#तुकबन्दियाँ
अजनवी तो यहां कोई नहीं है
किसे पहचान पाए यह बताओ।
#तुकबन्दियाँ
अजनवी तो यहां कोई नहीं है
किसे पहचान पाए यह बताओ।
#आइए_शब्दों_से_खेलें (13)
असंपादित
हृदय
आज हृदय के बहाने फिर सिर की बात करने जा रहे है, क्योंकि यह पहलू विचार करने से रह गया था।
हमारी मीमांसा में किसी वस्तु, विचार या क्रिया को जो संज्ञा मिली है, उससे अधिक महत्व उस अवधारणा का है, जिसके आधार पर यह संज्ञा मिसी है। अन्यथा लगभग सभी का स्रोत जल होने के बाद और कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती।
उदाहरण के लिए हम जानते हैं कि ह्रद जलाशय को कहते हैं, हृदय का जल से संबंध होना अवश्यंभावी है, परन्तु ह्रदय शीतल होने (भोजपुरी ‘हिया जुड़ाने’) का भाव है। यह भाव अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी प्रकट करता है कि जहां यह मुहावरे प्रचलित हैं वह ऊष्णकटिबन्धीय है। वहीं मन को शीतल रखना और अपने व्यवहार से दूसरों के मन को शीतल करने का सुझाव दिया जा सकता है। यहीं जी भर कर पीने का (हृत्सु पीतासो), पीकर अघाने के (तुभ्यं सुतो मघवन् तुभ्यमाभृतस्त्वमस्य ब्राह्मणादा तृपत् पिब ) मुहावरे भी चलते है, जब कि ठंढे देशों मे हदय की गरमी हार्ट वॉर्मिंग और गर्मजोशी के मुहावरे चलते हैं।
हेड
अं. के हेड और हार्ट दोनों हृद् से संबंधित हैं। हेड को सामान्यतः हम शरीर के सबसे ऊपरी अंग के आशय में ग्रहण करते हैं, और इसी तर्क से इसका अर्थविस्तार किसी भी चीज या संस्था के सबसे ऊपरी सिरे या उस पर आसीन व्यक्ति के लिए करते हैं, परन्तु इसकी मूल संकल्पना का ऊंचाई से कोई संबंध नहीं। यह सोचने वाला अंग है, माइंड का पर्याय है, इसे to pay heed से समझ सकते हैं जहां हीड हेड का रूपभेद है।
हार्ट
हार्ट स्वयं भी हृत् से ही संबंधित है, इसलिए यह सोचने पर परेशानी होती है कि जब हार्ट के लिए इसका प्रयोग हो रहा था तो हेड के लिए क्यों हुआ। दोनों के बीच संबंध क्या है। इसका कारण यह है कि आरंभ में ही नहीं बाद तक भी हृदय और मस्तिष्क के काम को लेकर काफी अनिश्चय रहा है। यदि to learn by heart पर ध्यान दें तो स्पष्ट हो जाएगा कि लर्न बाइ हार्ट हो या हिं. का दिल लगाकर पढ़ना या मन लगाकर पढ़ना, आदि में ध्यान, मन, हेड, और हार्ट में कोई फर्क नहीं किया गया है। यह स्थिति ऋग्वेद के समय से बनी हुई है । वहां भी हृदय की विशिष्ट चेतना (हृदयस्य प्रकेतैः) की, हृदय से किसी चीज को गढ़ने (हृदा अतष्ट) की बात की जाती है। वरुण ने हृदय में प्रज्ञा, जल में अग्नि, आकाश में सूर्य और पर्वत पर सोम काे स्थापित किया, (हृत्सु क्रतुं वरुणो अप्स्वग्निं दिवि सूर्यमदधात् सोममद्रौ ।। 5.85.2)। देव मनुष्यों को हृदय से जानते हैं (देवा हृत्सु जानीथ मर्त्यम् )। न मैं तुम्हारे मन को समझ पाती हूं, न हृदय को (नैव ते मनो हृदयं चाविदाम )। यह उलझन भी शब्द के साथ साथ ही यूरोप तक पहुंची थी।
