Post – 2017-10-04

भूमिका बांधने का मतलब है सीधे विषय पर आने में किसी तरह का संकोच है और भूमिका लंबी होने का मतलब है कथ्य इतना खेदजनक है कि कहने की विवशता भी है और कहने का साहस भी नहीं हो रहा। यह आत्मग्लानि जैसी स्वीकृति है कि अपने पांच बच्चों के भविष्य की चिंता को छोटे बाबा ने मनोव्याधि के स्तर तक पहुंचा दिया था।

नाश्ते के लिए जैसे बंगाली में जोलखोवा प्रचलित है, हमारे यहां पनपिआव चलता था। लोग चना चबेना, गुड़ आदि से पनपिआव करते थे। बाबा च्यवनप्राश लेते थे। छोटे बाबा एक ताखे पर हरड़ रखे रहते, उसमें से एक मुंह में डाल कर पानी पी लेते।

सामान्यतः पुरुष स्त्रियों से बात नहीं करते थे परंतु वह काकी को किफायतसारी का महत्व समझाते रहते। पूरा विश्वास नहीं हो पाता कि उपदेश समझ में आ गया है इसलिए अगले दिन फिर पुनरावृत्ति।

काकी ने इस महामंत्र को अपने ढंग से ग्रहण किया। पांचों भाइयों की संतानें होंगी फिर क्या होगा। उस सुदूर भविष्य की चिंता से कातर होकर उन्होंने समाधान निकाला कि यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी खूराक को कुछ कम कर दे तो आसानी से भावी संकट को कुछ कम किया जा सकता था। पता नहीं इस पक्ष पर उन्होंने छोटे बाबा की सहमति ली थी या नहीं, परन्तु यह उनकी जानकारी में था।

छोटे बाबा अपने बड़े पुत्र रामचंदर पर गर्व करते थे, वह काकी के पति थे, उनके छोटे भाइयों के तर्ज पर हम भी उन्हें बड़े भैया कहते। वह सिपाही की नौकरी पर इलाहाबाद में इतने लंबे समय तक रहे कि उनका वैकल्पिक नाम इलाहाबाद वाले भैया था। उनमें गर्व करने लायक बहुत से गुण थे। वह सुंदर, गौरांग और सुतवां काया के मालिक थे। रोब चेहरे से टपकता था। जब बोलते लोग चुप हो जाते। जब चुप होते थे तो यह सोचने की जरूरत नहीं समझते कि क्या बोल गए हैं। वह हमारे मुहल्ले के ही नहीं, बगल के मुहल्ले को शामिल करने के बाद भी सबसे योग्य व्यक्ति थे। मिडिल स्कूल पास थे या नहीं इस पर संदेह है, पर उर्दू जबान से प्राइमरी स्कूल निश्चित रूप से पास थे।

बाद के तीनों लडके पढ़ने में निखट्टू निकले। उनके ज्ञान भय के चुटकुले खुद छोटे बाबा गढ़ कर सुनाते और उनको अपमानित करते थे। वह समझते रहे होंगे कि इससे ग्लानि पैदा होगी और सुधार आएगा, यह नहीं जानते थे कि इससे पश्तहिम्मती पैदा होगी और उसके परिणाम अधिक भयावह होंगे। यह सच है कि उनमें से कोई प्राइमरी स्कूल पास न कर पाया।

उनकी सारी आशाएं अपनी सबसे छोटी सन्तान, और मुझसे मात्र छह महीने बड़े, जगदीश काका पर टिकी थी, जिन्हें वह मिडिल पास कराने के और पुलिस में अपनी योग्यता के बल पर सिपाही बनने के स्वप्न देखते थे। यूँ भी वह सबसे छोटी संतान थे इसलिए उनको प्रिय तो थे ही। वही छोटे बाबा की आखिरी उम्मीद थे।

जो यह नहीं समझते कि सपने और यथार्थ के बीच क्या संबंध है उनको समझा तो नहीं सकता, पर यह निवेदन कर सकता हूं कि हम इससे बड़ा सपना नहीं देख सकते थे। सपने छोटे ही सही, स्वप्नहीनता से तो अच्छे ही होते हैं। बाबा के पास तो सपने थे ही नहीं, पर एक चीज थी जिसे स्वधा कह सकते हैं। बाबू जी चौथी में थे कि उन्होंने पढ़ाई बंद करा दी थी, अधिक पढ़ लिख कर क्या दूसरों की गुलामी करनी है । पिता जी खेती संभालने लगे थे।

अपनी इन दो संतानों के अतिरिक्त बीच की तीन संतानों को लेकर छोटे बाबा के मन में कहीं अपराधबोध बना हुआ था। उनके साथ कुछ भी किया जाय, वे जीवित रहें या मर जाये इसकी चिंता उन्हें न थी।

