#तुकबन्दियाँ
ठीक कहते हो, बड़ी चूक हुई है वर्ना
बादलों ने न मुंबई को डुबाया होता।
#तुकबन्दियाँ
ठीक कहते हो, बड़ी चूक हुई है वर्ना
बादलों ने न मुंबई को डुबाया होता।
#तुकबन्दियाँ
आग भगवान शबो-रोज लगाता ही रहा
काश, पानी को कभी हाथ लगाया होता!
#तुकबन्दियाँ
तुम्हें मनाने को हरचन्द जान देते रहे
काश, तुमने भी कभी प्यार से देखा होता!
#तुकबन्दियाँ
जंग में तो मौत होती है हमें भी यह पता था,
हम उधर से लड़ रहे थे, क्यों इधर मारे गए?
#आइए_ शब्दों_से_ खेलें(17)
(पोस्ट लंबी है इसलिए दो भागों में बांट दिया है। इन्हें दो बार में पढ़ें।)
धड़ के बारे में कुछ कहने से पहले हम वस्तु सत्य और भाव सत्य के बीच के संबंधों पर चर्चा कर लेंः
गले पर चर्चा करते समय भोजपुरी के एक शब्द की चर्चा करना भूल गए थे। इसका प्रयोग आक्रोश में प्रतिपक्षी को धमकाने के लिए किया जाता है। यह है ‘टेंटुआ’, इसको दबाने की धमकियां तो सुनी है पर किसी को दबाते नहीं देखा। ‘टेंटुआ’ का सामान्य अर्थ है गर्दन, सच कहूं तो कंठ, और विशेष अर्थ है वाग्तंत्र। ‘टें’ तोते की आवाज की अनुकृति है। ‘टें बोल जाना’ तोते की गर्दन मरोड़ने के बादके बाद उसकी आवाज का सदा के लिए खत्म हो जाना, अर्थात् मर जाना है। कंठनली को दबाने पर श्वासावरोध के कारण मनुष्य के प्राण चले जाने, मौत के साथ आवाज सदा के लिए बंद होने का व्यंग्भरा मुहावरा है यह।
अब हम गले के संदर्भ में पिछड़ी चर्चा पर आएँ। ‘कंकड़ के ‘कंक’ पर ध्यान दें। आपको पता है की कंक का अर्थ हड्डी होता है। यह शरीर का पत्थर होता है। हमारा मांस मिट्टी या मृदा है। यदि इसे हड्डी का सहारा न मिले तो इसकी गति क्या होगी इसे अकशेरुकी प्राणियों की नियति को देखकर समझा जा सकता है।
इससे पहले कभी इस ओर ध्यान नहीं गया था कि पहाड़ों को भूधर क्यों कहते हैं। यदि पहाड़ और चट्टानों का सहारा न रहे तो मिट्टी की धरती पानी में गर्ल कर नीचे धंस जाए। ऐसा लगता है कि पर्वत की भूधर के रूप में कल्पना कंकाल के सादृश्य और हड्डी के हर्याय के रूह में कंक के अपनाए जाने के बाद की है। पहाड़ धरती को उसी तरह सहारा दिए हुए हैं जैसे कंकाल हमारी काया को, इस सूझ की पुष्टि उसे अपने अनुभव से भी हुआ होगा। पहाड़ों पर मिट्टी के नीचे पत्थर के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, पानी के कुआं खोदते समय कभी कभी नीचे लकंकड़़ या पत्थर की तह मिलती है और कुछ क्षेत्रों में तो यह सामान्य नियम है। उसे इस विषय में दुविधा का कोई कारण नहीं था कि धरती को पहाड़ों में संभाल रखा है । हाड़ और प-हाड़ के बीच भी मुझे कोई साम्य पहले दिखाई ही न दिया था।
कंकाल के लिए एक अन्य शब्द का प्रयोग होता है। वह है ‘अस्थिपंजर’। यह शब्द कंकाल से बहुत बाद का है इसके पीछे जीव और आत्मा की अवधारणा का हाथ है, इसलिए हम मान सकते हैं कि कंकाल अस्थिपंजर से अधिक प्राचीन और हाड़ (हड्डी) उससे भी पुराना और यथार्थ के अधिक निकट पढ़ने वाला शब्द है।
आपने ‘कंगाल’ शब्द का प्रयोग किया भी होगा और इसे दूसरों से सुना और पढ़ा भी होगा, परंतु क्या आपने इस बात पर भी ध्यान दिया यह शब्द अन्न के अभाव की उस पराकाष्ठा का द्योतक है जिसमें मनुष्य हड्डी का ढांचा मात्र रह जाता है। कंगाल शब्द सुनने पर अभाव की और हमारा ध्यान जाता है, परंतु इस संज्ञा से जुड़ी लंबी यातना की ओर नहीं जा पाता जबकि हमें ऐसी काया का यदाकदा दर्शन हो जाता है।
हमारी छाती के लिए ‘वक्ष’ शब्द का प्रयोग होता है। इसके दो अर्थ है, एक है वृक्ष और दूसरा पिटारी जो अंग्रेजी के बॉक्स अर्थात चेस्ट के अधिक निकट है।