हमारे सामने समस्या यह है कि हृदय तो देववाणी का शब्द हो नहीं सकता था। भोजपुरी में आज भी हृदय के लिए ‘हिआव’. ‘ही’, ‘हिआ’ का और यहां तक कि ‘जी’/ ‘जिउ’ का प्रयोग होता है। ऋकार होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इन सभी में ‘द’कार और ‘र’कार भी नहीं पाया जाता। ये सभी ‘हृदय’ के अपभ्रंश के नियमों के अनुसार गढ़े गए शब्द हैं जो देववाणी का प्रतिनिधित्व नहीं करते। तमिल में ‘इदयं’ मिलता है, जो यदि देववाणी का माना जाय तो इससे सारस्वत प्रभाव में ‘हृदय’ में रूपान्तरित सिद्ध किया जा सकता था, परन्तु यह भी ‘हृदय’ का तमिल की ध्वनिमाला के अनुसार ग्रहण है।
ऐसी स्थिति में हम यह मानने को बाघ्य हैं कि शब्दावली की दृष्टि से देवसमाज हृदयहीन था। वह इसके लिए मन का प्रयोग करता था।
#आइए_शब्दों_से_खेलेू
हमारी मीमांसा में किसी वस्तु, विचार या क्रिया को जो संज्ञा मिली है, उससे अधिक महत्व उस औचित्य का है, जिसके आधार पर यह संज्ञा मिसी है। अन्यथा लगभग सभी का स्रोत जल होने के बाद और कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती। उदाहरण के लिए हम जानते हैं कि ह्रद जलाशय को कहते हैं, हृदय का जल से संबंध होना अवश्यंभावी है, परन्तु ह्रदय शीतल होने (भोजपुरी ‘हिया जुड़ाने’) का भाव है। यह भाव अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी प्रकट करता है कि जहां यह मुहावरे प्रचलित हैं वह ऊष्णकटिबन्धीय है। वहीं मन को शीतल रखना और अपने व्यवहार से दूसरों के मन को शीतल करने का सुझाव दिया जा सकता है। यहीं जी भर कर पीने का (हृत्सु पीतासो), पीकर अघाने के (तुभ्यं सुतो मघवन् तुभ्यमाभृतस्त्वमस्य ब्राह्मणादा तृपत् पिब ) मुहावरे भी चलते है, जब कि ठंढे देशों मे हदय की गरमी हार्ट वॉर्मिंग और गर्मजोशी के मुहावरे चलते हैं।
हेड
हम हृदय की चर्चा को यहीं विराम दे कर माथे की चर्चा दुबारा करना चाहेंगे। अं. के हेड और हार्ट दोनों हृद् से संबंधित हैं। हेड को सामान्यतः हम शरीर के सबसे ऊपरी अंग के आशय में ग्रहण करते हैं, और इसी तर्क से इसका अर्थविस्तार किसी भी चीज या संस्था के सबसे ऊपरी सिरे या उस पर आसीन व्यक्ति के लिए करते हैं, परन्तु इसकी मूल संकल्पना का ऊंचाई से कोई संबंध नहीं। यह सोचने वाला अंग है, इसे हम माइंड का पर्याय है इसे to pay heed जहां हीड हेड का रूपभेद है।
हार्ट
हार्ट स्वयं भी हृत् से ही संबंधित है, इसलिए यह सोचने पर परेशानी होती है कि जब हार्ट के लिए इसका प्रयोग हो रहा था तो हेड के लिए क्यों हुआ। दोनों के बीच संबंध क्या है। इसका कारण यह है कि आरंभ में ही नहीं बाद तक भी हृदय और मस्तिष्क के काम को लेकर काफी अनिश्चय रहा है। यदि to learn by heart पर ध्यान दें तो स्पष्ट हो जाएगा कि लर्न बाइ हार्ट हो या हिं. का दिल लगाकर पढ़ना या मन लगाकर पढ़ना, आदि में ध्यान, मन, हेड, और हार्ट में कोई फर्क नहीं किया गया है। यह स्थिति ऋग्वेद के समय से बनी हुई है । वहां भी हृदय की विशिष्ट चेतना (हृदयस्य प्रकेतैः) की, हृदय से किसी चीज को गढ़ने (हृदा अतष्ट) की बात की जाती है। वरुण ने हृदय में प्रज्ञा, जल में अग्नि, आकाश में सूर्य और पर्वत पर सोम काे स्थापित किया, (हृत्सु क्रतुं वरुणो अप्स्वग्निं दिवि सूर्यमदधात् सोममद्रौ ।। 5.85.2)। देव मनुष्यों को हृदय से जानते हैं (देवा हृत्सु जानीथ मर्त्यम् )। न मैं तुम्हारे मन को समझ पाती हूं, न हृदय को (
