रोते लिखता हूं लिखके हंसता हूं
किस गुनह की सजा मिली मुझको !
Month: July 2017
Post – 2017-07-04
कई तरह की हैं आहें तेरी शरारत में
साफ बतला क्या कभी खुल के रो नहीं सकता?
ये हंसी, ऐसे ठहाके, यह मुसलसिल मुस्कान
इतनी पोशीदगी! इंसान ढो नहीं सकता।
Post – 2017-07-04
जिस फर्द को देखूं मैं वही आफताब है।
गर्मी बहुत अधिक है तुम्हारे दयार में।।
Post – 2017-07-03
होनी और करनी का फ़र्क़
“यह बताओ, नटवर लाल से तुम्हारी मुलाक़ात कब हुई थी।“
“बेवकूफों को सभी बातें नहीं बताई जातीं। विषय पर आओ।“
“यार, तुम हर बात को इस तरह उलट देते हो कि तुमसे बात करने पर लगता है, तर्क और प्रमाण का सहारा लेकर भी झूठ को सच सिद्ध किया जा सकता है।“
“इतने जाहिल हो तुम कि यह तक नहीं जानते कि हमारी पूरी न्यायप्रणाली इसी पर टिकी है। जिस दिन लोग सच बोलने लगेंगे अदालतों की और कसमें खाने की और प्रमाण देने, तर्क करने की जरूरत नहीं पड़ेगी । उनका कथन, उनका तेवर स्वयं तर्कातीत प्रमाण में बदल जाएगा।“
“चलो इतनी देर के बाद तुमने माना तो कि तुम जिसे तर्कसंगत और प्रामाणिक और न्यायोचित सिद्ध कर देते हो वह फरेब है।“
“तुम्हे पहली बार जाहिल कहा था तो मज़ा आया था, दुबारा कहते हुए दुःख हो रहा है कि तुमको यह तक याद नहीं कि मैं बहुत पहले अपने को उसका वकील घोषित कर चुका हूँ। जानते हो ऐसा करते हुए मैंने क्या किया?”
“उसने कोई जिज्ञासा न की तो स्वयं बताना पड़ा, “मैंने इस घोषणा के साथ ही अपने को उस किरात में रूपांतरित कर लिया जिसके ऊपर अर्जुन के सारे बाण टकरा कर मात्र गुदगुदी पैदा करते हैं। और यह देखो कि ऐसा करते हुए मैंने तुम्हारे ही हथियारों को तुमसे छीन कर तुम्हे निहत्था कर दिया, क्योंकि पार्टी और पार्टीजन, खूंटे और प्रतिबद्धता का डंका तुम्ही बजाया करते थे. मैंने प्रतिबद्धता की जगह सम्बद्धता का खुला और सम्मानजनक विकल्प चुना। वकील की सम्बद्धता जो तभी तक चल सकती है जब तक मेरा पक्ष मेरी सलाह मानता है।“
“यार लगता है आज फिर वह सवाल नहीं पूछ पाऊँगा जिसे पूछने चला था।“
“पूछो, अब मैं वकील की तरह नहीं एक सच्चे दोस्त की तरह बात करूंगा।“
“यह बताओ यह जो कुछ हो रहा है, वह क्या देश के हित में है?”
“यार, तुमने चीखना और रोना तो पैदा होते ही सीख लिया, इतने मदरसों में जाने के बाद भी बोलना क्यों नहीं सीख पाए, यह बताओगे?”
उसे ऐसे अटपटे जबाब की उम्मीद न थी, जो सवाल बन कर आये । चौंक कर पूछा, “मैंने गलत क्या कह दिया?”
