Post – 2018-05-08

धन और संपत्ति और जल

यव (2)

विषयांतर को छोड़ कर हम मुख्य विषय पर आएं। ‘जौ’ अनाज है तो इसका नामकरण जल के किसी पर्याय पर होना चाहिए, परंतु ऋग्वेद में और बोलियों मैं भी कोई ऐसा प्रयोग देखने में नहीं आया, जिसका अर्थ पानी प्रकाश या गति हो। यदि ऐसा है तो हमारी प्रतिज्ञा ही गलत सिद्ध होती है कि सभी खाद्य पदार्थों के नाम जल के किसी पर्याय पर आधारित है। इसलिए हमारा प्रयास होगा कि हम ‘यव’ शब्द के अर्थ को समझें और फिर यह देखें कि इसका नामकरण जल के पर्याय से कितने कदम हटकर, परंतु उसी कड़ी में, है।

यव का प्रयोग दो रूपों में आया है – ‘यवस’ और ‘यव’। पहले का प्रयोग सामान्यतः घास या चरागाह के लिए हुआ हैः ‘गावो न यवसेषु आ’, 1.91.13 (जैसे चरागाह में गोरू); ‘मृगो न यवसे’, 1.38.5, (जैसे चरागाह में वन्य पशु); बिजली की तड़क से ‘यवसादो व्यस्थिरन्,’ 1.94.11 (चरते हुए जानवर घबरा जाते हैं); इत्यादि में, ऐसा प्रयोग देखने में आता है। कुछ संदर्भों से ऐसा लगता है कि यव और यवस दोनों का प्रयोग ‘जौ’ और ‘घास’ दोनों के लिए होता था। सायण स्वयं ‘यवसस्य’ का अर्थ दो तरह से करते हैं। 1. ऋ. 2.16.8 में ‘घासेन’, और 2. ऋ.7.93.2 में ‘अन्नस्य’।

एक दूसरे स्थान पर ‘यव’ का प्रयोग खड़ी फसल के लिए हुआ लगता हैः ‘गावो यवं प्रयुता अर्यो अक्षन् ताः अपश्यं सहगोपाश्चरन्तीः।’ 10.27.8 (छुट्टा गोरू किसान की फसल चर जाते हैं, इसलिए मैंने आज उन्हें चरवाहों के साथ जाते देखा) ।

दो स्थलों पर ‘सूयवसं’ का अर्थ ‘समस्त प्रकार की औषधियों अर्थात खाद्य पदार्थों से भरा पूरा प्रदेश का आशय लिया गया हैः ‘सुप्रैतुः सूयवसो न पन्था दुर्नियन्तुः परिप्रीतो न मित्रः।’ 1.190.6 (सूयवस – शोभन अन्न युक्त); ‘अभि सूयवसं नय न नवज्वारो ध्वने, पूषन्निह क्रतुं विदः ।’ 1.42.8 (पूषा देव, अपने कर्तव्य का ध्यान रखना, हमें सस्य संपन्न -सायण ने सर्वौषधिसंपन्न का प्रयोग किया है- देश की ओर ले कर चलना। रास्ते में कोई हारी-बीमारी न हो।)

वैसे ग्रास और घास में विशेष अंतर नहीं है। जिसे ग्रसा या खाया जा सके वह ग्रास और घास है। वन्य यव और धान को वरुण प्रघास कहा ही गया है। अंग्रेजी में ग्रास का अर्थ घास है और संस्कृत में निवाला या कौर (कवल)।

‘दुरो अश्वस्य दुर इन्द्र गोरसि दुरो यवस्य वसुन इनस्पतिः ।’ 1.52.2 (इन्द्र तुम अश्वधन, गोधन, अन्नधन, खनिज धन के स्रोत (द्वार – सायण ने यहां दुर का अर्थ दाता किया है) स्वामी और पालक हो) यहां यव का अर्थ समस्त धान्य किया गया है, न कि केवल यव।

‘यव’ का शाब्दिक अर्थ है अलग करनाः ‘यावया वृक्यंवृकं यवय स्तेनमूर्म्ये,’ 10.127.6 (खूंखार भेड़िये को, और रात के समय चोरों उचक्सेकों को हमसे दूर रखना। ‘यावयत्सखः’,10.26.5 अपने मित्रों को शत्रुओं से अलग करने (बचाने) वाला।
‘सस्थावाना यवयसि त्वमेक,’ 8.37.4 (तुमने सुस्थिर लोकों -धरती और आकाश – को अकेले दम पर अलग किया है।)

ऐसी स्थिति में इसका गतिशील या प्रवहमान अर्थ करना दूर की कौड़ी प्रतीत होगा, परंतु अलग करने का ‘यव’ से क्या संबंध हो सकता है?

इस दृष्टि से उषा सूक्त का एक अर्धर्च रोचक हैः ‘यावयत् द्वेषा ऋतपा ऋतेजाः सुम्नावरी सूनृता ईरयन्ती ।’ 1.113.12 (ऋत का निर्वाह करने वाली, ऋत से उत्पन्न, पशुओं-पक्षियों की प्रेरिका, सुखदायिनी उषा द्वेषियों को मुझसे दूर करे । यहां दो तरह की गतियों का हवाला है। एक दूर भगाने की, दूसरी उड़ने ओर चलने दौड़ने को प्रेरित करने की। वास्तव में ‘यवय’ और ‘ईरय’ एक ही मूल, ‘ई’ के रूप हैं, जिसका मूल अर्थ जल था, जो ‘यह’ का बोधक बना, संप्रसारित हो कर ‘य’ बना तब भी जल का अर्थ बना रहा। दोनों एक अन्य जलार्थक ‘त/तर/त्र’ – स्थान, के प्रत्यय के रूप में जुड़ने पर ‘इत’, ‘इत्र’ (जो बाद में ‘अत्र’ बना), ‘इतर’, ‘यत्र’, ‘इतस्’/ ‘इतः’. ‘इतम्/इदं’, ‘इन्द’/ ‘इन्दु’/ ‘इन्द्र -जल की बूंद, जल, चमकने वाला, जल देने वाला, ‘इन्द्रिय’ – प्रकाश करने वाली, ज्ञान कराने वाली,’ इनार’/ ‘इन्दारा’ – कुआं, ‘ई/ ईर/इरा’/ इळा’/इला, इय (इयर्ति),ए (एति) -गति, जल(इरावती), अन्न. धरती.आदि के लिए शब्दों का जनन करती है और इसका संप्रसारित रूप ‘य’ (ज) जिसका ‘यव’ और ‘जव/जौ’ – से संबंध भी अन्न, जल, गति. वेग, आदि के लिए प्रयोग में आता है। जल्रार्थक हीनार्थक का भी बोधक है इसलिए यह स्त्रीलिंग और लघुता सूचक प्रत्यय तो बनता ही है, गुण और स्वभाव आदि से जुड़ी विशेषता का भी प्रत्यय बनता है जिसके लिए सं. में -‘-इन्’ और हिंदी में ‘-ई’ प्रत्यय (विधर्मी, अधिकारी, कमी) का विधान है।