इससे काकी द्वारा महामंत्र के अपने भाष्य को अमल में लाने का अवसर मिला। परंतु अवध काका का एक उपयोग था। वह खेती संभाल सकते थे। बाकी दो का कोई उपयोग न था। क्षुधार्तता और कुपोषण के सबसे अधिक शिकार वे ही हुए।

Post – 2017-10-04

मित्रों की टिप्पणियों का मैं तभी जवाब देता हूं जब उनमें कोई आलोचना हो या जिज्ञासा हो। अनुकूल टिप्पणियों से बल तो मिलता है पर धन्यवाद तक नहीं कहता, संकोचवश। पसंद करने वालो की नामावली देखता हूं यह समझने के लिए कि किस रुचि के किन लोगों को यह पसंद आया।

Post – 2017-10-03

शास्त्र यदि जीवन से निकले और उसमें लोच हो तो हमारे जीवन को समृद्ध करता है। यदि उसमें लोच की कमी हो तो उस प्रयोजन के विपरीत चला जाता है जिसकी सिद्धि के लिए उसका निर्माण हुआ था । उसमे मानवीयता का स्थान यांत्रिकता ले लेती है। सर्जनात्मकता का अभाव हो जाता है। यह सौंदर्यशास्त्र से लेकर अर्थशास्त्र, राजनीति सभी पर समान रूप से चरितार्थ होता है। यदि शास्त्र का कठोरता से अनुपालन कराया जाय और जिस तंत्र के माध्यम से अनुपालन कराया जाय, उस पर हमारा पूरा नियंत्रण न हो, तो शास्त्रीयता सर्वनाशी भी हो सकती है।

परंतु शास्त्र की निपट उपेक्षा के परिणाम जहां अनिष्टकारी होते है वहां भी उनके परिणाम उतने डरावने नहीं होते।

हमारी हैसियत सामान्य किसानों से कुछ ही अच्छी थी। कहें। अपने को हम जमींदार मानते थे और जिन्हें हम असामी (प्रजा) कहते थे वे हमें राजा बाबू कह कर संबोधित करते थे। सुनकर अच्छा लगता था। मुझे भी, जिसे अपने ही घर में उन असामियों के बच्चो से भी अपमानजनक जीवन जीना पड़ता था।

कुछ बड़ा हुआ तो लगा ये इतने दबाए गए है कि अतिविनम्र हो गए है, और जब इतिहास की समझ पैदा हुई और उस समझ को पुस्तकीय रूप देने लगा तब यह समझ में आया कि गणराज्यों में, जैसे शाक्यों में, ऐसे किसानो को भी राजा क्यों कहा जाता था, जिनके अपने खेत खलिहान होते थे और जो हल भी चलाते थे। वे बारी बारी से अपना प्रधान चुनते थे।

इसके बाद यह समझ में आया कि भारतीय गणव्यवस्था क्या थी और आगे बढ़े गण भी पिछड़े गणों की मर्यादाओं का कितना सम्मान करते थे। इसका अवशेष सभी जातियों की बिरादरी पंचायतों और उनमें अगले साल के लए चुने जाने वाले पदाधिकारियों और उनके द्वारा लिए गए फैसलों के पूरी बिरादरी के लिए अनुल्लंघनीय होने में बचा रहा है। समझ में आया कि क्यों जो हमें राजा कहते थे उनको, हम तो नही पर, हमारे घरों की महिलाएं राउत (राजा), महरा (महाराज), महतो (महोदय) कहती हैं? क्यों युगों पुराना आगे बढ़ने वालों ने भुला दिया है परन्तु पिछड़े जनों और पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं ने बचा रखा है।

अब इस सिरे से सोचें तो क्या समाज के कुछ जनों का पिछड़ जाना यह सामाजिक दमन का परिणाम है या किन्ही कारणों से पहल और सक्रियता में कमी आने का परिणाम?

एक दूसरा प्रश्न, क्या हम पुस्तको में दर्ज घटनाओं और व्याख्याओं से अपने अतीत को समझ सकते हैं? सामाजिक नृतत्व पर काम बहुत कम और उनके द्वारा हुआ है जो हमें तोड़ने के लिए हमारी कमजोरियों को उजागर करना और अपनी अपव्याख्याओं से विषग्रन्थियां पैदा करना चाहतेथे।

कहां का फोड़ा कहां पिराया? दर्द देखो कहाँ से उट्ठा था। देखिये दर्द यह कहाँ पहुंचा?

