Post – 2018-04-09

लघुता सूचक शब्द – २

रेणु
(इस चर्चा में यह बात दृष्टि से ओझल नहीं होनी चाहिए कि हम जल के नाद से भाषा की उत्पत्ति को दावे की पुष्टि में अपने प्रमाणों का, जहां जरूरी है वहां उनकी जांच करते हुए, संकलन कर रहे हैं। अत: ध्यान इस पर रहना चाहिए कि पानी से उसको व्युत्पादित करते हुए जो कुछ लिखा है वह पर्याप्त है या नहीं।)

हम पाते हैं बालू और मिट्टी के लिए प्रयुक्त शब्दों का मूल अर्थ जल है । यपरिस्थितिजन्य प्रमाण इस अनुमान का आधार हो सकता है, कि रेणु का, जो त्रसरेणु में भी आया है, पानी के आशय में कभी प्रयोग होता था पर इसका सीधा प्रमाण नहीं है। रे/रै/रयि का अर्थ अवश्य जल, धन, प्रकाश आदि है। रण का प्राचीन अर्थ जल रहा लगता है जिससे रण्य, और अरण्य=जंगल, रेगिस्तान, निकले हैं और संभव है अं. rain का भी इससे संबंध हो। सरस्वती की बाढ़ से तंग कवि कहता है ऐसा न हो हमें तुम्हारे क्षेत्र को छोड़ कर अरणय क्षेत्रों में जामा पड़े – मा त्वत् क्षेत्रात् अरण्यानि गन्म। रै से रेणु और रण्य दोनों निकले हों तो इसे सीधा संबंध माना जा सकता है ।

पुद्गल – में पुत/ पुद/बुद (जैसे अर्बुद् में) अर्थ जल है। पुत से पोतना, पुताड़ा आदि का संबन्ध है। हिं. में पुद केवल पुदीना में दिखाई देता है, तमिल मे पुदिय – नया में। pudding का इससे दूर का नाता हो सकता है जैसे सं. सूप, सूपकार का अं soup, supper और त. शाप्पाडु के बीच। हमारे लिए इतना पर्याप्त है कि पुद्गल का उदगम जलसूचक है।

अंश – अंश का प्रयोग भाग सूचक प्रयोजन के अतिरिक्त, दिन के लिए होता है और अंशु का किरण और आभा के लिए, इसलिए इसका प्राथमिक आशय जलपरक मानना होगा। अंशुक इसी तर्क से मुलायम वस्त्र, रेशम, के लिए और अंसल मुलायम के लिए (शतपथ )। यदि अश्रु अंसु/ आंसू का संस्कृतीकरण हो तो, इसका संबंध उस विस्मृत अर्थ से जुड़ जाएगा।

खंड – कन्, खन्, कांड, खंड/खांड़/ खंड़सारी का जल और रस से व्युत्पादन संभव है, पर इसकी व्युत्पत्ति की अन्य संभावना फिर भी बनी रहती है।

भाग – भग, सूर्य, पक् , भक् की उत्पत्ति किसी भांड के टूटने या लौ के धधक कर बुझने से उत्पन्न निर्वात को भरने के लिए वायु के दबाव से भी पैदा हो सकती है, पर पाक, पाकशंस, फा. पाक, पाकीजा आदि में जो पवित्रता है उसका जल से संबंध स्पष्ट है और उसी कारण यह भग = सूर्य, पकाना, पक्व, आदि के लिए प्रयोग में आ सकता है।

क्षुद्र – क्षुत्, क्षुध, पानी के छलकने से उपन्न धवनि से व्युत्पन्न प्रतीत होता है। सं. क्षुल्ल= छोटा, थोड़ा, अल्प; क्षुल्लक = छोटा, नीच, क्षुद्र। ऋग्वेद में क्षुमन्त का प्रयोग आहार और उपभोग के लिए आया है :
क्षुमन्तं वाजं स्वपत्यं रयिं दा: । ऋ.२.४.८
कृधि क्षुमन्तं जरितारं अग्ने, २.९.५
क्षुमन्तं चित्रं ग्राभं संगृभाय, ८.८१.१
क्षुमन्तं वाजं शतिनं सहस्रिणम् मक्षू गोमन्तं ईमहे। ८.८८.२
स नो क्षुमन्तं सदने वि ऊर्णुहि गोअर्णसं रयिं इन्द्र श्रवाय्यम् । १०. ३८.२
भोजन और पान की प्राथमिक संपल्पनाओं में अभेद रहा है इसीलिए बंगाली आज भी जल खाता है और संस्कृतज्ञ रस की चर्वणा करता है।

Post – 2018-04-09

लघुता सूचक शब्द – २

रेणु
(इस चर्चा में यह बात दृष्टि से ओझल नहीं होनी चाहिए कि हम जल के नाद से भाषा की उत्पत्ति को दावे की पुष्टि में अपने प्रमाणों का, जहां जरूरी है वहां उनकी जांच करते हुए, संकलन कर रहे हैं। अत: ध्यान इस पर रहना चाहिए कि पानी से उसको व्युत्पादित करते हुए जो कुछ लिखा है वह पर्याप्त है या नहीं।)

हम पाते हैं बालू और मिट्टी के लिए प्रयुक्त शब्दों का मूल अर्थ जल है । यपरिस्थितिजन्य प्रमाण इस अनुमान का आधार हो सकता है, कि रेणु का, जो त्रसरेणु में भी आया है, पानी के आशय में कभी प्रयोग होता था पर इसका सीधा प्रमाण नहीं है। रे/रै/रयि का अर्थ अवश्य जल, धन, प्रकाश आदि है। रण का प्राचीन अर्थ जल रहा लगता है जिससे रण्य, और अरण्य=जंगल, रेगिस्तान, निकले हैं और संभव है अं. rain का भी इससे संबंध हो। सरस्वती की बाढ़ से तंग कवि कहता है ऐसा न हो हमें तुम्हारे क्षेत्र को छोड़ कर अरणय क्षेत्रों में जामा पड़े – मा त्वत् क्षेत्रात् अरण्यानि गन्म। रै से रेणु और रण्य दोनों निकले हों तो इसे सीधा संबंध माना जा सकता है ।

पुद्गल – में पुत/ पुद/बुद (जैसे अर्बुद् में) अर्थ जल है। पुत से पोतना, पुताड़ा आदि का संबन्ध है। हिं. में पुद केवल पुदीना में दिखाई देता है, तमिल मे पुदिय – नया में। pudding का इससे दूर का नाता हो सकता है जैसे सं. सूप, सूपकार का अं soup, supper और त. शाप्पाडु के बीच। हमारे लिए इतना पर्याप्त है कि पुद्गल का उदगम जलसूचक है।

अंश – अंश का प्रयोग भाग सूचक प्रयोजन के अतिरिक्त, दिन के लिए होता है और अंशु का किरण और आभा के लिए, इसलिए इसका प्राथमिक आशय जलपरक मानना होगा। अंशुक इसी तर्क से मुलायम वस्त्र, रेशम, के लिए और अंसल मुलायम के लिए (शतपथ )। यदि अश्रु अंसु/ आंसू का संस्कृतीकरण हो तो, इसका संबंध उस विस्मृत अर्थ से जुड़ जाएगा।

खंड – कन्, खन्, कांड, खंड/खांड़/ खंड़सारी का जल और रस से व्युत्पादन संभव है, पर इसकी व्युत्पत्ति की अन्य संभावना फिर भी बनी रहती है।

भाग – भग, सूर्य, पक् , भक् की उत्पत्ति किसी भांड के टूटने या लौ के धधक कर बुझने से उत्पन्न निर्वात को भरने के लिए वायु के दबाव से भी पैदा हो सकती है, पर पाक, पाकशंस, फा. पाक, पाकीजा आदि में जो पवित्रता है उसका जल से संबंध स्पष्ट है और उसी कारण यह भग = सूर्य, पकाना, पक्व, आदि के लिए प्रयोग में आ सकता है।

