Post – 2018-04-25

प्रसन्नता और उल्लास के द्योतक शब्द और जल

हम प्रसन्नता और उल्लास से संबंधित कुछ शब्दों पर विचार करेंगे यूं तो हमने देखा कि हमारे यहां दुख ग्रीष्मकालीनउष्णता और जल के अभाव से अशोक और उल्लास को जल की सुलभता से भरपूर स्थिति के रूप में कल्पित किया है और इसलिए मोटे तौर पर हम यह मान सकते हैं प्रसन्नता और उल्लास से संबंधित शब्दावली का जलसे गहरा संबंध होगा । फिर भी यह जरूरी हो जाता है कि हम कुछ शब्दों को लेकर चर्चा करें सबसे पहले तो इनमे सुख ही आता है जिस पर हमने आज की ही तिथि तिथि में 1 साल पहले विचार किया था और इसलिए उसे आज की तिथि में शेयर कर लिया है उसके पहले पैराग्राफ को मैं यहां दोबारा उद्धृत करना चाहूंगा

सुख/चुक – १. पानी, २. सुख, ३. चोका= धारोष्ण दुग्ध पान , २>४- सौख्य > ५. फा. शौक / शौक़ीन, ६- सोखना > ७- सूखना>८. सं. शुष्क, ६>९. शोषण / शोषित /शोषक, १०. चोषण, ११. चूसना, १२. चस्का, १३. सु- (उपसर्ग) १४. सु-तर (सुंदर),> १५. सुधर /सुधार, १६. सं.(धातु) चूष पाने, १७. शुष शोषणे.
हमने अपनी सीमा के कारण यूरोपीय प्रतिरूपों को छोड़ दिया. ऊपर के आंकड़ों पर ध्यान दें तो धातुओं से ये शब्द नहीं निकल रहे हैं. धातुएं इस शब्दभंडार में से कुछ को समझने के लिए गढ़े घटक हैं. यात्रा धातु से शब्द की ओर न होकर क्रिया विशेष से उत्पन्न ध्वनि से शब्द श्रृंखला से धातु की दिशा में हैं और अब यह धातु उनमें से कुछ का अर्थ समझने में तो सहायता करेगी पर इस पहेली का जवाब न दे पायेगी कि इस ध्वनि से वह अर्थ जुड़ा कैसे.

साथ ही यह भी संकेत करना चाहूंगा अंग्रेजी का suck, succulant, succour, success, shake और नकारात्मक shock , sick, आदि शब्द उसी के सगोत हो सकते हैं.

उल्लास
उल्लास में दो शब्द हैं एक उपसर्ग के रूप में आया है जो उद या उदक है, दूसरा लास है, जिसे समझने के लिए भोज. का लासा पर ध्यान देना उचित होगा रस, लस, रास, लास, लास्य, लासा, लसित, के बीच के संबंध को स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। हां अंग्रेजी के lass बालिका, प्रिया, less कम, loss हानि, lusture चमक, lash कशा, lacerate कोड़े लगाना, last ठिकाना, चलना, सब के बाद, बचा हुआ आदि में रस और उसके वैकल्पिक रूप लस की भूमिका पर है अवश्य लंबी चर्चा की आवश्यकता होगी जिसके अपने खतरे में हैं इसलिए हम उसको इस श्रृंखला मैं सांकेतिक रूप में रख सकते हैं परंतु lact- दूध के विषय में किसी प्रकार की बहस की जरूरत नहीं रह जाती.

विनोद
विनोद एक अर्थ दूर भगाना भी है जिसकी ओर ध्यान सामान्यतः नहीं जाता केवल है इसके पक्ष की और हमारा ध्यान जाता है. इस मैं आए उपसर्ग वी के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं. हम पहले विचार कर आए हैं. नोद को नुद धातु से व्युत्पन्न किया जाता है. ऋग्वेद में इसका प्रयोग एक स्थल पर जल भंडार को ऊपर उठाने (ऊर्ध्वं नुनुद्रे अवतं त ओजसा – उन्होंने अपनी शक्ति से जल भंडार को ऊपर उछाल दिया: ऊर्ध्वं नुनुद्र उत्सधिं पिबध्यै – पीने के लिए जलराशि को ऊपर हल्दिया ) तिरछी धार से जल की धारा निकलने (जिह्मं नुनुदे्र अवतं तया दिशा सिंचन् उत्सं गोतमाय तृष्णजे) के संदर्भ में हुआ है. संस्कृत में इसका प्रयोग अलग हटाने दूर भगाने के आश्रय में होता रहा है. संभव है तिरछी धार वाले भाव से विनोद की चुहल का सम्बन्ध मनोभाव के स्तर पर हो.

