मौत को खुद ही सदा देता हूं
आ, मेरी नब्ज थाम कर तो देख।
हसरतें कितनी अधूरी हैं अभी
इनको गिन और जान कर तो देख।।
Month: December 2017
Post – 2017-12-05
मैं सोचता हूँ वह भी मुझे देख रहा है
फिर भी पता है उसको दिखाई नहीं दूंगा.
जो दीखते हैं उसको मैं उनमें नहीं शायद
Post – 2017-12-05
इतिहास भूत है, पकड़ लेगा
मुझे याद नहीं कौन था, पर था अमेरिकन, जिसने आपसी परिचय के क्रम में, यह जानकर कि मै प्राचीन भारत के इतिहास का अध्येता हूं प्रश्न किया था, Why Indians are so obsessed with history? (भारत के लोगो पर इतिहास का भूत क्यों सवार रहता है?) मैने उससे पूछा था, Why Americans have no courage to face their own history and madly run after the history of other countries? (अमेरिकी अपने इतिहास का सामना करने का साहस क्यों नहीं जुटा पाते, पागलों की तरह दूसरों के इतिहास के पीछे क्यों भागते फिरते हैं?) उसने प्रश्न नहीं किया था, व्यंग्य किया था जिसमें यह ध्वनित था कि भारतीय पिछड़े हुए है। उनके पास केवल इतिहास है और उसी से आत्मतुष्ट रहते हैं। मेरा प्रश्न भी प्रश्न नहीं था, घनचोट था, कि इतिहास का अध्ययन इतना जरूरी कि जो लोग अपना इतिहास नष्ट कर डालते हैं वे दूसरों के इतिहास के पीछे भागते फिरते हैं, पर इसमें कुछ और भी व्यंजित था जो आगे की चर्चा में स्पष्ट हो जाएगा। इसके साथ हमारा परिचय पूरा हो गया था।
यह एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न है और इसे वही कर सकता है जो यह नहीं जानता कि इतिहास का अध्ययन इतने सारे विषयों के ज्ञान से जुड़ा है कि इतिहासकार हो पाना किसी अन्य अनुशासन का अधिकारी होने से अधिक दुष्कर है, और इतिहास विमुखता स्मृतिलोप का पर्याय है । हमारा दुर्भाग्य है कि हममें इतिहास को जानने की जगह इतिहास से भागने की प्रवृत्ति पैदा की गई। इतिहास से भागने वाले इतिहास से बाहर निकल ही नहीं पाते।
मनुष्य की मानसिकता को प्रभावित करने वाले चार अनुशासनों – धर्म, साहित्य, इतिहास और दर्शन – में सबसे शक्तिशाली इतिहास है और इसीलिए धर्म को अपनी पकड़ मजबूत क्जने के लिए इतिहास का सहारा लेना पड़ा या इतिहास गढ़ना पड़ा है और दर्शन पर धर्म का असर प्रत्य़क्ष और परोक्ष दोनों रूपों में बहुत हाल तक बना रहा है। साहित्य का बहुत बड़ा भाग लम्बे समय तक इस गढ़े हुए इतिहास से प्रभावित रहा है। इसलिए सामाजिक आस्था और मनोबल और एकजुटता को सुदृढ़ करने, बनाए रखने, नष्ट करने में इतिहास की भूमिका साहित्य, धर्म, दर्शन की तुलना में कहीं अधिक है।
दुर्भाग्य की बात है कि इस बात को इतिहासकार ही नहीं, इतिहास दार्शनिक तक नहीं समझ पाते।
मेरा अगला दुर्भाग्य इस मामले में यह कि मुझे सबसे अधिक तकरार अपने मार्क्सवादी मित्रों से ही करनी पड़ी है जो यह तो जानते हैं कि मार्क्सवाद के साथ ऐतिहासिक और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद विशेषण भी लगते हैं। परंतु भारतीय मार्क्सवादी अपनी सोच और व्यवहार में अनैतिहासिक, निर्द्वन्द्वात्मक, भाववादी आत्मवाद को मार्क्सवाद समझते हैं। किसी भी अन्य देश में मार्क्सवाद जनविमुख और राष्ट्रविमुख नहीं रहा है पर भारतीय मार्क्सवादी इस पर गर्व करता है।
