निठल्ला विद्वान मौलिक अधिक होता है, प्रामाणिक कम। उसमें न धैर्य होता है, न पसीना बहाने की आदत, इसलिए वह कहीं से कोई तिनका उठा लेता है और अपने बुद्धिबल से महल खड़ा करके उसे भहराने से बचाने के लिए उससे अपनी पीठ टिकाए तब तक मजबूती से खड़ा रहता है जब तक प्रमाणों के दबाव से वह भहरा नहीं जाता। पर इस बीच वह समाज का जितना नुकसान कर चुका होता हैे उसकी भरपाई कभी नहीं हो पाती। गलत सिद्ध हो जाने पर वह क्षमायाचना तक नहीं करता। वह तब तक दुुबका रहता है जब तक कोई दूसरा तिनका हाथ नहीं लग जाता। ऐसा वह अपने लिए नहीं, मानवता के भले के लिए करता है।
Post – 2018-05-05
धन और जल से जुड़े कुछ और शब्द
धासि
धासि का शाब्दिक अर्थ धारण करने वाला है । ऋग्वेद में इस आशय मैं संदर्भ अनुसार अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ है जैसे वास्तु के संदर्भ में ‘धर्णि’ का अर्थ है ‘धरन’ और और निसर्ग जात गुणों के लिए ‘धर्म’। यहां ‘धासि’ का प्रयोग जीवन निर्वाह के साधन के रुप में हुआ है। यह संदर्भ के अनुसार जल, अनाज, दूध, घी, सोम और हवन सामग्री के लिए प्रयुक्त हो सकता है। ऋग्वेद में इन विभिन्न आशयों में इसका प्रयोग भी हुआ है। विदत् सरमा तनयाय धासिम्, (सरमा को अपनी संतानों के लिए आहार मिला); धासिं – अन्नं, 1.62.3: धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये । 1.140.1 (जैसे अन्न से अन्नागार को भरते हैं उसी तरह हवनकुंड को हवन सामग्री से भर दो ) कृष्णा सती रुशता धासिनैषा, 4.3.9 (यज्ञाग्नि काली होते हुए भी घी, पड़ने पर उज्ज्वल होकर चमक उठती है। यहाँ सायण ने ‘धासि’ का अर्थ ‘धारकेण’ किया है और ग्रिफ्फित ने’दूध से’ , परन्तु घृत अथवा जैसा कि उन्होंने अन्यत्र किया है ‘धासिना -अन्नेन हविषा, 6.67.6’ हवन सामग्री अधिक उपयुक्त लगता है. ‘के धासिमग्ने अनृतस्य पान्ति क आसतो वचसः सन्ति गोपाः, 5.12.4’, ए अग्निदेव असत्यवादियों की रक्षा कौन करता है और झूठ और मक्कारी की हिमायत कौन करता है) में सायण ने धासि के अर्थ ‘धारकं जनं’ किया है । हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है कि धासि का प्रयोग जल और खाद्य पदार्थों के लिए होता था ।
नम
‘नाम’ पर चर्चा करते हुए हम पहले भी कह आए हैं कि नम का मूल अर्थ जल था, यहां इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है । हम यहां सायणाचार्य द्वारा की गई टिप्पणी से अपने को संतुष्ट मान सकते हैं: नमस्वत् – अन्नवत्, 1.185.3; नमस्वान्- अन्नवान्,1.171.2; नमस्कारेण स्तोत्रेण वा युक्तः, 7.85.4; अब आप चाहे तो नमो नमः का अर्थ ‘धन धान्य से संपन्न हों’ भी कर सकते हैं।
पितु/ पित्व
पा, पी, पे का प्रयोग जल के लिए हुआ है और खाद्य पदार्थों के लिए भी उनका प्रयोग किया गया है। ऐसे ही शब्दों में पितु भी आता है। पिता अर्थ है पोषण करने वाला, पालने वाला । पितुः -पालयित्वा, 2.13.4 इसलिए पितु का अर्थ है – पालकं अन्नं, 1.187.1; ये पितुभाजो व्युष्टौ । 6.64.6 ( अन्न कामी जन अर्थात किसान भोर होते ही उठकर काम पर लग जाते हैं) । सायणाचार्य केअनुसार, पितुभाजः .- अन्नवन्तो अन्नार्थिनः, 1.124.12
पितुमतीमूर्जमस्मा अधत्तम् । 1.116.8 में पितुमती शक्ति युक्त। पित्व का अर्थ अन्न किया गया है। पित्वः -अन्नं, 5.77.4, अन्नस्य, 7.104.10, परंतु उत प्रपित्वे उत मध्ये अह्नाम्, 7.41.4, में प्रातः के लिए प्रपित्व का प्रयोग जलपान जैसा लगता है। जल की गति वाला भाव ‘अपपित्व चिकितुर्न प्रप्रित्वम्, 3.53.24’ (आगे कदम बढ़ाना जानते हैं पर पीछे लौटना नहीं जानते हैं) में बना रह गया है।
पृक्ष
पृ भी उसी प्र, प्री, पृ श्रृंखला में आता है। धातुपाठ में पृ का अर्थ पालन और पूरा करना मिलेगा पालन उसी जल और पय से संबंधित है और इसी को हम पृक्षः- अन्नानि,1.71.6, सोमः, 4.43.5, अन्नस्य, 2.1.6 और पृक्षं ‘पयः पृक्षं इति अन्ननामासु पाठात्, 6.62.4में देख सकते हैं
पाज
पाज का प्रयोग जल, अन्न और उससे मिलने वाली ऊर्जा शक्ति और तेजस्विता के लिए प्रसंग के अनुसार प्रयोग में आया है। पृथुपाजा- पृथुतेजाः , 3.2.11, 3.5.1, पृथुपाजसे – बहुअन्नाय बहुबलाय,3.3.1, ‘रथेन पृथुपाजसा’ अर्थ सायण ने ‘ विस्तीर्ण बलेन बहु अन्नेन वा’, किया है जब कि हमारी समझ से इसका अर्थ ‘माल से लदा हुआ रथ होना चाहिए. ‘ सोमाः सहस्रपाजसः’ समस्त शक्तियों से भरपूर सोम है। पाज का अर्थह्रास हमारी बोलचाल के ‘पाजी’ में देखने में आता है जिसका सामान्य अर्थ हुआ बाहुबली, वह जो अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है।
ब्रह्म
ब्रह्म आध्यात्मिक अर्थ से हम परिचित हैं, इसका अर्थ अग्नि और अग्नि साधक हो सकता है इसका संकेत हमने पहले दिया है । ब्रम्ह का अर्थ स्तोत्र ( ब्रह्माणि – स्तोत्राणि; 7.1.20) हो सकता है यह भी मानने को हम तैयार हो सकते हैं परंतु ब्रह्म का अर्थ अन्न है ( ब्रह्माणि -अन्नानि) यह तब तक समझ में नहीं आएगा जब तक हम यह न समझना कि ब्रह्मा अर्थ भी जल है। ब्रह्म ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ।। 8.1.24 में ब्रह्मयुज के अर्थ ‘आवाज सुनते ही जुतजानेवाले’ यद्यपि 8:00 दो 27 मैं सायणाचार्य ने एह हरी ब्रह्मयुजा में ब्रह्मयुजा का अर्थ ‘स्तोत्रेण व हविषा युज्यमानौ’ किया है। कुछ और संदर्भों में जी हमें ऐसा लगता है कि भाषा के लिए भी ब्रह्म का प्रयोग होता था. सीधे जल के अर्थ में ब्रह्म का प्रयोग हमें ऋग्वेद में देखने में नहीं आया। ब्रह्मपुत्र नदी को छोड़कर अन्य नदी नामों में भी ब्रह्म का प्रयोग देखने में नहीं आता। परंतु गति और भोजन के लिए प्रयोग में आने वाले सभी पदार्थों का एक अर्थ जल रहा है इसलिए अपनी ओर से ऐसा मानते हैं की ब्रह्म का एक अर्थ जल था। ब्रह्म का वर्णन करते हुए भी प्राथमिक अवस्था को अप्रकेत सलिल माना गया है, इसलिए ऐसा सोचने में कोई तात्विक विरोध नहीं दिखाई देता।.