नैव ते मनो हृदयं चाविदाम )। यह उलझन भी शब्द के साथ साथ ही पहुंची थी।
हमारे सामने समस्या यह है कि हृदय तो देववाणी का शब्द हो नहीं सकता था। भोजपुरी में आज भी हृदय के लिए ‘हिआव’. ‘ही’, ‘हिआ’ का और यहां तक कि ‘जी’/ ‘जिउ’ का प्रयोग होता है। ऋकार होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता सभी में ‘द’कार और ‘र’कार भी नहीं पाया जाता। ये सभी ‘हृदय’ के अपभ्रंश के नियमों के अनुसार
प्रयोग होता है। इन
उत हृदोत मनसा जुषाण
. / >><<?? दांत दांत के लिए यदि भोजपुरी से लेकर यूरोप तक समान शब्द मिलते हैं तो तय है कि यह शब्द देववाणी का है जो ऋग्वेद तक तो बचा रहा। अग्नि के बहाने भोर होते ही लातौन से दांत रगड़ने का एक चित्र हैः उषर्बुधमथर्यो न दन्तं शुक्रं स्वासं परशुं न तिग्मम् तिग्मम् (प्रत्यूष वेला मे जगे अग्नदेव अपने शुभ्र दातों को साफ करने के लिए रगड़ कर उसी तरह तेज कर रहे हैं जैसे फरसे को पँहट कर तेज किया जाता है)। दांत के सभी हवाले रूपकों में ही आते हैंः हिरण्यदन्तं शुचिवर्णं आरात् क्षेत्रात् अपश्यं आयुधा मिमानन् (मैने उस सुनहले दांतों वाले चममते वर्ण वाले (अग्नि ) को अपने आयुधों से प्रहार करते देखा।) सुपर्ण वस्ते मृगो अस्या दन्तो गोभि सन्नद्धा पतति प्रसूता (यहां पंख लगे, सींग के अग्रभागग (दांत) वाले, तांत की प्रत्यंचा पर तने हुए और छूटने के साथ उड़ते हुए लक्ष्य पर गिरनेवाले बाले बाण का वर्णन है)। परन्तु सारस्वत की ध्वनि सीमा और रुचि के अनुरूप दन्त को दंष्ट्र बनाया गया और इसका लिखित साहित्य में अधिक प्रयोग होता रहा। ऋग्वेद तक दंत दंष्ट्र बन चुका थाः अयोदंष्ट्रो अर्चिषा यातुधानानुप... सं. में दांत के लिए एक अन्य शब्द प्रयोग में आता था। यह था रद। रद का अर्थ है कुतरना, अरदतं पुरंधिम् पथो रदन्तीरनु जोषमस्मै दिवेदिवे धुनयो यन्त्यर्थम् इन्द्रो अस्माँ अरदद् वज्रबाहुरपाहन् वृत्रं परिधिं नदीनाम् । पथो रदन्ती सुविताय देवी पुरुष्टुता विश्ववारा वि भाति ।। 5.80.3 यद दन्, दंत, डंठ, दंड, दंश, सभी को तन्=जल से निकल कर इतने भिन्न आशयों में प्रयुक्त देख कर हैरानी नहीं होनी चाहिए। स इत् क्षेति सुधित ओकसि स्वे ततक्षे सूर्याय चिद् ओकसि स्वे वृषा समत्सु दासस्य नाम चित् ।। 5.33.4 ततक्षे सूर्याय चिद् ओकसि स्वे वृषा समत्सु दासस्य नाम चित् ।। 5.33.4 कदा सुतं तृषाण ओक आ गम इन्द्र स्वब्दीव वंसगः ।। 8.33.2 स तिग्मजंभ रक्षसो दह प्रति ।। 1.79.6 जम्भयन्तोऽहिं वृकं रक्षांसि सनेम्यस्मद् युयवन्नमीवाः ।। 7.38.7 इमं जम्भसुतं पिब 8.91.2 सर्वं परिक्रोशं जहि जम्भया कृकदाश्वम् । या नो दूरे तळितो या अरातयोऽभि सन्ति जम्भया ता अनप्नसः ।। 2.23.9 वीळुजम्भम्