क्षुद्र – क्षुत्, क्षुध, पानी के छलकने से उपन्न धवनि से व्युत्पन्न प्रतीत होता है। सं. क्षुल्ल= छोटा, थोड़ा, अल्प; क्षुल्लक = छोटा, नीच, क्षुद्र। ऋग्वेद में क्षुमन्त का प्रयोग आहार और उपभोग के लिए आया है :
क्षुमन्तं वाजं स्वपत्यं रयिं दा: । ऋ.२.४.८
कृधि क्षुमन्तं जरितारं अग्ने, २.९.५
क्षुमन्तं चित्रं ग्राभं संगृभाय, ८.८१.१
क्षुमन्तं वाजं शतिनं सहस्रिणम् मक्षू गोमन्तं ईमहे। ८.८८.२
स नो क्षुमन्तं सदने वि ऊर्णुहि गोअर्णसं रयिं इन्द्र श्रवाय्यम् । १०. ३८.२
भोजन और पान की प्राथमिक संपल्पनाओं में अभेद रहा है इसीलिए बंगाली आज भी जल खाता है और संस्कृतज्ञ रस की चर्वणा करता है।

Post – 2018-04-09

अभिनन्दन शर्मा ने विषयान्तर होने की, या मुख्य विषय से जुड़े पार्श्विक मुद्दों को स्थान देने की मेरी प्रवृत्ति को मुख्य विषय को समझने में बाधक बताया है। मेरे मन में इसे लेकर दुविधा लंबे समय से रही है पर लोगों को प्रचलित मान्यताओं से बंधा पा कर मैं सोचता हूं कि पहले, पहले से चली आरही गलत धारणाओं का खंडन जरूरी है अन्यथा वे उन्हीं को लेकर आशंका प्रकट करेंगे। जैसे पश्चिमी विद्वानों से पहले कभी सोम को नशा नहीं माना जाता था, उसे नशा चढ़ाने वाली सुरा के विपरीत गुणों वाला आह्लादक पेय माना जाता था, आज प्राय: सुनने को मिल जाता हे कि ऋषि-मुनि भी तो सोमपान (सुरापान) करते थ, अत: लगा इसका कारण बताते हुए खंडन किए बिना मेरी बात समझने में बाधा पहुंचेगी। ऐसा ही अन्यत्र भी।
मै विवेचन पद्धति बदलने से पहले अन्य मित्रों की राय और अपना अनुभव जानना चाहता हूं।

Post – 2018-04-09

अभिनन्दन शर्मा ने विषयान्तर होने की, या मुख्य विषय से जुड़े पार्श्विक मुद्दों को स्थान देने की मेरी प्रवृत्ति को मुख्य विषय को समझने में बाधक बताया है। मेरे मन में इसे लेकर दुविधा लंबे समय से रही है पर लोगों को प्रचलित मान्यताओं से बंधा पा कर मैं सोचता हूं कि पहले, पहले से चली आरही गलत धारणाओं का खंडन जरूरी है अन्यथा वे उन्हीं को लेकर आशंका प्रकट करेंगे। जैसे पश्चिमी विद्वानों से पहले कभी सोम को नशा नहीं माना जाता था, उसे नशा चढ़ाने वाली सुरा के विपरीत गुणों वाला आह्लादक पेय माना जाता था, आज प्राय: सुनने को मिल जाता हे कि ऋषि-मुनि भी तो सोमपान (सुरापान) करते थ, अत: लगा इसका कारण बताते हुए खंडन किए बिना मेरी बात समझने में बाधा पहुंचेगी। ऐसा ही अन्यत्र भी।
मै विवेचन पद्धति बदलने से पहले अन्य मित्रों की राय और अपना अनुभव जानना चाहता हूं।

Post – 2018-04-09

अभिनन्दन शर्मा ने विषयान्तर होने की, या मुख्य विषय से जुड़े पार्श्विक मुद्दों को स्थान देने की मेरी प्रवृत्ति को मुख्य विषय को समझने में बाधक बताया है। मेरे मन में इसे लेकर दुविधा लंबे समय से रही है पर लोगों को प्रचलित मान्यताओं से बंधा पा कर मैं सोचता हूं कि पहले, पहले से चली आरही गलत धारणाओं का खंडन जरूरी है अन्यथा वे उन्हीं को लेकर आशंका प्रकट करेंगे। जैसे पश्चिमी विद्वानों से पहले कभी सोम को नशा नहीं माना जाता था, उसे नशा चढ़ाने वाली सुरा के विपरीत गुणों वाला आह्लादक पेय माना जाता था, आज प्राय: सुनने को मिल जाता हे कि ऋषि-मुनि भी तो सोमपान (सुरापान) करते थ, अत: लगा इसका कारण बताते हुए खंडन किए बिना मेरी बात समझने में बाधा पहुंचेगी। ऐसा ही अन्यत्र भी।
मै विवेचन पद्धति बदलने से पहले अन्य मित्रों की राय और अपना अनुभव जानना चाहता हूं।

Post – 2018-04-08

लघुता सूचक शब्द – एक

अणु

हमारा विमर्श केवल शब्द तक सीमित नही है. यह भाषा के माध्यम से इतिहास और संस्कृति का भी पुनर्मूल्यांकन है इस लिए बीच बीच में ऐसे प्रसंग आयेंगे जब हम कुछ दायें बाएं हो कर इतिहास और साहित्य की चर्चा भी करेंगे. प्रस्तुत प्रसंग में अणु की सूझ, इस अवधारणा के विकास को समझने के लिए सोम पर चर्चा ज़रूरी लगती है.

सोम – पाश्चात्य अध्येताओं ने कुछ अपव्याख्यायें जानबूझ कर अपनी प्रशासनिक और वर्चस्ववादी जरूरतों से कीं और कुछ उत्साह में आ कर। सोमलता और सोम और सोमरस की उनकी व्याख्या पर दोनों का असर था। यूरोपीय व्यापारियों के पास सौदे के रूप में देने को कुछ नहीं था इसलिए आरंभ से ही नशीले पदार्थों पर उनका जोर था। सुरती (सूरत के अड्डे से भारत में फैलने वाली तमाकू (जिसके ये दोनों नाम दो भिन्न रूपों और प्रयोगों के लिए रूढ़ हुए और बीड़ी (लपेट कर तैयार की गई) तथा सिगरेट और चुरुट (सिगार) भारत में उसी गुण के दावे के साथ प्रचारित की गई जिसका दावा करते हुए वियाग्रा और आनन फानन में यह पूरे देश में राजदरबारों से लेकर मजदूरों और किसानों के बीच तक, महिलाओं पुरुषों दोनों मों फैल गई।भारत में पाए जाने वाले मादक पदार्थों से उन्हें लाभ के स्थान पर हानि हो सकती थी। यूरोप में इनकी खपत बढ़ सकती थी जो अन्तत: मारिजुआना (गांजा), हसीस (भांग) और हेरोइन के कारण बीसवीं शताब्दी में सोवियत समाजवाद का प्रतिरोधी दस्ते की आय का स्रोत बना कर और स्वयं अमेरिका में कम्युनिज्म के प्रति युवकों की रुझान को रोकने के लिए उनको इसका आदी बना कर खपत के लिए चोरबाजार तैयार करके किया गया। अफीम के उत्पादन और व्यापार को अपने नियंत्रण में रख कर चीनियों को इसका आदी बनाकर किया गया।