प्रसन्नता
हम हैं संकेत रूप में यह कह आए हैं कि सभी उपसर्गों का स्रोत जल है. प्र/ प्ल की जलर्थकता हमें ज्ञात है. परंतु जब उसका प्रयोग उपसर्ग के रूप में हो तो हमें उसके वैशिष्ट्य वाले अर्थ से ही संतोष कर लेना चाहिए. सत, सद का भी एक अर्थ जल होता है दूसरा होना या विद्यमान होना अच्छा होना आदि है जिससे सत्ता आदि शब्दों का जन्म हुआ है इसी से सीदतु भवान – आप आसन ग्रहण करें, आ नः शृण्वन् ऊतिभिः सीद सादनम् – हमारी गुहार सुनकर अपने संरक्षण के साथ हमारे घर पर विराजमान हो जैसे प्रयोग देखने में आते हैं.

हम उमंग, तरंग, मन के डोलने, चलने, आनंद की हिलोरों, मस्ती में झूमने आदि पर बिना बहस के यह समझ सकते हैं कि इनका सम्बन्ध केवल जल से है.

Post – 2018-04-24

कुछ और व्यग्रता सूचक शब्द जल

व्यग्रता
सबसे पहले व्यग्रता को ही लें। यू तो जैसा मैं पहले कह आया हूं ‘वी’ स्वयं भी जल से ही संबंध रखता है, परंतु इस शब्द में यह उपसर्ग के रूप में ही प्रयोग में आया है इसलिए जल से संबंध तलाश करना है तो इससे आगे आए मुख्य शब्द – अग्र – में तलाश करना होगा, जिसमें -ता प्रत्यय लगा हुआ है। ‘अग्र’ ‘अत’ की तरह गति सूचक है यह तो विवाद से परे है और इसलिए संभावना है कि इसका अर्थ जल ही हो। भोजपुरी में एक शब्द है अगराना जिसका अर्थ है, इतराना, पुलकित हो कर ध्यानाकर्षण के लिए अटपटी क्रियाएं करना। हम आगे देखेंगे कि आनन्द और उल्लास परक सभी शब्द जल के नाद से जुड़े हैं। एक संभावना यह है कि ग्र (गर, गल – जल) में किसी चरण पर किसी भाषाई समुदाय के उच्चारण की सुकरता के चलते आदि में ‘अ़’ जुड़ गया हो, जैसे तमिल में अनेक संस्कृत शब्दों के मामले में देखने में आता है। जिनकी ध्वनिमाला में घोष ध्वनियां नहीं थीं उनको इनके उच्चारण में कठनाई होती रही होगी।

खेद
‘खेद’ को संस्कृत आचार्य ‘खिद्’ धातु से व्युत्पन्न करेंगे जिससे खिन्नता का भी समाधान हो जाता है और जिसमें भी थकान, उदासी, अवसाद आदि सिमट आते हैं। हमारी समस्या यदि केवल अर्थग्रहण की होती तो इससे हमारा काम चल जाता, जैसा चलता आया है और आगे भी चलता रहेगा। हमारी समस्या व्युत्पत्ति की नहीं उत्पत्ति की है, यह कि कैसे वह अर्थ उस शब्द से या उसके लिए कल्पित धातु से जुड़ा । इन अमूर्त मनोभावों से कोई ध्वनि निकलती नहीं, जल ही
निःशब्द वस्तुओं और दशाओं के लिए संज्ञा का एकमात्र स्रोत है। हमारी जानकारी में ‘ख’ का अर्थ शून्य, छिद्र, आकाश है, जल नहीं। ख को खे करने से अर्थ वही रह जाता है- खेचर=खग । दूसरा कोई शब्द जल से सीधे जुड़ता दिखाई नहीं देता। उबलते पानी से उत्पन्न ध्वनि को खदबदाना कहते हैं। पर विक्षोभ के लिए वह भले उपयुक्त हो, खिन्नता के लिए। इस टोह में हम एक रोचक निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। ‘ख’ का मूल अर्थ जल था। आखिर आकाश, शून्य, और छिद्र के साथ भी समस्या तो वही थी। यह ‘ख’ एक विराट संख्या ‘खर्व’ में भी है जब कि इसका एक अर्थ शून्य भी था जो ‘गर्व खर्व करने’ के मुहावरे में बचा रह गया है। नौ चालन के लिए खेना का प्रयोग आज भी बचा रह गया है। खेल का प्रयोग सर्वप्रथम जलक्रीड़ा के लिए हुआ और फिर यह क्रीड़ा के सामान्य अर्थ में प्रचलित हुआ । खेद का प्रयोग क्रीड़ाजन्य थकान के लिए हुआ और फिर इसका अर्थविस्तार उदासी, पश्चात्ताप और दुख आदि के लिए ।

