यह बे-दरो-दीवार का घर अब भी भरा है
तुम लूटते जाते हो, यह खाली नहीं होता।
Month: October 2018
Post – 2018-10-14
मैं आ तो गया हूँ तेरे काबू में सितमगर
पर मेरे सभी गम तेरी सरहद से परे हैं।
Post – 2018-10-13
#भेदनीति के प्रयोग (1)
हम इस लेख माला में विलियम विल्सन हंटर को उद्धृत करते आए हैं। आगे भी करेंगे। वह 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश कूटविदों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। बंगाल मे हिन्दू मुसलिम जनसंख्या का क्या अनुपात है इसकी जानकारी भी सैयद अहमद ने उनसे ही जुटाई थी The greater part of the peasant population throughout Eastern Bengal is Muhammadan.
वह कंपनी के प्रशासनिक पद पर नियुक्त थे और यह जानते थे कि किसी भी समाज के दिमाग को बदलने के लिए शिक्षा पद्धति पर अधिकार करना जरूरी है। उसी के माध्यम से व्यक्ति या समाज का स्वस्थ और संतुलित विकास भी किया जा सकता है और उसकी बुद्धि भ्रष्ट भी की जा सकती है, पागल या अपराधी भी बनाया जा सकता है, स्वतंत्रता के लिए प्राण उत्सर्ग करने की भावना भी भरी जा सकती है और अपना गुलाम या औजार भी बनाया जा सकता है, इसलिए उन्होंने सबसे अधिक जोर शिक्षा पर दिया। आधे दर्जन पुस्तकें लिखीं, आगे चलकर शिक्षा पर गठित आयोग के अध्यक्ष रहे और इंपीरियल गजैटियर ऑफ इंडिया तैयार और प्रकाशित करने की योजना भी उन्होंने लार्ड मेयो के सुझाव पर बनाई। यहां तक की इंपीरियल गजेटियर के पहले खंड का काफी हिस्सा उन्होंने स्वयं लिखा। उनकी सबसे विवादास्पद पुस्तक भारतीय मुसलमान है, इसलिए यह संभव नहीं कि इतिहास में रुचि रखने वाले किसी मुस्लिम विद्वान ने उनकी यह पुस्तक न पढ़ी हो।
राष्ट्रीय एकता की आड़ में शिक्षा और शिक्षकों के प्रशिक्षण पर एकाधिकार कायम करते हुए हिंदू समाज, इतीहास, और मूल्यप्रणाली को गर्हित सिद्ध करते हुए उसकी मानसिकता को कुचलने और इस तरह उस पर अल्पमत में होते हए भी हावी होने की योजना यदि प्रो. नूरुल हसन ने उसकी प्रेरणा से तैयार की हो तो मुझे आश्चर्य न होगा। परंतु हम उस पर आगे चलकर बात करेंगे। यह अवश्य है कि अपने विचार केंद्र में उसकी संभावना को रखते हुए अपना आगे का पाठ पढ़ना अधिक उपयोगी होगा।
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हंटर की विश्वसनीयता वहां पर संदिग्ध है जहां वह सामाजिक वैमनस्य पैदा करने के लिए तोड़ मरोड़ करते हैं, जैसे यह कि मुसलमान इसलिए अशिक्षित रह गए हैं कि वे हिंदुओं से घृणा करते हैे इसलिए उनके साथ बैठ कर पढ़ नहीं सकते, जब कि वही, उसी पुस्तक में, अन्यत्र लिखते हैं कि उनकी शिक्षा में रुचि ही नहीं है और फिर उन्ही हिन्दू स्कूलों में उनकी धार्मिक शिक्षा के लिए अलग से एक मौलवी की नियुक्ति का प्रस्ताव भी करते हैं । इसलिए उन्हें पढ़ते हुए हमें उनके वाक्यों के पीछे के इरादों पर भी ध्यान देना होता है, दूसरे स्थलों पर उसी विषय में जो कुछ लिखा गया है उसका भी स्मरण करना होता है और पंक्तियों के बीच की छूटी जगह के अलिखित का भी अनुमान करना होता है। परंतु तथ्यों के मामले में उनसे अधिक भरोसे का और किसी विषय में उन जैसी गहरी पैठ रखने वाला उस काल का दूसरा कोई व्यक्ति मेरी नजर में नहीं आता।
सर सैयद ने उसकी पुस्तक दि इंडियन मुसलमान पर टिप्पणी करते हुए हंटर के हंटर शीर्षक से आलोचनात्मक निबंध लिखा था फिर भी हंटर ने ही सर सैयद अहमद खान को सबसे अधिक प्रभावित किया था। यह विचित्र विरोधाभास है कि मैं स्वयं प्रस्तुति के मामले मे उनको अविश्वसनीय मानते हुए भी आंकड़ों के मामले में उन पर काफी दूर तक भरोसा करता हूं, पर इस पर भी नजर रखता हूं कि उन्होंने क्या छोड़ दिया है या गलत संदर्भ में दिया है।
कलकत्ता में मुहम्मडन कालेज खोल कर वारेन हेस्टिंग्स द्वारा किया गया पहला प्रयोग सफल नहीं हुआ, हंटर ने इसका विस्तार से वर्णन किया है। हम उतने विस्तार में नहीं जा सकते, परन्तु इस समस्या को समझने के लिए कुछ पंक्तियों को रखते हुए यह दिखाना चाहेंगे कि मदरसों की शिक्षा पद्धति क्या है क्योंकि यह आज भी हमारी समस्याओ मे से एक है। यह मुस्लिम चेतना के रूप, और अंग्रेजों की कूटनीतिक विफलता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है, जिससे वे भीतर से काफी घबराए हुए थे और ऐसे में सैयद अहमद का हाथ आ जाना उनके लिए कितनी अप्रत्याशित उपलब्धि थीः