ऋग्वेद में सोम के मादक पक्ष ने उन्हें इतना उत्तेजित किया कि यदि इसकी पहचान हो जाय और नील की खेती की तरह इसको अपने नियंत्रण में लेकर कारोबार हो तो इसके कारोबार से मालामाल हो जाएँ. अतः सोम के नशीले पक्ष पर एकांत जोर रहा और वानस्पतिक सोम ही केंद्र में रहा।भारतीय अध्येता भी उसी पाले में अपना खेल खेलते रहे. इस बात का भी ध्यान न रहा कि सोमपान के बाद मनुष्य नशे में नही आता, सौम्य होता है. हल्का आलस. यदि आपने खुले आसमान के नीचे सोने के बाद ओस से उत्पन्न अलसता का अनुभव किया हो और उठने के बाद स्नान न कर लिया हो तो आप सोम की मस्ती को समझ ही नहीं सकते, सचमुच सोम पान कर चुके हैं. यही स्थिति तब होगी यदि आप गन्ने के रस में दूध या दही मिला कर छक कर पान करें. गोभिः श्रीणीत मत्सरम – यह लस्सी का आदिम रूप है. हलकी मदालसता, या सौम्यता. अब आप सोमलता के दो रूपों से परिचित हो सकते हैं- चन्द्रलता, चन्द्ररेखा जिसके कारण द्युलोक में स्थित सोम की बात की जाती है और जिसे धारण करने के कारण शिव को सोमनाथ की संज्ञा मिली है। दूसरी है इक्षुलता या गन्ना। अकारण नहीं है कि शिव को गन्हने की पोरियां चढ़ाई जाती हैं। हमारे यहाँ असाधारण गुण वाली ओषधियों को स्वर्ग से लायी गई या टपकी बताया जाता रहा और इसका लाभ गन्ने को मिलना ही था जो मदिन्तम अर्थात मधुमत्तम, सर्वाधिक मधुर रस से भरी लता है और प्रथम साक्षात्कार में यवनों की तरह किसी को अद्भुत साम्य के लिए प्रेरित करता है। इसी का रस तीन तरीकों से निकाला जाता था, एक सिल पर रख कर कूट कर हाथों से मरोड़ कर, दूसरा ओखली में कूट कर हाथो से निचोर कर निकाला जता था और यह कारोबार घरघर होता था, और तीसरा गेडियो को पत्थर के कोल्हू में पेर कर. इन तीनों विधियों का उल्लेख ऋग्वेद के पहले मंडल के २८वें सूक्त में है. परन्तु सोम की दैवी महिमा का जो वर्णन है वह चन्द्रमा पर आधारित है।

चन्द्रमा से ओस कणों के रूप में अमृत झरता है. और इन्ही ओस के सूक्ष्म अदृश्य कणों के कारण सोम को अण्वी कहा गया है। आप को आश्चर्य होगा कि जब चंद्रमा में अमृत भरा हुआ है और वह सुनहला कटोरा है तो फिर यह अमृत छलक कर बाहर क्यों नहीं आता। इतने सूक्ष्म कण कैसे हो जाते है। इसका उत्तर यह कि आकाश में एक अदृश्य छलनी लगी हुई है उसी से छन कर यह अमृत ओषधियों को जिलाने के लिए इतने पवित्र रूप में आता है।

परन्तु हमारा दुर्भाग्य यह कि ऋग्वेद में केवल एक बार अण्वी प्रयोग आया है और वहां सायण ने इसका अर्थ उंगलियाँ किया है।
इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः ।
अण्वीभिस्तना पूृतासः ।। 1.3.4
‘विचित्र आभा से जगमग इंद्र आओ। मैंने तुम्हारे लिए ही सोम पेरा है और स्वयम अण्वियों से पवित्र किया है ।’ उँगलियों से पवित्र किया है अनुवाद गले के नीचे उतरता नहीं। उंगलियाँ से निचोरा है आशय हो तो सकता है, पर पूत का अर्थ पैदा करना लेना होगा जिससे मुझे विशेष आपत्ति नहीं पर उस दशा में कहीं हाथ के लिए अणु का प्रयोग मिलना चाहिए था जो नहीं मिलता। अंग = हाथ> अंगुली के तर्क से अणु = हाथ होता तो > अण्वी उअगलियों के लिए प्रयोग में आ सकता था।

मोनिअर विलियम्स ने अपने कोश में अण्वी का अर्थ सायण के अनुसार ही किया है परन्तु वह अण्व का अर्थ छननी के सूक्ष्म छिद्र करते हैं और इसका हवाला बिना निश्चित सन्दर्भ दिए ऋग्वेद का ही देते हैं जब कि इस रूप में ऋग्वेद में इसका प्रयोग हुआ ही नही है। ज़ाहिर है उनका तात्पर्य उसी स्थल से है, जिसे सायण ने ऊँगली मान लिया है।

यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि जिस अविकसित रीति से गन्ने का रस निकाला जाता था, उसको अच्छी तरह छानने के बाद ही उसका सेवन किया जा सकता था। छननी को अनेक बार पवित्र कहा भी गया है – हरिः पवित्रे अर्षति । कोशकारों ने भी पवित्र के अन्य आशयों के साथ एक अर्थ चलनी किया भी है। इसलिए हम अपनी असहमति को उचित मानते हैं और अणु का अर्थ सूक्ष्म ओसकण मानते है और इसे इसका सबसे प्राचीन संकेत.

छानने के तरीके का उल्लेख भी कर ही दें। सोमरस निकालने का कोल्हू बाद में तेल निकालने के कोल्हू जैसा ही था, नाम उसका भी उलूखल ही था.
यत्र मन्थां विबध्नते रश्मीन्यमितवा इव ।
उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः ॥४॥

इस कोल्हू का रस तिरछे छेद से होकर कलश में गिरता था और उसके मुंह पर पवित्र या छानने की जाली होती थी . पवित्र में छिद्र बने होते थे और उनमें ही ऊन भरा रहता था जिससे छन कर रस आवाज करता हुआ नीचे गिरता था अण्वीभि: में बहुवचन का प्रयोग इसकी परतों के कारण लगता है।

यजुर्वेद और शतपथ ब्राह्मण आदि में अणु के साथ सूक्ष्मता का भाव बहुत स्पष्ट रुप में आया है।

कण
कण का क्रिया रूप में कोश (आप्टे ) में दिया अर्थ आवाज देना, चिल्लाना, कराहना; २. छोटा होना,; ३. चलना, दिया है और संज्ञा रूप में १. अणु; २. अन्न कण; ३. अल्प मात्रा,; ४. रजकण या पराग धूलि; ५ . पानी की बूंद, छींटा, अम्बु ; ६. भुट्टा और ७. चिंगारी दिया है।

अर्थ सभी सही हैं क्योंकि वे लोक व्यवहार में थे पर क्रियामूल या धातु इन सभी को समेटने में असमर्थ है इसलिए ये सही होते हुए भी भरती के और इसलिए बेतुके प्रतीत होते हैं। इनके बीच तर्कसंगति का अभाव है। यदि इनको ध्यान से देखें तो इन व्याख्याओं में से ही सही मूल भी पता चल जाएगा, तर्कसंगति भी स्पष्ट हो जायेगी और बोलियों में मिलाने वाले आशय भी उसमें सिमट आयेंगे।

ऐसा अनुनादी प्रक्रिया के माध्यम से ही हो सकता है।

कन /कण = जल (कोश में छींटा, बूंद अम्बु आदि दिया ही है इसलिए कोई समस्या नहीं पर वहां एक विभ्रम की स्थिति छोटेपन पर अधिक ध्यान देने के कारण है जब कि अर्थ जल है। कंज= जलज। जल के अभाव में कराहने का आशय उसी तरह जुडा है जैसे तृषा से त्रास और त्राहि, आदि. जल के साथ गति, प्रकाश, और अग्नि ही नहीं ज्ञान और दृष्टि का सम्बन्ध है. इसी तर्क से तमिल का कण – आँख, संस्कृत और हिन्दी की कनीनिका, और निषेधात्मक काना निकला है और द्रष्टा के आस्ग्य में व्यक्तिनाम कण्व और प्रस्कण्व कण्व । पानी से ठण्ड के सम्बन्ध के कारण कनई, खाद्य और पेय के कारण तंडुल, कनक = गेहूँ, चमक के कारण कनक= सोना, कांचन, कांच = शीशा, कांस्य,- कांसे का, और सम्भव है पर जरूरी नहीं कि अभ्रक के कणों के बालू में मिले होने के कारण उनकी चमक के आधार पर उन्हें और फिर बालू के कण के लिएयह प्रयों रूढ हुआ हो और अणुवत का आशय इससे जुडा हो. महाकाव्य के काण्ड, सरकंडे के कांड और खंड और खांड के साथ अवश्य खंडित होने और टूटने का भाव है। यह कड, कल, खड़ की आवाज के साथ टूटने वाले कंकड़, पत्थर से सीधा सम्बन्ध रखता है या इसका सम्बन्ध भी जल से ही है इस को हम अनिर्णीत ही रहने देना चाहेंगे। पर जल के क्षुद्रतम अंश जो वाष्प कण और जलकण आदि में प्रयोग में आते है और जो अणु से इसकी निकटता सिद्ध करते है, उनसे हम परिचित है.

