Post – 2017-12-24

जाली भाषा, जाली भाषाशास्त्र, जाली इतिहास (२)

संस्कृत जाली भाषा, इसे धूर्त ब्राहमणों ने सिकंदर के हमले के बाद ग्रीक के नमूने पर गढ़ा, यह विचार अपने समय के असाधारण प्रतिभासंपन्न व्यक्ति का था। इनका नाम था डूगल्ड स्टीवर्ट (Dugald Stewart) ्था, जो विदग्ध वक्ता और कुशल अध्यापक थे। अध्यापक के रूप में उनकी ख्याति ऐसी थी कि दूर दूर से छात्र उनसे पढ़ने आते थे। उन्होंने उनके विचारों का विस्तार भी किया। उनकी मृत्यु १८२८ में हुई। उनके शिष्यों में एक जेम्स स्टुअर्ट मिल भी थे। उनकी जिस पुस्तक Philosophy of the Human Mind में ये विचार काफी सोच विचार के बाद प्रकट किए गए, वह उनकी अन्तिम न भी सही, बाद की कृतियों में आती है। इसमें उन्होंने भाषापूर्व, भाषेतर संकेत प्रणालियों का मार्मिक विवेचन किया है। अपनी पुस्तक हिस्ट्री आफ ब्रिटिश इंडिया (१८१७) में मिल ने इनका हवाला तो एक दो बार दिया है पर उनकी इस पुस्तक में कहीं मिल का नाम दिखाई नहीं दिया, जब कि अनुमानत: यह पुस्तक मिल के इतिहास के बाद लिखी गई जब उनका स्वास्थ्य कुछ गिरने लगा था। पुस्तक भले देर से लिखी गई हो इस समस्या ने उनको लंबे समय से बेचैन कर रखा था, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है। ग्रीक की नकल पर संस्कृत गढ़ी जाने की बात भी एक व्यग्र प्रक्रिया की देन है, जिसमें संस्कृत की पूर्णता को ही कृत्रिमता का प्रमाण बनाया गया:
Colonel Dow, in his “Dissertation concerning the Custom, Manners, Language, Religion and Philosophy of the Hidnoos” is the first Englishman who has expressed this opinion with confidence. “Whether the Shanscrita”, He observes, “was in any period of antiquity the vulgar language of Hidostan, or was invented by the Brahmans to be mysterious repository for their religion and philosophy, is difficult to determine. …In regularity of etymology and grammatical order, it far exceeds the Arabic. It, in short, bears evident marks that it has been fixed on rational principles, by a body od learned men, who studied regularity, harmony, and a wonderful simplicity and enrgy of expression.
“Though the Shanscrita is amazingly copious, a very small grammar and vocabulary serve to illustrate the principle of the whole.

इसी विचार को मीरिनर ने कुछ ग्रीक शब्दों के संस्कृत में अपनाए जाने को आधार बना कर प्रकट किया था, जिसे पहले तो स्टीवर्ट ने अपर्याप्त पाया था, पर अब:
If these facts be duly weighed, the conjecture of Meiriners will not perhaps appear extravagant, that it was in consequence of this intercourse between Greece and India, arising from Alexander’s conquest, that the Brahmins were led to invent their sacred langauge.* “For unless” he observes, “they had chosen to adopt at once a foreign tongue” against which obvious and insurmountable objections must have presented themselves, “it was necessary for them to invent a new language, by means of which they might express their newly acquired ideas, and, at the same time, conceal from other Indian castes their philosophical doctrines, when they were commonly at variance with commonly received opinions.”

मीरिनर ने इस आविष्कार को एक दु:साध्य प्रयास माना था, पर स्टीवर्ट ऐसा नहीं मानते:
I cannot, however, agree with Meiners, in thinking that this task would be so arduous as to require the labour of many successive generations, for with Greek language before them as a model, and their own language as the principal raw material, where would be the difficulty of manufacturing a different idiom, borrowing from the Greek the same, or nearly the same system in inflexions of the nouns and conjugation of the verbs, and thus distinguishing, by new terminations and a new syntax, their native dialect?

पर यहां एक नई मुश्किल पेश आ गई। लातिन ग्रीक से पुरानी है संस्कृत उससे अधिक निकटता रखती हैः
The most formidable objection, however, is suggested by this consideration that Sanscrit is represented by some as bearing much more resemblance to the Latin than the Greek. Mr. Halhed words are these, “Let me here cursorily observe that as the Latin is an earlier dialect than the Greek, as we now have it, so it bears greater resemblance to the Sanscrit , both in words, inflections and terminations.”(Grammar of the Bengali Language).

ठीक यही विचार जोंस का भी था।
“I began with translating it verbally into Latin, which bears so great resemblance to the Sanscit, that it is more convenient than any other language for a scrupulous literary version. I then turned it into English.”