#आइए_शब्दों_से_खेलें (१२)
जबड़ा
संस्कृत में जबड़े के लिए दो शब्द हैं – ‘वक्त्र’ और ‘हनु’।
जबड़े की संकल्पना का आधार हमें स्पष्ट नहीं है, पर यह भी देववाणी का शब्द है, और उसमें यह किसी अन्य (संभवतः तालव्य प्रधान) बोली से आया लगता है। इसका प्रसार यूरोप तक हुआ इससे यह पता चलता है कि बाद की बोलचाल की भाषा में इसका प्रयोग जारी था।
हनु
‘हनु’ के लिए भोजपुरी और हिंदी में दो शब्दों का प्रयोग होता है,’जबड़ा’ और ‘ठुड्डी’ (भो.ठोढ़ी)। इस तरह का भेद अंग्रेजी में भी देखने में आता है, जिसमें जबड़े के लिए )’jaw और ठुड्डी के लि/chin का प्रयोग होता है। ‘हनु’ के विषय में अर्थभ्रम के कारण सं. में और उसके प्रभाव से हिं. में भी इसका अर्थह्रास ठुड्डी हो गया है। इसका मूल रूप ‘घनु’ था। सस्कृतीकरण के चलते यह ‘हनु’ हो गया। ।देववाणी में इसका प्रयोग मुंह की उस निचली हड्डी के लिए होता था जो कनपटी के नीचे से ठुड्डी तक आती है जिसमें मसूड़े और दंतावली कसी होती है। ऋ. में घनु का रूप हनु होगया है। हनु के अर्थभ्रम के कारण हनुमान की ठुड्डी को कुछ आगे की ओर निकला दिखाया जाने लगा। कहें अर्थ की गड़बड़ी कला में भी गड़बड़ी पैदा करती है। देवदाणी में हनुमानका अर्थ था ‘असाधारण मजबूत जबड़ों वाला। ऋ. हनुमान का प्रयोग इन्द्र के अतिरिक्त अन्य देवों के लिए भी हुआ है । एक स्थल पर फौलादी हनु का प्रयोग सविता के लिए भी हुआहैः
अयोहनुर्यजतो मन्द्रजिह्व आ दाषुषे सुवति भूरि वामम् ।। 6.71.4
एक स्थल पर इन्द्र के अद्भुत हनु को आकाश तक उठा हुआ दिखाया गया है, जिससे लगता है कि इसमें ऊपरी अस्थि और दन्तावली भी शामिल थीः
अरुतहनुरद्भुतं न रजः ।। 10.105.7
इसकी पुष्टि हनु के द्विवचन प्रयोगों से भी होता है। प्रचंड अग्नि की दहकती लपटों के कारण उसे नाना भाँति के जबड़ों से जंगल को चबाते दिखाया गया हैः
नाना हनू विभृते सं भरेते असिन्वती बप्सती भूर्यत्तः ।। 10.79.1
शत्रुओं का मुँह (जबड़ा) तोड़ने का काम वैदिक काल से जारी हैः
वि रक्षः वि मृधः जहि वि वृत्रस्य हनू रुज ।…10.152.3
हनुमान के चरित्र के निर्माण में इन्द्र और मरुद्गण की कितनी निर्णायक भूमिका है इस पर रामकथा के अधिकारी विद्वानों ने भी कभी ध्यान नहीं दिया। यदि वह इन दोनों के पुत्र (पवनसुत और वृषाकपि) हैं तो इसका कारण यह है कि उनकी उद्भावना, व्यक्तित्व के निर्माण और चरित्र चित्रण में इनकी ही विशेषताओं का संयोजन है। हम प्रस्तुत संदर्भ में मरुतों की चर्चा नही कर सकते पर इन्द्र के लक्षणों की बात तो कर ही सकते हैंः
आ ते हनू हरिवः शूर शिप्रे रुहत्सोमो न पर्वतस्य पृष्ठे ।… 5.36.2
वक्त्र
वक्त्र को देववाणी में बक या बोक कहते थे जिसका अर्थ मुंह होता था, इसकी एक लोरी – ओक्का बोक्का तीन तलोक्का ..- के सन्दर्भ में कुछ विस्तार से चर्चा (आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता, 1973) में की है, परन्तु आज से पहले मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया था कि बोक का संबन्ध वक्त्र से, वाक्य से, बां. के बोका और हिं. के बकवास, भो. के बउक, बउकड़, से भी हो सकता है। भोजपुरी का एक बोक्का या बोक्का भर – मुंह में एक बार में जितना भरा जा सके’ है। इसी से इसका क्रियारूप ‘भकोसल’ बना है, जबकि ‘भकुआइल’ – निर्वाक हो जाना का आशय खाने से हटकर बोलने की ओर है।