प्रसंगवश महर्षि कणाद के विषय में कोश में दी गई यह व्याख्या कि यह नाम उन्हें अणुवाद के जनक होने के कारण मिला सही नहीं लगता। वह अणु नहीं खाते थे, न उपहास के पात्र थे। वास्तव में साधना के कुछ मार्गों में जैसे उंछव्रतिक, गोव्रतिक,, मत्स्यव्रतिक अदि में विचित्र जीवन पद्धतियों का निर्वाह किया जाता था. मत्स्य वृतिक के अंतिम ज्ञात नमूने देवरहा बाबा थे। उंछ व्रतिक के लिए ही कणाद का प्रयोग होता था, जो फसल काटने के बाद खेत में टूटकर गिरी हुई बालियों को एकत्र करके अपन निर्वाह प्रकृति लभ्य अन्न पर करते थे। जव, गेहूं की बालियों के लिए भी कण (कनक) का प्रयोग होता था इसलिए कण का एक अर्थ भुट्टा या बाली कर लिया गया। मक्का, बाजरा, टांगून आदि हमारे निजी अन्न नहीं हैं और इनमे मक्का तो बहुत हाल में आया है।

अन्य शब्दों पर यथाक्रम .
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Post – 2018-04-08

लघुता सूचक शब्द – एक

अणु

हमारा विमर्श केवल शब्द तक सीमित नही है. यह भाषा के माध्यम से इतिहास और संस्कृति का भी पुनर्मूल्यांकन है इस लिए बीच बीच में ऐसे प्रसंग आयेंगे जब हम कुछ दायें बाएं हो कर इतिहास और साहित्य की चर्चा भी करेंगे. प्रस्तुत प्रसंग में अणु की सूझ, इस अवधारणा के विकास को समझने के लिए सोम पर चर्चा ज़रूरी लगती है.

सोम – पाश्चात्य अध्येताओं ने कुछ अपव्याख्यायें जानबूझ कर अपनी प्रशासनिक और वर्चस्ववादी जरूरतों से कीं और कुछ उत्साह में आ कर। सोमलता और सोम और सोमरस की उनकी व्याख्या पर दोनों का असर था। यूरोपीय व्यापारियों के पास सौदे के रूप में देने को कुछ नहीं था इसलिए आरंभ से ही नशीले पदार्थों पर उनका जोर था। सुरती (सूरत के अड्डे से भारत में फैलने वाली तमाकू (जिसके ये दोनों नाम दो भिन्न रूपों और प्रयोगों के लिए रूढ़ हुए और बीड़ी (लपेट कर तैयार की गई) तथा सिगरेट और चुरुट (सिगार) भारत में उसी गुण के दावे के साथ प्रचारित की गई जिसका दावा करते हुए वियाग्रा और आनन फानन में यह पूरे देश में राजदरबारों से लेकर मजदूरों और किसानों के बीच तक, महिलाओं पुरुषों दोनों मों फैल गई।भारत में पाए जाने वाले मादक पदार्थों से उन्हें लाभ के स्थान पर हानि हो सकती थी। यूरोप में इनकी खपत बढ़ सकती थी जो अन्तत: मारिजुआना (गांजा), हसीस (भांग) और हेरोइन के कारण बीसवीं शताब्दी में सोवियत समाजवाद का प्रतिरोधी दस्ते की आय का स्रोत बना कर और स्वयं अमेरिका में कम्युनिज्म के प्रति युवकों की रुझान को रोकने के लिए उनको इसका आदी बना कर खपत के लिए चोरबाजार तैयार करके किया गया। अफीम के उत्पादन और व्यापार को अपने नियंत्रण में रख कर चीनियों को इसका आदी बनाकर किया गया।

ऋग्वेद में सोम के मादक पक्ष ने उन्हें इतना उत्तेजित किया कि यदि इसकी पहचान हो जाय और नील की खेती की तरह इसको अपने नियंत्रण में लेकर कारोबार हो तो इसके कारोबार से मालामाल हो जाएँ. अतः सोम के नशीले पक्ष पर एकांत जोर रहा और वानस्पतिक सोम ही केंद्र में रहा।भारतीय अध्येता भी उसी पाले में अपना खेल खेलते रहे. इस बात का भी ध्यान न रहा कि सोमपान के बाद मनुष्य नशे में नही आता, सौम्य होता है. हल्का आलस. यदि आपने खुले आसमान के नीचे सोने के बाद ओस से उत्पन्न अलसता का अनुभव किया हो और उठने के बाद स्नान न कर लिया हो तो आप सोम की मस्ती को समझ ही नहीं सकते, सचमुच सोम पान कर चुके हैं. यही स्थिति तब होगी यदि आप गन्ने के रस में दूध या दही मिला कर छक कर पान करें. गोभिः श्रीणीत मत्सरम – यह लस्सी का आदिम रूप है. हलकी मदालसता, या सौम्यता. अब आप सोमलता के दो रूपों से परिचित हो सकते हैं- चन्द्रलता, चन्द्ररेखा जिसके कारण द्युलोक में स्थित सोम की बात की जाती है और जिसे धारण करने के कारण शिव को सोमनाथ की संज्ञा मिली है। दूसरी है इक्षुलता या गन्ना। अकारण नहीं है कि शिव को गन्हने की पोरियां चढ़ाई जाती हैं। हमारे यहाँ असाधारण गुण वाली ओषधियों को स्वर्ग से लायी गई या टपकी बताया जाता रहा और इसका लाभ गन्ने को मिलना ही था जो मदिन्तम अर्थात मधुमत्तम, सर्वाधिक मधुर रस से भरी लता है और प्रथम साक्षात्कार में यवनों की तरह किसी को अद्भुत साम्य के लिए प्रेरित करता है। इसी का रस तीन तरीकों से निकाला जाता था, एक सिल पर रख कर कूट कर हाथों से मरोड़ कर, दूसरा ओखली में कूट कर हाथो से निचोर कर निकाला जता था और यह कारोबार घरघर होता था, और तीसरा गेडियो को पत्थर के कोल्हू में पेर कर. इन तीनों विधियों का उल्लेख ऋग्वेद के पहले मंडल के २८वें सूक्त में है. परन्तु सोम की दैवी महिमा का जो वर्णन है वह चन्द्रमा पर आधारित है।

चन्द्रमा से ओस कणों के रूप में अमृत झरता है. और इन्ही ओस के सूक्ष्म अदृश्य कणों के कारण सोम को अण्वी कहा गया है। आप को आश्चर्य होगा कि जब चंद्रमा में अमृत भरा हुआ है और वह सुनहला कटोरा है तो फिर यह अमृत छलक कर बाहर क्यों नहीं आता। इतने सूक्ष्म कण कैसे हो जाते है। इसका उत्तर यह कि आकाश में एक अदृश्य छलनी लगी हुई है उसी से छन कर यह अमृत ओषधियों को जिलाने के लिए इतने पवित्र रूप में आता है।

परन्तु हमारा दुर्भाग्य यह कि ऋग्वेद में केवल एक बार अण्वी प्रयोग आया है और वहां सायण ने इसका अर्थ उंगलियाँ किया है।
इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः ।
अण्वीभिस्तना पूृतासः ।। 1.3.4
‘विचित्र आभा से जगमग इंद्र आओ। मैंने तुम्हारे लिए ही सोम पेरा है और स्वयम अण्वियों से पवित्र किया है ।’ उँगलियों से पवित्र किया है अनुवाद गले के नीचे उतरता नहीं। उंगलियाँ से निचोरा है आशय हो तो सकता है, पर पूत का अर्थ पैदा करना लेना होगा जिससे मुझे विशेष आपत्ति नहीं पर उस दशा में कहीं हाथ के लिए अणु का प्रयोग मिलना चाहिए था जो नहीं मिलता। अंग = हाथ> अंगुली के तर्क से अणु = हाथ होता तो > अण्वी उअगलियों के लिए प्रयोग में आ सकता था।

मोनिअर विलियम्स ने अपने कोश में अण्वी का अर्थ सायण के अनुसार ही किया है परन्तु वह अण्व का अर्थ छननी के सूक्ष्म छिद्र करते हैं और इसका हवाला बिना निश्चित सन्दर्भ दिए ऋग्वेद का ही देते हैं जब कि इस रूप में ऋग्वेद में इसका प्रयोग हुआ ही नही है। ज़ाहिर है उनका तात्पर्य उसी स्थल से है, जिसे सायण ने ऊँगली मान लिया है।

यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि जिस अविकसित रीति से गन्ने का रस निकाला जाता था, उसको अच्छी तरह छानने के बाद ही उसका सेवन किया जा सकता था। छननी को अनेक बार पवित्र कहा भी गया है – हरिः पवित्रे अर्षति । कोशकारों ने भी पवित्र के अन्य आशयों के साथ एक अर्थ चलनी किया भी है। इसलिए हम अपनी असहमति को उचित मानते हैं और अणु का अर्थ सूक्ष्म ओसकण मानते है और इसे इसका सबसे प्राचीन संकेत.