…the actual time of teaching seldom exceeded two and a half hours. Anything like preparation at home is unknown, and indeed is opposed to Muhammadan ideas. Each master reads out an Arabic sentence, and explains the meanings of the first, second, and third word, and so on till he comes to the end of it. … Such a teaching, it may well be supposed, produces an intolerant contempt for anything which they have not learned. The very nothingness of their acquirements makes them more conceited. They know as an absolute truth that the Arabic grammar, law, rhetoric, and logic, comprise all that is worth knowing upon earth. They have learned that the most extensive kingdoms in the world are, first Arabia, then England, France, and Russia, and that the largest town, next to Mecca, Medina, and Cairo, is London. Au reste, the English are Infidels, and will find themselves in a very hot place in the next world. To this vast accumulation of wisdom what more could be added? When a late Principal tried to introduce profane science, even through the medium of their own Urdu, were they not amply justified in pelting him with brickbats and rotten mangoes? p. 124 (Au reste – इसके अलावा)
फोर्ट विलियम कॉलेज का दूसरा प्रयोग कुछ रंग लाया, यह तो हम इंशा अल्लाह खान के कथन में देख ही आए हैं पर क्या फारसी के प्रति आकस्मिक प्रेम की पृष्ठभूमि में जो माहौल तैयार किया जा रहा था, उसी का प्रभाव ग़ालिब की भाषा पर भी पड़ा था, जो अपनी कविता को फारसी के मुकाबले रखने की कोशिश कर रहे थे? हमें प्रभाव के त्रिकोण का स्पष्ट पता नहीं है, परंतु. गालिब (1796-1868) ने दस्तंबू में लिखा है, “मैं बचपन से ही अंग्रेज़ों का नमक खाता चला आ रहा हूं. दूसरे शब्दों में कहना चाहिए कि जिस दिन से मेरे दांत निकले हैं, तब से आज तक इन विश्वविजेताओं ने ही मेरे मुंह तक रोटी पहुंचाई है”। वास्तव में छोटी वय में पिता के निधन के कारण कंपनी की सेवा से रहे चाचा की पेंसन के सहारे ही उनका पालन हुआ था और संभव है चाचा के माध्यम से उन पर फारसी की महिमा का ऐसा असर पड़ा हो सकता है जिससे छोटी आयु से ही वह फारसी में शेर कहने लगे थे।…बहादुरशाह जफर से संपर्क के विषय में वे लिखते हैं- “मैं हफ्ते में दो बार बादशाह के महल में जाता था और अगर उसकी इच्छा होती, तो कुछ समय वहां बैठता था, अन्यथा बादशाह के व्यस्त होने की वजह से थोड़ी देर में ही दीवान-ए-ख़ास से उठकर अपने घर की ओर चल देता था। इस बीच जांची हुई रचनाओं को या तो ख़ुद वहां पहुंचा देता या बादशाह के दूतों को दे देता था, ताकि वे बादशाह तक पहुंचा दें। बस, मेरा इतना ही काम था और दरबार से मेरा इतना ही नाता था. हालांकि यह छोटा-सा सम्मान, मानसिक और शारीरिक दृष्टि से आरामदायक और दरबारी झगड़ों से दूर था, लेकिन आर्थिक दृष्टि से सुखद नहीं था. उस पर भी ग्रहों का चक्कर मेरे इस छोटे-से सम्मान को मिट्टी में मिला देने पर तुला हुआ था।”.
जब दिल्ली में क़त्लेआम हो रहा था, तब ग़ालिब अपने घर में बंद थे। वह लिखते हैं- “ऐसे वातावरण में मुझे कोई भय नहीं था। ऐसे में मैंने ख़ुद से कहा कि मैं क्यों किसी से भयभीत रहूं, मैंने तो कोई पाप किया नहीं है, इसलिए मैं सज़ा का पात्र नहीं हूं। न तो अंग्रेज़ बेगुनाह को मारते हैं, और न ही नगर की हवा मेरे प्रतिकूल है. मुझे क्या पड़ी है कि ख़ुद को हलकान करूं। मैं एक कोने में, अपने घर में ही बैठा अपनी क़लम से बातें करूं और क़लम की नोक से आंसू बहाऊं. यही मेरे लिए अच्छा है.” (चौथी दुनिया में दस्तंबू की समीक्षा से, )
टकराव पैदा करने की दृष्टि से इंशा अल्लाह खान और उन जैसों के प्रयोग भले ही सफल हुए हों परंतु भाषा के मामले में जनता फैसता करती है, राजनीतिज्ञ या सरकार केवल अड़ंगा पैदा कर सकते हैं और सरकारी कामकाज की भाषा तय कर सकते है। इंशा अल्लाह ने उसके बाद या पहले कुछ भी ऐसा नहीं लिखा जिसके लिए वह याद किए जाते हैं। उनकी याद रानी केतकी की कहानी से ही जुड़ी हुई है। गालिब को फारसी से मुकाबला करने का मोह छोड़ना पड़ा, और अपनी भाषा को लोकसम्मत बनाना पड़ा । वह उन्हीं गजलों और शेरों के लिए सबसे अधिक विख्यात है जो सबकी समझ में आते हैं। भाषा की दृष्टि से आज भी उर्दू के सभी पुराने कवियों में दाग आदर्श माने जा सकते हैं।
जिस आधार पर देश का बंटवारा हुआ या कम से कम बंटवारे के कारणों में से एक उसको भी रखा गया वह उर्दू पाकिस्तान के विघटन का कारण बनी और पाकिस्तान में आज भी बहुत कम लोगों द्वारा बोली जाती है।
The Langauges of Pakistan, is given by percentages of speakers (from the 1981 Census), are as follows : Punjabi (48.2 percent ) Pashto (13.2 percent ), Sindhi (11.8 percent), Siraiki ( 9.5percent), Urdu (7.6 percent), Baloch (3 percent ), Hidko (2.4 percent), Brahvi (1.2percent) and others (Khowar, Gujarati, Shina, Balti, Kohistani, Wakhi, etc. (2.8).
