क्या अब भी धुंध-ओ-गर्द के आगे है कोई रात
उस रात के आगे भी सुबह है कि नहीं है।।
मैं पूछता नहीं हूँ, महज सोच रहा हूँ
उस सुबह में सूरज की जगह है कि नहीं है।
तुम हो कि तुम्हारा खयाल ही है मुजस्सिम
मैं हूँ तो मेरा होशो-हवस है कि नहीं है।।
विज्ञान ने भगवान को मारा तो मैं खुश था
अब अपने सामने ही विवश है कि नहीं है।।
कारा को तोड़ कर तो निकल आया मगर अब
इस जहन का भी कोई कफस है कि नही है।।
Post – 2019-11-13
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (25)
#भारत_की_खोज- छह
संस्कृत भाषियों, अर्थात् हिंदुओं और भारत में बसने वाले आदिम जनों के मूल की खोज भारत, अरब, तातारी, फारस और चीन की खोज के साथ ही समाप्त नहीं हो गई। इसकी पड़ताल कुछ और विस्तार में करते हुए अपनी स्थापना को विश्वसनीय बनाने के प्रयत्न में विलियम जोन्स निरंतर हास्यास्पद होते चले गए, परंतु इसका उन्हें आभास तक नहीं था।
पुराणकथाओं को उनके कथा-बंध को समझे बिना इतिहास के लिए उनका उपयोग करने वाला अपने को हास्यास्पद बनाने से रोक नहीं सकता। यह भूल उन्होंने भारत के विषय में भी की थी और यही पूरी दुनिया के विषय में करते जा रहे थे। भारत के विषय में उन्होंने अपने सहायक संस्कृत के विद्वानों से सुने सुनाए पौराणिक कथाओं के आधार पर राय कायम की थी। यदि ब्राह्मण अपनी भाषा और विचार लेकर कहीं अन्यत्र से भारत में आए थे, उनका पुराण भी वहीं से आया होगा। यदि भारतीय ब्राह्मण अपने पौराणिक इतिहास को कई कल्पों तक पीछे ले जाते थे तो इसका कारण उनका अज्ञान हो सकता है या उनकी धूर्तता। सही इतिहास का पता उस पुराण से चल सकता था जिसे बाइबल की सृष्टि कथा में पाया जाता है। वह सही था, इसका एक प्रमाण यह है कि हिंदुओं के पुराण में भी मनु के माध्यम से लगभग आदम और नोआह की कहानी को कुछ बिगड़े रूप में दोहराया गया है। ईसाई पुराण के अनुसार मानवता का इतिहास गढ़ने का उनका प्रयास और भी हास्यास्पद हो गया।
इसकी ओर सबसे पहले जेम्स मिल का ध्यान गया । प्राचीन भारत के विषय में मिल की टिप्पणियां तिरस्कारपूर्ण तो हैं परंतु वे उनकी इतिहास की समझ पर आधारित न होकर, ईसाई मिशनरियों की रपटों पर आधारित हैं। इसके कारण प्राचीन भारत का उनका मूल्यांकन, विलियम जोन्स की समझ का उपहास मात्र है। उनकी चर्चा हम आगे करेंगे।
हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि पश्चिमी जगत के भारत विषयक अज्ञानजनित अंधकार में एक मोमबत्ती की रोशनी के सहारे वह यथार्थ तक पहुंचने का प्रयत्न कर रहे थे। ऐसा प्रयत्न इससे पहले किसी ने नहीं किया था। ईसाई, या कहें, इब्रानी मजहबों के लोग, सभी विधर्मी यों को असभ्य, अज्ञान में डूबा हुआ मानते थे , और उनमें किसी तरह का उत्कर्ष दिखाई नहीं देता था। जोन्स को इस विशेष अर्थ में बुद्धिवादी और अपने समय से आगे माना जा सकता है कि उन्हीं संस्कारों में पले होने के कारण, अपनी ओर से काटछाँट करने के बाद भी जो अकाट्य लगता था, उसे स्वीकार करने का साहस भी उनमें था, और दूसरों को, अविश्वसनीय लगने वाले अपने विचारों का कायल बनाने के लिए, वह उस बात