसकी पीर को जानने के कारण पूरे जगत को, अपने अपकारी तक को उस वेदना से बचाना चाहते थे, तो सही निर्णय नहीं कर पाता. लगता है पीड़ा ने उन्हें सहज ही साधना की उस ऊंचाई पर पहुंचा दिया था जिसको मानापमानयोः तुल्यं की अवस्था कहा गया है.

Post – 2017-06-07

देवभूमि का सफर

यदि पहाड़ी क्षेत्र को देवभूमि कहा जाता रहा हो तो मैदानी भाग को क्या कहा जा सकता है. यदि आप सोच न पा रहे हों तो आपकी मदद करते हुए कहूं भारत भूमि भाग. अब विष्णु पुराण की उन पंक्तियों को पढ़ें:
गायन्ति देवाः किल गीतिकानि
धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे
स्वर्गपवर्गास्पद मार्गभूते
भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्।। -विष्णुपुराण (2।3।24)

अब आप जानना चाहें कि नारद जी की धरती से देवलोक तक की यात्रा कैसे संपन्न होती थी तो इसका रहस्य आपको मैं बता सकता हूँ क्योंकि मैं कल ही देवभूमि से लौटा हूँ और यदि आप जानना चाहें कि देवलोक के लोग भारत भूमि के लिए क्यों तरसते रहते हैं तो इसका कारण पहाड़ों से उतर कर मैदानी भूभाग में आने वाले देवलोक वासियों में से किसी से पूछ सकते हैं.