तारिक रहमान के शब्दों में
The Urdu proto-elite kept up its pro-Urdu movement, in demanding that sign boards should be in Urdu (Pakistan Times 21 Feb. 1961), that proceedings of the meetings be in Urdu (Abdullah 1976) and that people should be motivated to demand its use in the administration, judiciary and education – i.e. domain of power. तारिक रहमान, पूर्व, पृ. 88
Post – 2018-10-13
हम खुदा को याद करते या कि तुमको देखते।
काम दोनों एक से थे, नाम में कुछ फर्क था।
Post – 2018-10-13
रात देखा आसमां में अनगिनत सूराख हैं
गलतियां मत ढूंढ़िए इंसान की थक जाएंगे।
Post – 2018-10-12
#राजनीति_का_ब्रह्मास्त्र और #भारतीय_मुसलमान
शक्ति प्रयोग के चार भेदों में सबसे कम हानिप्रद और दोनों पक्षों के लिए कल्याणकारी रूप समझा-बुझा कर सही रास्ते पर लाने, या अपने अनुकूल करने का है। इसे साम कहा गया है जिसमें बौद्धिक विमर्श से दूसरे पक्ष को हित-अहित, बलाबल का ज्ञान कराते हुए इष्टसिद्धि सम्मिलित है।*
{nb. *उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति आज दुनिया के सभी देशों के वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों को यह समझाने में समर्थ सके परमाणु बम का या किसी भी परमाणु आयुध का प्रयोग न तो पर्यावरण के लिए ठीक है, न ही मानवता के लिए, न ही विज्ञान के सही दिशा में विकास के लिए तो इससे किसी एक का हानि-लाभ नहीं होगा, अपितु समस्त मानवता का कल्याण होगा। बुद्ध ने इसे उभय-कल्याण और सर्वहिताय कहा था। पर्यावरण के साथ, रेडक्रास के साथ, दूतावासों आदि के अनेक दूसरे मामलों में इसी तरह की सहमति है। अपने उग्र रूप में जब साम चेतावनी धमकी का रूप ले लेता है तब भी यह सबसे निरापद बना रहता है। हाल के दिनों में कोरिया की उग्रता और उससे चिंतित अमेरिका के बीच में यही खेल चल रहा है।}
इसके बाद दाम, अर्थात लाभ या प्रलोभन उत्पन्न करके किसी पक्ष को अपने अनुकूल बनाने का विकल्प आता है। इसके अनेकानेक रूप है जिसमें दूसरे देशों के विद्वानों, वैज्ञानिकों, प्रभावशाली व्यक्तियों को अधिक सम्मानजनक और लाभकर अवसर देकर अपने पक्ष में किया जाता है। जिस देश से उनका पलायन होता है उसमे तदनुरूप बौद्धिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दारिद्र्य पैदा होता हे। उसकी छवि भी इससे प्रभावित होती है कि उसमें विकास और प्रगति के अवसर तथा अपने योग्य व्यक्तियों का सम्मान नहीं रह गया है । यह शक्ति का पहले से किंचित निम्न स्तर का प्रयोग है। उसका अपमानजनक रूप हर्जाना या दंडराशि दे कर आसन्न पराजय को टालना या युद्ध से बचाव है, परंतु यह भी दो अन्य विकल्पों की तुलना में अधिक श्लाघ्य है।
दंड के विषय में किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। दुनिया के सभी देशों में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता रहा है। भारतीय राजविदों ने इसके भी तीन भेद किए थे – मृदु, तीक्ष्ण और तुल्य (यथोचित या यथार्ह)। इस तरह की सावधानी दंड के मामले में दूसरे देशों में भी बरती जाती थी या नहीं, इसके लिए जितने विशद अध्ययन की जरूरत है, वह मुझ में नहीं है, फिर भी अहंकारवश न्यूनतम अपराध पर भी कठोरतम दंड देने के उदाहरण दूसरी सभ्यताओं में अधिक पाए जाते हैं। बर्बरता की अवस्था में जीने वाले समाजों में तो केवल आतंक फैलाने के लिए निरपराध व्यक्तियों या समुदायों को अमानवीय दंड दिए जाते रहे हैं। अपने को सभ्य कहने वाले पश्चिमी देशों ने भी ऐसी ही बर्बरता का प्रदर्शन किया है, जिसे नाजियों के यातना शिविरों और यातना वधों में, अमेरिका द्वारा जापान दोबारा परमाणु बम का प्रयोग करने में और वियतनाम युद्ध आदि में तो देखा ही जा सकता है पूरी की पूरी मूल आबादी के घृणित विनाश के रूपों में भी पाया जा सकता है।
भेद नीति के प्रयोग का ज्ञान भारतीय राजविदों को बहुत प्राचीन काल से रहा है, परंतु इसका प्रयोग अन्य कोई विकल्प न रह जाने की स्थिति मे में ही किया जाता रहा है क्योंकि यह मनुष्य की आत्मा और बुद्धि दोनों को नष्ट कर देता है और उसी के द्वारा समाज को लगभग विक्षिप्त बना कर उनको अपने सर्वनाश की दिशा में अग्रसर करता है। इसलिए महाविनाशकारी आयुधों (ब्रह्मास्त्र) की तरह इसका प्रयोग विवशता की स्थिति में ही किया जाता रहा है।
भारतीय राजविदों ने कितने पहले से इन समस्याओं पर और चिंतन आरंभ किया था इसका सटीक निर्धारण कठिन है, परंतु तीसरी शताब्दी ईसापूर्व की कृति अर्थशास्त्र में कौटल्य से पहले के कम से कम आधे दर्जन अधिकारी राजविदों के नाम और विभिन्न प्रसंगों में उनके विचार और उनकी आलोचना भी आई है इसलिए इसका इतिहास बहुत पीछे जाता है।
हम देख सकते हैं कि साम दाम दंड भेद का यह क्रम बहुत सोच समझ कर रखा गया अपनी सूझबूझ से इना का प्रयोग भी अधिकांश शासकों द्वारा किया जाता रहा है यद्यपि इनके अपवाद भी मिलते हैं।
अंग्रेजों को पहली बार इन नीतियों का परिचय 18 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में मिला और तब से उन्होंने सबसे अधिक प्रयोग इसी का किया। इसका एक कारण तो यह कि राजनीति में भी धर्मदृष्टि का पालन सोभव है यह उनके लिए कल्पनातीत रहा है जो प्रेम और युद्ध में कमीनेपन को भी जायज मानते रहे हैं। यहां तो दूरी, संख्याबल और अपने अन्याय की असह्यता को देखते हुए, इसका परिचय मिलने के बाद यही उनको सबसे अधिक सुविधाजनक दिखाई दिया। आधुनिक काल में भेदनीति का प्रयोग वारेन हेस्टिंग्स के साथ आरंभ होता है, जिसने, एक ओर तो भारत का निर्ममतापूर्वक दोहन किया और दूसरी ओर सभी पक्षों का अध्ययन करने को प्रोत्साहन देते हुए भेदनीति की आधारभूमि तैयार की। यदि हमें कठोर दंड के दुष्परिणाम देखने हैं तो इसका उदाहरण भी वारेन हेस्टिंग्स में ही मिलोगाः