वृक्ष की अवधारणा पुनः जीव और आत्मा के कारण विकसित हुई। आपने एक पेड़ दो पंछी बैठे वाली कविता सुनी होगी। यह ऋग्वेद से आज तक अलग-अलग रूपों में विभिन्न भाषाओं में बार बार दोहराई जाती रही। इसका इतिहास ऋग्वेद से कितना पीछे जाता है यह हमें भी नहीं मालूम। मैंने इस पर पहले जो कुछ लिखा है उसे आप में से कुछ ने पढ़ा होगा फिर भी उसे सर्वजनहिताय उस ऋचा को दोहराना ठीक रहेगाः
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति अनश्नन् अन्यो अभि चाकशीति ।। 1.164.20
(सुंदर पंखों वाले परस्पर जुड़े हुए, एक दूजे का साथ देने वाले, दो पक्षी एक ही वृक्ष पर निवास करते हैं। इन में से एक इसके मधुर फल खाता है और दूसरा बिना किसी तरह का स्वाद ग्रहण किए, चारों ओर निहारता रहता है।
वृक्ष के लिए ‘वन’ का प्रयोग होता है। वन अर्थ पूरा जंगल भी होता है। कहते हैं वन को यह संज्ञा इस आधार पर मिली है कि इसे काटा जाता है। जाहिर है कि यह संज्ञा जंगल को अपने प्रयोजन में बाधक मानकर इसे काट कर खेती करने वालों ने दी होगी। वन शब्द संभवत है जीव और आत्मा की अवधारणा के विकास से पहले अस्तित्व में आ गया होगा।
वृक्ष के वन बन जाने के कारण कई बार आत्मा और जीव के लिए वन में विचरण करते एक ही काया से निकली दो गर्दनों वाले हिरन का सादृश्य कुछ लोगों को अधिक ठीक लगा होगा। इसमें आत्मा की ओर से निर्देश दिया गया है कि जीव संसार का भोग विवेकपूर्वक, अनासक्त भाव से, करे, अन्यथा आसक्ति के कारण वह उनके बंधन में पड़ जाएगा और उस दशा में वह मुक्त नहीं हो पाएगा। कबीर दास के एक पद में इसी को हिरना समुझि समुझि बन चरना, के रूप में दोहराया गया है।
हड़प्पा की एक सील पर इसका चित्रण पीपल के पेड़ पर बैठे परस्पर एक ही धड़ से निकले हुए दो लंबी गर्दन वाले पक्षियों का अंकन है जिनका मुख हिरण जैसा बना दिया गया है।
(2)
आत्मा और मन दोनों का निवास हृदय में कल्पित करने के कारण और हृदय को निर्मल जलाशय के रूप में कल्पित करने के कारण आत्मा को कई बार मन के सरोवर, अर्थात् मानसरोवर में, नीर-क्षीर विवेक के साथ केवल क्षीर का सेवन करनेवाला हंस कहा जाता है। क्षीर से भी पूरी तरह संतुष्ट न होने के कारण मानस सरोवर में मुक्ता के पैदा होने और हंस द्वारा वह मुक्ता ही सेवन की बात की गई है। यह, अपने नाम के अनुरूप, उसे मुक्ति प्रदान करता है। मृत्यु को हंस के उड़ जाने के रूप में कल्पित किया गया है। मोती चुगने वाले हंस को अनासक्त संत तथा परमहंस को परम संत के रूप में कल्पित किया गयो।
हमने इसकी इतने विस्तार से चर्चा इसलिए कि यह स्पष्ट हो सके कि हमारे वक्ष को लेकर कितनी तरह की कल्पनाएं की जाती रही है । इसका मतलब यह नहीं कि जो इस तरह की उड़ानें भरते रहे उन्हे ह्रदय की रचना के बारे में कुछ पता नहीं था, अपितु यह कि हमारे यहां भाव जगत है और वस्तु जगत के बीच में एक काल्पनिक भेद रेखा बनी रही है। इसमें वस्तुवादी ज्ञान से प्रभावित हुए बिना अपनी एक अलग अन्तर्दगत की रचना की गई जिसमें अलग तरह के स्नायुतन्त्र – इंड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, कुंडलिनी और सहस्रार चक्र और अन्तः वाद्य की कल्पना की जाती है और उन्हें शरीर की वास्तविक संरचना से किसी तरह कम विश्वसनीय न मानते हुए तंत्र साधना की जाती रही है और यह दावा किया जाता रहा है कि इससे असाधारण सिद्धियां हासिल की जाती हैं। इनके बारे में हम जातीय रुप में विश्वास तो करते हैं परंतु उनके जो नमूने देखने जाते हैं वे ढोंगियों की पहचान से जुड़ जाते हैं।