छानने के तरीके का उल्लेख भी कर ही दें। सोमरस निकालने का कोल्हू बाद में तेल निकालने के कोल्हू जैसा ही था, नाम उसका भी उलूखल ही था.
यत्र मन्थां विबध्नते रश्मीन्यमितवा इव ।
उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः ॥४॥

इस कोल्हू का रस तिरछे छेद से होकर कलश में गिरता था और उसके मुंह पर पवित्र या छानने की जाली होती थी . पवित्र में छिद्र बने होते थे और उनमें ही ऊन भरा रहता था जिससे छन कर रस आवाज करता हुआ नीचे गिरता था अण्वीभि: में बहुवचन का प्रयोग इसकी परतों के कारण लगता है।

यजुर्वेद और शतपथ ब्राह्मण आदि में अणु के साथ सूक्ष्मता का भाव बहुत स्पष्ट रुप में आया है।

कण
कण का क्रिया रूप में कोश (आप्टे ) में दिया अर्थ आवाज देना, चिल्लाना, कराहना; २. छोटा होना,; ३. चलना, दिया है और संज्ञा रूप में १. अणु; २. अन्न कण; ३. अल्प मात्रा,; ४. रजकण या पराग धूलि; ५ . पानी की बूंद, छींटा, अम्बु ; ६. भुट्टा और ७. चिंगारी दिया है।

अर्थ सभी सही हैं क्योंकि वे लोक व्यवहार में थे पर क्रियामूल या धातु इन सभी को समेटने में असमर्थ है इसलिए ये सही होते हुए भी भरती के और इसलिए बेतुके प्रतीत होते हैं। इनके बीच तर्कसंगति का अभाव है। यदि इनको ध्यान से देखें तो इन व्याख्याओं में से ही सही मूल भी पता चल जाएगा, तर्कसंगति भी स्पष्ट हो जायेगी और बोलियों में मिलाने वाले आशय भी उसमें सिमट आयेंगे।

ऐसा अनुनादी प्रक्रिया के माध्यम से ही हो सकता है।

कन /कण = जल (कोश में छींटा, बूंद अम्बु आदि दिया ही है इसलिए कोई समस्या नहीं पर वहां एक विभ्रम की स्थिति छोटेपन पर अधिक ध्यान देने के कारण है जब कि अर्थ जल है। कंज= जलज। जल के अभाव में कराहने का आशय उसी तरह जुडा है जैसे तृषा से त्रास और त्राहि, आदि. जल के साथ गति, प्रकाश, और अग्नि ही नहीं ज्ञान और दृष्टि का सम्बन्ध है. इसी तर्क से तमिल का कण – आँख, संस्कृत और हिन्दी की कनीनिका, और निषेधात्मक काना निकला है और द्रष्टा के आस्ग्य में व्यक्तिनाम कण्व और प्रस्कण्व कण्व । पानी से ठण्ड के सम्बन्ध के कारण कनई, खाद्य और पेय के कारण तंडुल, कनक = गेहूँ, चमक के कारण कनक= सोना, कांचन, कांच = शीशा, कांस्य,- कांसे का, और सम्भव है पर जरूरी नहीं कि अभ्रक के कणों के बालू में मिले होने के कारण उनकी चमक के आधार पर उन्हें और फिर बालू के कण के लिएयह प्रयों रूढ हुआ हो और अणुवत का आशय इससे जुडा हो. महाकाव्य के काण्ड, सरकंडे के कांड और खंड और खांड के साथ अवश्य खंडित होने और टूटने का भाव है। यह कड, कल, खड़ की आवाज के साथ टूटने वाले कंकड़, पत्थर से सीधा सम्बन्ध रखता है या इसका सम्बन्ध भी जल से ही है इस को हम अनिर्णीत ही रहने देना चाहेंगे। पर जल के क्षुद्रतम अंश जो वाष्प कण और जलकण आदि में प्रयोग में आते है और जो अणु से इसकी निकटता सिद्ध करते है, उनसे हम परिचित है.

प्रसंगवश महर्षि कणाद के विषय में कोश में दी गई यह व्याख्या कि यह नाम उन्हें अणुवाद के जनक होने के कारण मिला सही नहीं लगता। वह अणु नहीं खाते थे, न उपहास के पात्र थे। वास्तव में साधना के कुछ मार्गों में जैसे उंछव्रतिक, गोव्रतिक,, मत्स्यव्रतिक अदि में विचित्र जीवन पद्धतियों का निर्वाह किया जाता था. मत्स्य वृतिक के अंतिम ज्ञात नमूने देवरहा बाबा थे। उंछ व्रतिक के लिए ही कणाद का प्रयोग होता था, जो फसल काटने के बाद खेत में टूटकर गिरी हुई बालियों को एकत्र करके अपन निर्वाह प्रकृति लभ्य अन्न पर करते थे। जव, गेहूं की बालियों के लिए भी कण (कनक) का प्रयोग होता था इसलिए कण का एक अर्थ भुट्टा या बाली कर लिया गया। मक्का, बाजरा, टांगून आदि हमारे निजी अन्न नहीं हैं और इनमे मक्का तो बहुत हाल में आया है।

अन्य शब्दों पर यथाक्रम .
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Post – 2018-04-08

लघुता सूचक शब्द – एक

अणु

हमारा विमर्श केवल शब्द तक सीमित नही है. यह भाषा के माध्यम से इतिहास और संस्कृति का भी पुनर्मूल्यांकन है इस लिए बीच बीच में ऐसे प्रसंग आयेंगे जब हम कुछ दायें बाएं हो कर इतिहास और साहित्य की चर्चा भी करेंगे. प्रस्तुत प्रसंग में अणु की सूझ, इस अवधारणा के विकास को समझने के लिए सोम पर चर्चा ज़रूरी लगती है.

सोम – पाश्चात्य अध्येताओं ने कुछ अपव्याख्यायें जानबूझ कर अपनी प्रशासनिक और वर्चस्ववादी जरूरतों से कीं और कुछ उत्साह में आ कर। सोमलता और सोम और सोमरस की उनकी व्याख्या पर दोनों का असर था। यूरोपीय व्यापारियों के पास सौदे के रूप में देने को कुछ नहीं था इसलिए आरंभ से ही नशीले पदार्थों पर उनका जोर था। सुरती (सूरत के अड्डे से भारत में फैलने वाली तमाकू (जिसके ये दोनों नाम दो भिन्न रूपों और प्रयोगों के लिए रूढ़ हुए और बीड़ी (लपेट कर तैयार की गई) तथा सिगरेट और चुरुट (सिगार) भारत में उसी गुण के दावे के साथ प्रचारित की गई जिसका दावा करते हुए वियाग्रा और आनन फानन में यह पूरे देश में राजदरबारों से लेकर मजदूरों और किसानों के बीच तक, महिलाओं पुरुषों दोनों मों फैल गई।भारत में पाए जाने वाले मादक पदार्थों से उन्हें लाभ के स्थान पर हानि हो सकती थी। यूरोप में इनकी खपत बढ़ सकती थी जो अन्तत: मारिजुआना (गांजा), हसीस (भांग) और हेरोइन के कारण बीसवीं शताब्दी में सोवियत समाजवाद का प्रतिरोधी दस्ते की आय का स्रोत बना कर और स्वयं अमेरिका में कम्युनिज्म के प्रति युवकों की रुझान को रोकने के लिए उनको इसका आदी बना कर खपत के लिए चोरबाजार तैयार करके किया गया। अफीम के उत्पादन और व्यापार को अपने नियंत्रण में रख कर चीनियों को इसका आदी बनाकर किया गया।

