Post – 2018-04-24

एक सुझाव

हमारी पिछली पीढ़ी के लोगों के संस्कार सामन्ती थे। वे छोटों को मुंह नहीं लगाते थे। छोटे भी बड़ों के सामने सहमते हुए अपनी बात तो रखते थे परन्तु उनका उत्तर मिलने के बाद, उत्तर गलत भी लगता तो प्रतिवाद नहीं करते थे। इसे अभद्रता माना जाता था। लिखते समय भी नाम के साथ आदरसूचक श्री, जी, साहब. डा. आवश्यक समझे जाते थे। पश्चिम में भी उन्नीसवीं शताब्दी तक चलता था। सर तो सरासर भारत में चलता ही था। यह जनतांत्रिक संस्कृति का तकाजा था कि इस भेदभाव से बाहर आया जाए। इस पाठ को ब्रिटेन ने भी कुछ बाद में सीखा़, इसका आरंभ अमेरिका ने किया जहां आधुनिक लोकतंत्र की पहली बार सही इबारत तो लिखी गई पर वहां भी पूरी तरह अमल में नहीं आ ई पर आज पश्चिमी जगत का सर्वमान्य मुहावरा बन चुका है। फेसबुक पर सभी मित्र हैं, यह मेरी समझ से उसी लोकतांत्रिक संस्कार का हिस्सा है।

मुझे अपने लिेए सम्मानसूचक संबोधन अटपटे लगते हैं। लगता है मेरा उपहास किया जा रहा है। यह फर्क वैचारिक आदान-प्रदान की सहजता में विघ्न डालता है। भाषा की मर्यादा का निर्वाह ही पारस्परिक सम्मान के लिए पर्याप्त है। यह हमारी उस परंपरा के भी अनुरूप है जिसमें सलाह दी गई है – प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रमिवाचरेत ।

Post – 2018-04-24

एक सुझाव

हमारी पिछली पीढ़ी के लोगों के संस्कार सामन्ती थे। वे छोटों को मुंह नहीं लगाते थे। छोटे भी बड़ों के सामने सहमते हुए अपनी बात तो रखते थे परन्तु उनका उत्तर मिलने के बाद, उत्तर गलत भी लगता तो प्रतिवाद नहीं करते थे। इसे अभद्रता माना जाता था। लिखते समय भी नाम के साथ आदरसूचक श्री, जी, साहब. डा. आवश्यक समझे जाते थे। पश्चिम में भी उन्नीसवीं शताब्दी तक चलता था। सर तो सरासर भारत में चलता ही था। यह जनतांत्रिक संस्कृति का तकाजा था कि इस भेदभाव से बाहर आया जाए। इस पाठ को ब्रिटेन ने भी कुछ बाद में सीखा़, इसका आरंभ अमेरिका ने किया जहां आधुनिक लोकतंत्र की पहली बार सही इबारत तो लिखी गई पर वहां भी पूरी तरह अमल में नहीं आ ई पर आज पश्चिमी जगत का सर्वमान्य मुहावरा बन चुका है। फेसबुक पर सभी मित्र हैं, यह मेरी समझ से उसी लोकतांत्रिक संस्कार का हिस्सा है।

मुझे अपने लिेए सम्मानसूचक संबोधन अटपटे लगते हैं। लगता है मेरा उपहास किया जा रहा है। यह फर्क वैचारिक आदान-प्रदान की सहजता में विघ्न डालता है। भाषा की मर्यादा का निर्वाह ही पारस्परिक सम्मान के लिए पर्याप्त है। यह हमारी उस परंपरा के भी अनुरूप है जिसमें सलाह दी गई है – प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रमिवाचरेत ।

Post – 2018-04-23

पहले हिन्दी का सारा लेखन सबके लिए होता था। सभी लोग सभी चीजें नहीं पढ़ते थे, अपनी योग्यता, रुचि, अवकाश के अनुसार अपने लेखक, अपनी पाठ्य सामग्री तय करते थे। समीक्षाएं कम होती थीं पर गुण-दोष-परक होती थीं। उनकी भूमिका सीमित थी, आज भी सभी पुस्तकों की समीक्षा तो होती नहीं।

यह एक विचित्र बात है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र में सबसे कमजोर था और प्रगतिशील आन्दोलन हिन्दी साहित्य मे इतना कचवाबद्ध कि साहित्य भले न रहे, प्रगतिशीलता बनी रहनी चाहिए। पहली बार साहित्य समाज के लिए नहीं संघठन के लिए लिए, नकली समाज, नकली यथार्थ, और संगठन की अपेक्षाओ के अनुसार लिखा जाने लगा। यह व्याधि बंगाल, या केरल में जहा कम्युनिस्ट पार्टियां अधिक मजबूत थीं वहां नहीं लगी। वहां प्रगतिशील लेखक संघ भी नाम को ही रहे होंगे।