‘बोक’ या ‘बक’ देववाणी में उस बोली से लिया गया था जिसका सबसे गहरा प्रभाव तेलुगू पर पड़ा है। संभवतः यही ‘वाय्’ – मुंह के रूप में तमिल में सुरक्षित है, पर इसका अर्थ केवल यह कि तमिल भाषा की निर्माण-प्रक्रिया में उस बोली की भी भूमिका थी जिसका यह शब्द था। ‘बक’ का सारस्वत प्रदेश में पहले ‘वक्’ हुआ और फिर इसे ‘वक्त्र’ के रूप में अपनाया गया । परन्तु ‘वाक्’, ‘वचन’, ऋ.’वोचे’ (मा शपन्तं प्रति वोचे देवयन्तम्) आदि में पुराना रूप झलकता रहा।
ठुड्डी/ठोढ़ी
ठोढी’, पक्षी के ठोर का उपमा में मनुष्य की ठुड्डी के लिए प्रयोग का परिणाम है, जिसे संस्कृत में त्रोट बना लिया गया। इसका मूल नामकरण कुतरने की क्रिया पर आधारितहै। इसी के सं. का ‘त्रुटि’ निकला है। चूहे बिल्ली की कहानी में ठौर का प्रयोग लाक्षणिक है। भो. में ठोर को ठोढ़ कहते हैं। इसका वैकल्पिक रूप ठोठ है, जिसका विवाद होने पर ठोठा (ठोठवा पकड़िके घुमा देब) हो जाता है।
हिन्दी में ठोढ़ का वैकल्पिक रूप टोड बना, जिसे त्रोट का अपभ्रंश कहा जा सकता है। अकबर के दरबारीऔर तुलसीदास से लगाव रखने वाले दो चरित्रों का नाम टोडर था, टोडर का लाक्षणिक अर्थ सुमुख या सुन्दर मुख वाला है।
#आइए_शब्दों_से_खेलें (11)
जबड़ा
संस्कृत में जबड़े के लिए दो शब्द हैं – ‘वक्त्र’ और ‘हनु’।
जबड़े की संकल्पना का आधार हमें स्पष्ट नहीं है, पर यह भी देववाणी का शब्द लगता है, और उसमें यह किसी अन्य (संभवतः तालव्य प्रधान) बोली से आया लगता है। इसका प्रसार यूरोप तक हुआ इससे यह पता चलता है कि बाद की बोलचाल की भाषा में इसका प्रयोग जारी था।
हनु
‘हनु’ के लिए भोजपुरी और हिंदी में दो शब्दों का प्रयोग होता है,’जबड़ा’ और ‘ठुड्डी’ (भो.ठोढ़ी)। इस तरह का भेद अंग्रेजी में भी देखने में आता है, जिसमें जबड़े के लिए jaw और chin का प्रयोग होता है। ‘हनु’ के विषय में अर्थभ्रम के कारण सं. में और उसके प्रभाव से हिं. में भी इसका अर्थह्रास ठुड्डी हो गया है। इसका मूल रूप ‘घनु’ था। सं.करण के चलते यह ‘हनु’ हो गया। देववाणी में इसका प्रयोग मुंह की उस निचली हड्डी के लिए होता था जो कनपटी के नीचे से ठुड्डी तक आती है जिसमें मसूड़े और दंतावली कसी होती है। ऋ. में घनु का रूप हनु होगया है। हनु के अर्थभ्रम के कारण हनुमान की ठुड्डी को कुछ आगे की ओर निकला दिखाया जाने लगा। कहें अर्थ की गड़बड़ी कला में भी गड़बड़ी पैदा करती है। देवदाणी में इसका अर्थ था ‘असाधारण मजबूत जबड़ों वाला। ऋ. हनुमान का प्रयोग इन्द्र के लिए हुआ है परन्तु एक स्थल पर फौलादी हनु का प्रयोग सविता के लिए भी हुआ हैः
अयोहनुर्यजतो मन्द्रजिह्व आ दाषुषे सुवति भूरि वामम् ।। 6.71.4