ऋग्वेद में सोम के मादक पक्ष ने उन्हें इतना उत्तेजित किया कि यदि इसकी पहचान हो जाय और नील की खेती की तरह इसको अपने नियंत्रण में लेकर कारोबार हो तो इसके कारोबार से मालामाल हो जाएँ. अतः सोम के नशीले पक्ष पर एकांत जोर रहा और वानस्पतिक सोम ही केंद्र में रहा।भारतीय अध्येता भी उसी पाले में अपना खेल खेलते रहे. इस बात का भी ध्यान न रहा कि सोमपान के बाद मनुष्य नशे में नही आता, सौम्य होता है. हल्का आलस. यदि आपने खुले आसमान के नीचे सोने के बाद ओस से उत्पन्न अलसता का अनुभव किया हो और उठने के बाद स्नान न कर लिया हो तो आप सोम की मस्ती को समझ ही नहीं सकते, सचमुच सोम पान कर चुके हैं. यही स्थिति तब होगी यदि आप गन्ने के रस में दूध या दही मिला कर छक कर पान करें. गोभिः श्रीणीत मत्सरम – यह लस्सी का आदिम रूप है. हलकी मदालसता, या सौम्यता. अब आप सोमलता के दो रूपों से परिचित हो सकते हैं- चन्द्रलता, चन्द्ररेखा जिसके कारण द्युलोक में स्थित सोम की बात की जाती है और जिसे धारण करने के कारण शिव को सोमनाथ की संज्ञा मिली है। दूसरी है इक्षुलता या गन्ना। अकारण नहीं है कि शिव को गन्हने की पोरियां चढ़ाई जाती हैं। हमारे यहाँ असाधारण गुण वाली ओषधियों को स्वर्ग से लायी गई या टपकी बताया जाता रहा और इसका लाभ गन्ने को मिलना ही था जो मदिन्तम अर्थात मधुमत्तम, सर्वाधिक मधुर रस से भरी लता है और प्रथम साक्षात्कार में यवनों की तरह किसी को अद्भुत साम्य के लिए प्रेरित करता है। इसी का रस तीन तरीकों से निकाला जाता था, एक सिल पर रख कर कूट कर हाथों से मरोड़ कर, दूसरा ओखली में कूट कर हाथो से निचोर कर निकाला जता था और यह कारोबार घरघर होता था, और तीसरा गेडियो को पत्थर के कोल्हू में पेर कर. इन तीनों विधियों का उल्लेख ऋग्वेद के पहले मंडल के २८वें सूक्त में है. परन्तु सोम की दैवी महिमा का जो वर्णन है वह चन्द्रमा पर आधारित है।

चन्द्रमा से ओस कणों के रूप में अमृत झरता है. और इन्ही ओस के सूक्ष्म अदृश्य कणों के कारण सोम को अण्वी कहा गया है। आप को आश्चर्य होगा कि जब चंद्रमा में अमृत भरा हुआ है और वह सुनहला कटोरा है तो फिर यह अमृत छलक कर बाहर क्यों नहीं आता। इतने सूक्ष्म कण कैसे हो जाते है। इसका उत्तर यह कि आकाश में एक अदृश्य छलनी लगी हुई है उसी से छन कर यह अमृत ओषधियों को जिलाने के लिए इतने पवित्र रूप में आता है।

परन्तु हमारा दुर्भाग्य यह कि ऋग्वेद में केवल एक बार अण्वी प्रयोग आया है और वहां सायण ने इसका अर्थ उंगलियाँ किया है।
इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः ।
अण्वीभिस्तना पूृतासः ।। 1.3.4
‘विचित्र आभा से जगमग इंद्र आओ। मैंने तुम्हारे लिए ही सोम पेरा है और स्वयम अण्वियों से पवित्र किया है ।’ उँगलियों से पवित्र किया है अनुवाद गले के नीचे उतरता नहीं। उंगलियाँ से निचोरा है आशय हो तो सकता है, पर पूत का अर्थ पैदा करना लेना होगा जिससे मुझे विशेष आपत्ति नहीं पर उस दशा में कहीं हाथ के लिए अणु का प्रयोग मिलना चाहिए था जो नहीं मिलता। अंग = हाथ> अंगुली के तर्क से अणु = हाथ होता तो > अण्वी उअगलियों के लिए प्रयोग में आ सकता था।

मोनिअर विलियम्स ने अपने कोश में अण्वी का अर्थ सायण के अनुसार ही किया है परन्तु वह अण्व का अर्थ छननी के सूक्ष्म छिद्र करते हैं और इसका हवाला बिना निश्चित सन्दर्भ दिए ऋग्वेद का ही देते हैं जब कि इस रूप में ऋग्वेद में इसका प्रयोग हुआ ही नही है। ज़ाहिर है उनका तात्पर्य उसी स्थल से है, जिसे सायण ने ऊँगली मान लिया है।

यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि जिस अविकसित रीति से गन्ने का रस निकाला जाता था, उसको अच्छी तरह छानने के बाद ही उसका सेवन किया जा सकता था। छननी को अनेक बार पवित्र कहा भी गया है – हरिः पवित्रे अर्षति । कोशकारों ने भी पवित्र के अन्य आशयों के साथ एक अर्थ चलनी किया भी है। इसलिए हम अपनी असहमति को उचित मानते हैं और अणु का अर्थ सूक्ष्म ओसकण मानते है और इसे इसका सबसे प्राचीन संकेत.

छानने के तरीके का उल्लेख भी कर ही दें। सोमरस निकालने का कोल्हू बाद में तेल निकालने के कोल्हू जैसा ही था, नाम उसका भी उलूखल ही था.
यत्र मन्थां विबध्नते रश्मीन्यमितवा इव ।
उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः ॥४॥

इस कोल्हू का रस तिरछे छेद से होकर कलश में गिरता था और उसके मुंह पर पवित्र या छानने की जाली होती थी . पवित्र में छिद्र बने होते थे और उनमें ही ऊन भरा रहता था जिससे छन कर रस आवाज करता हुआ नीचे गिरता था अण्वीभि: में बहुवचन का प्रयोग इसकी परतों के कारण लगता है।

यजुर्वेद और शतपथ ब्राह्मण आदि में अणु के साथ सूक्ष्मता का भाव बहुत स्पष्ट रुप में आया है।

कण
कण का क्रिया रूप में कोश (आप्टे ) में दिया अर्थ आवाज देना, चिल्लाना, कराहना; २. छोटा होना,; ३. चलना, दिया है और संज्ञा रूप में १. अणु; २. अन्न कण; ३. अल्प मात्रा,; ४. रजकण या पराग धूलि; ५ . पानी की बूंद, छींटा, अम्बु ; ६. भुट्टा और ७. चिंगारी दिया है।

अर्थ सभी सही हैं क्योंकि वे लोक व्यवहार में थे पर क्रियामूल या धातु इन सभी को समेटने में असमर्थ है इसलिए ये सही होते हुए भी भरती के और इसलिए बेतुके प्रतीत होते हैं। इनके बीच तर्कसंगति का अभाव है। यदि इनको ध्यान से देखें तो इन व्याख्याओं में से ही सही मूल भी पता चल जाएगा, तर्कसंगति भी स्पष्ट हो जायेगी और बोलियों में मिलाने वाले आशय भी उसमें सिमट आयेंगे।

ऐसा अनुनादी प्रक्रिया के माध्यम से ही हो सकता है।

कन /कण = जल (कोश में छींटा, बूंद अम्बु आदि दिया ही है इसलिए कोई समस्या नहीं पर वहां एक विभ्रम की स्थिति छोटेपन पर अधिक ध्यान देने के कारण है जब कि अर्थ जल है। कंज= जलज। जल के अभाव में कराहने का आशय उसी तरह जुडा है जैसे तृषा से त्रास और त्राहि, आदि. जल के साथ गति, प्रकाश, और अग्नि ही नहीं ज्ञान और दृष्टि का सम्बन्ध है. इसी तर्क से तमिल का कण – आँख, संस्कृत और हिन्दी की कनीनिका, और निषेधात्मक काना निकला है और द्रष्टा के आस्ग्य में व्यक्तिनाम कण्व और प्रस्कण्व कण्व । पानी से ठण्ड के सम्बन्ध के कारण कनई, खाद्य और पेय के कारण तंडुल, कनक = गेहूँ, चमक के कारण कनक= सोना, कांचन, कांच = शीशा, कांस्य,- कांसे का, और सम्भव है पर जरूरी नहीं कि अभ्रक के कणों के बालू में मिले होने के कारण उनकी चमक के आधार पर उन्हें और फिर बालू के कण के लिएयह प्रयों रूढ हुआ हो और अणुवत का आशय इससे जुडा हो. महाकाव्य के काण्ड, सरकंडे के कांड और खंड और खांड के साथ अवश्य खंडित होने और टूटने का भाव है। यह कड, कल, खड़ की आवाज के साथ टूटने वाले कंकड़, पत्थर से सीधा सम्बन्ध रखता है या इसका सम्बन्ध भी जल से ही है इस को हम अनिर्णीत ही रहने देना चाहेंगे। पर जल के क्षुद्रतम अंश जो वाष्प कण और जलकण आदि में प्रयोग में आते है और जो अणु से इसकी निकटता सिद्ध करते है, उनसे हम परिचित है.