क्षोभ
क्षोभ के आदि वर्ण ‘छ/क्ष’ का अर्थ जल है। यह बरसते पानी की ध्वनि है – छमाछम बरसात होना। यह ‘छल’, ‘छैल’, ‘छबीला’, ‘छाल’, और ‘छलना’/ ‘छलनी ‘ का भी जनक है । क्षम/ क्षमता में जल के ‘ऊर्जा’ या ‘शक्ति’ का भाव दृष्टिगोचर होता है तो ‘क्षमा’ में उसकी शीतलता या शामक भाव । ‘क्षोभ’ जल के उद्वेग और उससे उत्पन्न ध्वनि का अनुनाद है चाहे वह किसी अवरोध के कारण हो या तापमान के कारण। खलबली के साथ भी वही बात है चाहे वह मानसिक हो या सामाजिक। क्षोभ व्यक्ति तक सीमित रहता, जन या समाज से जुड़ने पर ‘विक्षोभ’ का प्रयोग अधिक प्रचलित है.

ग्लानि
ग्लानि का जल से संबंध बहुत स्पष्ट है। कल, खल, गल, घल, चल, छल, जल, झल और कर, खर, गर, घर, चर, छर, जर, झर ये सभी जल की ध्वनियां है और इसलिए इनका एक अर्थ जल है इसे विविध सन्दर्भों में लक्ष्य किया जा सकता है। ग्लानि में जमे हुए पानी के गलने या पिघलने का अर्थ रूढ़ हो गया जो इस मनोभाव के सर्वथा अनुरूप है।

कार्पण्य
ऊपर हम जलवाची शब्दों की जिस शृंखला का उल्लेख कर आए हैं उसे ध्यान में रखें तो कार्पण्य का भी जल का नाता स्पष्ट है। कर्प, कल्प, कल्पना, कृपा, सबकी जलपरकता की बात समझ आती है पर ‘कृपण’ की नहीं जब कि कृपणता ही कार्पण्य है । इसकी अवधारणा के पीछे ऋग्वेद में मानवीकृत बादलों का हाथ लगता है जो पानी चुराकर रखते हैं पर देते नहीं। इंद्रा इन्ही का वध करके जल को नीचे गिराते हैं.

Post – 2018-04-24

कुछ और व्यग्रता सूचक शब्द जल

व्यग्रता
सबसे पहले व्यग्रता को ही लें। यू तो जैसा मैं पहले कह आया हूं ‘वी’ स्वयं भी जल से ही संबंध रखता है, परंतु इस शब्द में यह उपसर्ग के रूप में ही प्रयोग में आया है इसलिए जल से संबंध तलाश करना है तो इससे आगे आए मुख्य शब्द – अग्र – में तलाश करना होगा, जिसमें -ता प्रत्यय लगा हुआ है। ‘अग्र’ ‘अत’ की तरह गति सूचक है यह तो विवाद से परे है और इसलिए संभावना है कि इसका अर्थ जल ही हो। भोजपुरी में एक शब्द है अगराना जिसका अर्थ है, इतराना, पुलकित हो कर ध्यानाकर्षण के लिए अटपटी क्रियाएं करना। हम आगे देखेंगे कि आनन्द और उल्लास परक सभी शब्द जल के नाद से जुड़े हैं। एक संभावना यह है कि ग्र (गर, गल – जल) में किसी चरण पर किसी भाषाई समुदाय के उच्चारण की सुकरता के चलते आदि में ‘अ़’ जुड़ गया हो, जैसे तमिल में अनेक संस्कृत शब्दों के मामले में देखने में आता है। जिनकी ध्वनिमाला में घोष ध्वनियां नहीं थीं उनको इनके उच्चारण में कठनाई होती रही होगी।