अब इस पृष्ठभूमि में हम केवल ‘य’ से निकली और ऋग्वेद में उपलब्ध शब्दावली पर दृष्टिपात कर सकते हैंः

ययिं – गतिमन्तं मेघं, 1.87.2
यय्यं – गन्तारं , 2.37.5
यवसं – तृणादिकं; 3.45.3), ओषध्यादिलक्षणमन्नं 7.102.1
यवसस्य – अन्नस्य, 7.93.2
यवसे – घासे विसृष्टः 6.2.9; घासे प्रक्षिप्ते सति, 7.87.2
यविष्ठ = युवतम, 1.26.2; 2.6.6
यव्यं – ब्रीहिजवादिकं, 1.140.13
जवनी सूनृतारुहत् , 1.51.2
जवनी- प्रेरयित्री 1.51.2
रथेन मनोजवसा – मनोवेग से चलने वाले 1.117.15
श्येनस्य जवसा1. 118.11
धीजवना नासत्या – बुद्धि को प्रेरित करनेवाले अश्विनीकुमार 8.5.35

Post – 2018-05-08

धन और संपत्ति और जल

यव (2)

विषयांतर को छोड़ कर हम मुख्य विषय पर आएं। ‘जौ’ अनाज है तो इसका नामकरण जल के किसी पर्याय पर होना चाहिए, परंतु ऋग्वेद में और बोलियों मैं भी कोई ऐसा प्रयोग देखने में नहीं आया, जिसका अर्थ पानी प्रकाश या गति हो। यदि ऐसा है तो हमारी प्रतिज्ञा ही गलत सिद्ध होती है कि सभी खाद्य पदार्थों के नाम जल के किसी पर्याय पर आधारित है। इसलिए हमारा प्रयास होगा कि हम ‘यव’ शब्द के अर्थ को समझें और फिर यह देखें कि इसका नामकरण जल के पर्याय से कितने कदम हटकर, परंतु उसी कड़ी में, है।

यव का प्रयोग दो रूपों में आया है – ‘यवस’ और ‘यव’। पहले का प्रयोग सामान्यतः घास या चरागाह के लिए हुआ हैः ‘गावो न यवसेषु आ’, 1.91.13 (जैसे चरागाह में गोरू); ‘मृगो न यवसे’, 1.38.5, (जैसे चरागाह में वन्य पशु); बिजली की तड़क से ‘यवसादो व्यस्थिरन्,’ 1.94.11 (चरते हुए जानवर घबरा जाते हैं); इत्यादि में, ऐसा प्रयोग देखने में आता है। कुछ संदर्भों से ऐसा लगता है कि यव और यवस दोनों का प्रयोग ‘जौ’ और ‘घास’ दोनों के लिए होता था। सायण स्वयं ‘यवसस्य’ का अर्थ दो तरह से करते हैं। 1. ऋ. 2.16.8 में ‘घासेन’, और 2. ऋ.7.93.2 में ‘अन्नस्य’।

एक दूसरे स्थान पर ‘यव’ का प्रयोग खड़ी फसल के लिए हुआ लगता हैः ‘गावो यवं प्रयुता अर्यो अक्षन् ताः अपश्यं सहगोपाश्चरन्तीः।’ 10.27.8 (छुट्टा गोरू किसान की फसल चर जाते हैं, इसलिए मैंने आज उन्हें चरवाहों के साथ जाते देखा) ।

दो स्थलों पर ‘सूयवसं’ का अर्थ ‘समस्त प्रकार की औषधियों अर्थात खाद्य पदार्थों से भरा पूरा प्रदेश का आशय लिया गया हैः ‘सुप्रैतुः सूयवसो न पन्था दुर्नियन्तुः परिप्रीतो न मित्रः।’ 1.190.6 (सूयवस – शोभन अन्न युक्त); ‘अभि सूयवसं नय न नवज्वारो ध्वने, पूषन्निह क्रतुं विदः ।’ 1.42.8 (पूषा देव, अपने कर्तव्य का ध्यान रखना, हमें सस्य संपन्न -सायण ने सर्वौषधिसंपन्न का प्रयोग किया है- देश की ओर ले कर चलना। रास्ते में कोई हारी-बीमारी न हो।)

वैसे ग्रास और घास में विशेष अंतर नहीं है। जिसे ग्रसा या खाया जा सके वह ग्रास और घास है। वन्य यव और धान को वरुण प्रघास कहा ही गया है। अंग्रेजी में ग्रास का अर्थ घास है और संस्कृत में निवाला या कौर (कवल)।

‘दुरो अश्वस्य दुर इन्द्र गोरसि दुरो यवस्य वसुन इनस्पतिः ।’ 1.52.2 (इन्द्र तुम अश्वधन, गोधन, अन्नधन, खनिज धन के स्रोत (द्वार – सायण ने यहां दुर का अर्थ दाता किया है) स्वामी और पालक हो) यहां यव का अर्थ समस्त धान्य किया गया है, न कि केवल यव।

‘यव’ का शाब्दिक अर्थ है अलग करनाः ‘यावया वृक्यंवृकं यवय स्तेनमूर्म्ये,’ 10.127.6 (खूंखार भेड़िये को, और रात के समय चोरों उचक्सेकों को हमसे दूर रखना। ‘यावयत्सखः’,10.26.5 अपने मित्रों को शत्रुओं से अलग करने (बचाने) वाला।
‘सस्थावाना यवयसि त्वमेक,’ 8.37.4 (तुमने सुस्थिर लोकों -धरती और आकाश – को अकेले दम पर अलग किया है।)

ऐसी स्थिति में इसका गतिशील या प्रवहमान अर्थ करना दूर की कौड़ी प्रतीत होगा, परंतु अलग करने का ‘यव’ से क्या संबंध हो सकता है?