एक स्थल पर इन्द्र के अद्भुत हनु को आकाश तक उठा हुआ दिखाया गया है, जिससे लगता है कि इसमें ऊपरी अस्थि और दन्तावली भी शामिल थीः
अरुतहनुरद्भुतं न रजः ।। 10.105.7
इसकी पुष्टि हनु के द्विवचन प्रयोगों से भी होता है। प्रचंड अग्नि की दहकती लपटों के कारण उसे नाना भाँति के जबड़ों से जंगल को चबाते दिखाया गया हैः
नाना हनू विभृते सं भरेते असिन्वती बप्सती भूर्यत्तः ।। 10.79.1
शत्रुओं का मुँह (जबड़ा) तोड़ने का काम वैदिक काल से जारी हैः
वि रक्षः वि मृधः जहि वि वृत्रस्य हनू रुज ।…10.152.3
हनुमान के चरित्र के निर्माण में इन्द्र और मरुद्गण की कितनी निर्णायक भूमिका है इस पर रामकथा के अधिकारी विद्वानों ने भी कभी नहीं दिया। यदि वह इन दोनों के पुत्र (पवनसुत और वृषाकपि) तो इसका कारण यह है कि उनकी उद्भावना, व्यक्तित्व के निर्माण और चरित्र निर्माण में इनकी हुी विशेषताओं का संयोजन है। हम प्रस्तुत संदर्भ में मरुतों की चर्चा नही कर सकते पर इन्द्र के लक्षणों की बात तो कर ही सकते हैंः
आ ते हनू हरिवः शूर शिप्रे रुहत्सोमो न पर्वतस्य पृष्ठे ।… 5.36.2
वक्त्र
वक्त्र को देववाणी में बक या बोक कहते थे जिसका अर्थ मुंह होता था, इसकी एक लोरी के – ओक्का बोक्का तीन तलोक्का ..- के सन्दर्भ में कुछ विस्तार से चर्चा (आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता, 1973) में की है, परन्तु आज से पहले मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया था कि बोक का संबन्ध वक्त्र से़, वाक्य से, बां. के बोका और हिं. के बकवास, भो. के बउक, बउकड़, से भी हो सकता है। भोजपुरी का एक बोक्का या बोक्का भर – मुंह में एक बार में जितना भरा जा सके। इसी से इसका क्रियारूप ‘भकोसल’ बना है, जम कि ‘भकुआइल’ – निर्वाक हो जाना का आशय खाने से हटकर बोलने की ओर है। यदि आपको मेरे कुछ कथन विस्मयकारी और हत्प्रभ करने वाले लगते हैं तो इस अनुभूति से सबसे पहले मुझे गुजरना होता है। लिखना आरंभ करने से पहले मुझे स्वयं उनका ज्ञान तो दूर आभास तक नहीं होता।
बोक या बक देववाणी में उस बोली से लिया गया था जिसका सबसे गहरा प्रभाव तेलुगू पर पड़ा है। संभवतः यही ‘वाय्’ – मुंह के रूप में तमिल में सुरक्षित है, पर इसका अर्थ केवल यह कि तमिल भाषा की निर्माण-प्रक्रिया में उस बोली की भी भूमिका थी जिसका यह शब्द था। ‘बक’ का सारस्वत प्रदेश में पहले ‘वक्’ हुआ और फिर इसे ‘वक्त्र’ के रूप मेो अपनाया गया लगता है। परन्तु ‘वाक्’, ‘वचन’ ऋ.’वोचे’ (मा शपन्तं प्रति वोचे देवयन्तम्) आदि में पुराना रूप झलकता रहा।
ठुड्डी/ठोढ़ी
ठोढ़ी पक्षी के ठोर का उपमा में मनुष्य की ठुड्डी के लिए प्रयोग का परिणाम है, जिसे संस्कृत में त्रोट बना लिया गया। इसका मूल नामकरण कुतरने से है। इसी के सं. का ‘त्रुटि’ निकला है। चूहे बिल्ली की कहानी में
मुस्कुराते आईने और जगमगाती रोशनी
आप की परछाइयां हैं गौर से फिर देखिए।
#विषयान्तर