भग
भग और भर्ग का सामान्य अर्थ प्रकाश और सूर्य माना जाता है । सूर्य के लिए प्रयुक्त होने से पहले इसका प्रयोग आग के लिए किया जाता था और इसी से भूनने की क्रिया या विधि के लिए भर्जन का प्रयोग होता है भूना, भूनना, बंगाली का भाजा, भाजी, भजिया, भुजिया इसी भर्जन से पैदा हुए हैं । यह सूचना आसान तो है परंतु सच्चाई इससे भी आगे है। जलती हुई आग या चिराग के बुझने से जो निर्वात पैदा होता है उसे भरने के लिए पैदा हुए हवा के दबाव से और आग जलने पर ऑक्सीजन सोखने से उत्पन्न ध्वनि के लिए भक् या भक्क का प्रयोग होता है, इसीलिए हम चिराग भक से बुझ गया, या भक से उजाला हो गया, या आग भभक उठी जैसे वाक्यों का प्रयोग करते हैं। इसी से पहले आग के लिए, और फिर प्रकाश देने वाले स्रोतों के लिए , भग/ *भक्क (भर्ग) का प्रयोग हुआ। भूनने- तलने की क्रिया और भुने-तले हुए अनाज का संबंध इसी से है। अब हम कुछ विश्वास से कह सकते हैं की भूजा, भांजा भाजी आदि भर्ज के तद्भव नहीं हैं बल्कि भर्ज भक्क का संस्कृतीकरण है।
परंतु भक् या पक्क ध्वनि के इससे दूसरे स्रोत, घटनाएं और क्रियाएं भी हो सकती हैं। उदाहरण के लिए एक घडे के गिरने या पटकने पर उसके टूटने से पैदा होने वाली आवाज के लिए भड़/भक/ भग/भंग/भंज का प्रयोग लोग करते हैं। इनका प्रयोग तोड़ने, बाँटने, बटे हुए हिस्से, के लिए भी हो सकता है और हम इसके लिए भी भग और भाग का प्रयोग करते हैं। साझे की चीज का आपस में बटवारा इमानदारी से हो, इसलिए इसकी देखरेख करने वाले को भग भक्त, भग/भर्ग या भगवान कहा जा सकता है। इन दोनों अर्थों में / भग भाग, भक्त का प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है। जब हम भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न प्रचोदयात् कहते हैं तो उसी विवेक बुद्धि से अविचलित भाव से, सत्य का पालन करते हुए, बटवारा करने वाले विधाता पर इसकी छाया देखी जा सकती है । भौतिकही आत्मिक और आध्यात्मिक के धरातल पर कैसे पहुंचता है, इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है।
इस तरह भगवान के दो रूप हो जाते हैं एक तो ज्योति और प्रकाश और ज्ञान से संबंधित है और दूसरे जो आर्थिक उपक्रमों में व्यक्ति को उसके कार्य के अनुपात में लाभांश देता है । यह दूसरा भगवान ही है जिससे हम भक्ति पूर्वक याचना करते और अधिक से अधिक पाने की आकांक्षा रखते हैं और पटा कर अपने अनुकूल रखना चाहते हैं। प्रकाश वाला भगवान भगवा रंग का प्रेरक है, यद्यपि इसका एक दूसरा पक्ष भी है। गेरू के रंगे हुए वस्त्र कृमिरोधी होते हैं इसलिए इनका प्रयोग बहुत प्राचीन काल से देखने में आता है और यह अनेकानेक सभ्यताओं में प्रचलित रहा है जो भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो सकते हैं या नहीं भी हो सकते हैं।
हम हो भाग्यवाद को कोसते तो हैं परंतु हममें से बहुत कम लोग जानते हैं या इस विषय में सचेत हैं कि यह एक उन्नत अर्थव्यवस्था की तार्किक परिणति है।
यह विषयांतर इस तथ्य को समझने के लिए जरूरी था कि क्यों ऋग्वेद में भग प्रयोग अन्न के लिए भी किया गया है : भगः – सवैर्भजनीयः सः 3.36.5; भगः – पूषादेव, 3.49.3 ; भगस्य – धनस्य, 3.54.15; भगः – धनं, 3.54.21; भगं- अन्नं, 5.7.8; भगवती -धनवती,1.164.40; भगवन्तः – प्रभूतेन धनेन तद्वन्तः,1.164.40)
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धन और जल से जुड़े कुछ और शब्द
धासि
धासि का शाब्दिक अर्थ धारण करने वाला है । ऋग्वेद में इस आशय मैं संदर्भ अनुसार अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ है जैसे वास्तु के संदर्भ में ‘धर्णि’ का अर्थ है ‘धरन’ और और निसर्ग जात गुणों के लिए ‘धर्म’। यहां ‘धासि’ का प्रयोग जीवन निर्वाह के साधन के रुप में हुआ है। यह संदर्भ के अनुसार जल, अनाज, दूध, घी, सोम और हवन सामग्री के लिए प्रयुक्त हो सकता है। ऋग्वेद में इन विभिन्न आशयों में इसका प्रयोग भी हुआ है। विदत् सरमा तनयाय धासिम्, (सरमा को अपनी संतानों के लिए आहार मिला); धासिं – अन्नं, 1.62.3: धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये । 1.140.1 (जैसे अन्न से अन्नागार को भरते हैं उसी तरह हवनकुंड को हवन सामग्री से भर दो ) कृष्णा सती रुशता धासिनैषा, 4.3.9 (यज्ञाग्नि काली होते हुए भी घी, पड़ने पर उज्ज्वल होकर चमक उठती है। यहाँ सायण ने ‘धासि’ का अर्थ ‘धारकेण’ किया है और ग्रिफ्फित ने’दूध से’ , परन्तु घृत अथवा जैसा कि उन्होंने अन्यत्र किया है ‘धासिना -अन्नेन हविषा, 6.67.6’ हवन सामग्री अधिक उपयुक्त लगता है. ‘के धासिमग्ने अनृतस्य पान्ति क आसतो वचसः सन्ति गोपाः, 5.12.4’, ए अग्निदेव असत्यवादियों की रक्षा कौन करता है और झूठ और मक्कारी की हिमायत कौन करता है) में सायण ने धासि के अर्थ ‘धारकं जनं’ किया है । हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है कि धासि का प्रयोग जल और खाद्य पदार्थों के लिए होता था ।
नम
‘नाम’ पर चर्चा करते हुए हम पहले भी कह आए हैं कि नम का मूल अर्थ जल था, यहां इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है । हम यहां सायणाचार्य द्वारा की गई टिप्पणी से अपने को संतुष्ट मान सकते हैं: नमस्वत् – अन्नवत्, 1.185.3; नमस्वान्- अन्नवान्,1.171.2; नमस्कारेण स्तोत्रेण वा युक्तः, 7.85.4; अब आप चाहे तो नमो नमः का अर्थ ‘धन धान्य से संपन्न हों’ भी कर सकते हैं।
पितु/ पित्व
पा, पी, पे का प्रयोग जल के लिए हुआ है और खाद्य पदार्थों के लिए भी उनका प्रयोग किया गया है। ऐसे ही शब्दों में पितु भी आता है। पिता अर्थ है पोषण करने वाला, पालने वाला । पितुः -पालयित्वा, 2.13.4 इसलिए पितु का अर्थ है – पालकं अन्नं, 1.187.1; ये पितुभाजो व्युष्टौ । 6.64.6 ( अन्न कामी जन अर्थात किसान भोर होते ही उठकर काम पर लग जाते हैं) । सायणाचार्य केअनुसार, पितुभाजः .- अन्नवन्तो अन्नार्थिनः, 1.124.12
पितुमतीमूर्जमस्मा अधत्तम् । 1.116.8 में पितुमती शक्ति युक्त। पित्व का अर्थ अन्न किया गया है। पित्वः -अन्नं, 5.77.4, अन्नस्य, 7.104.10, परंतु उत प्रपित्वे उत मध्ये अह्नाम्, 7.41.4, में प्रातः के लिए प्रपित्व का प्रयोग जलपान जैसा लगता है। जल की गति वाला भाव ‘अपपित्व चिकितुर्न प्रप्रित्वम्, 3.53.24’ (आगे कदम बढ़ाना जानते हैं पर पीछे लौटना नहीं जानते हैं) में बना रह गया है।
पृक्ष
पृ भी उसी प्र, प्री, पृ श्रृंखला में आता है। धातुपाठ में पृ का अर्थ पालन और पूरा करना मिलेगा पालन उसी जल और पय से संबंधित है और इसी को हम पृक्षः- अन्नानि,1.71.6, सोमः, 4.43.5, अन्नस्य, 2.1.6 और पृक्षं ‘पयः पृक्षं इति अन्ननामासु पाठात्, 6.62.4में देख सकते हैं
पाज
पाज का प्रयोग जल, अन्न और उससे मिलने वाली ऊर्जा शक्ति और तेजस्विता के लिए प्रसंग के अनुसार प्रयोग में आया है। पृथुपाजा- पृथुतेजाः , 3.2.11, 3.5.1, पृथुपाजसे – बहुअन्नाय बहुबलाय,3.3.1, ‘रथेन पृथुपाजसा’ अर्थ सायण ने ‘ विस्तीर्ण बलेन बहु अन्नेन वा’, किया है जब कि हमारी समझ से इसका अर्थ ‘माल से लदा हुआ रथ होना चाहिए. ‘ सोमाः सहस्रपाजसः’ समस्त शक्तियों से भरपूर सोम है। पाज का अर्थह्रास हमारी बोलचाल के ‘पाजी’ में देखने में आता है जिसका सामान्य अर्थ हुआ बाहुबली, वह जो अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है।
ब्रह्म
ब्रह्म आध्यात्मिक अर्थ से हम परिचित हैं, इसका अर्थ अग्नि और अग्नि साधक हो सकता है इसका संकेत हमने पहले दिया है । ब्रम्ह का अर्थ स्तोत्र ( ब्रह्माणि – स्तोत्राणि; 7.1.20) हो सकता है यह भी मानने को हम तैयार हो सकते हैं परंतु ब्रह्म का अर्थ अन्न है ( ब्रह्माणि -अन्नानि) यह तब तक समझ में नहीं आएगा जब तक हम यह न समझना कि ब्रह्मा अर्थ भी जल है। ब्रह्म ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ।। 8.1.24 में ब्रह्मयुज के अर्थ ‘आवाज सुनते ही जुतजानेवाले’ यद्यपि 8:00 दो 27 मैं सायणाचार्य ने एह हरी ब्रह्मयुजा में ब्रह्मयुजा का अर्थ ‘स्तोत्रेण व हविषा युज्यमानौ’ किया है। कुछ और संदर्भों में जी हमें ऐसा लगता है कि भाषा के लिए भी ब्रह्म का प्रयोग होता था. सीधे जल के अर्थ में ब्रह्म का प्रयोग हमें ऋग्वेद में देखने में नहीं आया। ब्रह्मपुत्र नदी को छोड़कर अन्य नदी नामों में भी ब्रह्म का प्रयोग देखने में नहीं आता। परंतु गति और भोजन के लिए प्रयोग में आने वाले सभी पदार्थों का एक अर्थ जल रहा है इसलिए अपनी ओर से ऐसा मानते हैं की ब्रह्म का एक अर्थ जल था। ब्रह्म का वर्णन करते हुए भी प्राथमिक अवस्था को अप्रकेत सलिल माना गया है, इसलिए ऐसा सोचने में कोई तात्विक विरोध नहीं दिखाई देता।.