हमारे मनोभाव भी इससे प्रभावित हुए हैं। आह्लाद, यदि पानी के उमड़ आने, उल्लास पानी के उछाल मारने, विह्वलता पानी मे उत्पन्न विक्षोभ, प्रेम स्नेह, जी भर जाने, आवेग उमड़ने, आदि मुहावरों से हम समझ सकते हैं कि हमारी भावनाओं के पीछे ह्रदय की कैसी कल्पना रही है।
हृदय का चित्र भाव परिवर्तन के साथ बदलकर पत्थर के फलक जैसा हो जाता है। यह कल्पना भी कम से कम ऋग्वेद काल से तो चली ही आ रही हैः
वि पूषन्नारया तुद पणेरिच्छ हृदि प्रियम् ।
अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.6
आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे ।
अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.7
यां पूषन् ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्षि आघृणे ।
तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ।। 6.53.8
ज्ञान व्यवस्था और भाव व्यवस्था के इस अंतर को समझने में प्रायः चूक की जाती है। कई बार भाव व्यवस्था से उदाहरण देकर यह सिद्ध किया जाता है कि समाज के ज्ञान का स्तर भी यही था। इसके कारण भारतीय अतीत को ही नहीं वर्तमान को भी समझने में अनुदारता बरती जाती है। ज्योतिष विद्या का जानकार भी जो गणित के आधार पर यह तय कर सकता है कि अगले ग्रहण कब कब आएंगे और उनका रूप क्या होगा उसे सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के विषय में पुरानी कहानियों को चुपचाप मानने या उन के आधार पर कुछ विधियों और वर्जनाओं का निर्वाह करते देख कर लोग चकित हो जाते हैं परंतु इस बात पर चकित नहीं होते कि कम से कम सौ साल से यह पता चलने के बाद कि चंद्रमा धरती की तुलना में निहायत कुरूप, खड्हों से भरा हुआ और मनुष्य के लिए सभी दृष्टियों से अनाकर्षक ग्रह है जिससे सूर्य की किरणें टकरा कर आती हैं, चांद में बैठी बुढ़िया की कहानियां सुनाते, या किसी सुंदरी के मुंह की तुलना चांद से करते देख कर हमें कोई नासमझ नहीं कहता । हममें यह विवेक होना चाहिए कि कौन सी बात है हमारे भाव जगत से संबंध रखती हैं और कौन ज्ञान जगत से इनमें से किसी से वंचित हो जाने पर हम पंगु हो जाएंगे,यह पंगुता हमारे अवचेतन से जुड़ी हो तो भी विभिन्न प्रकार की मानसिक विकृतियों के रूप में प्रकट हो सकती है और बौद्धिक अक्षमता और सही निर्णय लेने में घबराहट से।
जहां तक शारीरिक संरचना की बात है हमारे लिए यह संतोष की बात है कि, जादू-टोने के प्रसंग में ही सही, शरीर के आंतरिक अंगों का ऋग्वेद से जैसा परिचय मिल जाता है वैसा, हजारों साल बाद भी, अन्य देशों की ऐसी ही कृतियों में नहीं मिलताः
अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि ।
यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्कात् ज्जिह्वया वि वृहामि ते ।। 10.163.1
ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्यः कीकसाभ्यो अनूक्यात् ।
यक्ष्मं दोषण्यमंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते ।। 10.163.2
आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोर्हृदयादधि ।
यक्ष्मं मतस्नाभ्यां यक्नो प्लाशिभ्यो वि वृहामि ते ।। 10.163.3
ऊरुभ्यां ते अष्ठीवद्भ्यां पाष्र्णिभ्यां प्रपदाभ्या ।
यक्ष्मं श्रोणिभ्यां भासदाद्भंससो वि वृहामि ते ।। 10.163.4
मेहनाद्वनंकरणाल्लोमभ्यस्ते नखेभ्यः ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ।। 10.163.5
अङ्गादङ्गाल्लोम्नो-लोम्नो जातं पर्वणि-पर्वणि ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ।। 10.163.6
हम इनकी व्याख्या करने नहीं जाएंगे। सामान्य से सामान्य पाठक भी, कम से कम, उन अंगों का नाम तो जान ही सकता है जिनकी पहचान उनको थी।
#तुकबन्दियाँ
खुदा वहाँ भी मिला, दाग-दाग था चेहरा
‘कितने पत्थर पड़े?’