प्रसंगवश महर्षि कणाद के विषय में कोश में दी गई यह व्याख्या कि यह नाम उन्हें अणुवाद के जनक होने के कारण मिला सही नहीं लगता। वह अणु नहीं खाते थे, न उपहास के पात्र थे। वास्तव में साधना के कुछ मार्गों में जैसे उंछव्रतिक, गोव्रतिक,, मत्स्यव्रतिक अदि में विचित्र जीवन पद्धतियों का निर्वाह किया जाता था. मत्स्य वृतिक के अंतिम ज्ञात नमूने देवरहा बाबा थे। उंछ व्रतिक के लिए ही कणाद का प्रयोग होता था, जो फसल काटने के बाद खेत में टूटकर गिरी हुई बालियों को एकत्र करके अपन निर्वाह प्रकृति लभ्य अन्न पर करते थे। जव, गेहूं की बालियों के लिए भी कण (कनक) का प्रयोग होता था इसलिए कण का एक अर्थ भुट्टा या बाली कर लिया गया। मक्का, बाजरा, टांगून आदि हमारे निजी अन्न नहीं हैं और इनमे मक्का तो बहुत हाल में आया है।

अन्य शब्दों पर यथाक्रम .
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Post – 2018-04-07

पानी और गणना

आज हम गणित के जलसे उद्भव की संभावना पर चर्चा करेंगे। हम यह बात जानते हैं कि अंको का उंगलियों से गहरा संबंध है परंतु यह नहीं जानते कि उंगलियों का संबंध पानी से भी हो सकता है। इस ओर मेरा ध्यान से कुछ विलंब से गया । बार बार ऋग्वेद पर सायणाचार्य के भाष्य को उलटते पलटते । फिर कुछ और टटोलने के बाद मैंने पाया कि क्षुद्रतम अंशों, जैसे अणु, कण, रेणु, पुद्गल, अंश, खंड, भाग, क्षुद्र के लिए जो शब्द प्रयोग में आते है वे भी सीधे या टेढ़े जलवाची शब्दों से जुड़ते है, अंक, संख्या, कलन, गणित, भाग, धन, ऋण, गुणन आदि भी, और विराटतम संख्याओं और विपुलता सूचक बहुवचन , बहु. विपुल, अति,अधिक, महत, पूर्ण, भूरि, अलं, बाढ, अपार, पृथुल, अपार,अकूत,,भारी, वृहत, संहति, आदि भी।

इस रहस्य को कोशग्रन्थों के सहारे नहीं समझा जा सकता। संस्कृत व्याकरण भी हमारी अधिक सहायता नहीं कर सकता, जिसमें संज्ञाओं के ही तद्धित और कृदन्त भेद किए गए हैं। कृदन्त वे शब्द है जिनको धातुज माना गया है। उनकी व्युत्पत्ति भी, जैसा हम पीछे देख आए हैं, हर माने में सन्देह से परे नहीं है। परन्तु ऐसी संज्ञाएं जिनको किसी धातु से नहीं संबद्ध किया जा सका, जिन्हें तद्धित कहा जाता है, उनकी व्युत्पत्तियां इतनी हास्यास्पद हो सकती है कि इन पर संस्कृत के पंडित ही अपनी हंसी रोक सकते हैं। इसका एक नमूना पुत्र शब्द है। ‘पुत्र’ की व्याख्या है, ‘पुं नाम इति नरक: तस्मात् त्रायते इति पुत्र: (पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात्त्रायते पितरं सुत:। तस्मात् पुत्र इति प्रोक्त: स्वयमेव स्वयंभुवा।) आप्टे इस व्याख्या से ही सन्तुष्ट नहीं हैं, आगे सुझाव देते हैं कि इस कारण इस शब्द को ‘पुत्त्र’ के रूप में ही खिखा जाना चाहिए लेकिन लोग हैं कि नरक की ऐसी तैसी करते हुए इसे पुत्र रूप में ही लिखते हैं और स्वयं आप्टे ने भी अपने कोश में ‘पुत्र:’ शीर्षक के अन्तर्गत ही अपने उक्त विचार प्रकट किए हैं।

कृत्रिम व्याख्याओं में इस तरह का संकट बना रहेगा ही। अनुनादी पद्धति में इस तरह के कृदन्त तद्धित का भेद नहीं रह जाता। उसमेँ एक आवयिकता है, जिसमें क्रिया, विशेषण और क्रियाविशेषण तक उसी ध्वनि की तार्किक शृंखला में जुड़े चले आते हैं।

परन्तु हमेँ उस सिद्धान्त का स्मरण दिलाना होगा कि जल की विविध गतियों के कारण गति के विविध रूपों जिनमें प्रखर से लेकर मंथर, ऋजु से लेकर वंकिम और चक्करदार, ऊर्ध्वाधर से लेकर क्षैतिज से ही सभी गतियों, रीतियों, प्रथाओं के लिए शब्द निकले हैं जो उपसर्गों का भी काम करते हैं। जल के ही पर्याय लगभग सभी खाद्य पदार्थो, सभी अनाजों, सभी वनस्पतियों, सभी रंगों, ज्ञान, प्रकाश, इनके साधन, चांद-सूरज सहित ब्रहमांड के सभी दृश्य पिंडों, सभी मनोभावो-विचारों, सभी खनिजों-धातुओं, धन संपत्ति के रूपों के साथ मिलते हैं और आगे चलकर मानवीय हस्तक्षेप से भाषा के विस्तार का दौर आता है जिसके लिए ये इकाइयों या आधारभूत घटकों का काम करते हैं।

इस दावे की परीक्षा हम आगे की चर्चाओं में करेंगे परन्तु यहां इनको एक साथ गिनाने का प्रयोजन यह है कि किसी विशेष आशय में रूढ़ हो जाने के कारण और अपने मूल अर्थ में प्रयोगच्युत हो जाने के कारण, कुछ मामलों में हम शब्द का सीधा संबंध जल से न जोड़ सकें। उस अवस्था में में हम ‘मान्य अर्थ’ या assumed sense के लिए ‘*’ चिन्ह लगाकर, यह परखने का प्रयत्न करेंगे कि ऊपर के एकाधिक आशयों में उसका प्रयोग हुआ है या नहीं। यदि हां, तो मान्यता प्रामाणिक हो जाएगी।