क्या इसका कारण यह है कि उर्दू भाषा और लिपि की प्रतिस्पर्धा थी जिसके कारण हिन्दी प्रदेश सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना रहा। क्या हिन्दी क्षेत्र की प्रगतिशीलता का चरित्र संप्रदायवादी था और हिन्दू सांप्रदायिकता से लड़ने के नाम पर यह सांप्रदायिक तेवर अपना कर हिन्दुओं से, यहां तक कि हिन्दी और हिन्दुस्तान तक से छायायुद्ध करता रहा।

जहां तक समाज की कुरीतियों से मुक्ति का प्रश्न है, यह आर्यसमाज की समकक्षता में नहीं आ सका, उल्टे अपने आक्रामक तेवर के चलते परिरक्षणवादी प्रवृत्तियों को प्रबल किया।

हो सकता है, यह मेरी सोच का इकहरापन हो, पर हिन्दी साहित्य की प्राणवत्ता को इसने नष्ट अवश्य किया।

Post – 2018-04-23

पहले हिन्दी का सारा लेखन सबके लिए होता था। सभी लोग सभी चीजें नहीं पढ़ते थे, अपनी योग्यता, रुचि, अवकाश के अनुसार अपने लेखक, अपनी पाठ्य सामग्री तय करते थे। समीक्षाएं कम होती थीं पर गुण-दोष-परक होती थीं। उनकी भूमिका सीमित थी, आज भी सभी पुस्तकों की समीक्षा तो होती नहीं।

यह एक विचित्र बात है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र में सबसे कमजोर था और प्रगतिशील आन्दोलन हिन्दी साहित्य मे इतना कचवाबद्ध कि साहित्य भले न रहे, प्रगतिशीलता बनी रहनी चाहिए। पहली बार साहित्य समाज के लिए नहीं संघठन के लिए लिए, नकली समाज, नकली यथार्थ, और संगठन की अपेक्षाओ के अनुसार लिखा जाने लगा। यह व्याधि बंगाल, या केरल में जहा कम्युनिस्ट पार्टियां अधिक मजबूत थीं वहां नहीं लगी। वहां प्रगतिशील लेखक संघ भी नाम को ही रहे होंगे।

क्या इसका कारण यह है कि उर्दू भाषा और लिपि की प्रतिस्पर्धा थी जिसके कारण हिन्दी प्रदेश सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना रहा। क्या हिन्दी क्षेत्र की प्रगतिशीलता का चरित्र संप्रदायवादी था और हिन्दू सांप्रदायिकता से लड़ने के नाम पर यह सांप्रदायिक तेवर अपना कर हिन्दुओं से, यहां तक कि हिन्दी और हिन्दुस्तान तक से छायायुद्ध करता रहा।

जहां तक समाज की कुरीतियों से मुक्ति का प्रश्न है, यह आर्यसमाज की समकक्षता में नहीं आ सका, उल्टे अपने आक्रामक तेवर के चलते परिरक्षणवादी प्रवृत्तियों को प्रबल किया।

हो सकता है, यह मेरी सोच का इकहरापन हो, पर हिन्दी साहित्य की प्राणवत्ता को इसने नष्ट अवश्य किया।

Post – 2018-04-23

पहले हिन्दी का सारा लेखन सबके लिए होता था। सभी लोग सभी चीजें नहीं पढ़ते थे, अपनी योग्यता, रुचि, अवकाश के अनुसार अपने लेखक, अपनी पाठ्य सामग्री तय करते थे। समीक्षाएं कम होती थीं पर गुण-दोष-परक होती थीं। उनकी भूमिका सीमित थी, आज भी सभी पुस्तकों की समीक्षा तो होती नहीं।

यह एक विचित्र बात है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन हिन्दी क्षेत्र में सबसे कमजोर था और प्रगतिशील आन्दोलन हिन्दी साहित्य मे इतना कचवाबद्ध कि साहित्य भले न रहे, प्रगतिशीलता बनी रहनी चाहिए। पहली बार साहित्य समाज के लिए नहीं संघठन के लिए लिए, नकली समाज, नकली यथार्थ, और संगठन की अपेक्षाओ के अनुसार लिखा जाने लगा। यह व्याधि बंगाल, या केरल में जहा कम्युनिस्ट पार्टियां अधिक मजबूत थीं वहां नहीं लगी। वहां प्रगतिशील लेखक संघ भी नाम को ही रहे होंगे।