ऐसी स्थिति में कोलब्रुक का भी दृढ़ मत था कि ये सभी भाषाएं किसी पुरातन भाषा से पैदा हुई थीं
Mr Colebrooke is equally decisive, and still precise in his statement: “The Sanscrit evidently draws its origin from a primeval tongue, which was gradually refined in various climates, and became Sanscrit in India, Pahlavi in Persia, and Greek on the shores of Mediterranean …It is now become almost a dead language; but there seems no reason for doubting that it was once universally spoken in India.” (On the Sanscrit and Prakrit languages, Asiatic Researches , VII, 201

स्टीवर्ट को यह भी पता था कि किसी के संपर्क में आ जाने मात्र से भाषा नहीं बदलतीः
It is by means of the most overwhelming and unsparing foreign conquests that languages have been generally changed and destroyed; and no causes of this sort have operated in the countries where Sanscrit is alleged to have once prevailed. ….89

पर वह अपनी सोच बदलने की जगह लातिन से साम्य का हल भी निकाल लाते हैः
The long commercial intercourse of Romans with India, both by sea and land, accounts for any affinity which may subsist between Sanscrit and Latin.
और अपनी मान्यता पर दृढ़ रहते हैः
…Sanscrit was a language, formed by the Brahmins, and always confined to their order; and that the Greek tongue not only served as a model for its syntax, and system of inflections, but supplied materials of its vocabulary, on abstract and scientific subjects….90

It is sufficient for my argument, if it be granted, that a learned, artful, and aspiring, priesthood existed (at least in embryo), at the time of Alexander’s conquest.

मैंने प्रथम दृष्टि में मूर्खतापूर्ण प्रतीत होने वाली इस अटकलबाजी पर जिसको या तो दरकिनार कर दिया जाता है या जिसका मजाक उड़ाया जाता है, इतने शब्द क्यों खर्च कर दिए? आप का मनोरंजन करने के लिए तो कदापि नहीं। किया यह बताने के लिए कि:
१. स्टीवर्ट संस्कृत भले न जानते रहे हों, वह भाषा की प्रकृति, विकास के नियमों और पारस्परिक प्रभाव, नई भाषा की निर्मिति, संपर्क भाषा की सीमाओं के विषय में अपने समय के किसी भी विचारक से अधिक गहराई से जानते थे और सिद्धांततः मैं उन्हें आज भी सही मानता हूँ।

२. उन्होंने इससे पहले की चर्चा में एक आदि भाषा से सहोदरा भाषाओँ की उत्पत्ति के विषय में जो तर्क दिए गए थे उन पर विचार करते हुए यह पाया था कि यह असंभव है।

३. वह इस नतीजे पर पहुंचे थे कि भाषा एक ही थी, वह संस्कृत रही हो या ग्रीक। उसी का प्रसार हुआ था। संस्कृत भाषियों के ग्रीस पहुंचने का कोई प्रमाण तब तक उपलब्ध न था, भारत पर सिकंदर के हमले के प्रमाण थे इस लिए खींच तान कर इसी का सहारा रह जाता था।

४. पूर्वाग्रह हों या दुराग्रह उनको भी अपने को मान्य बनाने के लिए तथ्यों का सहारा लेना पड़ता है परन्तु इनकी प्रस्तुति नहीं की जाती, इनका चयन किया जाता है। इसमें उपलब्ध आंकड़ों में से अपने मतलब के आधे अधूरे आंकड़ों को पेश कर के मनचाहे नतीजे निकाले जाते है इसलिए इसे अर्धसत्य कहा जाता है।

५. यह बहस ऐसे समय पर हो रही थी जब हडप्पा सभ्यता का पता नही था। जब यह पता न था कि ईसा से कम से कम २००० साल पहले से लेकर ८०० तक के लम्बे काल में आर्य भाषा भाषियों या उनकी संतानों का वर्चस्व तुर्की में बना रहा था और जिसके सीधे संपर्क में ग्रीस और रोम दोनों के निवासी थे। होमर ने जिस ग्रीक में अपनी महागाथा रची वह तो त्तुर्की की भाषा थी ।

अब स्टीवर्ट के उस कथन पर दुबारा सोचें जिसमे उसने कहा था It is by means of the most overwhelming and unsparing foreign conquests that languages have been generally changed and destroyed; and no causes of this sort have operated in the countries where Sanscrit is alleged to have once prevailed. ….
आप पायेंगे कि जिनका मजाक उड़ा कर बाहर कर दिया गया उनकी आपत्तियों पर ध्यान दिया गया होता तो तुलनात्मक भाषाविज्ञान स्वयं उपहास का विषय न बना होता।