भग
भग और भर्ग का सामान्य अर्थ प्रकाश और सूर्य माना जाता है । सूर्य के लिए प्रयुक्त होने से पहले इसका प्रयोग आग के लिए किया जाता था और इसी से भूनने की क्रिया या विधि के लिए भर्जन का प्रयोग होता है भूना, भूनना, बंगाली का भाजा, भाजी, भजिया, भुजिया इसी भर्जन से पैदा हुए हैं । यह सूचना आसान तो है परंतु सच्चाई इससे भी आगे है। जलती हुई आग या चिराग के बुझने से जो निर्वात पैदा होता है उसे भरने के लिए पैदा हुए हवा के दबाव से और आग जलने पर ऑक्सीजन सोखने से उत्पन्न ध्वनि के लिए भक् या भक्क का प्रयोग होता है, इसीलिए हम चिराग भक से बुझ गया, या भक से उजाला हो गया, या आग भभक उठी जैसे वाक्यों का प्रयोग करते हैं। इसी से पहले आग के लिए, और फिर प्रकाश देने वाले स्रोतों के लिए , भग/ *भक्क (भर्ग) का प्रयोग हुआ। भूनने- तलने की क्रिया और भुने-तले हुए अनाज का संबंध इसी से है। अब हम कुछ विश्वास से कह सकते हैं की भूजा, भांजा भाजी आदि भर्ज के तद्भव नहीं हैं बल्कि भर्ज भक्क का संस्कृतीकरण है।
परंतु भक् या पक्क ध्वनि के इससे दूसरे स्रोत, घटनाएं और क्रियाएं भी हो सकती हैं। उदाहरण के लिए एक घडे के गिरने या पटकने पर उसके टूटने से पैदा होने वाली आवाज के लिए भड़/भक/ भग/भंग/भंज का प्रयोग लोग करते हैं। इनका प्रयोग तोड़ने, बाँटने, बटे हुए हिस्से, के लिए भी हो सकता है और हम इसके लिए भी भग और भाग का प्रयोग करते हैं। साझे की चीज का आपस में बटवारा इमानदारी से हो, इसलिए इसकी देखरेख करने वाले को भग भक्त, भग/भर्ग या भगवान कहा जा सकता है। इन दोनों अर्थों में / भग भाग, भक्त का प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है। जब हम भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न प्रचोदयात् कहते हैं तो उसी विवेक बुद्धि से अविचलित भाव से, सत्य का पालन करते हुए, बटवारा करने वाले विधाता पर इसकी छाया देखी जा सकती है । भौतिकही आत्मिक और आध्यात्मिक के धरातल पर कैसे पहुंचता है, इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है।
इस तरह भगवान के दो रूप हो जाते हैं एक तो ज्योति और प्रकाश और ज्ञान से संबंधित है और दूसरे जो आर्थिक उपक्रमों में व्यक्ति को उसके कार्य के अनुपात में लाभांश देता है । यह दूसरा भगवान ही है जिससे हम भक्ति पूर्वक याचना करते और अधिक से अधिक पाने की आकांक्षा रखते हैं और पटा कर अपने अनुकूल रखना चाहते हैं। प्रकाश वाला भगवान भगवा रंग का प्रेरक है, यद्यपि इसका एक दूसरा पक्ष भी है। गेरू के रंगे हुए वस्त्र कृमिरोधी होते हैं इसलिए इनका प्रयोग बहुत प्राचीन काल से देखने में आता है और यह अनेकानेक सभ्यताओं में प्रचलित रहा है जो भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो सकते हैं या नहीं भी हो सकते हैं।
हम हो भाग्यवाद को कोसते तो हैं परंतु हममें से बहुत कम लोग जानते हैं या इस विषय में सचेत हैं कि यह एक उन्नत अर्थव्यवस्था की तार्किक परिणति है।
यह विषयांतर इस तथ्य को समझने के लिए जरूरी था कि क्यों ऋग्वेद में भग प्रयोग अन्न के लिए भी किया गया है : भगः – सवैर्भजनीयः सः 3.36.5; भगः – पूषादेव, 3.49.3 ; भगस्य – धनस्य, 3.54.15; भगः – धनं, 3.54.21; भगं- अन्नं, 5.7.8; भगवती -धनवती,1.164.40; भगवन्तः – प्रभूतेन धनेन तद्वन्तः,1.164.40)
Post – 2018-05-05
धन और जल से जुड़े कुछ और शब्द
धासि
धासि का शाब्दिक अर्थ धारण करने वाला है । ऋग्वेद में इस आशय मैं संदर्भ अनुसार अनेक शब्दों का प्रयोग हुआ है जैसे वास्तु के संदर्भ में ‘धर्णि’ का अर्थ है ‘धरन’ और और निसर्ग जात गुणों के लिए ‘धर्म’। यहां ‘धासि’ का प्रयोग जीवन निर्वाह के साधन के रुप में हुआ है। यह संदर्भ के अनुसार जल, अनाज, दूध, घी, सोम और हवन सामग्री के लिए प्रयुक्त हो सकता है। ऋग्वेद में इन विभिन्न आशयों में इसका प्रयोग भी हुआ है। विदत् सरमा तनयाय धासिम्, (सरमा को अपनी संतानों के लिए आहार मिला); धासिं – अन्नं, 1.62.3: धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये । 1.140.1 (जैसे अन्न से अन्नागार को भरते हैं उसी तरह हवनकुंड को हवन सामग्री से भर दो ) कृष्णा सती रुशता धासिनैषा, 4.3.9 (यज्ञाग्नि काली होते हुए भी घी, पड़ने पर उज्ज्वल होकर चमक उठती है। यहाँ सायण ने ‘धासि’ का अर्थ ‘धारकेण’ किया है और ग्रिफ्फित ने’दूध से’ , परन्तु घृत अथवा जैसा कि उन्होंने अन्यत्र किया है ‘धासिना -अन्नेन हविषा, 6.67.6’ हवन सामग्री अधिक उपयुक्त लगता है. ‘के धासिमग्ने अनृतस्य पान्ति क आसतो वचसः सन्ति गोपाः, 5.12.4’, ए अग्निदेव असत्यवादियों की रक्षा कौन करता है और झूठ और मक्कारी की हिमायत कौन करता है) में सायण ने धासि के अर्थ ‘धारकं जनं’ किया है । हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है कि धासि का प्रयोग जल और खाद्य पदार्थों के लिए होता था ।
नम
‘नाम’ पर चर्चा करते हुए हम पहले भी कह आए हैं कि नम का मूल अर्थ जल था, यहां इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है । हम यहां सायणाचार्य द्वारा की गई टिप्पणी से अपने को संतुष्ट मान सकते हैं: नमस्वत् – अन्नवत्, 1.185.3; नमस्वान्- अन्नवान्,1.171.2; नमस्कारेण स्तोत्रेण वा युक्तः, 7.85.4; अब आप चाहे तो नमो नमः का अर्थ ‘धन धान्य से संपन्न हों’ भी कर सकते हैं।
पितु/ पित्व
पा, पी, पे का प्रयोग जल के लिए हुआ है और खाद्य पदार्थों के लिए भी उनका प्रयोग किया गया है। ऐसे ही शब्दों में पितु भी आता है। पिता अर्थ है पोषण करने वाला, पालने वाला । पितुः -पालयित्वा, 2.13.4 इसलिए पितु का अर्थ है – पालकं अन्नं, 1.187.1; ये पितुभाजो व्युष्टौ । 6.64.6 ( अन्न कामी जन अर्थात किसान भोर होते ही उठकर काम पर लग जाते हैं) । सायणाचार्य केअनुसार, पितुभाजः .- अन्नवन्तो अन्नार्थिनः, 1.124.12
पितुमतीमूर्जमस्मा अधत्तम् । 1.116.8 में पितुमती शक्ति युक्त। पित्व का अर्थ अन्न किया गया है। पित्वः -अन्नं, 5.77.4, अन्नस्य, 7.104.10, परंतु उत प्रपित्वे उत मध्ये अह्नाम्, 7.41.4, में प्रातः के लिए प्रपित्व का प्रयोग जलपान जैसा लगता है। जल की गति वाला भाव ‘अपपित्व चिकितुर्न प्रप्रित्वम्, 3.53.24’ (आगे कदम बढ़ाना जानते हैं पर पीछे लौटना नहीं जानते हैं) में बना रह गया है।
पृक्ष
पृ भी उसी प्र, प्री, पृ श्रृंखला में आता है। धातुपाठ में पृ का अर्थ पालन और पूरा करना मिलेगा पालन उसी जल और पय से संबंधित है और इसी को हम पृक्षः- अन्नानि,1.71.6, सोमः, 4.43.5, अन्नस्य, 2.1.6 और पृक्षं ‘पयः पृक्षं इति अन्ननामासु पाठात्, 6.62.4में देख सकते हैं
पाज
पाज का प्रयोग जल, अन्न और उससे मिलने वाली ऊर्जा शक्ति और तेजस्विता के लिए प्रसंग के अनुसार प्रयोग में आया है। पृथुपाजा- पृथुतेजाः , 3.2.11, 3.5.1, पृथुपाजसे – बहुअन्नाय बहुबलाय,3.3.1, ‘रथेन पृथुपाजसा’ अर्थ सायण ने ‘ विस्तीर्ण बलेन बहु अन्नेन वा’, किया है जब कि हमारी समझ से इसका अर्थ ‘माल से लदा हुआ रथ होना चाहिए. ‘ सोमाः सहस्रपाजसः’ समस्त शक्तियों से भरपूर सोम है। पाज का अर्थह्रास हमारी बोलचाल के ‘पाजी’ में देखने में आता है जिसका सामान्य अर्थ हुआ बाहुबली, वह जो अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है।
ब्रह्म
ब्रह्म आध्यात्मिक अर्थ से हम परिचित हैं, इसका अर्थ अग्नि और अग्नि साधक हो सकता है इसका संकेत हमने पहले दिया है । ब्रम्ह का अर्थ स्तोत्र ( ब्रह्माणि – स्तोत्राणि; 7.1.20) हो सकता है यह भी मानने को हम तैयार हो सकते हैं परंतु ब्रह्म का अर्थ अन्न है ( ब्रह्माणि -अन्नानि) यह तब तक समझ में नहीं आएगा जब तक हम यह न समझना कि ब्रह्मा अर्थ भी जल है। ब्रह्म ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ।। 8.1.24 में ब्रह्मयुज के अर्थ ‘आवाज सुनते ही जुतजानेवाले’ यद्यपि 8:00 दो 27 मैं सायणाचार्य ने एह हरी ब्रह्मयुजा में ब्रह्मयुजा का अर्थ ‘स्तोत्रेण व हविषा युज्यमानौ’ किया है। कुछ और संदर्भों में जी हमें ऐसा लगता है कि भाषा के लिए भी ब्रह्म का प्रयोग होता था. सीधे जल के अर्थ में ब्रह्म का प्रयोग हमें ऋग्वेद में देखने में नहीं आया। ब्रह्मपुत्र नदी को छोड़कर अन्य नदी नामों में भी ब्रह्म का प्रयोग देखने में नहीं आता। परंतु गति और भोजन के लिए प्रयोग में आने वाले सभी पदार्थों का एक अर्थ जल रहा है इसलिए अपनी ओर से ऐसा मानते हैं की ब्रह्म का एक अर्थ जल था। ब्रह्म का वर्णन करते हुए भी प्राथमिक अवस्था को अप्रकेत सलिल माना गया है, इसलिए ऐसा सोचने में कोई तात्विक विरोध नहीं दिखाई देता।.