मैं कहना चाहता था कि हम अपने को और दूसरे हमको जमींदार मानते तो थे परन्तु अंग्रेजों ने जिस तरह के जमीदार बंगाल और बिहार में पैदा किये और उनसे भी पहले सुल्तानों और मुगलों और नवाबों ने पैदा किए, उनके सामने हमारी हैसियत उनकी रिआया जैसी थी, परन्तु उसकी रिआया भी उसे अपना राजा नहों मानती थी।

हम फिर भी अपनी बात सलीके से नही रख पाए, कहना यह चाहते थे की छोटे बाबा का यह निर्णय कि बाबा की शाहखर्ची आर्थिक दिवालियेपन की ओर ले जा रही है, इससे समय रहते, बचना चाहिए और जिन के मर्यादाओं के कारण भाई अपने छोटे भाइयों का जवाब तक नहीं दे पाता उनको तोड़ना होगा उनसे कूई चूक न हुई पर कैसे अम्ल करना है इसमें उनसे चूक हुई। परंतु यदि भूमिका सुरसा का मुंह बन जाए तो आगे कुछ कहा जा सकता है क्या?

Post – 2017-10-02

बंटवारा

छोटे बाबा के इस प्रस्ताव को समझने में कि ‘ए भइया, तुहरे एक्कै लइका बा आ हमरे पांच बाटें। हम एतना खर्चा नाहीं उठा सकेलीं।‘ मुझे बहुत लम्बा समय लगा. यह वाक्य उन्होंने जब कहा था तब मैं बहुत छोटा था। यह मुझे किससे और कितने बाद सुनने को मिला था, यह याद नही। वह इसे जब तब बाद में भी दुहराया करते थे। पर साझे चूल्हे में तो दूसरे के एक के साथ उनके पांच पलते। लाभ में वही थे, पर गणित इतना सादा नहीं था। सच तो यह है कि उस समय तक उनकी ओर कुल सात प्राणी थे हमारी ओर पांच।

असल कारण यह था कि बाबा जिह्वापराय थे। नित्य आमिषभोजी। वह स्वभाव से दयालु थे। मांसाहार छोड़ना चाहते थे। छोड़ नहीं पाते थे। उनकी दशा याज्ञवल्क्य जैसी थी। याज्ञवल्क्य वस्तुवादी थे, बाबा परलोकवादी. याज्ञवल्क्य ने इस आधार पर गोमांस भक्षण की कठोरतम भाषा में निंदा की थी हमारा अपना जीवन और हमारी अपनी भावी पीढ़ियो का जीवन इन बछड़ों-बैलों पर निर्भर है और जो व्यक्ति इन का भक्षण करता है वह अपनी भावी पीढ़ियों का भक्षण करता है. इतनी कठोर वर्जना के बाद भी वह स्वीकार करते हैं कि मैं अपने को रोक नहीं पाता। उनका सरोकार शुद्ध आर्थिक था, हिंसा-अहिंसा, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक के लिए इसमें स्थान न था।
बाबा की चिंता का कितना संबंध दयालुता से था यह तय कर पाना मेरे लिए आसान नहीं है, क्योंकि मांसाहार के कारण वह नरक जाने से बच नहीं सकते थे इसलिए एक ओर तो मांसाहार छोड़ना चाहता थे पर याज्ञवल्क्य जैसी विवशता थी।

पर वह यह जरूर चाहते थे कि उनके बाद घर में कोई दूसरा मांसाहार न करे। इसके लिए उन्होंने बाबूजी (मेरे पिता) को विष्णु का गुरुमंत्र दिलवाया था और वह आजीवन शाकाहारी रहे। पति शाकाहारी तो अर्धांगिनी आमिषभोजी हो नहीं सकती। बच्चे गुरुमंत्र से पहले कुछ भी खाएं-पिएं उन्हें दोष-पाप नहीं लगता, इसलिए हम बच्चों को कोई रोक न थी। यहां तक कि हम टोंइआ (मिट्टी का वालकों के लिए बना गेड़ुआ, टोइआ का अर्थ है त्रोट या चोंच वाला पात्र। इसका इतिहास बलि-बामन की कथी तक जाता है इसलिए इसे अरब या इस्लाम सा ल जोड़ें ) ताड़ी भी पी सकते थे। दूसरी ओर नरक से बचने के लिए उनको अजामिल की तरह मरने के समय रामनाम का सहारा था, इसलिए उन्होंने बाबूजी का नाम रामधारी, भैया का विष्णुदेव, मेरा भगवान, मुझसे छोटे भाई का रामकृष्ण रखा था। लड़कियों मे से भी किसी की याद अन्तकाल में आ सकती थी, यह कल्पनातीत था, इसलिए उनका नामकरण करते समय इसका ध्यान नहीं रखा गया था।

लेकिन इस पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता था। पता नहीं अंतिम क्षणों में होश में रहें भी या न रहें। बाबा रामचंद्रदास या राघवदास किसानों के बीच कितने समादृत थे इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। मेरे गांव भी उनका आना जाना होता था। बाबा ने उनके सामने अपनी समस्या रखी, “बाबा, मैं लाख कोशिश करके हार गया। जीभ मानती ही नहीं। कोई ऐसा उपाय बताइए कि मेरी मांसाहार की आदत छूट जाय।“