इस दृष्टि से उषा सूक्त का एक अर्धर्च रोचक हैः ‘यावयत् द्वेषा ऋतपा ऋतेजाः सुम्नावरी सूनृता ईरयन्ती ।’ 1.113.12 (ऋत का निर्वाह करने वाली, ऋत से उत्पन्न, पशुओं-पक्षियों की प्रेरिका, सुखदायिनी उषा द्वेषियों को मुझसे दूर करे । यहां दो तरह की गतियों का हवाला है। एक दूर भगाने की, दूसरी उड़ने ओर चलने दौड़ने को प्रेरित करने की। वास्तव में ‘यवय’ और ‘ईरय’ एक ही मूल, ‘ई’ के रूप हैं, जिसका मूल अर्थ जल था, जो ‘यह’ का बोधक बना, संप्रसारित हो कर ‘य’ बना तब भी जल का अर्थ बना रहा। दोनों एक अन्य जलार्थक ‘त/तर/त्र’ – स्थान, के प्रत्यय के रूप में जुड़ने पर ‘इत’, ‘इत्र’ (जो बाद में ‘अत्र’ बना), ‘इतर’, ‘यत्र’, ‘इतस्’/ ‘इतः’. ‘इतम्/इदं’, ‘इन्द’/ ‘इन्दु’/ ‘इन्द्र -जल की बूंद, जल, चमकने वाला, जल देने वाला, ‘इन्द्रिय’ – प्रकाश करने वाली, ज्ञान कराने वाली,’ इनार’/ ‘इन्दारा’ – कुआं, ‘ई/ ईर/इरा’/ इळा’/इला, इय (इयर्ति),ए (एति) -गति, जल(इरावती), अन्न. धरती.आदि के लिए शब्दों का जनन करती है और इसका संप्रसारित रूप ‘य’ (ज) जिसका ‘यव’ और ‘जव/जौ’ – से संबंध भी अन्न, जल, गति. वेग, आदि के लिए प्रयोग में आता है। जल्रार्थक हीनार्थक का भी बोधक है इसलिए यह स्त्रीलिंग और लघुता सूचक प्रत्यय तो बनता ही है, गुण और स्वभाव आदि से जुड़ी विशेषता का भी प्रत्यय बनता है जिसके लिए सं. में -‘-इन्’ और हिंदी में ‘-ई’ प्रत्यय (विधर्मी, अधिकारी, कमी) का विधान है।

अब इस पृष्ठभूमि में हम केवल ‘य’ से निकली और ऋग्वेद में उपलब्ध शब्दावली पर दृष्टिपात कर सकते हैंः

ययिं – गतिमन्तं मेघं, 1.87.2
यय्यं – गन्तारं , 2.37.5
यवसं – तृणादिकं; 3.45.3), ओषध्यादिलक्षणमन्नं 7.102.1
यवसस्य – अन्नस्य, 7.93.2
यवसे – घासे विसृष्टः 6.2.9; घासे प्रक्षिप्ते सति, 7.87.2
यविष्ठ = युवतम, 1.26.2; 2.6.6
यव्यं – ब्रीहिजवादिकं, 1.140.13
जवनी सूनृतारुहत् , 1.51.2
जवनी- प्रेरयित्री 1.51.2
रथेन मनोजवसा – मनोवेग से चलने वाले 1.117.15
श्येनस्य जवसा1. 118.11
धीजवना नासत्या – बुद्धि को प्रेरित करनेवाले अश्विनीकुमार 8.5.35

Post – 2018-05-08

#आप का सही होना उतना जरूरी नहीं है जितना यह कि जिसे आप सही समझते उस पर तब तक निडरता से डटे रहें जब तक उसके सही होने पर सन्देह न हो जाय और उसके बाद तब तक छानबीन करते रहें, जब तक सचाई का पता न चल जाय, गो इसका भी सही होना जरूरी नहीं। सचाई एक तलाश है, एक प्रक्रिया है, न कि उपलब्धि। यह जिज्ञासा को जीवित रखने का दूसरा नाम है। यह अपने से असहत होने वालों के प्रति सहिष्णु और असहमतियों के बीच अपने विचारों पर दृढ़ रहने की शक्ति देता है। अन्तिम सच का दावा करने वाले जड़ हो जाते हैं, उनकी जिज्ञासा मर जाती है। वे सिरज नहीं सकते, पर ध्वंस और संहार कर सकते हैं। #सामी #धर्मों, जिनमें अंतिम #कम्युनिज्म है, की शक्ति और त्रासदी का रहस्य यही है -, अन्तिम सत्य का दावा। इसीलिए #हिन्दुत्व की रक्षा केवल हिन्दुओं के नहीं, मानवता के हित में है जिसके सबसे बड़े शत्रु हिन्दुत्ववादी हैं जो भी उतने ही जड़ हैं, उतने ही जिज्ञासाशून्य। इन सभी के दबाव के बीच हिन्दुत्व की ऱक्षा एक चुनौती है।

Post – 2018-05-08

#आप का सही होना उतना जरूरी नहीं है जितना यह कि जिसे आप सही समझते उस पर तब तक निडरता से डटे रहें जब तक उसके सही होने पर सन्देह न हो जाय और उसके बाद तब तक छानबीन करते रहें, जब तक सचाई का पता न चल जाय, गो इसका भी सही होना जरूरी नहीं। सचाई एक तलाश है, एक प्रक्रिया है, न कि उपलब्धि। यह जिज्ञासा को जीवित रखने का दूसरा नाम है। यह अपने से असहत होने वालों के प्रति सहिष्णु और असहमतियों के बीच अपने विचारों पर दृढ़ रहने की शक्ति देता है। अन्तिम सच का दावा करने वाले जड़ हो जाते हैं, उनकी जिज्ञासा मर जाती है। वे सिरज नहीं सकते, पर ध्वंस और संहार कर सकते हैं। #सामी #धर्मों, जिनमें अंतिम #कम्युनिज्म है, की शक्ति और त्रासदी का रहस्य यही है -, अन्तिम सत्य का दावा। इसीलिए #हिन्दुत्व की रक्षा केवल हिन्दुओं के नहीं, मानवता के हित में है जिसके सबसे बड़े शत्रु हिन्दुत्ववादी हैं जो भी उतने ही जड़ हैं, उतने ही जिज्ञासाशून्य। इन सभी के दबाव के बीच हिन्दुत्व की ऱक्षा एक चुनौती है।

Post – 2018-05-08

#आप का सही होना उतना जरूरी नहीं है जितना यह कि जिसे आप सही समझते उस पर तब तक निडरता से डटे रहें जब तक उसके सही होने पर सन्देह न हो जाय और उसके बाद तब तक छानबीन करते रहें, जब तक सचाई का पता न चल जाय, गो इसका भी सही होना जरूरी नहीं। सचाई एक तलाश है, एक प्रक्रिया है, न कि उपलब्धि। यह जिज्ञासा को जीवित रखने का दूसरा नाम है। यह अपने से असहत होने वालों के प्रति सहिष्णु और असहमतियों के बीच अपने विचारों पर दृढ़ रहने की शक्ति देता है। अन्तिम सच का दावा करने वाले जड़ हो जाते हैं, उनकी जिज्ञासा मर जाती है। वे सिरज नहीं सकते, पर ध्वंस और संहार कर सकते हैं। #सामी #धर्मों, जिनमें अंतिम #कम्युनिज्म है, की शक्ति और त्रासदी का रहस्य यही है -, अन्तिम सत्य का दावा। इसीलिए #हिन्दुत्व की रक्षा केवल हिन्दुओं के नहीं, मानवता के हित में है जिसके सबसे बड़े शत्रु हिन्दुत्ववादी हैं जो भी उतने ही जड़ हैं, उतने ही जिज्ञासाशून्य। इन सभी के दबाव के बीच हिन्दुत्व की ऱक्षा एक चुनौती है।

Post – 2018-05-07

मानव युग
अर्थात् पशुशक्ति का दोहन

यव (1)

धन के संदर्भ में खाद्यान्नों का उल्लेख आना स्वाभाविक है। वैदिक समाज 10 प्रकार के अनाजों का हवि में प्रयोग करता था। इसका उल्लेख केवल एक बार आया है (मन्दामहे दशतयस्य धासेः द्वियत्पंच बिभ्रतो यन्त्यन्ना, ऋ.1.122.13) पर उनमें से केवल जव का ही उल्लेख ऋग्वेद में बार बार क्यों आता है?
एक दूसरी समस्या अर्थ को लेकर । खाद्यान्नों के विषय में हम पहले कह आए हैं इनका नामकरण जल के पर्यायों में से किसी पर आधारित होना चाहिए। ऋग्वेद में यव का जल सूचक या प्रकाश सूचक कोई प्रयोग नहीं दिखाई देता।

यव और व्रीहि दो ऐसे अनाज हैं जिनका प्राचीन ग्रंथों में खेती के प्रसंग में विशेष महत्व के साथ उल्लेख हुआ है। इन्हें वरुण प्रघास कहां गया है। इसका अर्थ है, वन्य रूप में पाई जाने वाली औषधियों (अनाजों) में ये ऐसी हैं जिनको तैयार होने से पहले नोचने खसोटने पर रोक लगी थी और फिर इनकी खेती विधिवत आरंभ की गई और इस तरह आहार के लिए प्रकृति पर समग्र निर्भरता का दौर समाप्त हुआ।

पार्जिटर ने पुराणों का विवेचन करते हुए यह समझाया था कि गंगा घाटी का इतिहास अधिक पुराना है । ऋग्वेद में हमारे इतिहास की अपेक्षाकृत बाद की सामग्री मिलती है। इसे उसने परंपराओं के विरोध के रूप में प्रस्तुत किया था, परंतु हमारे विश्लेषण में यह प्रमाणित होता है कि आर्यों ने खेती धान से और गंगाघाटी से आरंभ की थी और फिर बाद में वे कभी कुरुक्षेत्र में पहुंचे जहां मुख्यतः जौ की खेती हो सकती थी।

इस विषय में हमारे पास आज पुरातात्विक साक्ष्य तो उपलब्ध है ही भाषाशास्त्रीय साक्ष्य उससे भी अधिक निर्णायक है।हम एक अन्य प्रसंग में यह सुझा आए हैं कि धान की खेती प्राचीन अवस्था में आरंभ हुई थी जब वह अनाज के प्रसाधन के घरेलू उपकरण विकसित नहीं हो पाए थे और भी इसका छिलका नाखून से उतारते थे जिसका सांस्कृतिक दाय अक्षत रूप में आज तक चला आया है। धान को भूलकर उसके धाने या लावे को कूट कर सत्तू बनाते थे और इसे शालिचूर्ण कहते थे।

ऋग्वेद गंगा घाटी की रचना न होकर सारस्वत क्षेत्र की रचना है इसलिए इसमें जौ का उल्लेख महत्व के साथ किया जाए यह स्वाभाविक है। परंतु रोचक बात यह है कि अब जौ से तैयार किए गए सत्तू को को भी शालिचूर्ण कहने लगे, भुने हुए जौ को ही धाना कहा जाने लगा।

ऐसी स्थिति में यव का विशेष महत्व के साथ उल्लेख कुछ वैसा ही है जैसा हाथी, घोड़ा, ऊंट, बकरी, भेड़, भैंस, आदि के उपयोग के होते हुए भी पशुओं में गो प्रजाति का महत्व अधिक था।

पाश्चात्य विद्वान और उनका अनुसरण करने वाले भारतीय इतिहासकार यह सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं कि ऋग्वैदिक समाज खेती से परिचित नहीं था या नाम मात्र को परिचित था। कारण यह था कि न तो पशुचारण करने वाले एक स्थान पर टिक कर रह सकते हैं और नहीं इसके बिना खेती का काम संभव है, इसलिए उन्होंने यथासंभव कृषि से संबंधित विवरणों को झुठलाने या उपेक्षा करने का लगातार प्रयत्न किया। इनमें हमारे मार्क्सवादी कहे जाने वाले इतिहासकार सबसे आगे रहे हैं, परंतु अकेले उन्हें दोष देना उचित होता जब दूसरों ने इसकी ओर ध्यान दिया होता।

अर्थव्यवस्था को रेखांकित करते हुए, तथ्यपरक और सही अर्थ में मार्क्सवादी इतिहास लेखन का दावा करने का अधिकार इन पंक्तियों के लेखक को जाता है। ऋग्वेद में कृषि के अनेक प्रासंगिक और मार्मिक विवरण मिलते हैं और सबसे बड़ी बात है जिस यज्ञ का इतना महत्व है वह खेती के लिए कृत्रिम युक्तियों से वर्षा के प्रयोजनों से किया जाता था । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि भारतीय कृषि में आज भी दिव्य जल का निर्णायक महत्व है। ऋग्वेद के क्छ हवालों पर दृष्टि डालना उपयोगी रहेगाः

यवं न वृष्टिर्व्युनत्ति भूम, 5.85.3 (जैसे वर्षा से सिंचित हो कर जौ लहलहा उठता है ).
यवं न चर्कृषद् वृषा, 1.176.2 ( जैसे बैलों से जौ की खेती की जाती है).
यवं न दस्म जुह्वा विवेक्षि, 7.3.4 ( जैसे तुम अपनी जिह्वा से जौ का भक्षण करते हो).
यवं वृकेण अश्विना वपन्तौ । 1.117.21