प्रसंगवश यह याद दिला दें कि कोई भी इतिहास कुछ तथ्यों और घटनाओं के सहारे एक सर्जना है, सत्य नहीं। इतिहास तो दूर की बात हुई, वर्तमान की भी पूरी सूचना हमें नहीं मिलती और इसे हमें अपनी कल्जिपना का सहारा लेता हुए समझना होता है। जिसे हम इतिहास कहते है उसमें निराधार और लुप्त कड़ियों की भरमार होती है। इसलिए यदि हम मानते हैं कि ऐसा हुआ था वह तब तक इतिहास बना रहता है जब तक उसका खंडन नहीं हो जाता।
जिन लोगों के हित किसी विश्वास से जुड़े हैं वे खंडन के बाद भी उसे जिलाए रखने का प्रयत्न करते हैं। यदि शिक्षा और प्रचार के साधनों पर उसका नियंत्रण है तो खंडन के बाद भी वह इसमें सफल भी हो सकते हैं। सत्ता किसी ऐसे इतिहास को सहन नहीं कर सकती जो उसका मानमर्दन करता प्रतीत हो। ऐसे इतिहास को नष्ट करते हुए उस समाज का मनोबल गिराना उसकी कूटनीतिक अपरिहार्यता बन जाती है।
जिसका कोई प्रमाण नहीं और फिर भी जिसे हम मानने को विवश होते हैं, वह पुराण है। वह नया भी हो सकता है और पुराना भी।
अतः इतिहास का सही होना उतना जरूरी नही है जितना यह विश्वास कि ऐसा हुआ था। पुराण प्रमाणों के आभाव के कारण मनोरचना को नियंत्रित करने की दृष्टि से प्रामाणिक इतिहास से अधिक प्रभावशाली है, क्योंकि न इसका खंडन हो सकता है, न सुधार।
एक व्यक्ति के लिए इतिहास उसके जीवन से अलग नहीं होता, न वह उसे अलग करके देखने समझने का प्रयत्न करता है। यह उसके घर और परिवेश की चीजों में होता है, उसकी भाषा में होता है, खान-पान और जीवन शैली में होता है, उसके परिचित साहित्य और उसके चरित्रों में होता है, उसे ज्ञात पुराण कथाओं और शौर्य कथाओं में होता है, उसके रीतियों, संस्कारों, त्यौहारों में होता है और होता है ऐसी दूसरी अनेक चीजों में जिनकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। इनमें सार्थकता और व्यर्थता का विवेक और इसका क्रमिक ग्रहण और त्याग इनके तिथ्यांकन से अधिक महत्व रखता है। जब कोई दूसरा इन्हें तोड़ता, छेड़ता, इनका उपहास करता है तो वह अपमानित अनुभव करता है, विवश होने पर ग्लानि अनुभव करता है।
यहां दो बातों पर ध्यान देना होगा। पहला किसी देश और समाज का इतिहासकार होने के लिए हमें ज्ञान विज्ञान की बहुत सारी सैद्धांतिक जानकारी के अलावा जीवन व्यवहार में औतप्रोत इतिहास की जानकारी और संवेदनशीलता जरूरी है। दूसरी इतिहास के सच और गलत की खोज से अधिक महत्व इस बात का है कि यह काम कौन कर रहा है और किनको ऐसा करने से रोका या हतोत्साहित किया जा रहा। इसी पर यह निर्भर करता है कि इतिहास के लेखन से समझ पैदा हो रही और आत्मविश्वास बढ़ रहा है या बौखलाहट पैदा हो रही है और आत्मविश्वास समाप्त हो रहा है।
इस पृष्टभूमि में ही यह समझा जा सकता है कि यूरोपीय विद्वानों का इतिहास हमें समझने और हमारा हित करने लिए लिखा गया या हमें तोड़ने, अपंग बनाने, कुचलने और अपने ऊपर हमारी निर्भरता को बढ़ाने के लिए किया गया। इस क्रम में उन्होंने कितनी निर्ममता से तोड़ फोड़ और उलट पलट की और हम इस पर तालियां बजाते रहे। भारत विषयक पश्चिमी अध्येताओं में कोई इसका अपवाद नहीं है क्योंकि गोरे रंग की श्रेष्ठता, ईसाइयत की श्रेष्ठता, अपनी आधुनिक दौर की श्रेष्ठता का बोध सभी में गहराई से भरा है ।शेष जगत पर हावी होने की लालसा से मुक्त व्यक्ति की तलाश करनी होगी। इस पर हम कल विचार करेंगे।