After a three years’ noviciate he started forth as a preacher, and by boldly attacking the abuses which have crept into the Muhammadan faith in India, obtained a zealous and turbulent following. The first scene of his labors lay among the descendants of the Rohillas,4 for whose extermination we had venally lent our troops fifty years before, and whose sad history forms, one of the ineffaceable blots on Warren Hastings’ career. Their posterity have during the past half century, taken an undying revenge, and still recruit the Rebel Colony on our Frontier with its bravest swordsmen. In the case of the Rohillas, as in many other instances where we have done wrong in India, we have reaped what we sowed. (Hunter, The Indian Musalaman, 1871)
और यदि मनुस्मृति से सीख लेकर भेद नीति की दिशा में योगदान करने की बात हो तो भी वारेन हेस्टिंग्स का ही नाम आएगा जिसने सबसे पहले मुहम्मडन कालेज की स्थापना करते हुए उनके मन में जगह बनाने की कोशिश कीः
During exactly ninety years, a costly Muhammadan College has been maintained in Calcutta at the State expense. It owes its origin, like most other of the English attempts to benefit the people, to Warren Hastings. In 1781 the Governor- General discerned the change which must inevitably come over the prospects of the Musalmans, and tried to prepare them for it. As the wealth of the great Muhammadan Houses decayed, their power of giving their sons an education which should fit them for the higher offices in the State declined pari passu. To restore the chances in their favour, Warren Hastings established a Muhammadan College in the Capital, and endowed it with certain rents towards its perpetual maintenance.’ (वही)
हम कह सकते हैं की भेदनीति का प्रयोग सर सैयद के साथ नहीं आरंभ हुआ, नही उनके प्रयत्न से आरंभ हुआ। इस दिशा में पहले से ही तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे थे जिससे अंग्रेज मुसलमानों से निकटता पैदा करके उनके आक्रोश को हिंदुओं की ओर मोड़ सकें और अपनी परेशानी, जिसका हवाला हम देते रहे हैं, कम कर सकें।
वारेन हेस्टिंग्स ने लगभग झुक कर उनकी अपनी शर्तों पर उनकी शिक्षा की व्यवस्था की थी इसलिए इसका प्रबंध भी मुसलमानों के हाथ में दे दिया था। उनका ज्ञान अरबी और फारसी तक सीमित था जिसके कारण उनसे संपर्क साधना भी कठिन था और रोजी-रोजगार देकर अपने अनुकूल बनाना भी संभव नहीं थाः
Unfortunately for the Musalmans, he left its management to the Musalmans themselves. Persian and Arabic remained the sole subjects of instruction, long after Persian and Arabic had ceased to be the bread-winners in official life. Abuses of a very grave character crept into, the College, and in 1819 it was found necessary to appoint an European Secretary. In 1826 a further effort was made to adapt the Institution to the altered necessities of the times; an English class was formed, but unhappily soon afterwards broken up. Three years afterwards, another and a more permanent effort was made, but with inadequate results. During the next quarter of a century, the Muhammadan College shared the fate of the Muhammadan community. It was allowed to drop out of sight; and when the Local Government made any sign on the subject, it was some expression of impatience at its continuing to exist at all.(वही)
मुसलमानों के साथ धार्मिक मनोबंध इतना प्रबल रहा है धर्मनिरपेक्ष ज्ञान की दिशा में उनकी कोई रुचि न थी। पुस्तकालय जलाने वाले पुस्तकों से प्रेम नहीं करते, उल्टे डरते हैं कि कहीं उससे टकरा कर उनका विश्वास कमजोर न पड़ जाए। यदि प्रेम करते हैं तो सिर्फ एक किताब से जिसमें श्रद्धा के लिए उसे पढ़ना या समझना जरूरी नहींः
It is impossible to exaggerate the evil which this neglect has done to the Muhammadan youth of Bengal. We must remember that, since we misappropriated the Hugh Endowment a generation ago, the Calcutta College is the one Institution where they can hope to obtain a high-class education. A body of young Musalmans, about a hundred in number, are gathered together in the heart of a licentious Oriental capital ; kept under bad influences for seven years, with no check upon their conduct, and no examples of honourable efficiency within their sphere; and finally sent back to their native villages without being qualified for any career in life. About eighty percent of them come from the fanatical Eastern Districts; the difficulty of getting any lucrative employment, without a knowledge of English, having driven away the youth of the more loyal parts of