कृषि का आरंभ ऋग्वेद के समय से 7000 साल पहले हुआ था और जैसा कि हम पहले का आए हैं ये कृषि कर्मी अपने को देव कहते थे। इस समय तक उन्हें यह भी भूल गया था कि आरंभिक चरणों पर खेती के लिए क्या-क्या युक्तियां अपनाई गई थी। देव कभी धरती पर थे भी, या उनके पूर्वज अपने को देव कहते थे यह भी विसमृतप्राय ही था, जब की पौराणिक परंपरा में इन तत्वों को अधिक सावधानी से सुरक्षित रखा गया और ऋग्वेद की व्याख्या के नए प्रयत्न में जहां तहां उनका सहारा भी लिया या गया।

परंतु वैदिक और पौराणिक परंपराओं में भिन्नता नहीं है, कोई विरोध नहीं है, अपितु उपलब्ध ऋग्वेद में ऐसी बहुत सी बातें आने से रह गई हैं जो मौखिक परंपरा में बाद तक जारी रही । हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हमें जो ऋग्वेद उपलब्ध है वह एक आपदा में, नष्ट हो चुके वेद का किसी तरह जुटाया हुआ अवशिष्ठ भाग ही है, और इसीलिए हमें ऐसा भी सूक्त मिल जाता है जिसमें केवल एक ऋचा बची रह गई है।

इसीलिए वेद के अधिकारी व्यक्ति कहते रहे हैंं कि ऋग्वैदिक सूक्कीतों की सम्यक व्याख्या इतिहास और पुराण के सहारे ही हो सकती है। परंतु यह वेदव्यास के प्रयत्न से संकलित पुराणों से भिन्न है और इसके संकेत तथा आख्यान ब्राह्मणों में तथा संहिताओं में आए है।

आज हम इस ब्योरे में जाने के लिए इसलिए बाध्य हो गए कि यह दिखा सकें कि पश्चिमी विद्वानों ने जानबूझकर या अहंकारवश जो नए अर्थ किए हैं वे निर्णायक अवसरों पर कितने हास्यास्पद हो सकते हैं, या हैं। आज हम आसमान में खेती करने की बात हवाई किले बनाने के अर्थ में करते हैं परंतु ग्रिफिथ के अनुसार यदि खेती का आरंभ हो सचमुच देवों ने किया था तो यह खेती तो आसमान में ही आरंभ हुई होगी और अश्विनी कुमार भी जुताई बुवाई का वहीं काम करते रहे होंगे। पंक्ति हैः
दशस्यन्ता मनवे पूर्व्यं दिवि यवं वृकेण कर्षथः, 8.22.6 (बहुत प्राचीन काल में मनु के उपकार के लिए अश्विनों ने आकाश में हल चलाकर जौ उत्पन्न किया था।)
Ye with your plough, when favouring Manu with your help, ploughed the first harvest in the sky. Griffith.

पूर्व्यं दिवि बहुत प्राचीन काल। यास्क ने अपने निघंटु में ऋग्वेद में आए प्राचीन काल के जिन पर्यायों का उल्लेख किया है वे हैं – प्रत्नं, प्रदिवः, प्रवयाः. सनेमि, पूर्व्यं, अह्नाय इति पुराणम्।

यही पूर्व्यं दिवि, उक्त ऋचा में आया है। इसी प्राचीन काल में अश्विनों द्वारा खेती करने का सन्दर्भ यहां मिथकीय कलेवर के साथ प्रस्तुत है जिसका यथार्थ यह है कि 1. यह वह चरण है जहां से हल खींचने के लिए पशुशक्ति का प्रयोग आरंभ हुआ। 2. जिन पशुओं को सबसे पहले पालतू बनाया गया वे थे, अज और अश्व अर्थात् रासभ । अतः यदि पहले रासभशक्ति का प्रयोग किया गया हो तो हैरानी की बात नहीं। 3. वृक या वृक्ण इसी चरण का अविकसित हल प्रतीत होता है। 4. मनु उस क्रान्तिकारी चरण के समाज के प्रतिनिधि है जहां से गोपालन आरंभ हुआ। जैरिज (क्वेटा, पाकिस्तान में, मेह्रगढ़ की खुदाई करने वाले) को प्रमाण मानें तो यह 4500-5000 ख्रिष्टाब्द पूर्व ठहरता है। यह देव युग का अवसान और मानवयुग का आरंभ है।

Post – 2018-05-07

मानव युग
अर्थात् पशुशक्ति का दोहन

यव (1)

धन के संदर्भ में खाद्यान्नों का उल्लेख आना स्वाभाविक है। वैदिक समाज 10 प्रकार के अनाजों का हवि में प्रयोग करता था। इसका उल्लेख केवल एक बार आया है (मन्दामहे दशतयस्य धासेः द्वियत्पंच बिभ्रतो यन्त्यन्ना, ऋ.1.122.13) पर उनमें से केवल जव का ही उल्लेख ऋग्वेद में बार बार क्यों आता है?
एक दूसरी समस्या अर्थ को लेकर । खाद्यान्नों के विषय में हम पहले कह आए हैं इनका नामकरण जल के पर्यायों में से किसी पर आधारित होना चाहिए। ऋग्वेद में यव का जल सूचक या प्रकाश सूचक कोई प्रयोग नहीं दिखाई देता।

यव और व्रीहि दो ऐसे अनाज हैं जिनका प्राचीन ग्रंथों में खेती के प्रसंग में विशेष महत्व के साथ उल्लेख हुआ है। इन्हें वरुण प्रघास कहां गया है। इसका अर्थ है, वन्य रूप में पाई जाने वाली औषधियों (अनाजों) में ये ऐसी हैं जिनको तैयार होने से पहले नोचने खसोटने पर रोक लगी थी और फिर इनकी खेती विधिवत आरंभ की गई और इस तरह आहार के लिए प्रकृति पर समग्र निर्भरता का दौर समाप्त हुआ।

पार्जिटर ने पुराणों का विवेचन करते हुए यह समझाया था कि गंगा घाटी का इतिहास अधिक पुराना है । ऋग्वेद में हमारे इतिहास की अपेक्षाकृत बाद की सामग्री मिलती है। इसे उसने परंपराओं के विरोध के रूप में प्रस्तुत किया था, परंतु हमारे विश्लेषण में यह प्रमाणित होता है कि आर्यों ने खेती धान से और गंगाघाटी से आरंभ की थी और फिर बाद में वे कभी कुरुक्षेत्र में पहुंचे जहां मुख्यतः जौ की खेती हो सकती थी।