Post – 2017-12-23

जाली भाषा, जाली इतिहास, जाली भाषाशास्त्र

हमें मार्क्सवादी इतिहासकारों से यह शिकायत नहीं है कि इतिहास को समझने में गलती की। गलती तो वर्तमान परिघटनाओं को समझने में भी सभी से होती है इसलिए हमारी स्वतंत्रता में गलती करने की स्वतंत्रता भी आती है जिससे गुलाम वंचित कर दिए जाते हैं। शिकायत यह है कि उन्होंने मार्क्सवादी इतिहास न लिखकर अप्रामाणिक, भाववादी, हिन्दूद्रोही और सांप्रदायिक इतिहास लिखा और सांप्रदायिकता को कुपरिभाषित करते हुए बताया कि अल्पसंख्यक की सांप्रदायिकता सांप्रदायिकता नहीं होती, सेकुलरिज्म होती है और इस तरह एक ओर मुस्लिम अपतोषवाद (जिसमें कट्टरपंथियों की पश्चगामी मांगें मानते हुए समाज को पीछे ले जाये जाता है) को बढ़वा दिया गया, दूसरी ओर मृतप्राय हिंदू संप्रदायवाद को संजीवनी प्रदान की गई।

परन्तु हम उस जालसाजी की बात करना चाहते थे जिससे यूरोपीय विद्वानों ने एक नया पुराण अपने घाव भरने के लिए गढ़ कर तैयार किया, हमें इतिहास के नाम पढ़ाते रहे और जिसे हमारे वे अध्येता भी सही मानते रहे जिन्हें तथाकथित मार्क्सवादी राष्ट्रवादी कह कर खारिज करते रहे, जब कि यह खेल इतना खुला हुआ था कि तथ्यों को बिना किसी व्याख्या के तरतीब से रख दिया जाय तो सचाई उजागर हो जाय। मैं अपनी ज्ञानसीमा में वही करना चाहता हूं।

जोंस ने तो अपने प्रस्ताव में ब्राह्मणों के ईरान से भारत चले आने, तातारों के अपने क्षेत्र में और यूनानियों के ग्रीस पहुंचने की बात की थी। उसमें किसी आक्रमण की कल्पना न थी, न ही जैफेट की संतानों के अतिरिक्त किसी अन्य के द्वारा आबाद मान सकते थे। इसलिए भारत का जो पुराना भूगोल उनकी कल्पना में था उस में बृहत्तर भारत से भी अधिक कुछ आता था
India then, on its most enlarged scale, in which the ancients appear to have understood it, comprises an area of near forty degrees on each side including a space almost as large as all Europe; being divided on the west from Persiaa by the Arachosian mountains, limited on the east by the Chinese part of the Peninsula, confined on the north by the wild Tartary, and extending to the south as far as the isles of Java. This trapezium, therefore , comprehends the stupendous hills of Potyid or Tibet, the beautiful valley of Kashmir, all the domains of Indoscythians, the countires of Nepal and Bhtan, Camrup or Asam, together with Siam, Ava, Racan, and the bordering kingdoms, as far as China of the Hindus or Sin of the Arabian geogrphers; not to mention the whole western peninsula with the celebrated Sinhala, or lion-like men, at the southern extremity. By India in short, I mean the whole extent of country, in which the primitive languages of the Hindus prevail at this day with more or less of their ancient purity, and in which the Nagari letters are still used with more or less deviation from their original form.

परन्तु यह स्पष्ट होने पर कि संस्कृत कभी ईरान की भाषा नहीं रही हो सकती, कोलब्रुक ने यह कयास लगाया कि वह लुप्त भाषा जिससे संस्कृत, ईरानी, ग्रीक आदि की उत्पत्ति हुई भारत से लेकर उस समूचे भूभाग में बोली जाती थी, और कालान्तर में उसी का रूपान्तर होने से ये भाषाएं अस्तित्व में आईं:
The Sanscrit evidently draws its origin from a primeval tongue, which was gradually refined in various climates, and became Sanscrit in India, Pahlavi in Persia, and Greek on the shores of Mediterranean …It is now become almost a dead language; but there seems no reason for doubting that it was once universally spoken in India.” (On the Sanscrit and Prakrit languages, Asiatic Researches , VII, 201).