खेद
‘खेद’ को संस्कृत आचार्य ‘खिद्’ धातु से व्युत्पन्न करेंगे जिससे खिन्नता का भी समाधान हो जाता है और जिसमें भी थकान, उदासी, अवसाद आदि सिमट आते हैं। हमारी समस्या यदि केवल अर्थग्रहण की होती तो इससे हमारा काम चल जाता, जैसा चलता आया है और आगे भी चलता रहेगा। हमारी समस्या व्युत्पत्ति की नहीं उत्पत्ति की है, यह कि कैसे वह अर्थ उस शब्द से या उसके लिए कल्पित धातु से जुड़ा । इन अमूर्त मनोभावों से कोई ध्वनि निकलती नहीं, जल ही
निःशब्द वस्तुओं और दशाओं के लिए संज्ञा का एकमात्र स्रोत है। हमारी जानकारी में ‘ख’ का अर्थ शून्य, छिद्र, आकाश है, जल नहीं। ख को खे करने से अर्थ वही रह जाता है- खेचर=खग । दूसरा कोई शब्द जल से सीधे जुड़ता दिखाई नहीं देता। उबलते पानी से उत्पन्न ध्वनि को खदबदाना कहते हैं। पर विक्षोभ के लिए वह भले उपयुक्त हो, खिन्नता के लिए। इस टोह में हम एक रोचक निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। ‘ख’ का मूल अर्थ जल था। आखिर आकाश, शून्य, और छिद्र के साथ भी समस्या तो वही थी। यह ‘ख’ एक विराट संख्या ‘खर्व’ में भी है जब कि इसका एक अर्थ शून्य भी था जो ‘गर्व खर्व करने’ के मुहावरे में बचा रह गया है। नौ चालन के लिए खेना का प्रयोग आज भी बचा रह गया है। खेल का प्रयोग सर्वप्रथम जलक्रीड़ा के लिए हुआ और फिर यह क्रीड़ा के सामान्य अर्थ में प्रचलित हुआ । खेद का प्रयोग क्रीड़ाजन्य थकान के लिए हुआ और फिर इसका अर्थविस्तार उदासी, पश्चात्ताप और दुख आदि के लिए ।

क्षोभ
क्षोभ के आदि वर्ण ‘छ/क्ष’ का अर्थ जल है। यह बरसते पानी की ध्वनि है – छमाछम बरसात होना। यह ‘छल’, ‘छैल’, ‘छबीला’, ‘छाल’, और ‘छलना’/ ‘छलनी ‘ का भी जनक है । क्षम/ क्षमता में जल के ‘ऊर्जा’ या ‘शक्ति’ का भाव दृष्टिगोचर होता है तो ‘क्षमा’ में उसकी शीतलता या शामक भाव । ‘क्षोभ’ जल के उद्वेग और उससे उत्पन्न ध्वनि का अनुनाद है चाहे वह किसी अवरोध के कारण हो या तापमान के कारण। खलबली के साथ भी वही बात है चाहे वह मानसिक हो या सामाजिक। क्षोभ व्यक्ति तक सीमित रहता, जन या समाज से जुड़ने पर ‘विक्षोभ’ का प्रयोग अधिक प्रचलित है.

ग्लानि
ग्लानि का जल से संबंध बहुत स्पष्ट है। कल, खल, गल, घल, चल, छल, जल, झल और कर, खर, गर, घर, चर, छर, जर, झर ये सभी जल की ध्वनियां है और इसलिए इनका एक अर्थ जल है इसे विविध सन्दर्भों में लक्ष्य किया जा सकता है। ग्लानि में जमे हुए पानी के गलने या पिघलने का अर्थ रूढ़ हो गया जो इस मनोभाव के सर्वथा अनुरूप है।

कार्पण्य
ऊपर हम जलवाची शब्दों की जिस शृंखला का उल्लेख कर आए हैं उसे ध्यान में रखें तो कार्पण्य का भी जल का नाता स्पष्ट है। कर्प, कल्प, कल्पना, कृपा, सबकी जलपरकता की बात समझ आती है पर ‘कृपण’ की नहीं जब कि कृपणता ही कार्पण्य है । इसकी अवधारणा के पीछे ऋग्वेद में मानवीकृत बादलों का हाथ लगता है जो पानी चुराकर रखते हैं पर देते नहीं। इंद्रा इन्ही का वध करके जल को नीचे गिराते हैं.