Bengal from the College. The students have passed their boyhood in an atmosphere of disaffection. These are the moneyed men among the Muhammadan community, and they deride their masters behind their backs with all the suppressed insolence of menials belonging to a subject race. The students are all above sixteen, some above twenty, and some, I am told, over thirty years of age. The butlers with whom they live not only acquire the religious merit of supporting them, but often marry their daughters, with a handsome dowry, to their guests. The latter come from the petty landholding class, who care nothing for English or for science, little for Persian, and a great deal for the technicalities of Arabic grammar and law. Hunter,121-22
एक दूसरा प्रयोग फोर्ट विलियम कॉलेज के माध्यम से किया गया इसमें प्राचीन और आधुनिक हिन्दुस्तानी भाषाओं के अध्यक्ष गिलक्रिस्ट थे। इसकी कार्यशैली के विषय में हमें कुछ ज्ञात हो या न हो परंतु हम इतना जानते हैं हिंदी और उर्दू दोनों की मानक शैली के जनक और रानी केतकी की कहानी के लेखक इंशा अल्लाह खां थे। यह नाम हम सभी को बहुत आत्मीय लगता है इसलिए यह सोचकर हैरानी होती है कि इंशाल्लाह खां ने बिना किसी जरूरत या उकसावे के यदि यह डींग मारी तो इसका कारण क्या था, अथवा इसके पीछे कौन था। पाकिस्तान के भाषाविज्ञानी तारिक रहमान ने स्वयं भी कुछ विस्मय के साथ उनके इस कथन को उद्धृत किया हैः
“It is not hidden from the sophisticated that the arts of conversation, cusine and sartorial elegance have been learned by the Hindus from the Muslims. Their (Hindu’s) word or act cannot therefore be authoritative” (Insha** 1808:15 – translation mine). Tariq Rahman : Language, Education and Culture, Oxford University Press, 1999, पृ. 9-10
{nb. **Insha Alla Khan, 1808, Daryaya-i-Latafat, Urdu translation, Brij Mohan Duttarya Kaifi, Anjuman Taraqi-i-Urdu, Aurangabad. This book of Insha was written in Persian and admired for its quality by Abdul Haq considered to be the father of Urdu (baba-e-Urdu) in the preface of the translation.}
हमें दिखाई दे या नहीं परंतु पर्दे के पीछे मुसलमानों के ब्रेनवाशिंग का काम आरंभ हो गया था।
इसलिए हम समझते हैं कि सर सैयद अहमद का निर्माण अंग्रेज कूटनीतिज्ञों ने किया था और उनका इस्तेमाल, जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, उन्होंने किया न कि सर सैयद ने उनका।
Post – 2018-10-12
न जानें जिन्दगी के बाद कैसी जिन्दगी होगी
जरूरी है कि उसका एक खाका खुद बना रक्खें।
Post – 2018-10-11
#सर_सैयद_अहमदः लाख परदा करें पर सच तो बयां होगा ही
मरे हुए लोग अपनी सफाई देने के लिए नहीं आ सकते, यह काम भी जीवित लोगों का ही है, और सबसे पहले उस व्यक्ति का है जो उनके काम और विचार का मूल्यांकन कर रहा है । इस बात का ध्यान उसे ही रखना है कि कहीं उत्साह में या असावधानी में वह विचारणीय व्यक्ति के प्रति कोई अन्याय न कर बैठे। इसका एक ही तरीका है – विचार करते समय हम अपनी ओर से कुछ जोड़ने, खींचने-तानने से बचें और जिन बातों के साक्ष्य हैं, केवल उनको ही केन्द्र में रखें, जिससे वास्तविकता सामने आ सके।
सर सैयद के लिए जातीय समस्या को समझने को दो प्रस्थान बिन्दु थे और वे दोनों थे वो निर्णायक युद्ध जिनके द्वारा अंग्रेजों को भारत पर अधिकार मिला था। हम इसके पीछे के इतिहास में न जाकर केवल इतना बताना चाहेंगे की नवाब के आदेशों का खुलेआम उल्लंघन करने के कारण सिराजुद्दौला ने उन पर हमला करके उन्हें कलकत्ते से भगा दिया था परंतु वे समुद्र में 40 दिन तक छिपे मद्रास ले सहायता की प्रताक्षा करते रहे। इस बीच उन्होंने जो चोर दरवाजे से किया उसका हम अनुमान ही लगा सकते हैं पर फिर उनके आक्रमण के बाद जो कुछ हुआ वह नीचे की पंक्तियों में हैः
The major part of the Nawab’s army, led by the traitors Mir Jafar and Rai Durlabh, took no part in the fighting. Only a small group of the Nawab’s soldiers led by Mir Madan and Mohan Lai fought bravely and well. The Nawab was forced to flee and was captured and put to death by Mir Jafar’s son Miran.
The battle of Plassey was followed, in the words of the Bengali poet Nabin Chandra Sen, by “a night of eternal gloom for India”. The English proclaimed Mir Jafar the Nawab of Bengal and set out to gather the reward. The Company was granted undisputed right to free trade in Bengal, Bihar and Orissa.
It also received the zamindari of the 24 Parganas near Calcutta. Mir Jafar paid a sum of Rs 17,700,000 as compensation for the attack on Calcutta to the Company and the traders of the city. In addition, he paid large sums as ‘gifts’ or bribes to the high officials of the Company.
Clive, for example, received over two million rupees, Watts over one million. Clive later estimated that the Company and its servants had collected more than 30 million rupees from the puppet Nawab. It was also understood that British merchants and officials would no longer be asked to pay any taxes on their private trade.