पर यह सुझाव भी किसी को जंच नहीं रहा था। कारण संस्कृत की समृद्धि का यह हाल कि ग्रीक, लातिन आदि में जहां आपस में भिन्नता पाई जाती थी वहां भी संस्कृत में उन दोनें के समरूप मिल जाते थे। उनमें से प्रत्येक का सीधा संबंध संस्कृत से दिखाई देता था। एक बात और, अभी तक आर्य नाम की किसी जमात की बात किसी को नहीं सूझी थी।

अब तक के सुझावों में काम का सूत्र एक ही निकला था कि संस्कृत को भारत से बाहर किसी भी जगह की भाषा सिद्ध किया जाय पर भारत की नहीं। यह सिद्ध किया जाय कि वे कहीं अन्यत्र से भारत में आए थे। कहां से, यह बाद में तय होता रहेगा। उसे x. मान लें। इसके बिना जातीय अपमान से बचा नहीं जा सकता था इसलिए किसी ने इस पर सोच विचार की जरूरत न समझी।

आए कैसे होंगे, इस पर विचार करना था। एक तरीका था हमला किया और जीत लिया । पर अभी तक यह केवल ब्राहमणों का हमला था। प्रमाण कोई नहीं, सब कुछ अंटकलबाजी या कहें शतरंज का बाजी की तरह चल रहा है। गोट इस तरह आगे बढ़नी है कि हार का मुंह न देखना पड़े। ब्राहमणों के आक्रमण और विजय की बात गले उतर नहीं रही थी:
“It is improbable hypothesis, that the Bramins entered India as conquerors, bringing with them their language, religion and civil institutions. “ Bantley

अब क्या किया जाय ? अब दर्शन वर्सन के बोझ को हटा कर एक ऐसे जत्थे की जरूरत पड़ी जो दुर्दान्त हो, क्रूर हो, असभ्य हो और अब ऋवेद से उछल कर वह बाहर आ गया, वीर। यह समाज अपने को वीर कहता था इसलिए मूलत: वीरा: (viros) रहा होगा। पर ज्ञान मुसीबतें पैदा करता है, जानकारी कुछ और बढ़ी तो पता चला ऋग्वेद में वीर का अर्थ पुत्र, प्रजा और नौकर-चाकर (सहायक) है।

अब नई संज्ञा की तलाश हुई और आर्य हाथ लग गया । मुसीबत यहां भी, आर्य का अर्थ तो सभ्य, श्रेष्ठ, आदि होता है। विचलन तो हुई पर दबाव आया, भारत पर हमला कराना है या नहीं? यदि कराना है तो वीरों के जिन दुर्गुणों को गुण बता कर उन्हे भारत विजेता बनाना चाहा था उन्हें आर्यों पर लाद दो। सभ्यता स्थगित रह सकती है, पर आक्रमण नहीं। और इस तरह शुरू हुआ आर्य आक्रमण का गल्प। ब्राह्मण ? नहीं। वीर? नहीं। आर्य? नहीं। कोई और चारा नहीं, इसलिए चलाना तो इसी को होगा। इस तरह पैदा हुआ आर्य आक्रमण का ‘सिद्धान्त’।

पर अपनी जल्दबाजी में हम बहक कर उस काल रेखा को लांघ गए जिसमें संस्कृत के वर्चस्व से निबटने के तरीके तलाश किए जा रहे थे। एक उपाय था संस्कृत की श्रेष्ठता को कम करना, दूसरा संस्कृत को जड़ मूल से उखाड़ फेंकना। पहला प्रयत्न जारी रहा और इसे तुलनात्मक भाषाविज्ञान कहते हैं और दूसरा हास्यास्पद बताया जाता रहा पर वह तुलनात्मक भाषाविज्ञान के उन्नायकों से अधिक तार्किक और वस्तुवादी लगते है। ऐसे लोगों पर आज बात करना शायद उचित न हो। हां यह बताया जा सकता है कि इसके शीर्ष पुरुष का नाम डूग्लस स्टीवर्ड है और उसके प्रति मेरे मन में उसका उपहास करने वालों से अधिक सम्मान है।वह गलत था, हास्यास्पद न था। उसकी तुलना में तुलनातमक भाषाविज्ञान के उन्नायक अधिक हास्यास्पद सिद्ध होते हैं, पर हम आज उसकी बात करें तो भी वह समझ में नहीं आएगा। इसे कल पर छोड़ते हैं

Post – 2017-12-22

क्या हुआ, भगवान भी भगवान से डरने लगा।
अपने साये से भी हमको बच कर चलना चाहिए।।

Post – 2017-12-22

रहजनों को अपना रहबर मान कर अच्छा किया।
लुट गए पर अब लुटेरों का न डर बाकी रहा ।।

Post – 2017-12-22

जाली भाषा, जाली इतिहास, जाली भाषाशास्त्र (भूमिका)

मैं इस लेखमाला से न आपको भाषाविज्ञान समझा रहा हूं न भारतीय अतीत की महिमा बखान रहा हूं। वाजिद अली शाह की तांगा चलाने वाली औलादों को यह याद करने से कि उनके पुरखे नवाब थे, कुछ हासिल नहीं हो सकता। मैं यह समझने का प्रयत्न कर रहा हूं कि क्यों और किस तरह हमारे भीतर बौद्धिक खोखलापन और परावलंबन पैदा किया गया और उससे बाहर निकलने का उपाय क्या है।