Post – 2018-04-24

कुछ और व्यग्रता सूचक शब्द जल

व्यग्रता
सबसे पहले व्यग्रता को ही लें। यू तो जैसा मैं पहले कह आया हूं ‘वी’ स्वयं भी जल से ही संबंध रखता है, परंतु इस शब्द में यह उपसर्ग के रूप में ही प्रयोग में आया है इसलिए जल से संबंध तलाश करना है तो इससे आगे आए मुख्य शब्द – अग्र – में तलाश करना होगा, जिसमें -ता प्रत्यय लगा हुआ है। ‘अग्र’ ‘अत’ की तरह गति सूचक है यह तो विवाद से परे है और इसलिए संभावना है कि इसका अर्थ जल ही हो। भोजपुरी में एक शब्द है अगराना जिसका अर्थ है, इतराना, पुलकित हो कर ध्यानाकर्षण के लिए अटपटी क्रियाएं करना। हम आगे देखेंगे कि आनन्द और उल्लास परक सभी शब्द जल के नाद से जुड़े हैं। एक संभावना यह है कि ग्र (गर, गल – जल) में किसी चरण पर किसी भाषाई समुदाय के उच्चारण की सुकरता के चलते आदि में ‘अ़’ जुड़ गया हो, जैसे तमिल में अनेक संस्कृत शब्दों के मामले में देखने में आता है। जिनकी ध्वनिमाला में घोष ध्वनियां नहीं थीं उनको इनके उच्चारण में कठनाई होती रही होगी।

खेद
‘खेद’ को संस्कृत आचार्य ‘खिद्’ धातु से व्युत्पन्न करेंगे जिससे खिन्नता का भी समाधान हो जाता है और जिसमें भी थकान, उदासी, अवसाद आदि सिमट आते हैं। हमारी समस्या यदि केवल अर्थग्रहण की होती तो इससे हमारा काम चल जाता, जैसा चलता आया है और आगे भी चलता रहेगा। हमारी समस्या व्युत्पत्ति की नहीं उत्पत्ति की है, यह कि कैसे वह अर्थ उस शब्द से या उसके लिए कल्पित धातु से जुड़ा । इन अमूर्त मनोभावों से कोई ध्वनि निकलती नहीं, जल ही
निःशब्द वस्तुओं और दशाओं के लिए संज्ञा का एकमात्र स्रोत है। हमारी जानकारी में ‘ख’ का अर्थ शून्य, छिद्र, आकाश है, जल नहीं। ख को खे करने से अर्थ वही रह जाता है- खेचर=खग । दूसरा कोई शब्द जल से सीधे जुड़ता दिखाई नहीं देता। उबलते पानी से उत्पन्न ध्वनि को खदबदाना कहते हैं। पर विक्षोभ के लिए वह भले उपयुक्त हो, खिन्नता के लिए। इस टोह में हम एक रोचक निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। ‘ख’ का मूल अर्थ जल था। आखिर आकाश, शून्य, और छिद्र के साथ भी समस्या तो वही थी। यह ‘ख’ एक विराट संख्या ‘खर्व’ में भी है जब कि इसका एक अर्थ शून्य भी था जो ‘गर्व खर्व करने’ के मुहावरे में बचा रह गया है। नौ चालन के लिए खेना का प्रयोग आज भी बचा रह गया है। खेल का प्रयोग सर्वप्रथम जलक्रीड़ा के लिए हुआ और फिर यह क्रीड़ा के सामान्य अर्थ में प्रचलित हुआ । खेद का प्रयोग क्रीड़ाजन्य थकान के लिए हुआ और फिर इसका अर्थविस्तार उदासी, पश्चात्ताप और दुख आदि के लिए ।

क्षोभ
क्षोभ के आदि वर्ण ‘छ/क्ष’ का अर्थ जल है। यह बरसते पानी की ध्वनि है – छमाछम बरसात होना। यह ‘छल’, ‘छैल’, ‘छबीला’, ‘छाल’, और ‘छलना’/ ‘छलनी ‘ का भी जनक है । क्षम/ क्षमता में जल के ‘ऊर्जा’ या ‘शक्ति’ का भाव दृष्टिगोचर होता है तो ‘क्षमा’ में उसकी शीतलता या शामक भाव । ‘क्षोभ’ जल के उद्वेग और उससे उत्पन्न ध्वनि का अनुनाद है चाहे वह किसी अवरोध के कारण हो या तापमान के कारण। खलबली के साथ भी वही बात है चाहे वह मानसिक हो या सामाजिक। क्षोभ व्यक्ति तक सीमित रहता, जन या समाज से जुड़ने पर ‘विक्षोभ’ का प्रयोग अधिक प्रचलित है.