स्थानाभाव के कारण हम इसे पिछली कड़ी में नहीं दे सके थे परंतु इसका ध्यान दिलाना उसमें दी गई तीन स्थापनाओं की पुष्टि के लिए जरूरी थाः 1- अंग्रेज बहादुर नहीं कायर थे, आमने सामने की लड़ाई में किसी से नहीं जीते। लक्षमीबाई तक के किसी के पटा कर बारूद को पानी से गीला करा दिया था । 2. हिंदू मुसलमानों से अधिक भरोसे के सिद्ध हुए हैं और उन पर भरोसे का ही परिणाम था कि जितने समय में विश्वासघात के कारण सुल्तानों की पांच बार गद्दियां छिनी उतने समय तक मुगल अकेले सत्ता में बने रहे और सत्ता खोई तो औरंगजेब के उन पर विश्वास खोने के ही कारण। सिराजुद्दौला के साथ भी विश्वासघात मुसलमानों ने किया, प्राण गंवा कर भी साथ देने वाले हिंदू थे, गो विश्वासघातियों में अमीचंद भी था, अतः इसका सतही और इकहरा पाठ नहीं किया जा सकता। 3. अंग्रेजों के साथ जाने वाले को भी लूटने से वे बाज न आए और उसका जो अंत हुआ वह एक शिक्षा थी जिससे सर सैयद ने कुछ नहीं सीखा। 4- अंग्रेज अपनी कंपनी को भी धोखा दे कर निजी कमाई करते रहे, वे चरित्रगत रूप में अधिक गिरे हुए थे और उनका यह प्रचार गलत था कि भारतीयों के संपर्क के कारण वे भ्रष्ट हुए थे। भ्रष्टता और अपराध साधन की पवित्रता को महत्व न देने वाले सभी का चारित्रिक दोष है और इसलिए यह मध्यकाल में भी थे परन्तु साधन की पवित्रता को मुत्यव देने के ही कारण ये विकृतियां भारतीय समाज में मध्यकाल से पहले अल्पतम थी, अंग्रेजों के कारण यह पराकाष्ठा पर पहुंची और इनका हिंदुओं में भी विस्तार हुआ और आज की मुस्लिम वोट बैंक वाली राजनीति में यह अपने जघन्यतम रूप में दिखाई देती हैं।
दूसरा था 1857 का संग्राम। इसकी बहुत कामचलाऊ जानकारी ही मेरे पास है, पर इतना तय है कि यद्यपि इसका योजना और क्रियान्वयन में हिंदुओं की पहल थी पर इसमें दोनों समुदायों को साथ लेकर चलने का निर्णय लिया गया था और मुसलमानों का सहयोग पाने के लिए बहादुरशाह को ही भावी सम्राट बनाने का फैसला किया गया था जिसका एक नुकसान यह हुआ कि गुरुओं के साथ मुगलों के जघन्य अत्याचार के कारण रणजीत सिंह का सहयोग नहीं मिल सका। मुख्य भरोसा सेना के विद्रोह का था। कंपनी का कुल सैन्यबल 70 हजार था, इनमें 13000 अंग्रेज थे और 57000 भारतीय जिनमें सभी हिंदू थे क्योंकि कंपनी ने विश्वास की कमी के कारण मुसलमानों पर भरोसा नहीं किया था और निर्णायक पदों से वंचित रखा था। यदि मंगलपांडे ने समय पहले अपना धैर्य न खो दिया होता तो परिणाम क्या होता यह अनुमान कोई मानी नहीं रखता, परन्तु इसमें भाग लेने वाले मुसलमानों ने इसे जिहादी रंग देते हुए अंग्रेज महिलाओं और बच्चों की भी हत्या न की होती, उन्हें केवल बंदी बना कर रखा होता तो दमन ने उतना क्रूर और विशेषरूप से मुस्लिम विरोधी रूप न लिया होता। उन बंधकों के कारण मोल भाव तक स्भव हुआ होता।
मुझे असबाबे-बगावते-हिंद (1859) देखने का या उसकी अंतर्वस्तु को विस्तार से जानने का अवसर नही मिला, फिर भी इस बात का पूरा भरोसा है कि इसमें सैयद अहमद ने इस पक्ष को न रखा होगा कि मुसलमानों को कौमी जुनून से मुक्त रख कर ही उन्हें इंसान बनाया और उन पर भरोसा किया जा सकता है, यद्यपि अपने दिल में वह इसे महसूस करते रहे हो सकते हैं और इसीलिए उन्होंने कुरान की व्याख्या आधुनिक दृष्टि से करना आरंभ किया था और जिसका जोरदार विरोध कई ओर से होने पर उन्होंने इसे रोक दिया था।
उन्होंने जिन अंग्रेज परिवारों का बचाव किया था उन्हीं के हाथों दिल्ली मे रहनेवाले उनके परिवार और नाते के सभी लोग मारे गए थे। मां नेअस्तबल में छिपकर जान तो बचा ली पर अधिक समय तक जीवित न रहीं। उन पर इसका ऐसा घातक असर हुआ था कि एक बार वह भारत छोड़कर मिस्र में जा बसने के लिए तैयार हो गए थे। फिर उनको खयाल आया कि आगे जो बचे हुए लोग हैं वे सताए जाएंगे इसलिए उनकी रक्षा के लिए उन्हे यहीं रह कर जो भी संभव है करना होगा और उनकी हालत में सुधार लाना होगा। परन्तु दमन इतना क्रूर था कि उसकी दहशत उनकी अंतश्चेतना में समा गई थी इसलिए वे सचमुच उससे दूर रह कर किसी भावी दमन से बचाने की चिंता से ग्रस्त रहे हों इससे मै इन्कार नहीं कर पाता। वह इस अन्देशे को बार बार दुहराते थे।
मुझे यह बात चकित करती रही है कि वह लगातार घालमेल की भाषा का प्रयोग करते हुए राष्ट्रीय एकता के नए मंच कांग्रेस का विरोध कर रहे थे। ऐसा लगता है कि वह अंग्रेजों के प्रति अपनी और अपनी कौम की वफादारी सुनिश्चित करते हुए कांग्रेस को हिन्दू संगठन बताते हुए, उस संभावित दमन को हिंदुओं की ओर मोड़ना चाहते थे और यदि जलियांवाला कांड को उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति मानें तो उनका यह अंदेशा गलत न था। 2. वह इसे हिन्दू आंदोलन करार देते हुए यह संदेश देना चाह रहे थे कि केवल हिन्दू तख्ता पलटना चाहते हैं इसलिए वे अंग्रेजों के विश्वास के काबिल नहीो हैं और मुसलमानों पर से विश्वास हट जाने का जो लाभ बंगाली हिंदुओं को मिला और वे आगे बढ़ गए, वह अब उनको वंचित करते हुए मुसलमानों को मिलना चाहिए, जिससे वे उनसे आगे निकल जाएं। 3. इसे हासिल करने के लिए अंग्रेज जो कुछ भी करें उसका आंख मू्ंद कर समर्थन करना चाहिए। 4. इसबीच सरकार को सेना, और पुलिस में मुसलमानों को अधिक से अधिक भरती करना और मुसलमानों को अपने को भविष्य के उच्च पदों के लिए जल्द से जल्द अंग्रेजी शिक्षा से लैस करके तैयार करना चाहिए।
परन्तु एक बात न चाहते हुए भी उन्होंने स्वीकारी कि मुसलमान झगड़ालू और खुराफाती स्वभाव के हैं, इसलिए सरकार की पैनी नजर मुसलमानों पर रहेगी। remember that Government will keep a very sharp eye on you because you are very quarrelsome, very brave, great soldiers, and great fighters.