संस्कृत के यूरोप की भाषाओं के संबंध का पता चलने पर यूरोप में जो आत्मग्लानि पैदा हुई थी उसका उल्लेख हम कर आए हैं। इससे उबारने के प्रयत्न में विलिंयम जोन्स ने इसका मूल क्षेत्र लंबी पैंतरेबाजी के बाद भारत से हटाकर ईरान में कर दिया था।

फारसी से परिचित कोई इसे मान नहीं सकता था। स्वयं जोंस के गले भी यह नहीं उतर पाता था। उन्होंने स्वयं माना था कि संस्कृत से फारसी का संबंध ठीक वही है जो प्राकृतों का संस्कृत से। अवेस्ता के विषय में भी यही सच था। सभी को पता था कि यूरोप की भाषाओं का सीधा संबंध ईरान की किसी भाषा से नहीं केवल संस्कृत से है (सं. सप्त- अवे. फा. हफ्त ला. सेप्त)।

उन्होंने सचाई जानते हुए, लाज बचाने के लिए एक कूटनीतिक हल निकाला था। इससे बस एक सूत्र हाथ लगा कि मूलभूमि को कहीं अन्यत्र खिसका कर लाज बचाई जा सकती है, पर कहां यह समझ में नहीं आ रहा था, इसलिए चेतना में भारत, पर कामना में भारत छोड़ कोई भी दूसरा क्षेत्र सर्वमान्य था।

अपने अर्धसत्य को स्वीकार्य बनाने के लिए उन्होंने मान लिया कि संस्कृत लातिन के अधिक समृद्ध, ग्रीक से अधिक निखोट और इनमें से किसी से भी अधिक सुपरिष्कृत है और साथ ही यह भी मान लिया कि हिन्दू कभी सभ्यता के शिखर पर थे। यह जले पर नमक छिड़कने जैसा था। अभी तक केवल भाषा की समानता ही परेशान कर रही थी, अब उसकी ग्रीक और लातिन से सभी दृष्टियों से श्रेष्ठता की ही नहीं यह स्वाकारोक्ति भी यूरोप को ज्ञान, विज्ञान और दर्शन भी पूर्व से मिला था,
“We may therefore hold this position firmly established , that Iran, or Persia in its largest sense, was the true centre of population, of knowledge, of languages and of arts; which instead of travelling westward only, as it has been fancifully supposed, or eastward, as might with equal reason have been asserted, were expanded in all directions to all regions of the world in which the Hindu race had settled under various denominations.”
सरासर छाती पर मूंग दलने जैसा था। यह कैसे सहन किया जा सकता था।

इसी का जवाब था मिल का यह फतवा कि भाषा से लेकर ज्ञान तक, सब कुछ पश्चिम से गया है, और जो यूरोप के जितने करीब है वह अपने से पूरब की सभ्यता से उतना ही आगे है।

यह नितान्त बचकाना, यान्त्रिक और सर्वविदित तथ्यों के विपरीत प्रस्ताव था जिसे मूर्खतापूर्ण कहना गलत न होगा। सच कहें तो मैक्समुलर ने एक अन्य प्रसंग मे मिल के विचार को स्टुपिड कहा भी है। इसलिए इसे किसी दूसरे इतिहासकार ने नहीं माना फिर भी यह भारत के ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकारों का माडल बना रहा।

इसके बाद भारतीय ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकारों पर कुछ कहने को नहीं रह जाता, पर भारतीय बुद्धिजीवियों के विषय यह कहना फिर भी बच जाता है कि इनकी चेतना का निर्माण उसी इतिहास से हुआ जिसे विविध तिकड़मों और प्रलोभनों से एक शक्तिशाली गैंग के ऱूप में विकसित किया गया, जो गैंग के रूप में सोचता और काम करता है, पर यह नहीं समझ पाता कि अपना काम छोड़कर, राजनीति के अखाड़े में उतर कर जिन शक्तियों और प्रवृत्तियों का घृणा के स्तर पर उतर कर विरोध करता है, वह उसी मूर्खतापूर्ण इतिहास की उपज है। यह नहीं समझ पाता कि गलत इतिहास की प्रतिक्रिया में सही इतिहास नहीं डरावना वर्तमान और डरावना इतिहास पैदा होता है जिसमें तलवार तनी दिखाई देती है और विचार अदृश्य हो जाता है और कलह के लिए खुला मैदान मिलता है और शांति से बैठने के लिए कोना तक नहीं मिलता।