एक अन्य तथ्य यह कि अनुनादी उच्चारण में ह्रस्व, दीर्घ और नासिक्य का अधिक ध्यान नहीं रहता, अत: इनका अभेद बना रहेगा। तुलनात्मक साक्ष्य में ईरानी और यूरोपीय बोलियों में (हमारी सीमा में अंग्रेजी और अधिक से अधिक कोश की सहायता से लातिन और ग्रीक) स्वरों और व्यंजनों के जो सर्वमान्य परिवर्तन हैं उनका लाभ लेना स्वाभाविक है और यदि हम व्युत्पादन के संस्कृत पद्धति की चिन्ता नहीं करने जा रहे हैं तो इससे प्रेरित पश्चिमी व्युत्पादन का बंधन भी नहीं स्वाकार करेंगे, जो यूं भी सजात शब्दों के उल्लेख से आगे नहीं बढ़ पाया है। प्रोटो इंडोयूरोपियन के जो स्टेम कल्पित किए गए हैं, उनमें यूरोपीय बोलियो को अतिरिक्त प्रधानता देते हुए धातुओं के निर्धारण की ही नकल की गई है, इसलिए उनमें धातुओं वाले दोष तो हैं ही, उसके बाद भी उनकी जो सीमित उपयोगिता है वह यूरोपीय भाषाओं तक सीमित है। उस रूप में भी उन्हें आप्तता नहीं मिली है अत: मानक कोशों में उन्हे स्थान नहीं दिया गया है। हमारी तो सीमा यह भी है कि मेरे पास वैसा कोई कोश नहीं। अत: उनकी व्याख्या हमारे लिए बन्धनकारी नहीं है। इसके बाद भी कुछ गंभीर चूकें मेरी अपनी सीमाओं और विचार के समय बहाव के कारण हो सकती हैं जिनका प्रतिशत तो तय नहीं किया जा सकता पर संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

अब हम अगली कुछ पोस्टों में गणित के क्षेत्र में प्रयुक्त शब्दों पर विचार करेंगे।

Post – 2018-04-07

पानी और गणना

आज हम गणित के जलसे उद्भव की संभावना पर चर्चा करेंगे। हम यह बात जानते हैं कि अंको का उंगलियों से गहरा संबंध है परंतु यह नहीं जानते कि उंगलियों का संबंध पानी से भी हो सकता है। इस ओर मेरा ध्यान से कुछ विलंब से गया । बार बार ऋग्वेद पर सायणाचार्य के भाष्य को उलटते पलटते । फिर कुछ और टटोलने के बाद मैंने पाया कि क्षुद्रतम अंशों, जैसे अणु, कण, रेणु, पुद्गल, अंश, खंड, भाग, क्षुद्र के लिए जो शब्द प्रयोग में आते है वे भी सीधे या टेढ़े जलवाची शब्दों से जुड़ते है, अंक, संख्या, कलन, गणित, भाग, धन, ऋण, गुणन आदि भी, और विराटतम संख्याओं और विपुलता सूचक बहुवचन , बहु. विपुल, अति,अधिक, महत, पूर्ण, भूरि, अलं, बाढ, अपार, पृथुल, अपार,अकूत,,भारी, वृहत, संहति, आदि भी।

इस रहस्य को कोशग्रन्थों के सहारे नहीं समझा जा सकता। संस्कृत व्याकरण भी हमारी अधिक सहायता नहीं कर सकता, जिसमें संज्ञाओं के ही तद्धित और कृदन्त भेद किए गए हैं। कृदन्त वे शब्द है जिनको धातुज माना गया है। उनकी व्युत्पत्ति भी, जैसा हम पीछे देख आए हैं, हर माने में सन्देह से परे नहीं है। परन्तु ऐसी संज्ञाएं जिनको किसी धातु से नहीं संबद्ध किया जा सका, जिन्हें तद्धित कहा जाता है, उनकी व्युत्पत्तियां इतनी हास्यास्पद हो सकती है कि इन पर संस्कृत के पंडित ही अपनी हंसी रोक सकते हैं। इसका एक नमूना पुत्र शब्द है। ‘पुत्र’ की व्याख्या है, ‘पुं नाम इति नरक: तस्मात् त्रायते इति पुत्र: (पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात्त्रायते पितरं सुत:। तस्मात् पुत्र इति प्रोक्त: स्वयमेव स्वयंभुवा।) आप्टे इस व्याख्या से ही सन्तुष्ट नहीं हैं, आगे सुझाव देते हैं कि इस कारण इस शब्द को ‘पुत्त्र’ के रूप में ही खिखा जाना चाहिए लेकिन लोग हैं कि नरक की ऐसी तैसी करते हुए इसे पुत्र रूप में ही लिखते हैं और स्वयं आप्टे ने भी अपने कोश में ‘पुत्र:’ शीर्षक के अन्तर्गत ही अपने उक्त विचार प्रकट किए हैं।

कृत्रिम व्याख्याओं में इस तरह का संकट बना रहेगा ही। अनुनादी पद्धति में इस तरह के कृदन्त तद्धित का भेद नहीं रह जाता। उसमेँ एक आवयिकता है, जिसमें क्रिया, विशेषण और क्रियाविशेषण तक उसी ध्वनि की तार्किक शृंखला में जुड़े चले आते हैं।

परन्तु हमेँ उस सिद्धान्त का स्मरण दिलाना होगा कि जल की विविध गतियों के कारण गति के विविध रूपों जिनमें प्रखर से लेकर मंथर, ऋजु से लेकर वंकिम और चक्करदार, ऊर्ध्वाधर से लेकर क्षैतिज से ही सभी गतियों, रीतियों, प्रथाओं के लिए शब्द निकले हैं जो उपसर्गों का भी काम करते हैं। जल के ही पर्याय लगभग सभी खाद्य पदार्थो, सभी अनाजों, सभी वनस्पतियों, सभी रंगों, ज्ञान, प्रकाश, इनके साधन, चांद-सूरज सहित ब्रहमांड के सभी दृश्य पिंडों, सभी मनोभावो-विचारों, सभी खनिजों-धातुओं, धन संपत्ति के रूपों के साथ मिलते हैं और आगे चलकर मानवीय हस्तक्षेप से भाषा के विस्तार का दौर आता है जिसके लिए ये इकाइयों या आधारभूत घटकों का काम करते हैं।

इस दावे की परीक्षा हम आगे की चर्चाओं में करेंगे परन्तु यहां इनको एक साथ गिनाने का प्रयोजन यह है कि किसी विशेष आशय में रूढ़ हो जाने के कारण और अपने मूल अर्थ में प्रयोगच्युत हो जाने के कारण, कुछ मामलों में हम शब्द का सीधा संबंध जल से न जोड़ सकें। उस अवस्था में में हम ‘मान्य अर्थ’ या assumed sense के लिए ‘*’ चिन्ह लगाकर, यह परखने का प्रयत्न करेंगे कि ऊपर के एकाधिक आशयों में उसका प्रयोग हुआ है या नहीं। यदि हां, तो मान्यता प्रामाणिक हो जाएगी।

एक अन्य तथ्य यह कि अनुनादी उच्चारण में ह्रस्व, दीर्घ और नासिक्य का अधिक ध्यान नहीं रहता, अत: इनका अभेद बना रहेगा। तुलनात्मक साक्ष्य में ईरानी और यूरोपीय बोलियों में (हमारी सीमा में अंग्रेजी और अधिक से अधिक कोश की सहायता से लातिन और ग्रीक) स्वरों और व्यंजनों के जो सर्वमान्य परिवर्तन हैं उनका लाभ लेना स्वाभाविक है और यदि हम व्युत्पादन के संस्कृत पद्धति की चिन्ता नहीं करने जा रहे हैं तो इससे प्रेरित पश्चिमी व्युत्पादन का बंधन भी नहीं स्वाकार करेंगे, जो यूं भी सजात शब्दों के उल्लेख से आगे नहीं बढ़ पाया है। प्रोटो इंडोयूरोपियन के जो स्टेम कल्पित किए गए हैं, उनमें यूरोपीय बोलियो को अतिरिक्त प्रधानता देते हुए धातुओं के निर्धारण की ही नकल की गई है, इसलिए उनमें धातुओं वाले दोष तो हैं ही, उसके बाद भी उनकी जो सीमित उपयोगिता है वह यूरोपीय भाषाओं तक सीमित है। उस रूप में भी उन्हें आप्तता नहीं मिली है अत: मानक कोशों में उन्हे स्थान नहीं दिया गया है। हमारी तो सीमा यह भी है कि मेरे पास वैसा कोई कोश नहीं। अत: उनकी व्याख्या हमारे लिए बन्धनकारी नहीं है। इसके बाद भी कुछ गंभीर चूकें मेरी अपनी सीमाओं और विचार के समय बहाव के कारण हो सकती हैं जिनका प्रतिशत तो तय नहीं किया जा सकता पर संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

अब हम अगली कुछ पोस्टों में गणित के क्षेत्र में प्रयुक्त शब्दों पर विचार करेंगे।