Post – 2017-12-03
मैं जिन्हें फूल समझता था वे कांटे निकले
आज के लिए जो पोस्ट लिखी थी वह कट पेस्ट के चक्कर में गायब हो गई और उस खेद ने तुकबंदियों का दरवाजा खोल दिया. पर जो कहा था, वह कथन से अधिक रुदन था।
मुझे खेद इस बात पर था कि जिस समय पश्चिम से साबका पडा हम उससे हजारों साल पीछे चले गए थे। ग्रीक और रोमन काल से यूरोप ने ज्ञान को सर्व लभ्य बनाने का प्रयत्न किया था। भाषा भले सर्वग्राह्य न रही हो, पर उसने ऎसी कोशिश की कि विचार स्पष्ट हों और इसलिए ऎसी तर्क प्नणाली का विकास किया जिसमें स्पष्टता का प्रयत्न किया जाता था। हमारे यहाँ ब्राह्मणवाद के चलते ज्ञान को अल्प जन लभ्य, भाषा को दुरूह, शैली को जटिल और बोझिल बनाने का प्रयत्न किया गया। इसके बाद भी दसवीं शताब्दी तक यह देश ज्ञान विज्ञानं के क्षेत्र में अग्रणी रहा पर उसके बाद विदित कारणों से जो प्रहार होने लगे उसमें पुरातन ज्ञान का परिरक्षण तक एक विकट कार्यभार बन गया। सर्जनात्मकता लुप्त हो गई और भारत से अरबों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को उन्होंने उस ऊचाई पर पहुंचा दिया जिसमे हम अपने ज्ञान का खजाना तो विवशता में खोल सकते थे परन्तु उसी ज्ञान को हमारे विद्वानों से प्राप्त कर के उन पर बहस करने वालों का सामना कर सकें, ऐसी क्षमता दुर्लभ थी।
हम यह समाझ तक खो चुके थे कि लुटेरे उद्धारक नहीं होते। ज्ञान से वंचित और अनुसन्धान को नियंत्रित करने वाले हमारे बौद्धिक सेवक नही हुआ करते। इसी चिंता में यह जोड़ा था कि वे अपने प्रयत्न में इतने सफल हुए कि हम यह मानने तक को तैयार नहीं होते कि कोई भारतीय मानविकी में कोई नया सिद्धांत प्रतिपादित कर सकता है। भारतीय भाषाओँ में कोई बड़ा या कायदे का काम हो सकता है। उसकी कोई वकत किसी पाश्चात्य विद्वान् के समर्थन के अभाव में भी हो सकती है। गरज कि हम सोचने की योग्यता ही नहीं समझने की योग्यता भी खो चुके हैं। बौद्धिक गुलामी की यही त्रासदी एक शेर में व्यक्त हुई तो उसे भी एक मित्र ने राजनीतिक रंगत दे दी। यह एक बड़ी समस्या है। इस पर लिखेंगे कल, पर आज लिखे के धुल जाने के गम में उपजी तुकबंदियों के बाद भी यह बताना जरूरी लगा।
Post – 2017-12-03
कभी तो सोचते वह आदमी क्या चीज है यारो
जो हंस कर आह भरता है, तड़प कर मुस्कराता है।
Post – 2017-12-03
खलिश है बस खलिश जो आग को पत्थर बनाती है
वही है पत्थरों को तोड़ कर आंसू बहाती है।
कभी दरिया, कभी झरना, कभी सिसकन कभी धड़कन
कभी गुल या कि बन कर शूल तेरी याद आती है।।
Post – 2017-12-03
जो लिख के संभाला था जबां तक नहीे आया
अब कितने इशारों में वही कौंध रहा है।।
Post – 2017-12-03
हम क्या थे, कहां पहुंचे, कहां पहुंचेंगे आखिर
क्यों खुश हैं गिरावट से, वजह इसकी तो होगी
Post – 2017-12-03
आज का जो खत लिखा था
आंसुओं से धुल गया।
यह भी मुमकिन कि कल की
आग से रौशन हो वो।।
Post – 2017-12-02
यह जंग सिर के और सिरफिरों के बीच है
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हमें आज कई सवालों के जवाब देने हैं।
पहला, क्या यह संभव है कि पश्चिमी जगत के सभी विद्वान किसी दुरभिसंधि में शामिल हों?