भूमिका इतनी फैल गई कि विषय पर आ ही न सका। तबीयत ठीक रही तो कल।

Post – 2017-12-21

उनकी आहों पर उनके आंसुओं पर तू मत जा
जब जिबह करते है तो कोई फलसफा गढ़ कर।।

Post – 2017-12-21

मजदूर अनमना रहता है तो भी काम करता है, काम न किया तो अपना पेट कैसे भरेगा।

गृहणियां अनमनी रहती हैं तब भी काम करती हैं, काम न किया तो अपनों का पेट कैसे भरेगा। कभी कभी अनमनापन इतना बढ़ जाता था कि स्वयं खाए बिना सो जाती थीं।

मैं किस कोटि में आता हूं, पता ही नहीं। पता यह है कि आज की पोस्ट पूरी न कर पाया।
इसलिए इतना कहना तो बनता है, किः
पैसे में दम है
सच में कुछ कम है

जेसिका की हत्या हुई
किसी ने की नहीं
हेमराज मरा
मारा नहीं गया
आरुषी मरी
पता लगाओ किसने मारा
सुमिरनी में मनके असंख्य हैं।

जो सच नहीं हैै
वह पैसे ने कही है
ऊंचाइयों पर चढ़कर ।

Post – 2017-12-20

भारतभक्ति का दूसरा नमूना

भारतभक्ति के लिए जिस दूसरे प्राच्यवादी को याद किया जाता रहा है वह हैं मैक्समुलर। उन्होंने यदि ऋग्वेद और अन्य पवित्र ग्रन्थों का ब्राह्मणों के चंगुल से उद्धार न किया होता तो मै ऋग्वेद पर बात करना तो दूर, उसकी प्रति तक का दर्शन नहीं कर सकता था। मैं इसके लिए उनका ऋणी हूं। हमारे पुरातन ज्ञान को प्राच्यवादियों ने ही सर्वसुलभ कराया, अन्यथा ब्राह्मणवादी कूपमंडूकता के चलते, शिक्षा और ज्ञान के ठेकेदार ब्राह्मणों को भी वेद-पुराण का नाम तो पता रहता था, पर उन्होंने उनकी शक्ल तक न देखी थी। जिन्होंने शक्ल देखी थी उनमें से अधिसंख्य ने उनकी पूजा की थी। जिन इक्के-दुक्कों ने पढ़ने का साहस जुटाया था वे भाषा की दुरूहता या लिपि की अपाठ्यता के कारण उन्हें समझ नहीं पाते थे। दुर्लभ थे ऐसे लोग जो वेद को पढ़ते और कुछ कुछ समझते रहे हों। अधिक प्राचीन लिपियों (जैसे ब्राह्मी या उसके विकास की कतिपय अवस्थाओं में) लिखे लेखों को तो पढ़ ही नहीं सकते थे। हमारी अपनी ही ज्ञान संपदा के एक बड़े अंश की खोज, पाठ निर्धारण, संपादन, अनुवाद और प्रकाशन उन्होंने किया जिनमें सबसे महत्वूर्ण ऋग्वेद का प्रकाशन था। उनके निर्देशन में प्राच्य धर्मग्रंथों का अनुवाद सैक्रेड बुक्स आफ द ईस्ट ग्रंथमाला का प्रकाशन हुआ। मैक्समुलर के इस प्रयास से भारतीय इतने अभिभूत थे कि उनके नाम का अर्थोत्कर्ष करके उन्हें मोक्षमूलर का विरुद दे दिया।

पर प्रश्न यह है कि वह किसका काम कर रहे थे, अपना या हमारा? वह किस के हित में काम कर रहे थे? अपने कथन में वह ईमानदार थे, या उन्हीं के शब्दों में साहित्यिक कूटनीति का परिचय दे रहे थे?
More than twenty years have passed since my revered friend Bunsen called me one day into his library at Carlton House Terrace, and announced to me with beaming eyes that the publication of the Rig-veda was secure. He had spent many days in seeing the Directors of the East-India Company, and explaining to them the importance of this work, and the necessity of having it published in England. At last his efforts had been successful, the funds for printing my edition of the text and commentary of the Sacred Hymns of the Brahmans had been granted, and Bunsen was the first to announce to me the happy result of his literary diplomacy. ‘Now,’ he said, ‘you have got a work for life–a large block that will take years to plane and polish.’ ‘But mind,’ he added, ‘let us have from time to time some chips from your workshop.’