बोला, ‘कोई हिसाब नहीं।’
#आइए_शब्दों_से_खेलें (16)
गला
गला को भोजपुरी में गंटई कहते है। गला हो या गट्टा हो, दोनो एक ही क्रिया से जुड़े हैं। कुछ बनाने के लिए गढ़ना, काटना। कल् और गल् जल की ध्वनियां हैं जिनसे पानी और पानी से जुड़े अनेक शब्द बने हैं,(कल- पानी, मन की शान्ति, कलिल-कीचड़, कलश- जलपात्र, कलेवा -पनपिआव>बां जोलखोवा, हिं. जलपान, आदि। गल, गलना, ग्लानि, गलका/ झलका= आबला – फफोला, जिसमें पानी भर आता है, परन्तु यह कल,गल और कट पाषाणी शिल्प की देन है और इसका स्रोत पत्थर के औजार/हथियार बनाने के क्रम में इसके टूटने की आवाज है। इनकी विकासयात्रा निम्नप्रकार हैः
(क) कड़/खड़/गड़/घड़ = १. कंकड़ या पत्थर के एक दूसरे से टकराने (टक-र-आने) या रगड (र-गड़) खाने की क्रिया (क्रिया)। २. इस क्रिया से उत्पन्न ध्वनि (क्रियाविशेषण । २. कंकड़ !(कं-कड ), पत्थर (संज्ञा)। ३. कंकड़ या पत्थर के गुण या भाव (कडक/कड़ाके की, कड़ा/कड़ी, खड़ > खड़ा, गड़>गढ़ा ड़कड़ाके का (विशेषण, क्रिया वि.)। ४. कड़ कड, खड़ खड़ आदि (क्रिया वि.)।
(ख) ड़ >ळ>र/ल में परिवर्तन जो ध्वनिनियमों से परिचालित प्रतीत होगा, परन्तु यह दो भाषाई समुदायों की अपनी ध्वनिसीमाओं के कारण है न कि भाषा के अपने आन्तरिक नियम से होने वाला परिवर्तन। मैथिली में र और ड़ को लेकर खासी गड़बड़ी पाइ जाती है, इन विभाषी ध्वनियों के प्रयतनसाध्य उच्चारण में अकसर उलट-पलट हो जाता हैः घोरा सरक पर सड़ सड़ दौर रहा था।
(ग) कट, खट, गट एक ही आघात से कटने टूटने की ध्वनि है।
यहां ध्यान देते चलें कि ये ध्वनियांं कंकड़ या पत्थर को काटने और तोड़ने के क्रम में उत्पन्न होती हैं इसलिए एक ओर पहाड़ या कंकड़, उसकी संहति, सादृश्य आदि से संबंधित वस्तुओं के लिए प्रयोग मे आती है तो दूसरी ओर उस क्रिया की अन्य परिणतियों के लिए। आज से पचास साल पहले जब मैं स्थान नामों का अध्ययन कर रहा था मुझे यह देखकर आश्चर्य होता था कि जिस मूल से खड़- पहाड, खड़ा का संबंध है उसी से खड्ड और खाड़ी का कैसे हो सकता है। गढ़ पहाड़ है तो सुरक्षा के लिए कृत्रिम पहाड़ जैसे प्राचीर वाले दुर्ग के लिए इसका प्रयोग तो उचित है, पर गड्ढे के लिेए कैसे हो सकता है। तब तक मैं आचार्योंं द्वारा की गई लक्षणा की परिभाषा से भी परिचित नहीं था जिसमें फ्रायड के स्वप्नतंत्र की से शताब्दियों पहले बताया गया था कि अभिधेय से समीपता, सादृश्य, सामूहिकता, वैपरीत्य, या क्रिया के योग के संबंध लाक्षणिक संबंध है।
अभिधेयेन सामीप्यात् सारूप्यात् समवायतः।
वैपरीत्यात् क्रियायोगात् लक्षणा पंचधा मता।
जाग्रत अवस्था में दिवास्वप्न और कल्पना में और निद्रा में स्वप्नतंत्र में हम इसी लाक्षणिक सूत्र से निदेशित होते हैं।
हमारे अंग न केवल हमारे धड़ – कमर से लेकर कंधे तक के भाग – से जुड़े माने जाते हैं, शिल्पकार मूर्तिनिर्माण में इनको अलग से बना कर इस तरह जोड़ते रहे हैं कि खंडित मूर्तियों को देखे बिना इसका भ्रम तक नहीं हो सकता। इन्हें जोड़ के रूप में ही अभिहित भी किया गया है। इन्हीं जोड़ों में एक जोड़ सिर को धड़ से जोड़ता है जिसे गला या गटई – जोड़, की संज्ञा मिली है। दूसरा जोड़ पांवों को धड़ से जोड़ता है जिसे कटि=जोड़ संज्ञा मिली है। कल्ला, कलाई, गट्टा सभी का अर्थ जोड़ है। जोड़ के दूसरे स्थलों पर यथा प्रसंग चर्चा करेंगे, परन्तु गले का जो नाम संस्कृत में ऋग्वेद से लेकर बाद तक के साहित्य में मिलता है वह है ग्रीवा, अर्थात वह जिसे पकड़ा जा सके। संभव है कुछ लोग अर्थ समझाने के लिए ही दूसरों की गर्दन पकड़ते ही नहीं मरोड़ते भी रहते है। सिर काटने का या बांध कर लाचार बनाने का भी सबसे सही स्थान यही है। गले के कंठ का अर्थ भी गांठ है।