ग्लानि
ग्लानि का जल से संबंध बहुत स्पष्ट है। कल, खल, गल, घल, चल, छल, जल, झल और कर, खर, गर, घर, चर, छर, जर, झर ये सभी जल की ध्वनियां है और इसलिए इनका एक अर्थ जल है इसे विविध सन्दर्भों में लक्ष्य किया जा सकता है। ग्लानि में जमे हुए पानी के गलने या पिघलने का अर्थ रूढ़ हो गया जो इस मनोभाव के सर्वथा अनुरूप है।

कार्पण्य
ऊपर हम जलवाची शब्दों की जिस शृंखला का उल्लेख कर आए हैं उसे ध्यान में रखें तो कार्पण्य का भी जल का नाता स्पष्ट है। कर्प, कल्प, कल्पना, कृपा, सबकी जलपरकता की बात समझ आती है पर ‘कृपण’ की नहीं जब कि कृपणता ही कार्पण्य है । इसकी अवधारणा के पीछे ऋग्वेद में मानवीकृत बादलों का हाथ लगता है जो पानी चुराकर रखते हैं पर देते नहीं। इंद्रा इन्ही का वध करके जल को नीचे गिराते हैं.

Post – 2018-04-24

एक सुझाव

हमारी पिछली पीढ़ी के लोगों के संस्कार सामन्ती थे। वे छोटों को मुंह नहीं लगाते थे। छोटे भी बड़ों के सामने सहमते हुए अपनी बात तो रखते थे परन्तु उनका उत्तर मिलने के बाद, उत्तर गलत भी लगता तो प्रतिवाद नहीं करते थे। इसे अभद्रता माना जाता था। लिखते समय भी नाम के साथ आदरसूचक श्री, जी, साहब. डा. आवश्यक समझे जाते थे। पश्चिम में भी उन्नीसवीं शताब्दी तक चलता था। सर तो सरासर भारत में चलता ही था। यह जनतांत्रिक संस्कृति का तकाजा था कि इस भेदभाव से बाहर आया जाए। इस पाठ को ब्रिटेन ने भी कुछ बाद में सीखा़, इसका आरंभ अमेरिका ने किया जहां आधुनिक लोकतंत्र की पहली बार सही इबारत तो लिखी गई पर वहां भी पूरी तरह अमल में नहीं आ ई पर आज पश्चिमी जगत का सर्वमान्य मुहावरा बन चुका है। फेसबुक पर सभी मित्र हैं, यह मेरी समझ से उसी लोकतांत्रिक संस्कार का हिस्सा है।

मुझे अपने लिेए सम्मानसूचक संबोधन अटपटे लगते हैं। लगता है मेरा उपहास किया जा रहा है। यह फर्क वैचारिक आदान-प्रदान की सहजता में विघ्न डालता है। भाषा की मर्यादा का निर्वाह ही पारस्परिक सम्मान के लिए पर्याप्त है। यह हमारी उस परंपरा के भी अनुरूप है जिसमें सलाह दी गई है – प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रमिवाचरेत ।

Post – 2018-04-24

एक सुझाव

हमारी पिछली पीढ़ी के लोगों के संस्कार सामन्ती थे। वे छोटों को मुंह नहीं लगाते थे। छोटे भी बड़ों के सामने सहमते हुए अपनी बात तो रखते थे परन्तु उनका उत्तर मिलने के बाद, उत्तर गलत भी लगता तो प्रतिवाद नहीं करते थे। इसे अभद्रता माना जाता था। लिखते समय भी नाम के साथ आदरसूचक श्री, जी, साहब. डा. आवश्यक समझे जाते थे। पश्चिम में भी उन्नीसवीं शताब्दी तक चलता था। सर तो सरासर भारत में चलता ही था। यह जनतांत्रिक संस्कृति का तकाजा था कि इस भेदभाव से बाहर आया जाए। इस पाठ को ब्रिटेन ने भी कुछ बाद में सीखा़, इसका आरंभ अमेरिका ने किया जहां आधुनिक लोकतंत्र की पहली बार सही इबारत तो लिखी गई पर वहां भी पूरी तरह अमल में नहीं आ ई पर आज पश्चिमी जगत का सर्वमान्य मुहावरा बन चुका है। फेसबुक पर सभी मित्र हैं, यह मेरी समझ से उसी लोकतांत्रिक संस्कार का हिस्सा है।