और इसी के परिणाम थे वे लेख जिनका प्रकाशन ‘चिप्स फ्राम ए जर्मन वर्कशाप के पांच खंडो में हुआ। बंसेन ने कंपनी के डाइरेक्टर्स को यह तो समझा लिया कि इसके प्रकाशन से कंपनी का फायदा होगा, पर हमें केवल अनुमान के सहारे ही यह पता चल सकता है कि वह फायदा क्या था। जिस बात पर किसी विवाद की संभावना नहीं वह यह कि कोई किसी का वित्त पोषण तभी करता है, उसका मान सम्मान उत्साहपूर्वक तभी करता है जब वह उसके काम आ रहा हो।

हमारा अनुमान यह है कि कंपनी को हिन्दुओं के धार्मिक साहित्य में कोई रुचि नहीं थी, परन्तु जब उसे यह समझाया गया कि हिन्दू वेद की आप्तता पर भरोसा करते है पर वेद की दुहाई देने वालों तक को पता नहीं कि उसमें क्या लिखा है। जब इसके प्रकाशन से उन्हें पता चलेगा कि इसकी तुलना में ईसाइयत कितनी आगे है तो उनके धर्मान्तरण का काम आसान हो जाएगा और हिन्दुओं की हेकड़ी कम हो जाएगी जो प्रशासनिक दृष्टि से सुविधाजनक होगा। कहें ऋग्वेद का प्रकाशन हमारे लाभ के लिए नहीं, ईसाइत के प्रसार के लिए किया जा रहा था।

इस बात को नहीं भुलाया जा सकता कि मैक्समुलर ने, या कहें, यूरोपीय प्राच्यविदों ने जिस विपुल साहित्य का उद्धार किया था वह केवल और केवल धार्मिक प्रकृति का था । इसके अतिरिक्त उनकी रुचि व्याकरण और भारतीय भाषाओं में थी। भाषा में रुचि इसलिए कि इस पर अधिकार करके, और इसके अधिकारी भारतीय विद्वानों को अपनी सेवा में लगाकर वे यह धाक जमा सकें कि संस्कृत पर भी उनका अधिकार भारतीय पंडितों से अधिक है, उनसे मतभेद होने पर स्वयं उनकी व्याख्या अधिक मान्य है। दूसरे सारा झमेला ही संस्कृत की श्रेष्ठता और उसकी मूलभूमि को लेकर आरंभ हुआ था, इसलिए भाषा का क्षेत्र उनकी समरभूमि थी। अपनी ग्लानि से उबरने का बहाना तलाशने के बाद उनका दूसरा लक्ष्य था भारतीयों की चेतना में यूरोप की सर्वमुखी और सार्वकालिक श्रेष्ठता और सभी मजहबों में ईसाइयत की श्रेष्ठता का कायल बनाना और इसे एशियाई देशों में यूरोफीलिया, यूरोफोबिया और ख्रिष्टोफीलिया तक पहुंचाना। कहें उसी योजना पर मैक्समुलर भी काम कर रहे थे जिस पर स्टुअर्ट मिल ने काम किया था। यदि दोनों में कोई अंतर था तो वह तरीके और मिजाज का था। मिल कुतर्क के सहारे ध्वंसकारी की भूमिका में समग्र का निषेध कर रहे थे, जब कि दूसरे सभी प्राचीन काल में हिन्दुओं की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए बाद में, विशेषत: मध्यकाल से उनकी दुर्गति की बात करते थे। इसमें वह कम्युनल नजरिया उलट जाता था जिसमें मिल ने मध्यकाल को प्राचीन भारत से हर दृष्टि से अच्छा सिद्ध किया था।

हम इस बहस में नहीं पड़ सकते कि इन दोनों में कौन कितना सही था, पर इतिहास में लौट कर यह निवेदन कर सकते हैं कि मिल ने पोर्जुगीजों का दमन, उत्पीड़न का वह तरीका अपनाया जो पुर्तगालियों ने आरंभ में अपनाया था, जिसके लिए जेवियर्स जाने जाते हैं, पर जो भारतीय मनोबल के आगे कुफलदायक सिद्ध हुआ और भारत से बाहर जाते हुए उन्हें भी अपना तरीका बदलना पड़ा। प्राच्यवादियों ने विविध अनुपातों में नोबिली का तरीका अपनाया जिसकी विस्तार में चर्चा संभव नहीं, पर इतना ही पर्याप्त है कि वह कट्टर ब्राह्मण का जीवन जीते हुए, यहां तक कि ईसाइयों के साथ भी अस्पृश्य जैसा व्यवहार करते हुए बाइबिल के कुछ चुने हुए अंशों का संस्कृत में अनुवाद करके (यह योग्यता उसने बारह साल के एकान्तवास में, धर्मान्तरित ब्राह्णणों से संस्कृत, तमिल, तेलुगू सीख कर हासिल की थी) यह प्रचारित कर रहा था कि वेदों का जब लोप हो गया था तो चार वेदों का तो उद्धार हो गया या, पांचवां वेद छूट गया था। वह उसी पांचवें वेद को ले कर आया है।