इतिहास में यह कहीं दर्ज न होगा कि जिस व्यक्ति को शिक्षा संस्थानों और पुस्तकालयों से दूर रखा गया वह पूरी जिन्दगी सभ्यता, संस्कृति, भाषा और इतिहास की समस्याओं से जूझ रहा था, जब कि उसी समय, वे, जिन्होंने आजीवन उनमें घुस कर कुर्सियों पर कुर्सियां रख कर ऊपर चढ़ने और तनखाह बढ़ाने की क्रान्तियां की थी वे सरकार बनाने और सरकार गिराने के नए क्रान्तकारी काम से इतनी फुर्सत भी नहीं निकाल पा रहे थे कि उसे पढ़ सकें, कभी पढ़ने की गलती की भी तो यह देखकर घबरा जाते थे कि यह उनकी समझ से बाहर है, कि इस घबराहट के चलते वे मानते थे कि किसी विषय का आधिकारिक ज्ञान आदमी को कूप मंडूक बनाता है, पर यह नहीं जानते थे कि आधिकारिक ज्ञान का अभाव आदमी को कुंए की जहरीली गैस बनाता है और ऐसे लोगों की बढ़ती संख्या ने भारतीय बौद्धिक पर्यावरण को जहरीली गैस से भर दिया है। इतिहास में यह भी दर्ज न होगा कि कूपमंडूक होने से डरने वाले विदेशों से कूपमंडूक आमंत्रित करते थे, उन्हें शिर माथे बैठते थे जब कि दूसरे कुएं का मंडूक छपकोरियां मारता करतब जितना भी दिखाए, उसे आप के कुंओं की गहराई का ज्ञान हो ही नहीं सकता क्योंकि उसे इन पातालभेदी कुओं से डर लगता है।
#तुकबन्दियाँ
परेशान इतने हुए देखिए
कि कल आईने पर हँसी आ गई।
#आइए_शब्दों_से_खेलें (11)
हम जीभ के बारे में और कुछ जानते हो या नहीं यह अवश्य जानते हैं कि देवों के पास मुंह था और उसमें जबान भी थी। अपनी जबान को जीभ कहते थे। मुझसे गलती हो गई। भोजपुरी में जीभ, जीभि बोली जाती है। इसका एक दूसरा रूप जिभ्भा है जो जीभ के आकार की किसी दूसरी वस्तु के लिए प्रयोग में आता रहा है। हमारा अनुमान है देववाणी में जीभ का उच्चारण जिभ्भ के रूप में किया जाता रहा होगा। जीभ का जिह्वा में बदलना बहुत रोचक है। पश्चिमी हिंदी में भी घोष महाप्राण ध्वनियों की सघोषता और महाप्राणता का विच्छेदन कर लिया जाता है। इस तरह ‘घन’ ‘गहन’ में बदल जाता है। इसी न्याय से जीभ का जिब्ह >जिव्ह बना जो जिह्वा में बदल गया। इसका एक रूप जुह्वा भी था। लाक्षणिक प्रयोगों में जिह्वा का प्रयोग आग की लपट के लिए भी किया जाता था और दीए की लौ के लिए भी। पत्थर को तोड़ने के लिए नीचे आग जलाते हैं उस की गर्मी से आसपास की चट्टानों से तापमान में अंतर के कारण अदृश्य दरार आ जाती है जिससे तोड़ने में आसानी होती है यह यह युक्ति ऋग वैदिक काल से चली आ रही है अग्नि के बारे में कहा गया है वह अपनी जिह्वा से पत्थर को तोड़ देती है -दृषदं जिह्वया वधीत। इसी तरह वह स्रुवा जिससे आग में घी डालते थे उसे भी जिह्वा वह कहते थे। इस तर्कश्रृंखला को समझने के लिए जरा सायण की एक व्याख्या पर नजर डालेंः वह लिखते हैं की जुह्वा जिह्वा है जुह्वा (1.61.5) जिह्वया, जुहूभिः (1.58.4) जिह्वाभिः फिर बताते हैं जुह्वा (2.10.6) हूयतेऽस्यामिति जुहूर्ज्वाला पात्रविशेषो वा; जुह्वा (3.31.3) ज्वालाभिः इससें हवन करते हैं इसलिए इसे जुह्वा कहते हैं , जुह्वा एक पात्र है, जुह्वा का अर्थ ज्वाला है, फिर लिखते हैं जुह्वाम का अर्थ विधि विधान से अर्पित करना यात्रा करना है