भग
भग और भर्ग का सामान्य अर्थ प्रकाश और सूर्य माना जाता है । सूर्य के लिए प्रयुक्त होने से पहले इसका प्रयोग आग के लिए किया जाता था और इसी से भूनने की क्रिया या विधि के लिए भर्जन का प्रयोग होता है भूना, भूनना, बंगाली का भाजा, भाजी, भजिया, भुजिया इसी भर्जन से पैदा हुए हैं । यह सूचना आसान तो है परंतु सच्चाई इससे भी आगे है। जलती हुई आग या चिराग के बुझने से जो निर्वात पैदा होता है उसे भरने के लिए पैदा हुए हवा के दबाव से और आग जलने पर ऑक्सीजन सोखने से उत्पन्न ध्वनि के लिए भक् या भक्क का प्रयोग होता है, इसीलिए हम चिराग भक से बुझ गया, या भक से उजाला हो गया, या आग भभक उठी जैसे वाक्यों का प्रयोग करते हैं। इसी से पहले आग के लिए, और फिर प्रकाश देने वाले स्रोतों के लिए , भग/ *भक्क (भर्ग) का प्रयोग हुआ। भूनने- तलने की क्रिया और भुने-तले हुए अनाज का संबंध इसी से है। अब हम कुछ विश्वास से कह सकते हैं की भूजा, भांजा भाजी आदि भर्ज के तद्भव नहीं हैं बल्कि भर्ज भक्क का संस्कृतीकरण है।
परंतु भक् या पक्क ध्वनि के इससे दूसरे स्रोत, घटनाएं और क्रियाएं भी हो सकती हैं। उदाहरण के लिए एक घडे के गिरने या पटकने पर उसके टूटने से पैदा होने वाली आवाज के लिए भड़/भक/ भग/भंग/भंज का प्रयोग लोग करते हैं। इनका प्रयोग तोड़ने, बाँटने, बटे हुए हिस्से, के लिए भी हो सकता है और हम इसके लिए भी भग और भाग का प्रयोग करते हैं। साझे की चीज का आपस में बटवारा इमानदारी से हो, इसलिए इसकी देखरेख करने वाले को भग भक्त, भग/भर्ग या भगवान कहा जा सकता है। इन दोनों अर्थों में / भग भाग, भक्त का प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है। जब हम भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न प्रचोदयात् कहते हैं तो उसी विवेक बुद्धि से अविचलित भाव से, सत्य का पालन करते हुए, बटवारा करने वाले विधाता पर इसकी छाया देखी जा सकती है । भौतिकही आत्मिक और आध्यात्मिक के धरातल पर कैसे पहुंचता है, इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है।
इस तरह भगवान के दो रूप हो जाते हैं एक तो ज्योति और प्रकाश और ज्ञान से संबंधित है और दूसरे जो आर्थिक उपक्रमों में व्यक्ति को उसके कार्य के अनुपात में लाभांश देता है । यह दूसरा भगवान ही है जिससे हम भक्ति पूर्वक याचना करते और अधिक से अधिक पाने की आकांक्षा रखते हैं और पटा कर अपने अनुकूल रखना चाहते हैं। प्रकाश वाला भगवान भगवा रंग का प्रेरक है, यद्यपि इसका एक दूसरा पक्ष भी है। गेरू के रंगे हुए वस्त्र कृमिरोधी होते हैं इसलिए इनका प्रयोग बहुत प्राचीन काल से देखने में आता है और यह अनेकानेक सभ्यताओं में प्रचलित रहा है जो भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो सकते हैं या नहीं भी हो सकते हैं।
हम हो भाग्यवाद को कोसते तो हैं परंतु हममें से बहुत कम लोग जानते हैं या इस विषय में सचेत हैं कि यह एक उन्नत अर्थव्यवस्था की तार्किक परिणति है।
यह विषयांतर इस तथ्य को समझने के लिए जरूरी था कि क्यों ऋग्वेद में भग प्रयोग अन्न के लिए भी किया गया है : भगः – सवैर्भजनीयः सः 3.36.5; भगः – पूषादेव, 3.49.3 ; भगस्य – धनस्य, 3.54.15; भगः – धनं, 3.54.21; भगं- अन्नं, 5.7.8; भगवती -धनवती,1.164.40; भगवन्तः – प्रभूतेन धनेन तद्वन्तः,1.164.40)
Post – 2018-05-04
धन और जल के कुछ और शब्द
तन
तन हमारी सामान्य जानकारी में अभी तक हमारी काया और पेड़ के तने से लेकर गर्दन के तने होने के लिए प्रयोग में आता है । बुनकर के ताने में भी हम परिचित हैं। परन्तु इसका अर्थ धन और जल भी हो सकता है इस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता. धन के संबंध में चर्चा करते हुए हमने कहा था, यह तन का वैकल्पिक रूप है, साथ ही सुझाया था कि इसका अर्थ जल रहा है। तनिक – थोड़ा सा, तन्वी – पतली और कोमल, तनु – पतला, क्षीण, कोमल, सीधे या सांकेतिक रूप से जलार्थक तन से निकले हैं। तमिल तन जिसे लिखते तण् है पर बोलते तन ही है उसकी याद बचाए हुआ है। इसी से ठंढ निकला है।
तंतु (तन्तुं तनुष्व पूर्व्यं, 1.142.1)) और तनय (तोकाय तनयाय शं योः, 5.69.3), में विस्तार का वही भाव है जो जल की प्रसार से संबंधित है, इसलिए ऋग्वेद में वंश परंपरा की कतते हुए सूत की उपमा दी गई है और वंश परंपरा के खंडित होने को सूत कातते हुए धागे के टूटने के समान बताया गया है ( मा तन्तुश्छेदि वयतो धियं मे, 2.28.5) ।
ऋग्वेद के समय तक इसका प्रयोग धन के लिए भी होने लगा था (तना – धननामैतत् विस्तृतेण धनेन, (1.3.4) ।
हम पहले भी संकेत कर आए हैं जल से ही प्रत्ययों और विभक्तियों की उत्पत्ति हुई है इसलिए तन का भी एतन, सनातन, अद्यतन भूतन (मरुतो मापभूतन ), जुहोतन, (दुग्धमंशुं जुहोतन ), सोतन (सोममिन्द्राय सोतन ), युयोतन, दधातन, आदि में ऐसा प्रयोग देखा जा सकता है । तन की भांति तना का भी प्रयोग प्रत्यय के रूप में हुआ है सदतना, भजतना (आ न स्पार्हे भजतना )।
एक स्थल पर इसका प्रयोग गुना के लिए भी हुआ है( आ ययोस्त्रिंशतं तना सहस्राणि च दद्महे ।)
एक अन्य पर इसका प्रयोग वस्त्र के लिए हुआ है ( सोम विपश्चितं तना (वस्त्रेण) पुनान आयुषु ) ।
कुछ स्थलों पर इसका आशय तैयार करने का हो जाता है (‘भद्रा वस्त्रा तन्वते दंसु रश्मिषु’, अथवा, ‘वि युगं तनुध्वं’) ।
अंग्रेजी ten, teen, umpteen, tend, tender, tendril, tenson, tenure, tenuous, tendency, tenterhook, then, than इस दृष्टि से विचारणीय है।
सबसे रोचक है संगीत की तान और ताना मारने की लत। तेलुगू में जलार्थक तन तेन बन कर मिठास का स्वाद देता है।
द्रप्स
द्रप्स का नाम आते ही अंग्रेजी के drop शब्द की याद आती है, फिर भी drip, dripple, droop, आदि की और हमारा ध्यान नहीं जा पाता, क्योंकि हम इस तरीके से भाषा के बारे में सोचने के आदी नहीं है। द्रप्स का प्रयोग जल (द्रप्सं रेतः,7.33.11) के लिए तो हुआ है, परंतु या सामान्य जलसे कुछ अलग है (द्रप्सा बिन्दुरूपा,1.14.4; द्रप्सिनः-वृष्टि उदकबिन्दुभिर्युक्ता, 1.64.2), यह चाहे धारासार वृष्टि की बूंदे हो (ये द्रप्सा इव रोदसी धमन्त्यनु वृष्टिभिः, 8.7.16)। एक ऋचा ‘द्रप्सो भेत्ता पुरां शश्वतीनामिन्द्रो मुनीनां सखा, 8.17.14’ में सायणाचार्य ने द्रप्स की व्याख्या करते हुए कहा है, द्रप्सः ‘द्रवणशील सोमः तद्वान्’ अर्थात जिसने सोम पान कर रखा है ।
इंद्र को असुरों की पूरियों का भेदन करने वाला बताया गया है वहां समग्र सन्दर्भों को ध्यान में रखते हुए हमारी समझ से छाई हुई घटाएं हैं परंतु यहां इसके विस्तृत विवेचन में नहीं जाएंगे।