को बहुत अधिक बल देकर पेश करते थे। क्षीण प्रकाश के साथ ही जल्दी-जल्दी सब कुछ देख जाने की कोशिश के कारण उनके निष्कर्ष आज काल्पनिक लगते है, भिन्न रुझान के कारण वे जेम्स मिल को भी ख्याली, और इसलिए हास्यास्पद लगे थे। उनका कोई विचार सही नहीं है, उनके अनेक अनुमान वास्तविकता से दूर थे, इसके बाद भी उस धुंधलके में टटोलते हुए ऐसी सच्चाइयों को सामने लाते हैं, जो उनके बहुत-बहुत बाद में प्रकाश में आ सकीं। उन्हें आज भी समझा नहीं जा सका है।
सचाई का आंखों के सामने होना, आपकी नजर का नॉर्मल होना इस बात की गारंटी नहीं है कि आप उसे देख सकेंगे। बुद्धि का असाधारण प्रखर होना भी इस बात की गारंटी नहीं है कि आप उसे समझ सकेंगे। बिना चश्मे वाले भी सिर्फ अपनी आंखों से नहीं देखते, अपने स्वार्थ, अहंकार, और विद्वेष जैसे कई अदृश्य चश्मों को एक के ऊपर एक लगाकर देखते हैं, परंतु उनके विषय में सावधान नहीं होते, इसलिए मान लेते हैं कि जो कुछ हमने देखा है वही सच है; अपनी मेधा और प्रतिभा के बल पर, जिन अपर्याप्त सूचनाओं के आधार पर, जिन निष्कर्षो पर हम पहुंचे हैं वे अकाट्य हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर, विलियम जोन्स पर अपनी फब्तियों के बावजूद जेम्स मिल अधिक गलत और अधिक हास्यास्पद प्रतीत होते हैं।
आगे बढ़ने से पहले, हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि सूचना के किसी भी स्रोत की बारीकी से छानबीन करने के बाद एक विश्वसनीय इतिहास रेखा गढ़ी जा सकती है, जो इतनी प्रामाणिक हो सकती है कि दूसरे स्रोतों के निष्कर्ष यदि उससे अनमेल पड़ें तो उनको संदिग्ध माना जा सके। ऐसा गलतबयानियों और अफ़वाहों के बल पर भी किया जा सकता है। शर्त केवल एक है कि उस स्रोत की समस्त या अधिकतम सूचनाएँ हमें उपलब्ध हों। प्रश्न सामग्री को देखते हुए सही प्रविधि या मेथडालॉजी और औजार विकसित करने का है। इसके अभाव में पुरातत्व कूड़े की ढेरियों का अध्ययन बनकर रह जाएगा।
इसे स्पष्ट करना जरूरी है। यह सवाल केवल हम कर सकते हैं कि बाइबल की सृष्टि कथा को भी यदि जोंस ने समझा होता तो वह इस भ्रम के शिकार नहीं होते कि आदम की जिस कथा को वह अधिक प्रामाणिक मान कर उसके अनुसार मानव इतिहास को समझना और समझाना चाहते थे उसका ईडन गार्डन दूर कहीं पूर्व में था। शब्दों का जैसा विवेचन करते आए थे, उसके अनुसार यह समझ सकते थे कि ईडन गार्डन इन्द्र उद्यान था और इन्द्र कृषि के देवता थे। शैतान या विनाशकारी और अनिकेत या घुमक्कड़ लोगों को अहि के रूप में भारत में कल्पित किया जाता था। देव समाज के विषय में तो उन्हें उस समय के ज्ञान के स्तर पर कोई जानकारी न हो सकती थी, पर वे भारतभूमि के निवासी थे। कृषि-कर्मियों को उत्पीड़ित करके सभी दिशाओंं में भागने को विवश भारत के आहारसंग्रही जमात ने किया था। सभी पक्ष भारत की ओर इंगित कर रहे थे इसलिए संस्कृत और ब्राह्मणों का बाहर कहीं से से आना नहीं भारत से उनका या उनकी भाषा का किसी तरीके से बाहर जाना सिद्ध होता था। इस समझ के बाद उन्हें यह भी समझ में आ जाता कि बाइबल की आदम की कथा कृषि के आरंभ की कथा है, इसका सृष्टि से कोई संबंध नहीं, अर्थात् इब्रानी सृष्टि कथा कोरी कल्पना है या किसी अन्य स्रोत की नकल है जिसकी सही समझ मिथककार को न थी। तब यह स्पष्ट हो जाता कि वह मूल कथा भारत से आई हो सकती है। गोर्डन चाइल्ड की सुझाई हुई एक मान्यता यह है कि खेती का आरंभ पश्चिम एशिया में हुआ था। अब पता चलता कि आरंभ कहीं पूर्व में हुआ था जहाँ से भगाए हुए लोगों ने पश्चिम एशिया में आकर यहाँ खेती आरंभ की थी। अब हम पाते हैं कि कैसे पुराणकथाओं के सही विवेचन से उतना ही प्रामाणिक इतिहास तैयार हो सकता है जितना पुरातत्व से और ये दोनों एक दूसरे के पूरक बन सकते हैं।
Post – 2019-11-12
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (24)
#भारतकी_खोज-पाँच
कल भूमिका कुछ लंबी हो गई । हम इस बात पर जोर देना चाहते थे कि परास्त समाज को विजेता को इस बात का दोष देने का अधिकार नहीं है उसने उसे जीत लिया, दोष केवल अपने को दे सकता है कि वह अपनी स्वतंत्रता की रक्षा क्यों न कर सका। हम लंबे समय से स्वयं इस बात की तैयारी करते रहे कि कोई आए और हमें जीत ले। अहंकारी स्वाभिमानी नहीं होता। विलासी अपनी सभी योग्यताओं को खोता चला जाता है। जोखिम से घबराने वाला खतरों को आमंत्रित करता है। लद्धड़ व्यक्ति या समाज के पास जो कुछ है उसे भी सँभाल कर नहीं रख सकता। कामचलाऊपन गतानुगतिकता या ठहराव, ऊब, थकान और गिरावट का कारण बनता है। दुखद यह नहीं है कि हमारे समाज में यह दुर्गुण घर कर चुके थे, बल्कि यह कि ये दुर्गुण हमारे भीतर दुबारा लौट आए हैं। किसी देश या समाज पर विजय के लिए जितनी लंबी तैयारी की जरूरत होती है, अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए भी वैसी ही तैयारी और अध्यवसाय की जरूरत होती है।
सामरिक विजय के लिए अंग्रेजों ने क्या किया था, इसकी पूरी तस्वीर हमारे सामने नहीं है, परंतु सांस्कृतिक विजय के लिए जिस तरह का अध्यवसाय एशियाटिक सोसाइटी के माध्यम से आरंभ हुआ और कंपनी के प्रबुद्ध जनों की जैसी पहल रही उसकी ओर ध्यान जाने पर, एक समाज के रूप में अंग्रेजों के प्रति गहरा सम्मान पैदा होता है, और विलियम जोंस के प्रति सम्मान बढ़ जाता है, क्योंकि इसके नायक और उन्नायक वही थे।
सोसाइटी की आधारशिला रखते हुए उन्होंने दिखावे से बचते हुए, मध्यम मार्ग अपनाते हुए लंबे समय तक पूरी तत्परता से काम करने की सलाह दी थी।[1]
और इसके अगले वर्ष का व्याख्यान देते हुए, उन्होंने आह्लादित हो कर कहा था, जब मैं इस बात पर गौर करता हूं कि आप लोगों ने एशिया के इतिहास, कानून, आचार व्यवहार, विभिन्न कलाओं के विषय में इतनी संजीदगी से सभी मुद्दों पर विचार विमर्श किया है तो मेरी समझ में नहीं आता कि मुझे इस पर अधिक प्रसन्नता हो रही है या आश्चर्य। मैं इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि आपने जितनी प्रगति की है उसकी मैंने उम्मीद तक नहीं की थी। [3]
ये मात्र उत्साह बढ़ाने के लिए कोरे भावोउद्गार नहीं हैं। वे सप्ताह में एक बार मिलते थे कहीं से भी किसी तरह की मिली हुई नई सूचना को लेकर विचार करते थे और उनमें से जो एक मूल्यवान दिखाई देता था उसे वार्षिक प्रकाशन के लिए रखते थे। एशियाटिक रिसर्चेज में प्रकाशित लेखों से इसकी पुष्टि भी होती है।