क्या इसका कारण यह है कि उर्दू भाषा और लिपि की प्रतिस्पर्धा थी जिसके कारण हिन्दी प्रदेश सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना रहा। क्या हिन्दी क्षेत्र की प्रगतिशीलता का चरित्र संप्रदायवादी था और हिन्दू सांप्रदायिकता से लड़ने के नाम पर यह सांप्रदायिक तेवर अपना कर हिन्दुओं से, यहां तक कि हिन्दी और हिन्दुस्तान तक से छायायुद्ध करता रहा।

जहां तक समाज की कुरीतियों से मुक्ति का प्रश्न है, यह आर्यसमाज की समकक्षता में नहीं आ सका, उल्टे अपने आक्रामक तेवर के चलते परिरक्षणवादी प्रवृत्तियों को प्रबल किया।

हो सकता है, यह मेरी सोच का इकहरापन हो, पर हिन्दी साहित्य की प्राणवत्ता को इसने नष्ट अवश्य किया।

Post – 2018-04-23

परछांइयां भी उठ कर हैें हंगामे में शामिल
क्या जोश, क्या खरोश है, क्या जोरे जबां है।
सोचा कि तेरे खाक से पुतला तो बना लू
पर जान डालने को बता आग कहां है ।।

Post – 2018-04-23

परछांइयां भी उठ कर हैें हंगामे में शामिल
क्या जोश, क्या खरोश है, क्या जोरे जबां है।
सोचा कि तेरे खाक से पुतला तो बना लू
पर जान डालने को बता आग कहां है ।।

Post – 2018-04-23

परछांइयां भी उठ कर हैें हंगामे में शामिल
क्या जोश, क्या खरोश है, क्या जोरे जबां है।
सोचा कि तेरे खाक से पुतला तो बना लू
पर जान डालने को बता आग कहां है ।।

Post – 2018-04-22

संतापसूचक शब्द और जल (5)

(आज विषय पर आने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि मैं प्राय: ऋग्वेद के ही उद्धरण इसलिए देता हूं कि वह लिखित भाषा का प्राचीनतम दस्तावेज है और वह संस्कृत की तुलना में बोलियों के अधिक निकट पाता हूं। )

क्लेश
क्ल/कल का अर्थ जल है, यह हम पहले देख आए हैं। कृश/क्लिश का उद्भव जल से है इस पर भी हम विचार कर आए हैं। अब क्लेश की अवधारणा के जल से संबंध के विषय में कुछ कहने को नहीं रह जाता। प्रसंगवश, समूह और विराट के अमूर्त पदों के लिए भी जल के पर्यायों में से किसी का सहारा लिया गया है अतः यह सम्भव है कि अंग्रेजी क्लास का भी क्ल से सम्बन्ध हो, और यही बात क्लॉथ, क्ले, क्लेम, के विषय में कही जा सकती है. क्रोश और अं. कर्स की निकटता भी रोचक है.

व्यथा
व्यथा के साथ ही यदि व्याधि की और उसके साथ आधि की याद न आ जाती तो हम यह न सोच पाते कि इसमें वि उपसर्ग है और अब हम इसी बात पर चकित अनुभव करते हैं कि मूल शब्द अथ अव्यय है जिसका अर्थ इससे अब और यहाँ, है जिसका प्रयोग प्रस्थान या इससे आगे, इसके बाद, के आशय में किया जाता है। इसके भी पीछे है. अत जिसका अर्थ है चलना, घूमना, भ्रमण करना। इसके तकार के टकार में बदलने से अट बना है जिसका अर्थ वही है और इसी का संज्ञा रूप अटन है जिससे अटवी -वनस्थली व्युत्पन्न है। अत और अट दोनों में से किसी में पीड़ा या अवसाद का भाव नहीं है। ऋग्वेद में अत का प्रयोग अथ की तरह यहाँ (अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा – यहाँ हमारे इस यज्ञ में आओ; अत आ यातमश्विना – अश्विनों यहाँ पधारो ) और अथ का तब (अथा हि वां दिवो नरा पुनः स्तोमो न विशसे – ऐ देवो उसके बाद फिर कभी तुम्हारी कीर्ति कम व होगी ) फिर (अथा को वेद यत आबभूव- फिर कौन जनता है क्या हुआ ). अत/ अद का अवांतर रूप है जिसका अर्जिथ जल है। उसकी गतिशीलता और भ्रामकता अत में बनी हुई है. और इसलिए लगता है इसी के अर्थोत्कर्ष से इस चक्कर में पड़े रहने ने दुःख, थकान और मनोव्यथा का अर्थ ग्रहण कर लिया.