हमारा यह कथन मैक्समुलर के प्रति अन्याय न लगे इसलिए इस बात पर ध्यान दें कि मैक्समुलर ने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखा तो उसमें उसे स्थान न दिया गया जिस पर हमें गर्व है, अपितु उसी धार्मिक साहित्य को स्थान दिया जिसके उद्धार में उनकी भूमिका थी। उसका शीर्षक ही उसकी अंतर्वस्तु को उजागर कर देता है:
हिस्ट्री आफ ऐंश्येंट संस्कृत लिटरेचर इन सो फार ऐज इट रिवील्स दि प्रिमिटिव नेचर आफ दि ब्राह्मणाज
उनकी रुचि भाषा और साहित्य से अधिक धर्म और पुराण पर है और वह एक नोआ से सकल जहान वाली समझ पर है:
The elements and roots of religion were there, as far back as we can trace the history of man; and the history of religion, like the history of language, shows us throughout a succession of new combinations of the same radical elements.

वेद से उनको लगाव है क्योंकि उसमें वे तत्व विद्यमान हैं जिन्हें ईसाइयत में पाया जाता है:
‘What is now called the Christian religion, has existed among the ancients, and was not absent from the beginning of the human race, until Christ came in the flesh: from which time the true religion, which existed already, began to be called Christian.

इससे आप समझ सकते हैं कि क्यों वह संस्कृत भाषा और ऋग्वेद पर मुग्ध हो जाते हैं और इसके बाद भी इसको मानवता के शैशव की चीज मान लेते हैं ?क्यों कहते हैं कि इसके बहुत से अंश नितान्त बचकाने हैं? और कुछ तो ऐसे (डेड लेटर) जो कभी समझे ही जा सकते, क्योंकि वे शिशु की उस अवस्था की अभिव्यक्तियां है जब शिशु का भाषा पर अधिकार नहीं होता।

यह समझने के बाद ही आप को यह समझ में आएगा कि वह वैदिक जनों को दार्शनिक मानते हुए उन्हें चरवाहा बताते हुए जानते तो हैं घास से दर्शन पैदा नहीं होता, अन्न से पैदा होता है, वह बताते हैं कि ऐसा उसी समय हो सकता था। और तभी पता चलेगा कि यह आदमी वैदिक समाज को ही नहीं बाद के कालों तक के लोगों को, यहां तक कि पाणिनि तक को निरक्षर सिद्ध करने के लिए कुतर्क को अपनी पराकाष्ठा तक क्यों पहुंचाने को बाध्य हुआ। मैक्समुलर बहुत सुपठित और प्रगल्भ विद्वान है, परन्तु आप ध्यान दें तो पाएंगे, वह कुतर्क से उससे अधिक काम लेते हैं, जितना मिल ने लिया था। वह ईसाइयत के उस तरह कायल न थे, जैसे भजन गाने वाले, या गिरजा जाने वाले (वह तो मिल्स भी न थे, जो कभी पादरी बनने का सपना देखते थे) पर उनका अभियान ईसायत के विस्तार का व्याज रूप में पोषक था, मैक्समुलर खुले मैदान मे थे और ईसाई पुराणों के समर्थन के लिए जिन वैज्ञानिक खोजों का उससे विरोध था उनको भी खींच तान कर पुराणकथाओं को ऐतिहासिक सत्य सिद्ध करने को तत्पर:
Among scientific men the theory of evolution is at present becoming, or has become, a dogma. What is the result? No objections are listened to, no difficulties recognized, and a man like Virchow, himself the strongest supporter of evolution, who has the moral courage to say that the descent of man from any ape whatsoever is, as yet, before the tribunal of scientific zoölogy, “not proven,” is howled down in Germany in a manner worthy of Ephesians and Galatians.

और :
According to language, according to reason, and according to nature, all human beings constitute a γένος, or generation, so long as they are supposed to have common ancestors; but with regard to all living beings we can only say that they form an εἶδος—that is, agree in certain appearances, until it has been proved that even Mr. Darwin was too modest in admitting at least four or five different ancestors for the whole animal world.

यदि मोक्षमूलर तक हमारे हितैषी प्रतीत होते हुए हमारे काम के नहीं, फिर कोई दूसरा हमारे काम का हो सकता है? हमारे मानसिक दिवालियापन का हाल यह है कि हम आज भी मानते हैं, हमारा विदेशी अध्येता अधिक भरोसे का है और हम विदेश विजय करने पर अधिक बड़े चिन्तक, कलाकार, लेखक बन जाते हैं जब कि ऐसा तभी होता है जब आप उनके उपयोग के सिद्ध होते हैं।

Post – 2017-12-19

मैं ऍक मजाक सा रहता हूं अपनी दुनिया में
हर ऍक मजाक में ऍक खास बात होती है ।।