#विषयान्तर
सच बोलने वाला अपने चारों ओर दुश्मनों की भीड़ खड़ी करता है। उसके सगे भी उसके साथ नहीं होते।
#आओ_शब्दों_से_खेलें (१५)
मूंछ और दाढ़ी के विषय में रबीन्द्र की एक उक्ति बहुत रोचक है। संभवत: डॉ. भगवान दीन से बात करते हुए जब सवाल किया गया कि क्या वे हिन्दी जानते है। उन्होंने कहा, ‘ऐसी भाषा को कोई कैसे सीख सकता है जिसमें मूछ और दाढ़ी को स्त्रीलिंग और स्तन को पुलिंग माना जाता हो?’
हिन्दी का व्याकरणिक लिंग बांग्ला भाषियों के लिए एक समस्या है। यदि बचपन बंगाल में बीता और बाद की पूरी जिन्दगी हिन्दी क्षेत्र में तब भी गलतियां करते हैं। यह कई बार हिन्दी वालों के लिए भी समस्या बन जाती है। परन्तु जिस तरह यह बंगालियों के लिए समस्या बनती है, उस तरह भारत के किसी अन्य क्षेत्र के लिए नहीं। यहां तक कि उनके पड़ोसी ओडिया या असमिया भाषियों के लिए भी नहीं। हिन्दी के साथ जो समस्या पैदा होती है वह भोजपुरी के साथ नहीं पैदा होती, जिसमे व्याकरणिक लिंग तो है, पर स्त्रीलिंग और पुल्लिग के भेद स्पष्ट हैं। मूंछ और दाढ़ी की चर्चा में हम इन समस्याओं को भी शामिल कर लेते हैं। परन्तु इन सभी का समाधान हम उल्टे सिरे से या इस समस्या की जड़ों से आरंभ करेंगे।
हम पहले कह आए हैं कि देववाणी में लिंग भेद नहीं था। भोजपुरी में आज भी लड़की लोग जा एगा, लड़का लोग जाएगा प्रयोग चलता है। हमारा यह कथन आंशिक रूप में ही सही है। पहली बात यह कि संस्कृत में भी कर्ता और कर्म का लिंग क्रिया को प्रभावित नहीं करता है: बालक: गच्छति/ बालिका गच्छति। हिन्दी ने लिंग व्यवस्था तो संस्कृत से ली पर इसे क्रिया पर भी आरोपित कर दिया, जिससे जिन भाषाओं में लिंग क्रिया को परिवर्तित नहीं करता, उन्हें हिन्दी सीखने में परेशानी होती है।
देववाणी में लिंग भेद था, जो क्रिया को भले परिवर्तित नहीं करता, पर संज्ञा में होता है। लड़का/लड़की, गठरी/गट्ठर।
यह जैव जगत में नर/ मादा पर आधारित होता है, और इससे बाहर, इससे आगे, जिसमें हमारे शरीर के योनअंग भी आते हैं, महत और अमहत पर टिका है जैसा हमने गट्ठर और गठरी में पाया। महत और अमहत का अन्तर दिखाने वाला कोई प्रत्यय या अन्त्यसर्ग होना चाहिए। देवभाषा में यह नियमित था, भोजपुरी मे यह नियमित है। संस्कृत में कई भाषाई समुदायों की पैठ के कारण इसका ध्यान नहीं रखा गया, इसलिए यह समस्या पैदा हो गई। उसी के प्रभाव में विकसित खड़ीबोली या पश्चिमी हिन्दी में यह दोष कुछ अधिक उग्र हो गया।
देववाणी से महत अमहत का भेद भोजपुरी ने पाया जिसमें इसके प्रत्यय स्पष्ट हैं, इसलिए शरीर के अंगों तक में इसके नियमित निर्वाह के कारण कोई उलझन नहीं पैदा होती। हिं. में मूंछ है पर भोजपुरी में मोछि। हिं. आंख है, भो. आंखि। हिन्दी में दही, मोती, हाथी संस्कृत के प्रभाव के कारण पुलिंग हैं पर भो. में स्त्रीलिंग अर्थात इकारान्त होने के कारण अमहत। अत: भो. में लड़के की नूनी, लड़की का भग किसी तरह की समस्या नहीं पैदा करता। पूर्व की