परभंस (परमहंस, राघोदास) महराज के पास तो हर समस्या का समाधान था। बोले, “मन करता है तो मन को क्यों मारिएगा। खाइए। जीभ के कारण यह होता है न, उसे सजा दीजिए। राम राम कहा कीजिए।“

यह हुआ सही उपाय। सांप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे।

बाबा खाली समय में अनवरत राम राम जपते रहते। बाबा बहुत अच्छे सूपकार (पाकशास्त्री) थे। परंतु आमिष भोजन वह स्वयं पकाते। इसका प्रधान कारण यह कि जो शाकाहारी है उसको मांस पकाने को न तो कहा जा सकता है, न उसका पकाया खाया जा सकता है। ईंधन कोयला, गैस या बिजली का था नहीं कि रख कर रसोई से हिला जा सके। ईंधन को लगातार चूल्हे में सरकाते रहने के लिए रसोइए को वहीं जमे रहना पड़ता था। एक ओर कलिया पक रहा है। उसका आमिष गंध वातावरण फैल रहा है और दूसरी ओर उसी के बीच राम राम का मन्दनादी पाठ चल रहा है और दोनों के योग से जो स्वाद पैदा होता था वैसा तीस चालीस साल के बाद एक बार मिला तो याद आया यह तो वही स्वाद है जो बाबा के पाक में हुआ करता था।

मुझे दो बातों को लेकर हैरानी हुई। कोई और भी हो सकता था जो उतना सुस्वाद भोजन बना सके। अधिक विस्मय इस बात को लेकर कि हमारे सवाद के स्मृति-संकेत इतने स्पष्ट रूप में मस्तिष्क में कैसे सुरक्षित रह सकते हैं।

बाबा की नरकवास की चिंता राम नाम के जाप या लोगों का ईशपरक नाम रखने से भी दूर नहीं हो रही थी। एकमात्र अचूक उपाय था काशी में प्राणत्याग, पर वह फिर कभी।

छोटे बाबा का मांसाहार के प्रति दृष्टिकोण याज्ञवल्क्य की तरह शुद्ध अर्थशास्त्रीय था, परन्तु उनमें कुछ मामलों में असाधारण आत्मनियन्त्रण था। वह दूर की सोचते थे और उन्हे अपनी दूरदर्शिता पर अटूट विश्वास था और उनकी जितनी भी भविष्यवाणियां होती थों उनमें से मैने किसी को गलत होते नहीं पाया।

उन्होंने यह समझ लिया था कि तबतक की पारिवारिक एकता केवल सद्भावना पर नहीं टिकी थी, बल्कि इस कठोर सचाई पर टिकी थी कि वंशपरंपरा एकल थी। पहली बार उनके पांच पुत्र हुए थे जब कि बाबा के एक बाबू जी। जब भी बंटवारे की नौबत आएगी, बाबूजी को आधा मिलेगा और उनकी संतानों को आधे का पांचवां, अर्थात् दसवां हिस्सा मिलेगा। तब क्या उनके बच्चों को वही जीवन स्तर मिलेगा जिसके वे आदी हो चुके रहेंगे।

यही वह बिंदु है जिस पर उन्होने कहें-या-न-कहें के संशय पर विजय पाकर तर्कसहित विभाजन का प्रस्ताव रखा था।

Post – 2017-10-01

यदि आप मेरी पोस्ट से परिचित हैं तो भी जरूरी नहीं कि मेरे उस मित्र से भी परिचित हों जिससे मेरी दोस्ती इस बात पर टिकी है कि वह मुझे मूर्ख समझता है और मैं उसकी मूर्खता उजागर करता रहता हूं। जिस दिन किसी को दूसरे की समझदारी पर विश्वास हो गया, दोस्ती टूट जाएगी। उसने मेरे वाल पर एक कविता पोस्ट टैग की । उसका अंग्रेजी अनुवाद अपेक्षित था, हम हिंदी इरादानुवाद देने का प्रयत्न कर रहे हैः

ग़ारती
क्षय क्षय क्षय क्षय
ग़ारत माता!
क्षय जग ठगनी
क्षय डकारिणि
शत्रु दारिणि मां!
संकट आता, संकट जाता
संकट बन कर क्रांति विधाता
तुझको झुक कर शीश नवाता
फिर भी धिक धिक बकता निशि -दिन
तुझको ग़ारत करता जाता
गारत-गारत
गाता-गाता
गारत माता गारत माता।
और हमें कुच्छौ नहिं आता॥
क्षय क्षय क्षय क्षय
गारत माता!