जुह्वाम (1.110.6) आ जुह्वाम मर्यादायामाकारः यथाशास्त्रं प्रयच्छाम, जुहोत (3.59.1) प्रयच्छ,और फिर आता है पुकार या आह्वान से इसका संबंध जुहुरे (5.19.2) जुहुविरे, आह्वयन्ति, जुहूमसि (1.4.1) आह्वयामः, जुहूरे (1.48.14) आहूतवन्तः, दो विशेष फिर भी चर्चा से रह गए एक है जुहुराणः (1.173.11) कुटिगतिः,(4.17.15) कुटिलं यथा भवति तथा संचरन्, जुहुराणा (8.26.5) कुटिलां, कर्मविघ्नकारिणां, जुहूर्थाः (7.1.19) हिंसीः, (1.76.5) स्रुचा,
जिह्वा से इनका क्या संबंध है, इत अर्थ इसमें कैसे समा गए. जिह्वा ह्वा, हव, ह्वान, हवि, जुहा, जिह्म, जुहू, जहि आदि में कैसे बदली और कैसे उसमें नए अर्थ का संचार होता गया इस तर्क को यदि हम समझ सकते हैं तो संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया समझने में कुछ आसानी हो सकती है, परंतु यह ध्यान रखना होगा यह किसी योजना के अंतर्गत एक ही समय में नहीं किया गया अपितु यह रूपगत अंतर और अर्थ विस्तार कई हजार साल के दौरान घटित हुआ है। हम देख आए हैं जीभ का भ कैसे बह और ह्व मैं बदलता है.। बोलने के लिए जिह्वा का प्रयोग किया जाता है इसलिए उसका अर्थ विस्तार हव, हवन, ह्वान, और हवि मैं हुआ इन सभी का उपहार पुकार, बुलाना, आवाज देना, आदि में हुआ।
फिर देवों को बुलाने के लिए जिस कर्मकांडी विधान का पालन किया जाता था वह स्वयं प्राचीन सामाजिक यथार्थ का हिस्सा रहा है। आहारसंग्रह काल में भटके हुए लोगों को परिजन अपनी स्थिति बताने के लिए आग जलाकर धुँआ पैदा करते थे। इस तरह काफी दूर तक संदेश भेजा जाता था। उसी का विस्तार कर्मकांड में हुआ। देवों को भुलाने के लिए धुआं पैदा करने के लिए जो आग जलाई जाती थी उस ज्वाला का भी नाम पड़ा जुहू। वह सामग्री जो आगमें अपेक्षाकृत सूक्ष्म और अधिक से अधिक ऊंचाई तक उठने वाले धूम पथ तैयार करने के लिए उसमें डाली जाती थी उसे भी हवन सामग्री हवि कहा गया। शब्दतः हवि और हवन पुकार ही थे। अग्नि को दूत ही नहीं कहा गया, वह्नि भी कहा गया। दो कारण थे। एक यह कि अग्नि देवों के प्राप्य यज्ञभाग को देवों तक पहुंचाते हैं, वहन करते हैं। दूसरा कि वह देवों को लेकर आते है – स देवान् एह वक्षति। एह वक्षति – इह आवहति। इस तरह एक ओर तो उसी मूल से आहवति, आह्वयति या आह्वान के लिए शब्द गढ़े गए, दूसरी ओर वहन, आवहन, परिवहन, वाहन, (vehere, vehicle) आदि के लिए शब्दावली विकसित हुई। ध्यान रहे, गढ़ी नहीं गई, विकसित हुई।
जिह्वा लचीली होती है, टेढ़ी होती है, मुड़ जाती है, इससे एक ओर तो इसमें कुटिलता का ओरोपण हुआ, दूसरी ओर कुटिलता के लिए एक नई संज्ञा ‘जिह्म’ पैदा हुई। इस तरह हम पाते हैं कि ऊपर के सभी रूपो आशयों का एक तार्किक आधार है और इन शब्दों का आथय समझने में हमें आयास नहीं करना पड़ता, न ही ऐसे प्रयोगों से भाषा काप्रवाह बाधित दोता। हमारे लिए खास बात यह कि ये सभी शब्द देववाणी की जीभ से निकले हैं।
हम ईश्वर के बारे में जितना जानते हैं उतना इंसानों के बारे में जानते तो इन्सान बन गए होते।