ऐसे किसी प्रश्न को पहली नजर में ही खारिज किया जा सकता है। कारण, इस सोच में इकहरापन है। किसी देश में कोई ऐसी संस्था या तंत्र नहीं है जो किसी देश के सभी बुद्धिजीवियों की सोच को नियंत्रित कर सके। यूरोप और अमेरिका के बीसियों ऐसे अध्येता हैं जिन्होंने प्राचीन भारत की उपलब्धियों की प्रशंसा की है। आर्यों के आक्रमण का आधिकारिक खंडन करने वाले पुरातत्वविदों में अमेरिकी और यूरोपीय खननकर्ता अग्रणी रहे हैं। मैने स्वयं उनके विचारों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। सबसे बड़ी बात यह कि यदि यूरोकेन्द्रिता का आरोप लगाया जाता है तो उतनी ही आसानी से भारतकेन्द्रिता का आरोप लगाया जा सकता है।
जिस तरह का इकहरापन प्रश्न में था, कुछ वैसा ही इकहरापन हमारे इस निराकरण में भी है। यह इसलिए है कि हमने एक जटिल समस्या को सद्भावनापूर्वक समझना चाहा और सद्भाव के अनुरूप तथ्यों और तर्कों को स्थान दिया और बाधक तथ्यों और तर्कों की उपेक्षा कर दी। सद्भावना हो या दुर्भावना या आसक्ति, ये सभी पूर्वग्रह के रूप हैं और इसलिए किसी परिघटना को समझने में बाधक हैं। किसी भी चीज को समझे बिना हम जो भी करेंगे, कुफलदायी होगा। हमारे भीतर उस समय भी पूर्वग्रह काम कर सकते हैं जब हम अपनी ओर से तटस्थ रहने का प्रयत्न करते हैं। हम स्वयं भी उनके विषय में सतर्क नहीं रह पाते। हम देख आए हैं कि नितांत तुच्छ प्रतीत होनेवाला घटक भी अकाट्य प्रतीत होनेवाली स्थापनाओं को उलट सकता है इसलिए हमने पहले कहा था कि
“भावना या रागात्मकता वस्तुबोध में बाधक होती है, इसलिए समझ विवेचन के स्तर पर वस्तुपरकता, निर्ममता और व्यवहार के स्तर पर सदाशयता अपेक्षित है जिसकी छूट हमें वर्तमान तो देता है, इतिहास नहीं देता) हमारा ध्यान जिन बातों पर जाना चाहिए कि
1. व्याख्याकार ने जिन तथ्यों के आधार पर अपने निष्किर्ष निकाले हैं क्या वे प्रामाणिक हैं, अर्थात् वे (क) सही तो हैं? (ख) सही अनुपात में तो हैं ? (ग) स्थान, काल, संदर्भ में विचलन तो नहीं है?
२. जो नतीजे निकाले गए हे क्या परिणामों से उनकी पुष्टि होती है? इतिहास में तो परिणाम मिलेंगे, पर वर्तमान के परिणाम आने में ही नहीं, परिघटना से संबंधित सूचनाओं के सुलभ होने में समय लगेगा इसलिए किसी नतीजे पर पहुंचने की हड़बड़ी से बचा गया या नहीं?
अब हम अपने आप से पूछ सकते हैं, क्या पश्चिमी जगत का कोई अध्येता इन कसौटियों से अनभिज्ञ था या इनको अवांछनीय मानता रहा हो?
2. यदि नहीं तो प्राचीन भारतीय इतिहास, समाज, साहित्य और भाषाओं के अध्ययन में क्या कितनों ने इनका निर्वाह किया है? इनमें हम विलियम जोंस, विल्सन और मैक्समुलर को भी सम्मिलित कर सकते हैं जिनके लेखन को हिंदुत्व संवेदी मान कर अनेक लोग धैर्य खो कर उनकी लानत मलामत करने लगते हैं। यहां विस्तार में गए तो भटकने का डर है।
3. वह कौन सा पाश्चात्य लेखक है जिसका भारत विषयक लेखन, विवेचन, अनुवाद, अनुसंधान पोलैमिकल नहीं है?
4. कौन था जिसे यह न पता था कि आर्य नाम की कोई जाति न थी, यदि पता न था तो वह विचारणीय था क्या?
5. कौन था जो यह न जानता था कि कल्पित काल में किसी आक्रमण का कोई प्रमाण नहीं है?
6. जब साहित्य और पुरातत्व से इस बात के निर्णायक प्रमाण मिले कि वैदिक साहित्य और हड़प्पा के अवशेष एक ही सिक्के के दो पहलू तो उनमें से कितनों ने इसे माना या इसका खंडन किया या करने का प्रयत्न करने पर विफल होने की बात स्वीकारी।
प्रश्न यह नहीं है कि सच क्या है? झूठ क्या है।