दुःख
दुःख को इसके उपसर्ग दु: से अलग करके क के रूप में रखें और इस बात पर ध्यान दें कि क/क:/को का अर्थ जल होता है और जल पर्यायों से ही ईश्वर के नाम निकले है – इष= जल, >ईश , तो तमिल के गोपुरम और कोइल/ कोविल = मंदिर, इश्वर का घर, समझ में आ जाएगा। अत: दुःख भी जल का आभाव या अनुपलब्धि ही है. इसमें इतना और जोड़ना होगा कि क में आनंद या तृप्तिदायकता का अर्थ निहित है। यह भी याद दिला दें कि नर्क (न्यर्क – जहां जल नहीं या दुर्लभ है) का अर्थ भी वही है जब कि स्वरग सु-अर्क जल से भरपूर है। दुख यदि जल की दुर्लभता है तो सुख जल की सुलभता। ये संकल्पनाएं उस लंबे दुर्भिक्ष काल की देन हैं, जिसकी हम अक्सर याद लिलाते रहते हैं। पहले की सोकल्पनाएं भिन्न थीं।

Post – 2018-04-22

संतापसूचक शब्द और जल (5)

(आज विषय पर आने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि मैं प्राय: ऋग्वेद के ही उद्धरण इसलिए देता हूं कि वह लिखित भाषा का प्राचीनतम दस्तावेज है और वह संस्कृत की तुलना में बोलियों के अधिक निकट पाता हूं। )

क्लेश
क्ल/कल का अर्थ जल है, यह हम पहले देख आए हैं। कृश/क्लिश का उद्भव जल से है इस पर भी हम विचार कर आए हैं। अब क्लेश की अवधारणा के जल से संबंध के विषय में कुछ कहने को नहीं रह जाता। प्रसंगवश, समूह और विराट के अमूर्त पदों के लिए भी जल के पर्यायों में से किसी का सहारा लिया गया है अतः यह सम्भव है कि अंग्रेजी क्लास का भी क्ल से सम्बन्ध हो, और यही बात क्लॉथ, क्ले, क्लेम, के विषय में कही जा सकती है. क्रोश और अं. कर्स की निकटता भी रोचक है.

व्यथा
व्यथा के साथ ही यदि व्याधि की और उसके साथ आधि की याद न आ जाती तो हम यह न सोच पाते कि इसमें वि उपसर्ग है और अब हम इसी बात पर चकित अनुभव करते हैं कि मूल शब्द अथ अव्यय है जिसका अर्थ इससे अब और यहाँ, है जिसका प्रयोग प्रस्थान या इससे आगे, इसके बाद, के आशय में किया जाता है। इसके भी पीछे है. अत जिसका अर्थ है चलना, घूमना, भ्रमण करना। इसके तकार के टकार में बदलने से अट बना है जिसका अर्थ वही है और इसी का संज्ञा रूप अटन है जिससे अटवी -वनस्थली व्युत्पन्न है। अत और अट दोनों में से किसी में पीड़ा या अवसाद का भाव नहीं है। ऋग्वेद में अत का प्रयोग अथ की तरह यहाँ (अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा – यहाँ हमारे इस यज्ञ में आओ; अत आ यातमश्विना – अश्विनों यहाँ पधारो ) और अथ का तब (अथा हि वां दिवो नरा पुनः स्तोमो न विशसे – ऐ देवो उसके बाद फिर कभी तुम्हारी कीर्ति कम व होगी ) फिर (अथा को वेद यत आबभूव- फिर कौन जनता है क्या हुआ ). अत/ अद का अवांतर रूप है जिसका अर्जिथ जल है। उसकी गतिशीलता और भ्रामकता अत में बनी हुई है. और इसलिए लगता है इसी के अर्थोत्कर्ष से इस चक्कर में पड़े रहने ने दुःख, थकान और मनोव्यथा का अर्थ ग्रहण कर लिया.

दुःख
दुःख को इसके उपसर्ग दु: से अलग करके क के रूप में रखें और इस बात पर ध्यान दें कि क/क:/को का अर्थ जल होता है और जल पर्यायों से ही ईश्वर के नाम निकले है – इष= जल, >ईश , तो तमिल के गोपुरम और कोइल/ कोविल = मंदिर, इश्वर का घर, समझ में आ जाएगा। अत: दुःख भी जल का आभाव या अनुपलब्धि ही है. इसमें इतना और जोड़ना होगा कि क में आनंद या तृप्तिदायकता का अर्थ निहित है। यह भी याद दिला दें कि नर्क (न्यर्क – जहां जल नहीं या दुर्लभ है) का अर्थ भी वही है जब कि स्वरग सु-अर्क जल से भरपूर है। दुख यदि जल की दुर्लभता है तो सुख जल की सुलभता। ये संकल्पनाएं उस लंबे दुर्भिक्ष काल की देन हैं, जिसकी हम अक्सर याद लिलाते रहते हैं। पहले की सोकल्पनाएं भिन्न थीं।