हिन्दी से इतर आर्य भाषाओं को हिन्दी से जो परेशानी होती है वह भोजपुरी से नहीं। इसके बाद भी ओड़िया और असमीया (असमिया) भाषियों को जो बांग्ला की तुलना में हिन्दी से कम जुड़े रहे हैं उतनी परेशानी नहीं होती जितनी बांग्लाभाषियों को। इसका कारण यह है बांग्ला भाषियों को अंग्रेजों और अंग्रेजी के संपर्क का सबसे पहले और अधिक दीर्घ संपर्क के फल स्वरूप आधुनिकता के स्पर्श का साहित्य, कला, विज्ञान और दर्शन को मिलने वाला लाभ और उससे उत्पन्न अहंम्मन्यता जिसके मनोरचना का अंग बन जाने के कारण भारत की दूसरी भाषाओं के प्रति अवज्ञा भाव।
किसी चीज को सीखने के लिए अकड़ की नहीं विनम्रता की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में अपनी गलतियों को सुधारने की जगह उनका महिमामंडन करते हुए सचेत रूप में उन्हें बनाए रखा जाता है। इसके कारण अंग्रेजी को अंग्रेजों की सी शुद्धता या रवानगी से सीखने वाले भारतीय छात्रों द्वारा अंग्रेजों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी की लाचारी में होने वाली गलतियों को गर्व से अपनाने का प्रयत्न किया जाता है। अत: जितना दोष हिन्दी का था उससे अधिक दोष बांगाली श्रेष्ठताबोध का है, जो संस्कृत में जहां से हिन्दी की लिंग व्यवस्था की खामियां आई है जिन कमियों को क्षम्य मान लेते हैं, उन्हें हिन्दी के सन्दर्भ में बढ़ा चढ़ा कर देखते और इसलिए अपने लिए इन्हें दूर कर पाने को अशक्य मान लेते हैं।
अन्य भारतीय भाषाओं की पृष्ठभूमि से आने वालों को ध्वनिमाला की भिन्नता से कुछ असुविधाएं भले हों, उनकी अपनी भाषाओं में भी महत और अमहत का भेद होने के कारण हिन्दी सीखने और बोलने में लिंग की समस्या पेश नहीं आती।
अब हम अपने विषय पर अर्थात् मूंछ के औचित्य पर लौटें। मूंछ का आशय हुआ मुंह पर उगे रोम, जैसे दाढ़ी का दाढ पर उगे रोम। इस तर्क से तो साहब इसे पुल्लिंग ही होना चाहिए था क्योंकि बाल के सभी पर्याय- रोम/लोम, केश, वार/बाल, चूल पुलिंग हैं, मुंह, दाढ़ भी पुलिंग और इसके बाद भी मूँछ हिन्दी में अकारान्त होते हुए स्त्रीलिंग! जो भी हो, अं. मस्टैचेज का अर्थ भी ऊपरी होंठ पर उगे बाल और बीयर्ड का ठुड्डी पर उगे बाल ही है।
समस्या सामूहिकता के कारण पैदा हुई लगती है, परिवार जुटाना और बढ़ाना स्त्री का काम है। पुरुष अकेला ही भला। जहां एक से बहु हुआ माया के चक्कर में पड़ गया। कक्ष पुलिंग है और उसमें दस बीस की बैठक जमी तो कक्षा बन जाता है। अकेला हो तो सैनिक पुल्लिंग, दल हो गया तो सेना, स्त्रीलिंग । बाल/वार अपने तईं पुल्लिंग जब उसका समूह बना तो चोटी, शिखा, चुरुकी, लट, जटा, मूँछ, दाढ़ी, जूड़ा, चूड़ा सब को स्त्रीलिंग बना दिया।
दाढ़ी और मूँछ जैसे आसानी से बोले और समझे जा सकने वाले शब्द संस्कृत के लिए अछूत हैं, इनको उसमें जगह नहीं मिल सकती थी, न मिली। इन शब्दों का इतिहास कितना पुराना है, यह हम नहीं जानते। देव समाज इनके लिए किन शब्दों का प्रयोग करता था यह हम नहीं जानते। ऋग्वेद में दाढ़ी-मूँछ दोनों के लिए श्मश्रू का केवल एक बार इन्द्र के सन्दर्भ में उल्लेख आया है ः
सो चिन्नु वृष्टिर्यूथ्या स्वा सचाँ इन्द्रः श्मश्रूणि हरिताभि प्रुष्णुते ।
अव वेति सुक्षयं सुते मधूदित धूनोति वातो यथा वनम् ।।10.23.4
और संभवत: यही एक मात्र शब्द संस्कृत में प्रचलित रहा। परन्तु इसका जातक क्या है?