इस विषय में हमारे पास आज पुरातात्विक साक्ष्य तो उपलब्ध है ही भाषाशास्त्रीय साक्ष्य उससे भी अधिक निर्णायक है।हम एक अन्य प्रसंग में यह सुझा आए हैं कि धान की खेती प्राचीन अवस्था में आरंभ हुई थी जब वह अनाज के प्रसाधन के घरेलू उपकरण विकसित नहीं हो पाए थे और भी इसका छिलका नाखून से उतारते थे जिसका सांस्कृतिक दाय अक्षत रूप में आज तक चला आया है। धान को भूलकर उसके धाने या लावे को कूट कर सत्तू बनाते थे और इसे शालिचूर्ण कहते थे।

ऋग्वेद गंगा घाटी की रचना न होकर सारस्वत क्षेत्र की रचना है इसलिए इसमें जौ का उल्लेख महत्व के साथ किया जाए यह स्वाभाविक है। परंतु रोचक बात यह है कि अब जौ से तैयार किए गए सत्तू को को भी शालिचूर्ण कहने लगे, भुने हुए जौ को ही धाना कहा जाने लगा।

ऐसी स्थिति में यव का विशेष महत्व के साथ उल्लेख कुछ वैसा ही है जैसा हाथी, घोड़ा, ऊंट, बकरी, भेड़, भैंस, आदि के उपयोग के होते हुए भी पशुओं में गो प्रजाति का महत्व अधिक था।

पाश्चात्य विद्वान और उनका अनुसरण करने वाले भारतीय इतिहासकार यह सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं कि ऋग्वैदिक समाज खेती से परिचित नहीं था या नाम मात्र को परिचित था। कारण यह था कि न तो पशुचारण करने वाले एक स्थान पर टिक कर रह सकते हैं और नहीं इसके बिना खेती का काम संभव है, इसलिए उन्होंने यथासंभव कृषि से संबंधित विवरणों को झुठलाने या उपेक्षा करने का लगातार प्रयत्न किया। इनमें हमारे मार्क्सवादी कहे जाने वाले इतिहासकार सबसे आगे रहे हैं, परंतु अकेले उन्हें दोष देना उचित होता जब दूसरों ने इसकी ओर ध्यान दिया होता।

अर्थव्यवस्था को रेखांकित करते हुए, तथ्यपरक और सही अर्थ में मार्क्सवादी इतिहास लेखन का दावा करने का अधिकार इन पंक्तियों के लेखक को जाता है। ऋग्वेद में कृषि के अनेक प्रासंगिक और मार्मिक विवरण मिलते हैं और सबसे बड़ी बात है जिस यज्ञ का इतना महत्व है वह खेती के लिए कृत्रिम युक्तियों से वर्षा के प्रयोजनों से किया जाता था । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि भारतीय कृषि में आज भी दिव्य जल का निर्णायक महत्व है। ऋग्वेद के क्छ हवालों पर दृष्टि डालना उपयोगी रहेगाः

यवं न वृष्टिर्व्युनत्ति भूम, 5.85.3 (जैसे वर्षा से सिंचित हो कर जौ लहलहा उठता है ).
यवं न चर्कृषद् वृषा, 1.176.2 ( जैसे बैलों से जौ की खेती की जाती है).
यवं न दस्म जुह्वा विवेक्षि, 7.3.4 ( जैसे तुम अपनी जिह्वा से जौ का भक्षण करते हो).
यवं वृकेण अश्विना वपन्तौ । 1.117.21

कृषि का आरंभ ऋग्वेद के समय से 7000 साल पहले हुआ था और जैसा कि हम पहले का आए हैं ये कृषि कर्मी अपने को देव कहते थे। इस समय तक उन्हें यह भी भूल गया था कि आरंभिक चरणों पर खेती के लिए क्या-क्या युक्तियां अपनाई गई थी। देव कभी धरती पर थे भी, या उनके पूर्वज अपने को देव कहते थे यह भी विसमृतप्राय ही था, जब की पौराणिक परंपरा में इन तत्वों को अधिक सावधानी से सुरक्षित रखा गया और ऋग्वेद की व्याख्या के नए प्रयत्न में जहां तहां उनका सहारा भी लिया या गया।

परंतु वैदिक और पौराणिक परंपराओं में भिन्नता नहीं है, कोई विरोध नहीं है, अपितु उपलब्ध ऋग्वेद में ऐसी बहुत सी बातें आने से रह गई हैं जो मौखिक परंपरा में बाद तक जारी रही । हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हमें जो ऋग्वेद उपलब्ध है वह एक आपदा में, नष्ट हो चुके वेद का किसी तरह जुटाया हुआ अवशिष्ठ भाग ही है, और इसीलिए हमें ऐसा भी सूक्त मिल जाता है जिसमें केवल एक ऋचा बची रह गई है।

इसीलिए वेद के अधिकारी व्यक्ति कहते रहे हैंं कि ऋग्वैदिक सूक्कीतों की सम्यक व्याख्या इतिहास और पुराण के सहारे ही हो सकती है। परंतु यह वेदव्यास के प्रयत्न से संकलित पुराणों से भिन्न है और इसके संकेत तथा आख्यान ब्राह्मणों में तथा संहिताओं में आए है।

आज हम इस ब्योरे में जाने के लिए इसलिए बाध्य हो गए कि यह दिखा सकें कि पश्चिमी विद्वानों ने जानबूझकर या अहंकारवश जो नए अर्थ किए हैं वे निर्णायक अवसरों पर कितने हास्यास्पद हो सकते हैं, या हैं। आज हम आसमान में खेती करने की बात हवाई किले बनाने के अर्थ में करते हैं परंतु ग्रिफिथ के अनुसार यदि खेती का आरंभ हो सचमुच देवों ने किया था तो यह खेती तो आसमान में ही आरंभ हुई होगी और अश्विनी कुमार भी जुताई बुवाई का वहीं काम करते रहे होंगे। पंक्ति हैः
दशस्यन्ता मनवे पूर्व्यं दिवि यवं वृकेण कर्षथः, 8.22.6 (बहुत प्राचीन काल में मनु के उपकार के लिए अश्विनों ने आकाश में हल चलाकर जौ उत्पन्न किया था।)
Ye with your plough, when favouring Manu with your help, ploughed the first harvest in the sky. Griffith.