एक एक जगह पर द्रप्स का बहुत विचित्र प्रयोग हुआ है (द्रप्सं अपश्यं विषुणे प्रयन्तं उपह्वरे नद्यः अंशुमत्याः, 8.96.14) हमें इस विषय में उपलब्ध अनुवादों या व्याख्याओं से संतोष नहीं है। संभव है यह सोम के व्यापार से संबंधित उल्लेख हो परंतु हम स्वयं भी इस विषय में निश्चित नहीं है।
सोम का और उसकी बिंदुओं का प्रयोग आकाश से झरती हुई सूक्ष्म बिदुओं के लिए ही विशेष रूप से किया गया है और एक स्थल पर उसका आकाश से अपहरण करके लाने का भी उल्लेख है जो आकाशीय सोम के धरती पर लाने की कथा से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है । अन्यत्र भी ऐसे संकेत प्रायः मिलते हैं (दिवः द्रप्सः मधुमान् आ विवेश , 10.98.3।
वानस्पतिक सोम का बड़े पैमाने पर उत्पादन और विनिमय किया जाता था और इसलिए यह ऐसा धन था जिसके बदले में सोना चांदी घोड़ा गाय बैल कुछ भी हासिल किया जा सकता था। (आ पवस्व महीमिषं गोमदिन्दो हिरण्यवत् । अश्वावद्वाजवत्सुतः, 9.41.4).
कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिनसे लगता है सोम का कोई मादक पेय भी बनाया जाता था और संभव है उसका भी व्यापार होता रहा हो (यं देवासश्चक्रिरे पीतये मदं स्वादिष्ठं द्रप्समरुणं मयोभुवम् ।। 9.78.4
द्युम्न
द्युम्न का प्रयोग सामान्यता यश कांति आदि के विषय में किया जाता है और इसका एक अर्थ धन भी है इसका शाब्दिक अर्थ है ‘वह जिसमें ज्योति हो’। परंतु ऋग्वेद में इसका प्रयोग अन्न के लिए भी किया गया है (तुविद्युम्नस्य – बहुयशसो बहुअन्नस्य वा, 6.18.12 , द्युम्नसाता – अन्नस्य यशस्य वा लाभाय, 1.131.1…द्युम्निनः – द्योतनवतः यशावन्तः अन्नवन्तः वा, 1.138.2, द्युम्नेन – अन्नेन1.48.1)।
एक स्थान पर पोषक जल के रूप में ओस की महिमा चंद्रमा से झड़ते अमृत के रूप में की गई लगती है (यस्य ते द्युम्नवत्पयः पवमानाभृतं दिवः । तेन नो मृळ जीवसे, 9.66.30)। अन्यत्र भी चंद्रमा को ही सोम के रूप में संबोधित किया गया है ( ऋतं वदन्नृतद्युम्न सत्यं वदन् सत्यकर्मन् । श्रद्धां वदन् सोम राजन् धात्रा सोम परिष्कृत इन्द्रायेन्दो परि स्रव ।। 9.113.4)।
पर क्या आपने द्युम्न के द्यु के साथ अंग्रेजी के dew को याद किया ? यदि किया होगा तो वयह समझ में आजायेगा कि दयुम्न का पिता भी कोई जलार्थक शब्द ही है .
Post – 2018-05-04
धन और जल के कुछ और शब्द
तन
तन हमारी सामान्य जानकारी में अभी तक हमारी काया और पेड़ के तने से लेकर गर्दन के तने होने के लिए प्रयोग में आता है । बुनकर के ताने में भी हम परिचित हैं। परन्तु इसका अर्थ धन और जल भी हो सकता है इस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता. धन के संबंध में चर्चा करते हुए हमने कहा था, यह तन का वैकल्पिक रूप है, साथ ही सुझाया था कि इसका अर्थ जल रहा है। तनिक – थोड़ा सा, तन्वी – पतली और कोमल, तनु – पतला, क्षीण, कोमल, सीधे या सांकेतिक रूप से जलार्थक तन से निकले हैं। तमिल तन जिसे लिखते तण् है पर बोलते तन ही है उसकी याद बचाए हुआ है। इसी से ठंढ निकला है।
तंतु (तन्तुं तनुष्व पूर्व्यं, 1.142.1)) और तनय (तोकाय तनयाय शं योः, 5.69.3), में विस्तार का वही भाव है जो जल की प्रसार से संबंधित है, इसलिए ऋग्वेद में वंश परंपरा की कतते हुए सूत की उपमा दी गई है और वंश परंपरा के खंडित होने को सूत कातते हुए धागे के टूटने के समान बताया गया है ( मा तन्तुश्छेदि वयतो धियं मे, 2.28.5) ।
ऋग्वेद के समय तक इसका प्रयोग धन के लिए भी होने लगा था (तना – धननामैतत् विस्तृतेण धनेन, (1.3.4) ।
हम पहले भी संकेत कर आए हैं जल से ही प्रत्ययों और विभक्तियों की उत्पत्ति हुई है इसलिए तन का भी एतन, सनातन, अद्यतन भूतन (मरुतो मापभूतन ), जुहोतन, (दुग्धमंशुं जुहोतन ), सोतन (सोममिन्द्राय सोतन ), युयोतन, दधातन, आदि में ऐसा प्रयोग देखा जा सकता है । तन की भांति तना का भी प्रयोग प्रत्यय के रूप में हुआ है सदतना, भजतना (आ न स्पार्हे भजतना )।
एक स्थल पर इसका प्रयोग गुना के लिए भी हुआ है( आ ययोस्त्रिंशतं तना सहस्राणि च दद्महे ।)
एक अन्य पर इसका प्रयोग वस्त्र के लिए हुआ है ( सोम विपश्चितं तना (वस्त्रेण) पुनान आयुषु ) ।
कुछ स्थलों पर इसका आशय तैयार करने का हो जाता है (‘भद्रा वस्त्रा तन्वते दंसु रश्मिषु’, अथवा, ‘वि युगं तनुध्वं’) ।
अंग्रेजी ten, teen, umpteen, tend, tender, tendril, tenson, tenure, tenuous, tendency, tenterhook, then, than इस दृष्टि से विचारणीय है।
सबसे रोचक है संगीत की तान और ताना मारने की लत। तेलुगू में जलार्थक तन तेन बन कर मिठास का स्वाद देता है।
द्रप्स
द्रप्स का नाम आते ही अंग्रेजी के drop शब्द की याद आती है, फिर भी drip, dripple, droop, आदि की और हमारा ध्यान नहीं जा पाता, क्योंकि हम इस तरीके से भाषा के बारे में सोचने के आदी नहीं है। द्रप्स का प्रयोग जल (द्रप्सं रेतः,7.33.11) के लिए तो हुआ है, परंतु या सामान्य जलसे कुछ अलग है (द्रप्सा बिन्दुरूपा,1.14.4; द्रप्सिनः-वृष्टि उदकबिन्दुभिर्युक्ता, 1.64.2), यह चाहे धारासार वृष्टि की बूंदे हो (ये द्रप्सा इव रोदसी धमन्त्यनु वृष्टिभिः, 8.7.16)। एक ऋचा ‘द्रप्सो भेत्ता पुरां शश्वतीनामिन्द्रो मुनीनां सखा, 8.17.14’ में सायणाचार्य ने द्रप्स की व्याख्या करते हुए कहा है, द्रप्सः ‘द्रवणशील सोमः तद्वान्’ अर्थात जिसने सोम पान कर रखा है ।
इंद्र को असुरों की पूरियों का भेदन करने वाला बताया गया है वहां समग्र सन्दर्भों को ध्यान में रखते हुए हमारी समझ से छाई हुई घटाएं हैं परंतु यहां इसके विस्तृत विवेचन में नहीं जाएंगे।
एक एक जगह पर द्रप्स का बहुत विचित्र प्रयोग हुआ है (द्रप्सं अपश्यं विषुणे प्रयन्तं उपह्वरे नद्यः अंशुमत्याः, 8.96.14) हमें इस विषय में उपलब्ध अनुवादों या व्याख्याओं से संतोष नहीं है। संभव है यह सोम के व्यापार से संबंधित उल्लेख हो परंतु हम स्वयं भी इस विषय में निश्चित नहीं है।
सोम का और उसकी बिंदुओं का प्रयोग आकाश से झरती हुई सूक्ष्म बिदुओं के लिए ही विशेष रूप से किया गया है और एक स्थल पर उसका आकाश से अपहरण करके लाने का भी उल्लेख है जो आकाशीय सोम के धरती पर लाने की कथा से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है । अन्यत्र भी ऐसे संकेत प्रायः मिलते हैं (दिवः द्रप्सः मधुमान् आ विवेश , 10.98.3।
वानस्पतिक सोम का बड़े पैमाने पर उत्पादन और विनिमय किया जाता था और इसलिए यह ऐसा धन था जिसके बदले में सोना चांदी घोड़ा गाय बैल कुछ भी हासिल किया जा सकता था। (आ पवस्व महीमिषं गोमदिन्दो हिरण्यवत् । अश्वावद्वाजवत्सुतः, 9.41.4).
कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिनसे लगता है सोम का कोई मादक पेय भी बनाया जाता था और संभव है उसका भी व्यापार होता रहा हो (यं देवासश्चक्रिरे पीतये मदं स्वादिष्ठं द्रप्समरुणं मयोभुवम् ।। 9.78.4
द्युम्न
द्युम्न का प्रयोग सामान्यता यश कांति आदि के विषय में किया जाता है और इसका एक अर्थ धन भी है इसका शाब्दिक अर्थ है ‘वह जिसमें ज्योति हो’। परंतु ऋग्वेद में इसका प्रयोग अन्न के लिए भी किया गया है (तुविद्युम्नस्य – बहुयशसो बहुअन्नस्य वा, 6.18.12 , द्युम्नसाता – अन्नस्य यशस्य वा लाभाय, 1.131.1…द्युम्निनः – द्योतनवतः यशावन्तः अन्नवन्तः वा, 1.138.2, द्युम्नेन – अन्नेन1.48.1)।
एक स्थान पर पोषक जल के रूप में ओस की महिमा चंद्रमा से झड़ते अमृत के रूप में की गई लगती है (यस्य ते द्युम्नवत्पयः पवमानाभृतं दिवः । तेन नो मृळ जीवसे, 9.66.30)। अन्यत्र भी चंद्रमा को ही सोम के रूप में संबोधित किया गया है ( ऋतं वदन्नृतद्युम्न सत्यं वदन् सत्यकर्मन् । श्रद्धां वदन् सोम राजन् धात्रा सोम परिष्कृत इन्द्रायेन्दो परि स्रव ।। 9.113.4)।
पर क्या आपने द्युम्न के द्यु के साथ अंग्रेजी के dew को याद किया ? यदि किया होगा तो वयह समझ में आजायेगा कि दयुम्न का पिता भी कोई जलार्थक शब्द ही है .
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धन और जल के कुछ और शब्द
तन
तन हमारी सामान्य जानकारी में अभी तक हमारी काया और पेड़ के तने से लेकर गर्दन के तने होने के लिए प्रयोग में आता है । बुनकर के ताने में भी हम परिचित हैं। परन्तु इसका अर्थ धन और जल भी हो सकता है इस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता. धन के संबंध में चर्चा करते हुए हमने कहा था, यह तन का वैकल्पिक रूप है, साथ ही सुझाया था कि इसका अर्थ जल रहा है। तनिक – थोड़ा सा, तन्वी – पतली और कोमल, तनु – पतला, क्षीण, कोमल, सीधे या सांकेतिक रूप से जलार्थक तन से निकले हैं। तमिल तन जिसे लिखते तण् है पर बोलते तन ही है उसकी याद बचाए हुआ है। इसी से ठंढ निकला है।
तंतु (तन्तुं तनुष्व पूर्व्यं, 1.142.1)) और तनय (तोकाय तनयाय शं योः, 5.69.3), में विस्तार का वही भाव है जो जल की प्रसार से संबंधित है, इसलिए ऋग्वेद में वंश परंपरा की कतते हुए सूत की उपमा दी गई है और वंश परंपरा के खंडित होने को सूत कातते हुए धागे के टूटने के समान बताया गया है ( मा तन्तुश्छेदि वयतो धियं मे, 2.28.5) ।
ऋग्वेद के समय तक इसका प्रयोग धन के लिए भी होने लगा था (तना – धननामैतत् विस्तृतेण धनेन, (1.3.4) ।
हम पहले भी संकेत कर आए हैं जल से ही प्रत्ययों और विभक्तियों की उत्पत्ति हुई है इसलिए तन का भी एतन, सनातन, अद्यतन भूतन (मरुतो मापभूतन ), जुहोतन, (दुग्धमंशुं जुहोतन ), सोतन (सोममिन्द्राय सोतन ), युयोतन, दधातन, आदि में ऐसा प्रयोग देखा जा सकता है । तन की भांति तना का भी प्रयोग प्रत्यय के रूप में हुआ है सदतना, भजतना (आ न स्पार्हे भजतना )।
एक स्थल पर इसका प्रयोग गुना के लिए भी हुआ है( आ ययोस्त्रिंशतं तना सहस्राणि च दद्महे ।)
एक अन्य पर इसका प्रयोग वस्त्र के लिए हुआ है ( सोम विपश्चितं तना (वस्त्रेण) पुनान आयुषु ) ।
कुछ स्थलों पर इसका आशय तैयार करने का हो जाता है (‘भद्रा वस्त्रा तन्वते दंसु रश्मिषु’, अथवा, ‘वि युगं तनुध्वं’) ।
अंग्रेजी ten, teen, umpteen, tend, tender, tendril, tenson, tenure, tenuous, tendency, tenterhook, then, than इस दृष्टि से विचारणीय है।
सबसे रोचक है संगीत की तान और ताना मारने की लत। तेलुगू में जलार्थक तन तेन बन कर मिठास का स्वाद देता है।
द्रप्स
द्रप्स का नाम आते ही अंग्रेजी के drop शब्द की याद आती है, फिर भी drip, dripple, droop, आदि की और हमारा ध्यान नहीं जा पाता, क्योंकि हम इस तरीके से भाषा के बारे में सोचने के आदी नहीं है। द्रप्स का प्रयोग जल (द्रप्सं रेतः,7.33.11) के लिए तो हुआ है, परंतु या सामान्य जलसे कुछ अलग है (द्रप्सा बिन्दुरूपा,1.14.4; द्रप्सिनः-वृष्टि उदकबिन्दुभिर्युक्ता, 1.64.2), यह चाहे धारासार वृष्टि की बूंदे हो (ये द्रप्सा इव रोदसी धमन्त्यनु वृष्टिभिः, 8.7.16)। एक ऋचा ‘द्रप्सो भेत्ता पुरां शश्वतीनामिन्द्रो मुनीनां सखा, 8.17.14’ में सायणाचार्य ने द्रप्स की व्याख्या करते हुए कहा है, द्रप्सः ‘द्रवणशील सोमः तद्वान्’ अर्थात जिसने सोम पान कर रखा है ।
इंद्र को असुरों की पूरियों का भेदन करने वाला बताया गया है वहां समग्र सन्दर्भों को ध्यान में रखते हुए हमारी समझ से छाई हुई घटाएं हैं परंतु यहां इसके विस्तृत विवेचन में नहीं जाएंगे।
एक एक जगह पर द्रप्स का बहुत विचित्र प्रयोग हुआ है (द्रप्सं अपश्यं विषुणे प्रयन्तं उपह्वरे नद्यः अंशुमत्याः, 8.96.14) हमें इस विषय में उपलब्ध अनुवादों या व्याख्याओं से संतोष नहीं है। संभव है यह सोम के व्यापार से संबंधित उल्लेख हो परंतु हम स्वयं भी इस विषय में निश्चित नहीं है।
सोम का और उसकी बिंदुओं का प्रयोग आकाश से झरती हुई सूक्ष्म बिदुओं के लिए ही विशेष रूप से किया गया है और एक स्थल पर उसका आकाश से अपहरण करके लाने का भी उल्लेख है जो आकाशीय सोम के धरती पर लाने की कथा से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है । अन्यत्र भी ऐसे संकेत प्रायः मिलते हैं (दिवः द्रप्सः मधुमान् आ विवेश , 10.98.3।
वानस्पतिक सोम का बड़े पैमाने पर उत्पादन और विनिमय किया जाता था और इसलिए यह ऐसा धन था जिसके बदले में सोना चांदी घोड़ा गाय बैल कुछ भी हासिल किया जा सकता था। (आ पवस्व महीमिषं गोमदिन्दो हिरण्यवत् । अश्वावद्वाजवत्सुतः, 9.41.4).
कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिनसे लगता है सोम का कोई मादक पेय भी बनाया जाता था और संभव है उसका भी व्यापार होता रहा हो (यं देवासश्चक्रिरे पीतये मदं स्वादिष्ठं द्रप्समरुणं मयोभुवम् ।। 9.78.4
द्युम्न
द्युम्न का प्रयोग सामान्यता यश कांति आदि के विषय में किया जाता है और इसका एक अर्थ धन भी है इसका शाब्दिक अर्थ है ‘वह जिसमें ज्योति हो’। परंतु ऋग्वेद में इसका प्रयोग अन्न के लिए भी किया गया है (तुविद्युम्नस्य – बहुयशसो बहुअन्नस्य वा, 6.18.12 , द्युम्नसाता – अन्नस्य यशस्य वा लाभाय, 1.131.1…द्युम्निनः – द्योतनवतः यशावन्तः अन्नवन्तः वा, 1.138.2, द्युम्नेन – अन्नेन1.48.1)।
एक स्थान पर पोषक जल के रूप में ओस की महिमा चंद्रमा से झड़ते अमृत के रूप में की गई लगती है (यस्य ते द्युम्नवत्पयः पवमानाभृतं दिवः । तेन नो मृळ जीवसे, 9.66.30)। अन्यत्र भी चंद्रमा को ही सोम के रूप में संबोधित किया गया है ( ऋतं वदन्नृतद्युम्न सत्यं वदन् सत्यकर्मन् । श्रद्धां वदन् सोम राजन् धात्रा सोम परिष्कृत इन्द्रायेन्दो परि स्रव ।। 9.113.4)।
पर क्या आपने द्युम्न के द्यु के साथ अंग्रेजी के dew को याद किया ? यदि किया होगा तो वयह समझ में आजायेगा कि दयुम्न का पिता भी कोई जलार्थक शब्द ही है .
Post – 2018-05-03
अन्न और धन के कुछ और शब्द
(यह लेखमाला शोध ग्रन्थ का हिस्सा है। जिनकी इसमें रुचि हो वे ही इसे पढ़े। वह संख्या
दो चार भी हो या बिल्कुल न हो तो इससे मुझे फर्क न पड़ेगा। मैत्री निभाने के लिए लाइक न करें।)
इष
इष के विषय में हम पहले भी प्रासंगिक रूप में कुछ कह आए हैं।. इष किसी पतले छेद से पानी झटके से निकलने की ध्वनि है , यह गन्ने जैसे रसीले डंठल को कूटने से निकली रस की धार भी हो सकती है इसका प्रयोग सोमरस के लिए हुआ है. प्रायः इस के साथ ऊर्ज अर्थात शक्तिदायक विशेषण का भी प्रयोग हुआ है (इषमूर्जं सुक्षितिं सुम्नमश्युः, 2.19.8; ) इसे सामान्य धन का भी द्योतक माना गया है(इषं दधानो वहमानो अश्वैरा स द्युमाँ अमवान्भूषति द्यून्,10.11.7) . सायणाचार्य ने विभिन्न स्थानों पर इसके लिए निम्न प्रकार अर्थ किए हैं ( इषः – अन्नानि, 1.9.8; गच्छन्तः, 1.56.2 ; इष्यमाणानि1.130.3; इष्यमाणा – वृष्टीः; 6.60.12; इषः पती-अन्नस्य पती, 5.68.5; इषः वास्तु – अन्नस्य निवासस्थानं, अर्थात् अन्नागार, 8.25.5; इषयन्तं – अन्नं कुर्वन्तं, 6.1.8; आयुधानि प्रेरयन्, 6.18.5; इषयन्त -गमयन्ति, 2.2.11; इषयन्तीः – कुल्यादिद्वारा अन्नं कुर्वन्तीः, 3.33.12; इषा – पृथिव्यामुप्तेन यवादिधान्यरूपेणान्नेन, 1.112.18 ; इषां (1.181.1) इष्यमाणानामन्नानां
ऊर्ज
इर/ईर की ही तरह उर/ऊर भी मूलतः जल की ध्वनि, जल, गति, व्याप्ति, अन्न, ऊर्जा आदि होना चाहिए. इसे ऊर्मिः (- प्रेरकः, 2.16.5) और तरंग,(8.14.10) तथा ऊर्मिम्- (अर्तेरिदं रूपं गमनयोग्यं, 7.47.4) सा समझा जा सकता है।, रोचक बात यह है कि जिस तरह उर् का प्रयोग आच्छादन के लिए हुआ है उसी तरह है ऊर्मि का प्रयोग रात्रि के लिए हुआ है। (ऊर्म्या – रात्रौ, 1.184).और जलवाची शब्दों का प्रयोग जिस तरह समूहवाचक संज्ञाओं के लिए हुआ है उसी तरह ऊर्व काः (ऊर्वं – समूहं, 5.29.12; 6.17.1, ऊर्वात् – महतोन्तरिक्षात, 5.45.2; ऊर्वान् महतः प्राणिनिकायान पर्वतान्, 2.13.7). अतः ऊर्ज का अर्थ जल होना अपनी तार्किक संगति में है : (ऊर्जः – अन्नानि, 2.11.1).
क्षु
चप्, चुप्, क्षुप़् छुप छिछले पानी में पाँव आदि पडने से उत्पन्न ध्वनि है और इसलिए जल का एक नाम क्षु पड़ा और इस क्रम में चिपकने वाली छोटी बूंदों के लिए संभवत क्षुद्र का प्रयोग हुआ और फिर या दूसरी छोटी चीजों के लिए प्रयोग में आने लगा। अव स्रवेदघशंसोऽवतरमव क्षुद्रमिव स्रवेत्, 1.129.6 मैं सायणाचार्य ने क्षुद्रमिव की व्याख्या करते हुए इसे पानी के छींटे जैसा “क्षेप्तुम योग्यम उदकं इव” कहा है। ऋग्वेद में क्षु का प्रयोग उत्कृष्ट खाद्य पदार्थों के लिए हुआ लगता है (त्वं वाजस्य क्षुमतो राय ईशिषे, 2.1.10; क्षुमन्तं वाजं स्वपत्यं रयिं दाः, 2.4.8; कृधि क्षुमन्तं जरितारमग्ने कृधि पतिं स्वपत्यस्य रायः ।। 2.9.5 )। इस क्षु से ही क्षुधा या बुभुक्षा की उत्पत्ति हुई है। सायण ने क्षुमति का अर्थ 4.2.18 में अन्नवत्याढ्यगृहे अन्न से भरपूर किया है।
चन
से हमारा परिचय एक ओर तो चणक से है जिससे किसी रहस्यमय सूत्र से चाणक्य का नाम जुड़ा है, अर्थ जल था। ऋग्वेद में इसका प्रयोग अन्न के आशय में ही हुआ है पर साथ ही अव्यय के रूप में भी इसका प्रयोग अनेक बार देखने में आता है (नहि स्म ते शतं चन राधो वरन्त आमुरः, 4.31.9; दुर्गे चन ध्रियते विश्व आ पुरु जनो योऽस्य तविषीमचुक्रुधत् , 5.34.7; न रिष्येम कदा चन, 6।.54.9; नेन्द्रादृते पवते धाम किं चन, 9.69.6। अन्न के रूप मे चनः – हविर्लक्षणमन्नं, 1.3.6; अन्नं,1.107.3; 2.31.6; 7.38.3)
ज्रय
ज्रयांसि –अन्नानि, (5.8.7) (6.6.6) ‘ज्रयतिर्गतिकमा’, गन्तव्यानि स्थानानि; (8.2.33) । इससे प्रकट है, इसका प्रयोग भी जल के लिए होता था।
Post – 2018-05-03
अन्न और धन के कुछ और शब्द
(यह लेखमाला शोध ग्रन्थ का हिस्सा है। जिनकी इसमें रुचि हो वे ही इसे पढ़े। वह संख्या
दो चार भी हो या बिल्कुल न हो तो इससे मुझे फर्क न पड़ेगा। मैत्री निभाने के लिए लाइक न करें।)
इष
इष के विषय में हम पहले भी प्रासंगिक रूप में कुछ कह आए हैं।. इष किसी पतले छेद से पानी झटके से निकलने की ध्वनि है , यह गन्ने जैसे रसीले डंठल को कूटने से निकली रस की धार भी हो सकती है इसका प्रयोग सोमरस के लिए हुआ है. प्रायः इस के साथ ऊर्ज अर्थात शक्तिदायक विशेषण का भी प्रयोग हुआ है (इषमूर्जं सुक्षितिं सुम्नमश्युः, 2.19.8; ) इसे सामान्य धन का भी द्योतक माना गया है(इषं दधानो वहमानो अश्वैरा स द्युमाँ अमवान्भूषति द्यून्,10.11.7) . सायणाचार्य ने विभिन्न स्थानों पर इसके लिए निम्न प्रकार अर्थ किए हैं ( इषः – अन्नानि, 1.9.8; गच्छन्तः, 1.56.2 ; इष्यमाणानि1.130.3; इष्यमाणा – वृष्टीः; 6.60.12; इषः पती-अन्नस्य पती, 5.68.5; इषः वास्तु – अन्नस्य निवासस्थानं, अर्थात् अन्नागार, 8.25.5; इषयन्तं – अन्नं कुर्वन्तं, 6.1.8; आयुधानि प्रेरयन्, 6.18.5; इषयन्त -गमयन्ति, 2.2.11; इषयन्तीः – कुल्यादिद्वारा अन्नं कुर्वन्तीः, 3.33.12; इषा – पृथिव्यामुप्तेन यवादिधान्यरूपेणान्नेन, 1.112.18 ; इषां (1.181.1) इष्यमाणानामन्नानां
ऊर्ज
इर/ईर की ही तरह उर/ऊर भी मूलतः जल की ध्वनि, जल, गति, व्याप्ति, अन्न, ऊर्जा आदि होना चाहिए. इसे ऊर्मिः (- प्रेरकः, 2.16.5) और तरंग,(8.14.10) तथा ऊर्मिम्- (अर्तेरिदं रूपं गमनयोग्यं, 7.47.4) सा समझा जा सकता है।, रोचक बात यह है कि जिस तरह उर् का प्रयोग आच्छादन के लिए हुआ है उसी तरह है ऊर्मि का प्रयोग रात्रि के लिए हुआ है। (ऊर्म्या – रात्रौ, 1.184).और जलवाची शब्दों का प्रयोग जिस तरह समूहवाचक संज्ञाओं के लिए हुआ है उसी तरह ऊर्व काः (ऊर्वं – समूहं, 5.29.12; 6.17.1, ऊर्वात् – महतोन्तरिक्षात, 5.45.2; ऊर्वान् महतः प्राणिनिकायान पर्वतान्, 2.13.7). अतः ऊर्ज का अर्थ जल होना अपनी तार्किक संगति में है : (ऊर्जः – अन्नानि, 2.11.1).