मस
इसके लिए हमें कुछ पीछे लौटना होगा। तरुणाई में जब मूँछ के बाल निकलने लगते हैं तो उसकी पतली रोमावली के लिए भोजपुरी में रेख उभरना, अर्थात् रोम की रेखा उभरना कहते हैं।
इसके लिए एक अन्य मुहावरे का प्रयोग होता है, ‘मसें भींगना’| इसमें ‘मस’ का अर्थ चांद है, वही जो मास में मिलता है, जो फारसी मे ‘मह’/’माह’ बन जाता है। यही मस ‘मसि’ में दिखाई देता है। मैंने अपने एक लेख में दिखाया है कि काले के लिए, रात के लिए, अंधेरे के लिए जिन शब्दों का प्रयोग होता है उनका अर्थ प्रकाश, चमकने वाला है। रंग काला और नाम रोशनाई।
श्मश्रु
ऐसी स्थिति में हमें लगता है कि मस / समसु का प्रयोग मूछ और दाढ़ी के लिए देववाणी में होता था जो सारस्वत प्रभाव में श्मश्रु बन गया। शमश्रु इस तर्क से आपने देववाणी के तत्सम का तद्भव हुआ।
#आइए_शब्दों_से_खेलें(१४)
दांत
दांत के लिए यदि भोजपुरी से लेकर यूरोप तक समान शब्द मिलते हैं, तो तय है कि यह शब्द देववाणी का है । ऋग्वेद में दांत के तीन चार ही हवाले हैं, परन्तु हैं बहुत मार्मिक। अग्नि प्रज्वलित किए जाने के व्याज से भोर होते ही लातौन से दांत रगड़ने का एक चित्र हैः
उषर्बुधमथर्यो न दन्तं शुक्रं स्वासं परशुं न तिग्मम् (प्रत्यूष वेला मे जगे /प्रज्वलित किए गए/अग्निदेव अपने शुभ्र दातों को साफ करने के लिए रगड़ कर उसी तरह तेज कर रहे हैं जैसे फरसे को पँहट कर तेज किया जाता है)।
दांत के सभी हवाले मानवेतर सन्दर्भों में ही आते हैंः
हिरण्यदन्तं शुचिवर्णं आरात् क्षेत्रात् अपश्यं आयुधा मिमानन् (मैने उस सुनहले दांतों और चमचमाते रंग वाले (अग्नि ) को निकट से अपने आयुध भाँजते हुए देखा।)
सुपर्ण वस्ते मृगो अस्या दन्तो गोभि सन्नद्धा पतति प्रसूता (यहां पंख लगे, सींग के अग्रभागग (दांत) वाले, तांत की प्रत्यंचा पर तने हुए और छूटने के साथ उड़ते हुए लक्ष्य पर गिरनेवाले बाले बाण का वर्णन है)।
परन्तु सारस्वत की ध्वनि सीमा और रुचि के अनुरूप दन्त को दंष्ट्र बनाया गया और इसका लिखित साहित्य में अधिक प्रयोग होने लगा। ऋग्वेद तक दंत का दंष्ट्रीकरण आरंभ हो चुका था। ऐसा प्रयोग यद्यपि एक बार ही आया है।
अयोदंष्ट्रो अर्चिषा यातुधानान् उप स्पृश जातवेदः समिद्धः ।. ( फौलादी दाँतों वाले अग्निदेव, प्रज्ज्वलित होकर अपनी लपटों से राक्षसों को भस्म कर दो।
रद
सं. में दांत के लिए एक अन्य शब्द प्रयोग में आता है। यह है रद। रदन का वैदिक प्रयोग एक झटके में काटने, रहगते या दरेरते हुए गिराने, नष्ट करने के आशय में किया गया है
१. पथो रदन्तीरनु जोषमस्मै दिवेदिवे धुनयो यन्त्यर्थम् (नदियां दिन प्रति दिन इन्द्र प्रेरित बाढ़ के आवेश में कठाव से अपना मार्ग बनाती अपने गन्तव्य की ओर प्रवाहित होती हैं।)
२. इन्द्रो अस्माँ अरदद् वज्रबाहुरपाहन् वृत्रं परिधिं नदीनाम् ,(इन्द्र ने नदियों के मार्ग को बाधित करने वाले वृत्र को ध्वस्त करके काट कर मार्ग का निर्माण किया)।
३. पथो रदन्ती सुविताय देवी पुरुष्टुता विश्ववारा वि भाति ।
कहें काटने के क्रिया रूप में तो रद के कई सन्दर्भ हैं, परन्तु संज्ञा के रूप में, यहां तक कि दांत से काटने के आशय में कही कोई उल्लेख नहीं है।