“तुम होना और करना में फ़र्क़ नहीं कर पाए। होने को और होनी को हम रोक नहीँ सकते। बरसात हो रही है, भूस्खलन हो रहे हैं, सूखा पड़ सकता है, हम किसी व्याधि के शिकार हो सकते हैं, यह हमारे हित में या देश हित में हो या नहीं, इसे होना ही है. इसकी शिकायत नहीं की जा सकती। इसलिए तुम्हें कहना चाहिए था, ‘यह जो किया जा रहा है, वह क्या हमारे या देश या मानवता के हित में है। और यहां से सही गलत, अच्छा बुरा का और इसके लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को, और जिन्हें ऐसे लोगों को दंडित करने की जिम्मेदारी दी गई है वे यदि उसके होने पर कुछ न कर रहे हों तो उन्हें , हमें दोष देने का अधिकार है।
“परन्तु जो हो रहा है उसे होने से यदि किसी सीमा तक नियंत्रित किया जा सकता था, तो इसमें शिथिलता बरतने वालों को यदि अपराधी नहीं तो उत्तरदायी तो सिद्ध किया ही जा सकता है ।“
”पर यहां भी होने और करने में फ़र्क़ है. समाज में जो हो रहा है वह समाज की मानसिकता से सम्बंधित है। इसमें धर्म, शिक्षा प्रणाली और साहित्य, कला, संचारमाध्यम और दर्शन की भूमिका है। यदि कुछ अनिष्टकर हो रहा है तो उत्तरदायी इनमें से किसी को, और यदि किसी विचारधारा ने सबको अधिकृत कर रखा हो तो उसे मानना होगा। जो हो रहा है और मानसिक कारणों से नहीं, व्यवस्था की चूक से हो रहा है तो उसके लिए उसे जिम्मेदार मानना होगा।“
“सर्वनाश कर दिया तुमने, अब आगे बात करने का कोई लाभ ही नहीं।“
“लाभ है पर तभी जब तुम यह देखना सीख जाओ की पहले ऐसा होता था तो क्या किया जाता था और भविष्य में ऐसा न हो इसके लिए क्या किया जा रहा है। कल इस पर सोच कर आना।“
Post – 2017-07-03
“यार, मेरे मित्रों ने तो विचारों की उस निजता को खतरनाक मानते हुए कलेक्टिव कांशसनेस की बात का समर्थन किया है. और तुम जिस तरह बौद्धिक स्वायत्तता की बात करते हो उसे फासिज्म का लक्षण बताया है.”
“तुम और तुम्हारे मित्र व्यक्ति रूप में कोई वकत रखते ही नहीं. वे सोचते नहीं. कहीं से जुमले उठा लेते हैं और उससे सहमति जता कर मान लेते हैं कि दिमाग से वे भी कम लेते हैं. वे नारे लगाना जानते हैं. एक अकेले की आवाज दब जाएगी इसलिए मिल कर शोर मचाना.
कलेक्टिव कांशसनेस की बात का मतलब तक नहीं जानते बेचारे. इतिहास तक नहीं. इसे सबसे पहले एक फ्रेंच चिन्तक ने उन्नीसवीं शताब्दी के चौथे पाए में उछाला था. पढो यह चेतना के किस स्तर से सम्बन्ध रखती है: In The Division of Labour, Durkheim argued that in traditional/primitive societies (those based around clan, family or tribal relationships), totemic religion played an important role in uniting members through the creation of a common consciousness (conscience collective in the original French). In societies of this type, the contents of an individual’s consciousness are largely shared in common with all other members of their society, creating a mechanical solidarity through mutual likeness.
“अब तुम समझ सकते हो कि यह नाजियों, फासिस्टो और कम्युनिस्टों को जिन्हें समग्रतावादी या तोतालितारियन कहा जाता है यह क्यों इतना पसंद था और तब यह समझ में आ जायेगा कि क्यों तुम जिन्हें बुद्धजीवी कहते हो वे यंत्र मानवों में बदल गए हैं और एक बटन दबते ही सभी एक्शन में आ जाते है।
Post – 2017-07-02
अपतित आपातकाल
“मैं खुद भी समझना चाहता हूँ, इस रहस्य को की क्यों सभी प्रबुद्ध माने जाने वाले लोग उन दलों, विचारों, से परहेज करते हैं, तुम अगर पाखंडी नहीं हो तो तुम भी कल तक करते थे, जिन पर आज अचानक मेहरबान हो गए हो़?’’