मुझे अपने लिेए सम्मानसूचक संबोधन अटपटे लगते हैं। लगता है मेरा उपहास किया जा रहा है। यह फर्क वैचारिक आदान-प्रदान की सहजता में विघ्न डालता है। भाषा की मर्यादा का निर्वाह ही पारस्परिक सम्मान के लिए पर्याप्त है। यह हमारी उस परंपरा के भी अनुरूप है जिसमें सलाह दी गई है – प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रमिवाचरेत ।

Post – 2018-04-24

एक सुझाव

हमारी पिछली पीढ़ी के लोगों के संस्कार सामन्ती थे। वे छोटों को मुंह नहीं लगाते थे। छोटे भी बड़ों के सामने सहमते हुए अपनी बात तो रखते थे परन्तु उनका उत्तर मिलने के बाद, उत्तर गलत भी लगता तो प्रतिवाद नहीं करते थे। इसे अभद्रता माना जाता था। लिखते समय भी नाम के साथ आदरसूचक श्री, जी, साहब. डा. आवश्यक समझे जाते थे। पश्चिम में भी उन्नीसवीं शताब्दी तक चलता था। सर तो सरासर भारत में चलता ही था। यह जनतांत्रिक संस्कृति का तकाजा था कि इस भेदभाव से बाहर आया जाए। इस पाठ को ब्रिटेन ने भी कुछ बाद में सीखा़, इसका आरंभ अमेरिका ने किया जहां आधुनिक लोकतंत्र की पहली बार सही इबारत तो लिखी गई पर वहां भी पूरी तरह अमल में नहीं आ ई पर आज पश्चिमी जगत का सर्वमान्य मुहावरा बन चुका है। फेसबुक पर सभी मित्र हैं, यह मेरी समझ से उसी लोकतांत्रिक संस्कार का हिस्सा है।

मुझे अपने लिेए सम्मानसूचक संबोधन अटपटे लगते हैं। लगता है मेरा उपहास किया जा रहा है। यह फर्क वैचारिक आदान-प्रदान की सहजता में विघ्न डालता है। भाषा की मर्यादा का निर्वाह ही पारस्परिक सम्मान के लिए पर्याप्त है। यह हमारी उस परंपरा के भी अनुरूप है जिसमें सलाह दी गई है – प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रमिवाचरेत ।

Post – 2018-04-23

पहले हिन्दी का सारा लेखन सबके लिए होता था। सभी लोग सभी चीजें नहीं पढ़ते थे, अपनी योग्यता, रुचि, अवकाश के अनुसार अपने लेखक, अपनी पाठ्य सामग्री तय करते थे। समीक्षाएं कम होती थीं पर गुण-दोष-परक होती थीं। उनकी भूमिका सीमित थी, आज भी सभी पुस्तकों की समीक्षा तो होती नहीं।

यह एक विचित्र बात है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र में सबसे कमजोर था और प्रगतिशील आन्दोलन हिन्दी साहित्य मे इतना कचवाबद्ध कि साहित्य भले न रहे, प्रगतिशीलता बनी रहनी चाहिए। पहली बार साहित्य समाज के लिए नहीं संघठन के लिए लिए, नकली समाज, नकली यथार्थ, और संगठन की अपेक्षाओ के अनुसार लिखा जाने लगा। यह व्याधि बंगाल, या केरल में जहा कम्युनिस्ट पार्टियां अधिक मजबूत थीं वहां नहीं लगी। वहां प्रगतिशील लेखक संघ भी नाम को ही रहे होंगे।

क्या इसका कारण यह है कि उर्दू भाषा और लिपि की प्रतिस्पर्धा थी जिसके कारण हिन्दी प्रदेश सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना रहा। क्या हिन्दी क्षेत्र की प्रगतिशीलता का चरित्र संप्रदायवादी था और हिन्दू सांप्रदायिकता से लड़ने के नाम पर यह सांप्रदायिक तेवर अपना कर हिन्दुओं से, यहां तक कि हिन्दी और हिन्दुस्तान तक से छायायुद्ध करता रहा।

जहां तक समाज की कुरीतियों से मुक्ति का प्रश्न है, यह आर्यसमाज की समकक्षता में नहीं आ सका, उल्टे अपने आक्रामक तेवर के चलते परिरक्षणवादी प्रवृत्तियों को प्रबल किया।

हो सकता है, यह मेरी सोच का इकहरापन हो, पर हिन्दी साहित्य की प्राणवत्ता को इसने नष्ट अवश्य किया।