क्षु
चप्, चुप्, क्षुप़् छुप छिछले पानी में पाँव आदि पडने से उत्पन्न ध्वनि है और इसलिए जल का एक नाम क्षु पड़ा और इस क्रम में चिपकने वाली छोटी बूंदों के लिए संभवत क्षुद्र का प्रयोग हुआ और फिर या दूसरी छोटी चीजों के लिए प्रयोग में आने लगा। अव स्रवेदघशंसोऽवतरमव क्षुद्रमिव स्रवेत्, 1.129.6 मैं सायणाचार्य ने क्षुद्रमिव की व्याख्या करते हुए इसे पानी के छींटे जैसा “क्षेप्तुम योग्यम उदकं इव” कहा है। ऋग्वेद में क्षु का प्रयोग उत्कृष्ट खाद्य पदार्थों के लिए हुआ लगता है (त्वं वाजस्य क्षुमतो राय ईशिषे, 2.1.10; क्षुमन्तं वाजं स्वपत्यं रयिं दाः, 2.4.8; कृधि क्षुमन्तं जरितारमग्ने कृधि पतिं स्वपत्यस्य रायः ।। 2.9.5 )। इस क्षु से ही क्षुधा या बुभुक्षा की उत्पत्ति हुई है। सायण ने क्षुमति का अर्थ 4.2.18 में अन्नवत्याढ्यगृहे अन्न से भरपूर किया है।
चन
से हमारा परिचय एक ओर तो चणक से है जिससे किसी रहस्यमय सूत्र से चाणक्य का नाम जुड़ा है, अर्थ जल था। ऋग्वेद में इसका प्रयोग अन्न के आशय में ही हुआ है पर साथ ही अव्यय के रूप में भी इसका प्रयोग अनेक बार देखने में आता है (नहि स्म ते शतं चन राधो वरन्त आमुरः, 4.31.9; दुर्गे चन ध्रियते विश्व आ पुरु जनो योऽस्य तविषीमचुक्रुधत् , 5.34.7; न रिष्येम कदा चन, 6।.54.9; नेन्द्रादृते पवते धाम किं चन, 9.69.6। अन्न के रूप मे चनः – हविर्लक्षणमन्नं, 1.3.6; अन्नं,1.107.3; 2.31.6; 7.38.3)
ज्रय
ज्रयांसि –अन्नानि, (5.8.7) (6.6.6) ‘ज्रयतिर्गतिकमा’, गन्तव्यानि स्थानानि; (8.2.33) । इससे प्रकट है, इसका प्रयोग भी जल के लिए होता था।
Post – 2018-05-03
अन्न और धन के कुछ और शब्द
(यह लेखमाला शोध ग्रन्थ का हिस्सा है। जिनकी इसमें रुचि हो वे ही इसे पढ़े। वह संख्या
दो चार भी हो या बिल्कुल न हो तो इससे मुझे फर्क न पड़ेगा। मैत्री निभाने के लिए लाइक न करें।)
इष
इष के विषय में हम पहले भी प्रासंगिक रूप में कुछ कह आए हैं।. इष किसी पतले छेद से पानी झटके से निकलने की ध्वनि है , यह गन्ने जैसे रसीले डंठल को कूटने से निकली रस की धार भी हो सकती है इसका प्रयोग सोमरस के लिए हुआ है. प्रायः इस के साथ ऊर्ज अर्थात शक्तिदायक विशेषण का भी प्रयोग हुआ है (इषमूर्जं सुक्षितिं सुम्नमश्युः, 2.19.8; ) इसे सामान्य धन का भी द्योतक माना गया है(इषं दधानो वहमानो अश्वैरा स द्युमाँ अमवान्भूषति द्यून्,10.11.7) . सायणाचार्य ने विभिन्न स्थानों पर इसके लिए निम्न प्रकार अर्थ किए हैं ( इषः – अन्नानि, 1.9.8; गच्छन्तः, 1.56.2 ; इष्यमाणानि1.130.3; इष्यमाणा – वृष्टीः; 6.60.12; इषः पती-अन्नस्य पती, 5.68.5; इषः वास्तु – अन्नस्य निवासस्थानं, अर्थात् अन्नागार, 8.25.5; इषयन्तं – अन्नं कुर्वन्तं, 6.1.8; आयुधानि प्रेरयन्, 6.18.5; इषयन्त -गमयन्ति, 2.2.11; इषयन्तीः – कुल्यादिद्वारा अन्नं कुर्वन्तीः, 3.33.12; इषा – पृथिव्यामुप्तेन यवादिधान्यरूपेणान्नेन, 1.112.18 ; इषां (1.181.1) इष्यमाणानामन्नानां
ऊर्ज
इर/ईर की ही तरह उर/ऊर भी मूलतः जल की ध्वनि, जल, गति, व्याप्ति, अन्न, ऊर्जा आदि होना चाहिए. इसे ऊर्मिः (- प्रेरकः, 2.16.5) और तरंग,(8.14.10) तथा ऊर्मिम्- (अर्तेरिदं रूपं गमनयोग्यं, 7.47.4) सा समझा जा सकता है।, रोचक बात यह है कि जिस तरह उर् का प्रयोग आच्छादन के लिए हुआ है उसी तरह है ऊर्मि का प्रयोग रात्रि के लिए हुआ है। (ऊर्म्या – रात्रौ, 1.184).और जलवाची शब्दों का प्रयोग जिस तरह समूहवाचक संज्ञाओं के लिए हुआ है उसी तरह ऊर्व काः (ऊर्वं – समूहं, 5.29.12; 6.17.1, ऊर्वात् – महतोन्तरिक्षात, 5.45.2; ऊर्वान् महतः प्राणिनिकायान पर्वतान्, 2.13.7). अतः ऊर्ज का अर्थ जल होना अपनी तार्किक संगति में है : (ऊर्जः – अन्नानि, 2.11.1).
क्षु
चप्, चुप्, क्षुप़् छुप छिछले पानी में पाँव आदि पडने से उत्पन्न ध्वनि है और इसलिए जल का एक नाम क्षु पड़ा और इस क्रम में चिपकने वाली छोटी बूंदों के लिए संभवत क्षुद्र का प्रयोग हुआ और फिर या दूसरी छोटी चीजों के लिए प्रयोग में आने लगा। अव स्रवेदघशंसोऽवतरमव क्षुद्रमिव स्रवेत्, 1.129.6 मैं सायणाचार्य ने क्षुद्रमिव की व्याख्या करते हुए इसे पानी के छींटे जैसा “क्षेप्तुम योग्यम उदकं इव” कहा है। ऋग्वेद में क्षु का प्रयोग उत्कृष्ट खाद्य पदार्थों के लिए हुआ लगता है (त्वं वाजस्य क्षुमतो राय ईशिषे, 2.1.10; क्षुमन्तं वाजं स्वपत्यं रयिं दाः, 2.4.8; कृधि क्षुमन्तं जरितारमग्ने कृधि पतिं स्वपत्यस्य रायः ।। 2.9.5 )। इस क्षु से ही क्षुधा या बुभुक्षा की उत्पत्ति हुई है। सायण ने क्षुमति का अर्थ 4.2.18 में अन्नवत्याढ्यगृहे अन्न से भरपूर किया है।
चन
से हमारा परिचय एक ओर तो चणक से है जिससे किसी रहस्यमय सूत्र से चाणक्य का नाम जुड़ा है, अर्थ जल था। ऋग्वेद में इसका प्रयोग अन्न के आशय में ही हुआ है पर साथ ही अव्यय के रूप में भी इसका प्रयोग अनेक बार देखने में आता है (नहि स्म ते शतं चन राधो वरन्त आमुरः, 4.31.9; दुर्गे चन ध्रियते विश्व आ पुरु जनो योऽस्य तविषीमचुक्रुधत् , 5.34.7; न रिष्येम कदा चन, 6।.54.9; नेन्द्रादृते पवते धाम किं चन, 9.69.6। अन्न के रूप मे चनः – हविर्लक्षणमन्नं, 1.3.6; अन्नं,1.107.3; 2.31.6; 7.38.3)
ज्रय
ज्रयांसि –अन्नानि, (5.8.7) (6.6.6) ‘ज्रयतिर्गतिकमा’, गन्तव्यानि स्थानानि; (8.2.33) । इससे प्रकट है, इसका प्रयोग भी जल के लिए होता था।