पूर्व्यं दिवि बहुत प्राचीन काल। यास्क ने अपने निघंटु में ऋग्वेद में आए प्राचीन काल के जिन पर्यायों का उल्लेख किया है वे हैं – प्रत्नं, प्रदिवः, प्रवयाः. सनेमि, पूर्व्यं, अह्नाय इति पुराणम्।

यही पूर्व्यं दिवि, उक्त ऋचा में आया है। इसी प्राचीन काल में अश्विनों द्वारा खेती करने का सन्दर्भ यहां मिथकीय कलेवर के साथ प्रस्तुत है जिसका यथार्थ यह है कि 1. यह वह चरण है जहां से हल खींचने के लिए पशुशक्ति का प्रयोग आरंभ हुआ। 2. जिन पशुओं को सबसे पहले पालतू बनाया गया वे थे, अज और अश्व अर्थात् रासभ । अतः यदि पहले रासभशक्ति का प्रयोग किया गया हो तो हैरानी की बात नहीं। 3. वृक या वृक्ण इसी चरण का अविकसित हल प्रतीत होता है। 4. मनु उस क्रान्तिकारी चरण के समाज के प्रतिनिधि है जहां से गोपालन आरंभ हुआ। जैरिज (क्वेटा, पाकिस्तान में, मेह्रगढ़ की खुदाई करने वाले) को प्रमाण मानें तो यह 4500-5000 ख्रिष्टाब्द पूर्व ठहरता है। यह देव युग का अवसान और मानवयुग का आरंभ है।

Post – 2018-05-07

मानव युग
अर्थात् पशुशक्ति का दोहन

यव (1)

धन के संदर्भ में खाद्यान्नों का उल्लेख आना स्वाभाविक है। वैदिक समाज 10 प्रकार के अनाजों का हवि में प्रयोग करता था। इसका उल्लेख केवल एक बार आया है (मन्दामहे दशतयस्य धासेः द्वियत्पंच बिभ्रतो यन्त्यन्ना, ऋ.1.122.13) पर उनमें से केवल जव का ही उल्लेख ऋग्वेद में बार बार क्यों आता है?
एक दूसरी समस्या अर्थ को लेकर । खाद्यान्नों के विषय में हम पहले कह आए हैं इनका नामकरण जल के पर्यायों में से किसी पर आधारित होना चाहिए। ऋग्वेद में यव का जल सूचक या प्रकाश सूचक कोई प्रयोग नहीं दिखाई देता।

यव और व्रीहि दो ऐसे अनाज हैं जिनका प्राचीन ग्रंथों में खेती के प्रसंग में विशेष महत्व के साथ उल्लेख हुआ है। इन्हें वरुण प्रघास कहां गया है। इसका अर्थ है, वन्य रूप में पाई जाने वाली औषधियों (अनाजों) में ये ऐसी हैं जिनको तैयार होने से पहले नोचने खसोटने पर रोक लगी थी और फिर इनकी खेती विधिवत आरंभ की गई और इस तरह आहार के लिए प्रकृति पर समग्र निर्भरता का दौर समाप्त हुआ।

पार्जिटर ने पुराणों का विवेचन करते हुए यह समझाया था कि गंगा घाटी का इतिहास अधिक पुराना है । ऋग्वेद में हमारे इतिहास की अपेक्षाकृत बाद की सामग्री मिलती है। इसे उसने परंपराओं के विरोध के रूप में प्रस्तुत किया था, परंतु हमारे विश्लेषण में यह प्रमाणित होता है कि आर्यों ने खेती धान से और गंगाघाटी से आरंभ की थी और फिर बाद में वे कभी कुरुक्षेत्र में पहुंचे जहां मुख्यतः जौ की खेती हो सकती थी।

इस विषय में हमारे पास आज पुरातात्विक साक्ष्य तो उपलब्ध है ही भाषाशास्त्रीय साक्ष्य उससे भी अधिक निर्णायक है।हम एक अन्य प्रसंग में यह सुझा आए हैं कि धान की खेती प्राचीन अवस्था में आरंभ हुई थी जब वह अनाज के प्रसाधन के घरेलू उपकरण विकसित नहीं हो पाए थे और भी इसका छिलका नाखून से उतारते थे जिसका सांस्कृतिक दाय अक्षत रूप में आज तक चला आया है। धान को भूलकर उसके धाने या लावे को कूट कर सत्तू बनाते थे और इसे शालिचूर्ण कहते थे।

ऋग्वेद गंगा घाटी की रचना न होकर सारस्वत क्षेत्र की रचना है इसलिए इसमें जौ का उल्लेख महत्व के साथ किया जाए यह स्वाभाविक है। परंतु रोचक बात यह है कि अब जौ से तैयार किए गए सत्तू को को भी शालिचूर्ण कहने लगे, भुने हुए जौ को ही धाना कहा जाने लगा।

ऐसी स्थिति में यव का विशेष महत्व के साथ उल्लेख कुछ वैसा ही है जैसा हाथी, घोड़ा, ऊंट, बकरी, भेड़, भैंस, आदि के उपयोग के होते हुए भी पशुओं में गो प्रजाति का महत्व अधिक था।

पाश्चात्य विद्वान और उनका अनुसरण करने वाले भारतीय इतिहासकार यह सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं कि ऋग्वैदिक समाज खेती से परिचित नहीं था या नाम मात्र को परिचित था। कारण यह था कि न तो पशुचारण करने वाले एक स्थान पर टिक कर रह सकते हैं और नहीं इसके बिना खेती का काम संभव है, इसलिए उन्होंने यथासंभव कृषि से संबंधित विवरणों को झुठलाने या उपेक्षा करने का लगातार प्रयत्न किया। इनमें हमारे मार्क्सवादी कहे जाने वाले इतिहासकार सबसे आगे रहे हैं, परंतु अकेले उन्हें दोष देना उचित होता जब दूसरों ने इसकी ओर ध्यान दिया होता।

अर्थव्यवस्था को रेखांकित करते हुए, तथ्यपरक और सही अर्थ में मार्क्सवादी इतिहास लेखन का दावा करने का अधिकार इन पंक्तियों के लेखक को जाता है। ऋग्वेद में कृषि के अनेक प्रासंगिक और मार्मिक विवरण मिलते हैं और सबसे बड़ी बात है जिस यज्ञ का इतना महत्व है वह खेती के लिए कृत्रिम युक्तियों से वर्षा के प्रयोजनों से किया जाता था । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि भारतीय कृषि में आज भी दिव्य जल का निर्णायक महत्व है। ऋग्वेद के क्छ हवालों पर दृष्टि डालना उपयोगी रहेगाः