‘‘देखो, कई सवालों के दो या अनेक जवाब हुआ करते हैं, इसलिए कि वे एक लगते हुए भी एक नहीं होते। तुम्हारे प्रश्न में छिपे कुछ विश्वास हैं, जो इस सवाल में एकमेक हो गए हैं। पहला यह कि प्रबुद्ध लोग जानकारी के अनुपात में सही भी होते हैं।
“दूसरा विश्वास कि अधिक या सभी प्रबुद्ध लोग जिसे मानते हैं या मानते आए हैं या कभी मानते रहे हैं उसका सही होना निश्चित है।
“तीसरा विश्वास की जिससे हम असहमत होते हैं, या जिससे परहेज करते हैं वह इतना गलत होता है कि उसमें किसी अच्छाई की कल्पना ही नहीं की जा सकती, इसलिए उससे बचते रहे हैं, बचते रहेंगे और इसका पक्का इंतजाम करने के लिए परहेज को नफरत तक पहुंचा देंगे।
“और अन्तिम विश्वास कि बदली हुई परिस्थितियों में किसी ऐसे की प्रशंसा करना जिसकी आज आलोचना करते आए थे, उसका मूल्यांकन नहीं अपितु उस पर मेहरबानी करने जैसा है। मैं गलत कह रहा हूं?’’
उसने हामी नहीं भरी, पर पहले की तुलना में अधिक एकाग्र हो कर सुनने लगा।
‘‘अब इन सबका जवाब अलग अलग देना होगा। इतिहास इसमें हमारी बहुत मदद करता है। तुम जानते हो एक समय दुनिया का सारा ज्ञान ब्राह्मणों में से कुछ के पास सिमटा हुआ था। वे ही सबसे प्रबुद्ध थे। वे मानते थे, और सभी के सभी मानते थे कि ब्राह्मण परमेश्वर के मुख से पैदा हुआ है। सभी के मानने के बाद भी यह विश्वास गलत था। गलती इसलिए कि उन्होंने अपने इतिहास को नहीं समझा। उन्होंने इतिहास गढ़ा और उस गढ़े हुए इतिहास से इतिहास की समझ को नष्ट किया। निष्कर्ष यह कि इतिहास की समझ का अभाव भी उतनी जड़ता नहीं पैदा करता जितना इतिहास की सही समझ का अभाव। अब तुमको नमूने देखने हों तो इसे ही दूसरे विश्वासों जिन्हें मजहब कहा जाता है उन पर घटित करके समझ सकते हो और ठीक उन्हीं नतीजों पर पहुंच सकते हो। अब तुम्हारे पांडित्य के आतंक और पंडितों के जमघट के आतंक से हम बाहर आकर सोच और समझ सकते हैं।
“लगे हाथ यह भी समझ लें कि ब्राह्मणवाद जिसमें वर्ण व्यवस्था आदि आते हैं विश्वास या मजहब है और सनातनधर्म धर्म है। धर्म के सिद्धान्त सार्वभैम और सार्वकालिक होते हैं जिनको समस्त मानवता ही नहीं समस्त प्राणिजगत पर लागू किया जा सकता है, मजहब विश्वास, अन्धविश्वास, फरेब, उस फरेब को कायम रखने वाले तन्त्र पर टिका होता है।
” आवश्यकता मजहबी दायरों से बाहर आने की है, मार्क्स ने जो कुछ कहा है वह भी केवल उसी पर लागू होता है, धर्म पर नहीं। अपनी सीमाओं के बावजूद वह धर्म की स्थापना करना चाहते थे। यह दूसरी बात है कि उनका धर्म सनातन धर्म की तुलना में कई पंगुताओं से ग्रस्त है। धर्म की साधना के लिए तन्त्र या जाल की आवश्यकता नहीं। उसकी सिद्धि व्यक्ति अकेले भी कर सकता है परन्तु परिस्थतियों के दबाव में यह गिने चुने लोगों के लिए भी संभव नहीं हो पाता। इसमें पाखंड का प्रवेश हो जाता है, साम्यवाद अकेली वह व्यवस्था है जिसमें उन्नत धर्मसाधना संभव है।