Post – 2018-10-11
कितना दबा कर रखा अंधेरों ने देखिए
जलते हैं पर उन्हीं को चिरागां किए हुए।
Post – 2018-10-10
#सर_सैयद: हिंदू का अहित मुसलमानों के हित से ऊपर
सैयद अहमद को उनके किस काम के लिए इंग्लैंड में इतना सम्मान मिला था? उनकी पदीय हैसियत या अकादमिक उपलब्धि तो ऐसी न थी। माली हालत अवश्य ऐसी थी कि वह वहां जब तक रहे पूरे रुतबे से रहे, परंतु यह इसके लिए पर्याप्त न था कि महारानी से लेकर इंग्लैंड के संभ्रांत जन तक इतना असाधारण सम्मान करते। इसका एक ही कारण था कि अब तक की उनकी रुझान को देख कर उन्हें यह विश्वास हो गया था कि लंबे समय से जिस खैरख्वाह की जरूरत थी वह उन्हें मिल गया है। वे उनके सामने उसी तरह चारा फेंक रहे थे जैसे शिकारी किसी पक्षी या जानवर को फंसाने के लिए चारा डालता है। सैयद अहमद स्वयं चारे की तलाश में थे और उन्हें इससे जो आश्वस्ति मिली थी जिसकी अभिव्यक्ति समर्पित भाव से उनके द्वारा किया गया अंग्रेजों का गुणगान था, जिसमे आत्माभिमान, देशाभिमान और उनके प्रिय कौमी अभिमान सभी का अभाव था।
अंग्रेजों के बारे में हमारा आकलन नीरद चौधरी और उनके पूर्ववर्ती सैयद अहमद से भिन्न है और उनकी वह शान और शालीनता भी जिसने उनको आकर्षित किया होगा, उस लूट की देन थी जिसने पहले बंगाल को और फिर पूरे हिन्दुस्तान को कंगाल, बेकारऔर दयनीय बना दिया था। फ्रांसीसियों की नफरत अंग्रेजों से इस बात को लेकर रही है कि अंग्रेज कायर और व्यापारी कौम है और आर्थिक लाभ के लिए वह गर्हित से गर्हित काम कर सकती है। यूरोप के किसी भी दूसरे राष्ट्र ने उतने घृणित तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया जिनका इस्तेमाल अंग्रेज करते रहे। नशे का व्यापार करना, नशे का आदी बनाना, इसकी खपत बढाने के लिए युद्ध तक (चीन के साथ ओपियम वार) करना, हारने पर चोर दरवाजे निकाल कर इसकी आपूर्ति करना, आदमियों का जानवरों की तरह शिकार कर और करा कर गुलाम व्यापार करना, उसे राजकीय कारोबार तक की हैसियत पर पहुंचाना और इंसानों के साथ अकारणअमानवीय और अपमानजनक व्यवहार और लिंजिंग तक करना, इसे मनोरंजन का रूप दे कर तमाशे में बदलना, गरीबों से काम कराकर पैसे न देना (कुली बेगार प्रथा), न्याय की सौदेबादी करना, व्यवस्था (पुलिस) तंत्र का सुनियोजित अव्यवस्था के लिए उपयोग करने के लिए भ्रष्ट बना कर रखना आदि जितने जघन्य अपराध अंग्रेजों के हिस्से में आते हैं उतने नाजियों के हिस्से में भी नहीं आएंगे।
1757 मे प्लासी के युद्ध से पहले बंगाल की दशा क्या थीः
Bengal was the Mughal Empire’s wealthiest province. It generated 50% of the empire’s GDP and 12% of the world’s GDP, globally dominant in industries such as textile manufacturing and shipbuilding, with the capital Dhaka having a population exceeding a million people. It was an exporter of silk and cotton textiles, steel, saltpeter, and agricultural and industrial produce. By the 18th century, Mughal Bengal emerged as a quasi-independent state, under the Nawabs of Bengal,(Wikipedia)
इसके बाद उन्होंने उसकी क्या दशा कर दी या उनके कारण मुसलमानों की क्या दशा हुई इस पर ध्यान देना सैयद को इसलिए जरूरी नहीं लगता था कि अंग्रेजों के व्यवहार की तुलना वह मध्यकाल के मुस्लिम शासको के व्यवहार से तुलना करते हुए इस नतीजे पर पहुंचते थे ऐसा तो सभी करते हैं यद्यपि ऐसा नहीं करते। करते होते को बंगाल की वह दशा न रही होती। वह अपराधियों की कृपा पाने के लिए उनके अपराध के लिए बंगाल के हिंदुओं को अपराधी सिद्ध करते रहे, क्योंकि ऐसा उन्हे लगता था कि ऐसा करके ही वे उनसे कुछ हासिल कर सकते थे। यह हासिल करना आम मुसलमानो के लिए नहीं हो सकता था जिनके रोजगार छिन गए थे केवल बचे हुए नवाबों, जमीदारों और रईसों के हित मे ही हो सकता था।
भारत को उन्होंने न तो कूटनीति से जीता था जिसमें व्यवहार की एक गरिमा होती है और किए गए वादे का सम्मान किया जाता है, न ही बल से जीता था। वे लगातार धोखाधड़ी का इस्तेमाल करते रहे। इसके कारण ही पहले ही यह स्पष्ट करना जरूरी लगा की धोखाधड़ी भेद नीति नहीं है। रिश्वतखोरी विश्वासघात वादे से मुकरना कानून का उल्लंघन अपने स्वजनों तक के साथ धोखाधड़ी दस्यु पायरेसी करना, न्यायालयों तक में रिश्वत को बढ़ावा देना, कानून व्यवस्था स्थापित करने वाले यंत्र को भी भ्रष्ट करके रखना उन्होंने स्थापित किया जिसके एक नहीं असंख्य उदाहरण है। बंगाल के दो सबसे भयंकर अकाल 1777 ऑल 1946 उनके लोभ या अमानवीयता के कारण पड़े जिनके विस्तार में जाना जरूरी होते हुए हम नहीं जा सकते, नीचता का इससे बड़ा नमूना क्या हो सकता है। उनके तो गवर्नर जनरल को भी मानहानि का दंड भुगतना पड़ा और मालामाल होने के बाद कंगाल की जिंदगी बिताते हुए मौत का सामना करना पड़ा।