बढई के,लकड़ी को छील कर अलग कर देने वाले रन्दे का नामकरण इसी आधार पर पड़ा है। संभवतः रन्ध्र और अं. रेंड (rend>render> surrender) का मूल भी संभवतः इसे ही होना चाहिए। भोजपुरी में रद, रद्दी को तो इससे समझा जा सकता है परन्तु रद्दा – मिट्टी की दीवार की एक तह को नहीं। संभव है इस मामले में अर्थविपर्यय हुआ हो।
रद का प्रयोग संभवत: आगे के चीरने या कतरने वाले दांतों (tearing teeth) के लिए किया जाता था और फिर दांतों के लिए सामान्य हो गया। दन्त में कुचलने, दबाने का आशय है।
जम्भ
सबसे पीछे के चौड़े दांतों के लिए भोजपुरी में चउभरि (चाभने या चबाने के दांत) कहा जाता है। चौभरि के लिए ऋग्वेद में जम्भ का प्रयोग मिलता है। परन्तु कभी कभी जम्भ के लिए ‘तिग्म’ विशेषण का प्रयोग देखने में आता है ( स तिग्मजंभ रक्षसो दह प्रति ।। 1.79.6) ऋग्वेद में जम्भ का हवाला दंत और दंष्ट्र की तुलना में कुछ अधिक बार हुआ है, परन्तु क्रिया रूप में विनाश या सर्वनाश के लिए ही।
सर्वं परिक्रोशं जहि जम्भया कृकदाश्वम् जम्भया ता अनप्नसः /
जम्भयन्तोऽहिं वृकं रक्षांसि/ सर्वं परिक्रोश जहि जम्भया कृकदाश्वम्।
अग्नि को मजबूत जबड़ों वाला (वीळुजम्भम्) कह कर याद किया गया है।
(प्र तां अग्नि: बभसत् तिग्मजंभ: तपिष्ठेन शोचिषा य: सुराधा/ तिग्म जम्भस्य मील्हुष:)।
एक प्रसंग में सोम या गन्ने को चूसने या कहें जंभ से निकाले गए रस का उल्लेख (इमं जम्भसुतं पिब 8.91.2) आया है। यह उन कारणों में से एक है जिससे हम सोम को गन्ना मानने को बाध्य होते है, क्योंकि इक्षुलता को छोड़ कर दूसरी किसी लता को चूसने की चर्चा तक कभी सुनने को न मिली।
जैसे रद से रन्दे का संबंध जुड़ता है उसी तरह जंभ से जंबूर – धंसी हुई कील को बाहर निकालने की संड़सी, जिसका प्रयोग बढ़ई और मोची करते हैं, से जुड़ता दिखाई देता है। इसका तकनीकी पहलू अवश्य समस्या बना रहता है।
आनन
मुख की चर्चा हम पीछे कर आए है, परन्तु इसके दूसरे पर्यायों की ओर और उनसे जुड़ी संकल्पना की ओर हमारा ध्यान न जा सका। उदाहरण के लिए आनन जो गढ़ा हुआ शब्द प्रतीत होता है और जिसका आशय है ‘वह अंग जिससे हम बाहर की चीजों को अपने भीतर करते या ग्रसते हैं।’
जैसे शिर का लाक्षणिक अर्थ ‘सबसे ऊपर’ है, उसी तरह मुख से आगे, प्रमुख सबसे आगे का भाव प्रकट होता है जिसमें सबसे ऊपर का भाव स्वत: आ जाता है। परन्तु आनन में केवल मुखमंडल या चेहरा ही सिमट पाता है।
ओक
मुख के लिए प्रयुक्त एक अन्य शब्द ओक है। यह नैसर्गिक है और देववाणी में प्रयोग मे आता था पर बाद में प्रयोगबाह्य हो गया। संभव है यह बदल कर ‘ओप’ -मुख की आभा के लिए प्रयोग में आने लगा, फिर भी ओक, ओक्काई – उद्गीरण, के लिए आज भी प्रयोग में आता है।
ओक की संकल्पना एक कक्ष के रूप में की गई इस आशय में इसका प्रयोग भी हुआ है:
स इत् क्षेति सुधित ओकसि स्वे ।
ततक्षे सूर्याय चिद् ओकसि स्वे वृषा समत्सु दासस्य नाम चित् ।
मुंह के आशय में इसका प्रयोग एक बार ही दिखाई देता है:
कदा सुतं तृषाण ओक आ गम इन्द्र स्वब्दीव वंसगः ।। 8.33.2
गालिब की ‘पिला ले ओक से’ में इसका अर्थान्तरण चुल्लू में हो गया लगता है।