यवं न वृष्टिर्व्युनत्ति भूम, 5.85.3 (जैसे वर्षा से सिंचित हो कर जौ लहलहा उठता है ).
यवं न चर्कृषद् वृषा, 1.176.2 ( जैसे बैलों से जौ की खेती की जाती है).
यवं न दस्म जुह्वा विवेक्षि, 7.3.4 ( जैसे तुम अपनी जिह्वा से जौ का भक्षण करते हो).
यवं वृकेण अश्विना वपन्तौ । 1.117.21

कृषि का आरंभ ऋग्वेद के समय से 7000 साल पहले हुआ था और जैसा कि हम पहले का आए हैं ये कृषि कर्मी अपने को देव कहते थे। इस समय तक उन्हें यह भी भूल गया था कि आरंभिक चरणों पर खेती के लिए क्या-क्या युक्तियां अपनाई गई थी। देव कभी धरती पर थे भी, या उनके पूर्वज अपने को देव कहते थे यह भी विसमृतप्राय ही था, जब की पौराणिक परंपरा में इन तत्वों को अधिक सावधानी से सुरक्षित रखा गया और ऋग्वेद की व्याख्या के नए प्रयत्न में जहां तहां उनका सहारा भी लिया या गया।

परंतु वैदिक और पौराणिक परंपराओं में भिन्नता नहीं है, कोई विरोध नहीं है, अपितु उपलब्ध ऋग्वेद में ऐसी बहुत सी बातें आने से रह गई हैं जो मौखिक परंपरा में बाद तक जारी रही । हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हमें जो ऋग्वेद उपलब्ध है वह एक आपदा में, नष्ट हो चुके वेद का किसी तरह जुटाया हुआ अवशिष्ठ भाग ही है, और इसीलिए हमें ऐसा भी सूक्त मिल जाता है जिसमें केवल एक ऋचा बची रह गई है।

इसीलिए वेद के अधिकारी व्यक्ति कहते रहे हैंं कि ऋग्वैदिक सूक्कीतों की सम्यक व्याख्या इतिहास और पुराण के सहारे ही हो सकती है। परंतु यह वेदव्यास के प्रयत्न से संकलित पुराणों से भिन्न है और इसके संकेत तथा आख्यान ब्राह्मणों में तथा संहिताओं में आए है।

आज हम इस ब्योरे में जाने के लिए इसलिए बाध्य हो गए कि यह दिखा सकें कि पश्चिमी विद्वानों ने जानबूझकर या अहंकारवश जो नए अर्थ किए हैं वे निर्णायक अवसरों पर कितने हास्यास्पद हो सकते हैं, या हैं। आज हम आसमान में खेती करने की बात हवाई किले बनाने के अर्थ में करते हैं परंतु ग्रिफिथ के अनुसार यदि खेती का आरंभ हो सचमुच देवों ने किया था तो यह खेती तो आसमान में ही आरंभ हुई होगी और अश्विनी कुमार भी जुताई बुवाई का वहीं काम करते रहे होंगे। पंक्ति हैः
दशस्यन्ता मनवे पूर्व्यं दिवि यवं वृकेण कर्षथः, 8.22.6 (बहुत प्राचीन काल में मनु के उपकार के लिए अश्विनों ने आकाश में हल चलाकर जौ उत्पन्न किया था।)
Ye with your plough, when favouring Manu with your help, ploughed the first harvest in the sky. Griffith.

पूर्व्यं दिवि बहुत प्राचीन काल। यास्क ने अपने निघंटु में ऋग्वेद में आए प्राचीन काल के जिन पर्यायों का उल्लेख किया है वे हैं – प्रत्नं, प्रदिवः, प्रवयाः. सनेमि, पूर्व्यं, अह्नाय इति पुराणम्।

यही पूर्व्यं दिवि, उक्त ऋचा में आया है। इसी प्राचीन काल में अश्विनों द्वारा खेती करने का सन्दर्भ यहां मिथकीय कलेवर के साथ प्रस्तुत है जिसका यथार्थ यह है कि 1. यह वह चरण है जहां से हल खींचने के लिए पशुशक्ति का प्रयोग आरंभ हुआ। 2. जिन पशुओं को सबसे पहले पालतू बनाया गया वे थे, अज और अश्व अर्थात् रासभ । अतः यदि पहले रासभशक्ति का प्रयोग किया गया हो तो हैरानी की बात नहीं। 3. वृक या वृक्ण इसी चरण का अविकसित हल प्रतीत होता है। 4. मनु उस क्रान्तिकारी चरण के समाज के प्रतिनिधि है जहां से गोपालन आरंभ हुआ। जैरिज (क्वेटा, पाकिस्तान में, मेह्रगढ़ की खुदाई करने वाले) को प्रमाण मानें तो यह 4500-5000 ख्रिष्टाब्द पूर्व ठहरता है। यह देव युग का अवसान और मानवयुग का आरंभ है।

Post – 2018-05-07

निठल्ला विद्वान मौलिक अधिक होता है, प्रामाणिक कम। उसमें न धैर्य होता है, न पसीना बहाने की आदत, इसलिए वह कहीं से कोई तिनका उठा लेता है और अपने बुद्धिबल से महल खड़ा करके उसे भहराने से बचाने के लिए उससे अपनी पीठ टिकाए तब तक मजबूती से खड़ा रहता है जब तक प्रमाणों के दबाव से वह भहरा नहीं जाता। पर इस बीच वह समाज का जितना नुकसान कर चुका होता हैे उसकी भरपाई कभी नहीं हो पाती। गलत सिद्ध हो जाने पर वह क्षमायाचना तक नहीं करता। वह तब तक दुुबका रहता है जब तक कोई दूसरा तिनका हाथ नहीं लग जाता। ऐसा वह अपने लिए नहीं, मानवता के भले के लिए करता है।

Post – 2018-05-07

निठल्ला विद्वान मौलिक अधिक होता है, प्रामाणिक कम। उसमें न धैर्य होता है, न पसीना बहाने की आदत, इसलिए वह कहीं से कोई तिनका उठा लेता है और अपने बुद्धिबल से महल खड़ा करके उसे भहराने से बचाने के लिए उससे अपनी पीठ टिकाए तब तक मजबूती से खड़ा रहता है जब तक प्रमाणों के दबाव से वह भहरा नहीं जाता। पर इस बीच वह समाज का जितना नुकसान कर चुका होता हैे उसकी भरपाई कभी नहीं हो पाती। गलत सिद्ध हो जाने पर वह क्षमायाचना तक नहीं करता। वह तब तक दुुबका रहता है जब तक कोई दूसरा तिनका हाथ नहीं लग जाता। ऐसा वह अपने लिए नहीं, मानवता के भले के लिए करता है।