भारत को उन्होंने कैसे जीता इसके लिए उनसे अधिक हमारे मध्यकाल का व्यवहार, मुगल सल्तनत के गिरावट के समय सम्राट बनने की अनेक लोगों की आकांक्षा के चलते हम उनका सामना नहीं कर सके या पहले ही मौके पर कुचल न सके।
हम यहां के भेदनीति पर बात कर रहे हैं इसलिए यह बताना जरूरी था कि 18 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में मनुस्मृति से परिचित होने से पहले दे कौन से तरीके अपनाते रहेः इसे हम अपने शब्दों में रखने की जगह दो अधिकारियेों के शब्दों में रखना अधिक सुविधाजनक मानते हैं।उन्होंने कैसे जीता था इसका बहुत सटीक वर्णन लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक यंग इंडिया में दिया हैः
British “conquest” of India from 1757 to 1857 A. D. is a continuous record of political charlatanry, political faithlessness, and political immorality. It was a triumph of British “diplomacy.” The British founders of the Indian empire had the true imperial instincts of empire-builders. They cared little for the means which they employed. Moral theorists cannot make empires. Empires can only be built by unscrupulous men of genius, men of daring and dash, making the best of opportunities that come to their hands, caring little for the wrongs which they thereby inflict on others, or the dishonesties or treacheries or breaches of faith involved therein.
परंतु इसके लिए केवल जीतने वाले को दोष देना और अपनी गलतियों को याद न रखना सबसे बड़ी मूर्खता है। भारत के रजवाड़े हर्षवर्धन के बाद आपस में लड़ते रहे और विदेशी आक्रमणकारियों का मिलकर सामना नहीं कर सके। पराजित करने के बाद उनके पलायन करने के बाद उन्हें क्षमा करके निश्चिंत होने के कारण धोखे से हारे और फिर औरंगजेब की कट्टरता और कठोरता के कारण मुगल साम्राज्य के खंडित होने से उत्पन्न हुए खालीपन मे सभी राजे नवाब आपसी झगड़ों के कारण अलग रहे। अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध मे किसा ने किसी का साथ नहीं दियाः
Hindus were played against the Mohammedans, and vice versa, states and principalities against states and principalities, Jats against Rajputs, and Rajputs against Jats, Mahrattas against both, Rohillas against Bundelas, and Bundelas against Pathans, and so on. Treaties were made and broken without the least scruple, sides were taken and changed and again changed without the least consideration of honour or faith. Thrones were purchased and sold to the highest bidder. Military support was purchased and given like merchandise. Servants were induced to betray their masters, soldiers to desert flags, without any regard to the morality of the steps taken. Pretences were invented and occasions sought for involving states and principalities in wars and trouble. Laws of all kinds, national and international, moral and religious, were all for the time thrown into the discard. Neither minors nor widows received any consideration; the young and the old were treated alike. The one object in view was to loot, to plunder, and to make an empire. Everything was subordinated to that end. One has only to read Mill and Wilson’s “History of British India,” Burke’s “Impeachment of Warren Hastings,” Torrens’ “Our Empire in Asia,” Wilson’s “Sword and Ledger,” Bell’s “Annexation of the Punjab” to find out that the above is a bare and moderate statement of truth.88-89
1857 के दौरान हिंदू और मुसलमानों में एक काम चलाऊ एकता पैदा हुई थी जो ही भारत के भविष्य के लिए हितकर थी, परन्तु मुझेे ऐसा लगता है कि सरसैयद के मन में या तो हिंदुओं को नीचा दिखाने की इच्छा मुसलमानों के हित से अधिक प्रबल थी, या 1857 के बाद के दमन से वह उबर ही न सके। सच क्या है , यह विचारणीय है।