Post – 2018-04-23

पहले हिन्दी का सारा लेखन सबके लिए होता था। सभी लोग सभी चीजें नहीं पढ़ते थे, अपनी योग्यता, रुचि, अवकाश के अनुसार अपने लेखक, अपनी पाठ्य सामग्री तय करते थे। समीक्षाएं कम होती थीं पर गुण-दोष-परक होती थीं। उनकी भूमिका सीमित थी, आज भी सभी पुस्तकों की समीक्षा तो होती नहीं।

यह एक विचित्र बात है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र में सबसे कमजोर था और प्रगतिशील आन्दोलन हिन्दी साहित्य मे इतना कचवाबद्ध कि साहित्य भले न रहे, प्रगतिशीलता बनी रहनी चाहिए। पहली बार साहित्य समाज के लिए नहीं संघठन के लिए लिए, नकली समाज, नकली यथार्थ, और संगठन की अपेक्षाओ के अनुसार लिखा जाने लगा। यह व्याधि बंगाल, या केरल में जहा कम्युनिस्ट पार्टियां अधिक मजबूत थीं वहां नहीं लगी। वहां प्रगतिशील लेखक संघ भी नाम को ही रहे होंगे।

क्या इसका कारण यह है कि उर्दू भाषा और लिपि की प्रतिस्पर्धा थी जिसके कारण हिन्दी प्रदेश सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना रहा। क्या हिन्दी क्षेत्र की प्रगतिशीलता का चरित्र संप्रदायवादी था और हिन्दू सांप्रदायिकता से लड़ने के नाम पर यह सांप्रदायिक तेवर अपना कर हिन्दुओं से, यहां तक कि हिन्दी और हिन्दुस्तान तक से छायायुद्ध करता रहा।

जहां तक समाज की कुरीतियों से मुक्ति का प्रश्न है, यह आर्यसमाज की समकक्षता में नहीं आ सका, उल्टे अपने आक्रामक तेवर के चलते परिरक्षणवादी प्रवृत्तियों को प्रबल किया।

हो सकता है, यह मेरी सोच का इकहरापन हो, पर हिन्दी साहित्य की प्राणवत्ता को इसने नष्ट अवश्य किया।

Post – 2018-04-23

पहले हिन्दी का सारा लेखन सबके लिए होता था। सभी लोग सभी चीजें नहीं पढ़ते थे, अपनी योग्यता, रुचि, अवकाश के अनुसार अपने लेखक, अपनी पाठ्य सामग्री तय करते थे। समीक्षाएं कम होती थीं पर गुण-दोष-परक होती थीं। उनकी भूमिका सीमित थी, आज भी सभी पुस्तकों की समीक्षा तो होती नहीं।

यह एक विचित्र बात है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र में सबसे कमजोर था और प्रगतिशील आन्दोलन हिन्दी साहित्य मे इतना कचवाबद्ध कि साहित्य भले न रहे, प्रगतिशीलता बनी रहनी चाहिए। पहली बार साहित्य समाज के लिए नहीं संघठन के लिए लिए, नकली समाज, नकली यथार्थ, और संगठन की अपेक्षाओ के अनुसार लिखा जाने लगा। यह व्याधि बंगाल, या केरल में जहा कम्युनिस्ट पार्टियां अधिक मजबूत थीं वहां नहीं लगी। वहां प्रगतिशील लेखक संघ भी नाम को ही रहे होंगे।

क्या इसका कारण यह है कि उर्दू भाषा और लिपि की प्रतिस्पर्धा थी जिसके कारण हिन्दी प्रदेश सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना रहा। क्या हिन्दी क्षेत्र की प्रगतिशीलता का चरित्र संप्रदायवादी था और हिन्दू सांप्रदायिकता से लड़ने के नाम पर यह सांप्रदायिक तेवर अपना कर हिन्दुओं से, यहां तक कि हिन्दी और हिन्दुस्तान तक से छायायुद्ध करता रहा।

जहां तक समाज की कुरीतियों से मुक्ति का प्रश्न है, यह आर्यसमाज की समकक्षता में नहीं आ सका, उल्टे अपने आक्रामक तेवर के चलते परिरक्षणवादी प्रवृत्तियों को प्रबल किया।

हो सकता है, यह मेरी सोच का इकहरापन हो, पर हिन्दी साहित्य की प्राणवत्ता को इसने नष्ट अवश्य किया।