“अब हम तुम्हारे प्रश्न में अन्तर्निहित तीसरे विश्वास पर आएं. हमारी पसंद और हमारा चुनाव सापेक्ष्य होता है. एक स्थिति में जिससे बचते हैं दूसरी स्थिति में उसका सहारा लेना पड़ता है. हिंस्र प्राणी तक शांति चाहते हैं पर हिंसा उनकी जैव विवशता है जिसके लिए स्वयं प्रकृति ने उन्हें वैसा बनाया है. कहें हिंसा विश्वव्यवस्था की उतनी ही अनिवार्य अपेक्षा है जितनी प्रेम या सौहार्द. शांति के बिना हम न सुख से जी सकते हैं न जीवित रह सकते हैं, फिर भी युद्ध हमें करना होता है और अन्यायी विश्वव्यवस्था में युद्ध की पूरी तैयारी के बिना शांति की बात करना अपने को गुलामी के लिए तैयार करने जैसा है.
“अब रहा तुम्हारा अंतिम विश्वास जो उस प्रश्न में निहित था उसे लें. कोई भी मूल्यांकन सापेक्ष्य हुआ करता और सारे विश्वास देश-काल और ज्ञान निरपेक्ष हुआ करते है. कितना भी समझाओ समझेंगे नहीं, यदि समझ गए और कायल भी हो गए तो मानेंगे नहीं. जो लोग भाजपा को और नरेंद्र मोदी को कोसते हैं वे भी यह मानते हैं कि मोदी और भाजपा का कोई विकल्प आज की भारतीय राजनीति में नहीं है. यदि हो तो मुझे बताओ.”
इस चुनौती के साथ उसकी ओर मुड़ा तो पाया भाई नींद के मजे ले रहे है. मैंने मुस्कराते हुए कुछ ऊँची आवाज में कहा, “अब जवाब क्यों नहीं देते ?” इसके साथ ही वह हड़बड़ा कर उठा और क्षमायाचना वाले स्वर में बोला, “यार युम्हारी बातें बहुत ध्यान से सुन रहा था पर जानें कैसे आँख लग गई.”
“यदि यह पता नहीं कि नींद कैसे आगई तो कारण मैं बताता हूँ. तुम मेरी बातें सुनते हुए उनका मन ही मन कोई जवाब तलाशने की कोशिश कर रहे थे. जवाब सूझ नहीं रहा था. यह विवशता अपमानबोध का रूप लेकर तुम्हारे मन में मेरी बातों के प्रति विरक्ति पैदा कर रही थी. इसके बावजूद तुम मेरे तर्क को सुनना चाहते थे. उदासीनताजन्य थकान ने नींद का रूप लेकर तुम्हे उसी तरह बचा लिया जैसे असह्य वेदना में लोग बेहोश हो जाते या कॉमा में चले जाते हैं.
“तुम्हारी दशा तो फिर भी ठीक है, मोदी और भाजपा के एकमात्र विकल्प बन जाने के बाद हास्यास्पद बन चुके संगठनों और विचारधाराओं से जुड़े लोग अपना अपमान बोध कम करने के लिए पूरा दिन उनका मजाक बनाने के लिए चुटकुले गढ़ने में लगा देते है. जो लोग विवेचन करने वाले लेख लिखा करते थे वे आजकल चुटकुले लिखने से आगे कुछ सोच ही नहीं पारहे है. मोदी के कारन दलों का सफाया तो समझ में आता है पर बुद्धिजीवियों की बुद्धि का यह सफाया अधिक त्रासद है. सचमुच अपतित आपातकाल.”