भूमिका बांधने का मतलब है सीधे विषय पर आने में किसी तरह का संकोच है और भूमिका लंबी होने का मतलब है कथ्य इतना खेदजनक है कि कहने की विवशता भी है और कहने का साहस भी नहीं हो रहा। यह आत्मग्लानि जैसी स्वीकृति है कि अपने पांच बच्चों के भविष्य की चिंता को छोटे बाबा ने मनोव्याधि के स्तर तक पहुंचा दिया था।
नाश्ते के लिए जैसे बंगाली में जोलखोवा प्रचलित है, हमारे यहां पनपिआव चलता था। लोग चना चबेना, गुड़ आदि से पनपिआव करते थे। बाबा च्यवनप्राश लेते थे। छोटे बाबा एक ताखे पर हरड़ रखे रहते, उसमें से एक मुंह में डाल कर पानी पी लेते।
सामान्यतः पुरुष स्त्रियों से बात नहीं करते थे परंतु वह काकी को किफायतसारी का महत्व समझाते रहते। पूरा विश्वास नहीं हो पाता कि उपदेश समझ में आ गया है इसलिए अगले दिन फिर पुनरावृत्ति।
काकी ने इस महामंत्र को अपने ढंग से ग्रहण किया। पांचों भाइयों की संतानें होंगी फिर क्या होगा। उस सुदूर भविष्य की चिंता से कातर होकर उन्होंने समाधान निकाला कि यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी खूराक को कुछ कम कर दे तो आसानी से भावी संकट को कुछ कम किया जा सकता था। पता नहीं इस पक्ष पर उन्होंने छोटे बाबा की सहमति ली थी या नहीं, परन्तु यह उनकी जानकारी में था।
छोटे बाबा अपने बड़े पुत्र रामचंदर पर गर्व करते थे, वह काकी के पति थे, उनके छोटे भाइयों के तर्ज पर हम भी उन्हें बड़े भैया कहते। वह सिपाही की नौकरी पर इलाहाबाद में इतने लंबे समय तक रहे कि उनका वैकल्पिक नाम इलाहाबाद वाले भैया था। उनमें गर्व करने लायक बहुत से गुण थे। वह सुंदर, गौरांग और सुतवां काया के मालिक थे। रोब चेहरे से टपकता था। जब बोलते लोग चुप हो जाते। जब चुप होते थे तो यह सोचने की जरूरत नहीं समझते कि क्या बोल गए हैं। वह हमारे मुहल्ले के ही नहीं, बगल के मुहल्ले को शामिल करने के बाद भी सबसे योग्य व्यक्ति थे। मिडिल स्कूल पास थे या नहीं इस पर संदेह है, पर उर्दू जबान से प्राइमरी स्कूल निश्चित रूप से पास थे।
बाद के तीनों लडके पढ़ने में निखट्टू निकले। उनके ज्ञान भय के चुटकुले खुद छोटे बाबा गढ़ कर सुनाते और उनको अपमानित करते थे। वह समझते रहे होंगे कि इससे ग्लानि पैदा होगी और सुधार आएगा, यह नहीं जानते थे कि इससे पश्तहिम्मती पैदा होगी और उसके परिणाम अधिक भयावह होंगे। यह सच है कि उनमें से कोई प्राइमरी स्कूल पास न कर पाया।
उनकी सारी आशाएं अपनी सबसे छोटी सन्तान, और मुझसे मात्र छह महीने बड़े, जगदीश काका पर टिकी थी, जिन्हें वह मिडिल पास कराने के और पुलिस में अपनी योग्यता के बल पर सिपाही बनने के स्वप्न देखते थे। यूँ भी वह सबसे छोटी संतान थे इसलिए उनको प्रिय तो थे ही। वही छोटे बाबा की आखिरी उम्मीद थे।
जो यह नहीं समझते कि सपने और यथार्थ के बीच क्या संबंध है उनको समझा तो नहीं सकता, पर यह निवेदन कर सकता हूं कि हम इससे बड़ा सपना नहीं देख सकते थे। सपने छोटे ही सही, स्वप्नहीनता से तो अच्छे ही होते हैं। बाबा के पास तो सपने थे ही नहीं, पर एक चीज थी जिसे स्वधा कह सकते हैं। बाबू जी चौथी में थे कि उन्होंने पढ़ाई बंद करा दी थी, अधिक पढ़ लिख कर क्या दूसरों की गुलामी करनी है । पिता जी खेती संभालने लगे थे।
अपनी इन दो संतानों के अतिरिक्त बीच की तीन संतानों को लेकर छोटे बाबा के मन में कहीं अपराधबोध बना हुआ था। उनके साथ कुछ भी किया जाय, वे जीवित रहें या मर जाये इसकी चिंता उन्हें न थी।
इससे काकी द्वारा महामंत्र के अपने भाष्य को अमल में लाने का अवसर मिला। परंतु अवध काका का एक उपयोग था। वह खेती संभाल सकते थे। बाकी दो का कोई उपयोग न था। क्षुधार्तता और कुपोषण के सबसे अधिक शिकार वे ही हुए।