उनकी एक समस्या थी भारतीयों से कैसे उन सूचनाओं और कृतियों को प्राप्त किया जाए जिनकी जानकारी उनके पास है, पर वे सुलभ नहीं कराते।
उसे अपने तरीके से जाँचा और परखा कैसे जाए। इससे भी बड़ी समस्या थी अपनी मान्यताओं का भारतीयों को कायल कैसे किया जाए।
हिंदुओं में ही नहीं मुसलमानों में भी कुछ लोग तो ऐसे थे ही जो केवल आर्थिक प्रलोभन से वश में नहीं किए जा सकते थे। यह विलियम जोंस की सूझ थी कि उपाधियों और खिताबों से उनको भी काबू में किया जा सकता है।[4]
यहाँ से शुरू होता है महामहोपाध्याय, कविराज, आलिम फाजिल आदि उपाधियों से संस्कृत के प्रकांड विद्वानों को सांस्कृतिक अनुगामी बना कर शेष संस्कृत विद्वानों को और उसके बाद सामान्य शिक्षित समाज में अपनी मान्यताओं का प्रसार और आलोचना व पुनर्विचार का रास्ता बंद करने का आयोजन। नाइटहुड आदि का उपाधियाँ इसी का विस्तार थीं। भौतिक सत्ता और सांस्कृतिक वर्चस्व को सुदृढ़ बनाने के इस प्रयोग के जनक भी सर विलियम जोंस ही हैं।
एशियाटिक एशियाटिक सोसाइटी के सदस्यों में जो लोग सम्मिलित थे उनमें से अधिकांश का अपना योगदान कम सराहनीय नहीं था, और इनके सहयोग के बिना स्वयं हम अपनी भाषाओं का विकास तक नहीं कर सकते थे। न हम अपने साहित्य को जानते थे न अपने देश को। दूसरे देशवासियों से हमारे पुराने संपर्क की बात ही अलग है। हमारा ध्यान उसकी ओर भी उनकी पहल के बिना नहीं जा सकता था।
सुनने पर पीड़ा अवश्य होती है कि विलियम जोंस ने हमारे ज्ञान के स्तर को देखते हुए हमारी तुलना बच्चों से की थी[2] परंतु सच्चाई यही है कि कम से कम इस चरण पर हमारी जो स्थिति थी उस पर इस टिप्पणी को पूर्वाग्रह से प्रेरित नहीं कहा जा सकता।
प्राचीन भारत में, अपने उत्कर्ष दौरों में भी हमने बहुत सारे काम उतने सलीके से नहीं किए थे। अधिकांश क्षेत्रों में भारत ने असाधारण प्रगति की थी। कुछ मामलों में पीछे रह गए थे। पहली नजर में वे बहुत गंभीर पहलू नहीं प्रतीत होते, परंतु वे वैज्ञानिक सोच की नींव के पत्थर हैं। एक शब्द में इसे सटीकता कह सकते हैं।
इसका कुछ संबंध हमारी प्रकृति की उदारता से भी है। यदि आपके पास जरूरत से कम अनाज है तो आप एक एक दाने को जोड़-बटोर और सहेज कर रखेंगे। यदि अधिक है तो कुछ बिखर और नष्ट भी हो जाए तो चिंता नहीं करेंगे।
हमारी स्मृति रेखा धुँधले रूप में दसियों हजार साल पीछे तक जाती थी जिसे बचाने और दूसरों तक और बाद की पीढ़ियों तक पहुंचाने के प्रयत्न में एक अनूठी शैली विकसित हुई थी। इतिहास को कहानियों में पिरो कर सुनाने के इस तरीके को मिथकविधान कहते हैं, जो इसके लिए सही शब्द नहीं है। परंतु जिनके पास इसकी पूँजी नहीं थी, वे ही इसे माइथॉलजी कहते हैं। इसका अनुवाद हिंदी में देव शास्त्र के रूप में किया जाता है, जो और भी गलत है। फिर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि इस शैली में जिसमें अतिरंजना से काम लेना पड़ता था सटीकता संभव ही नहीं थी।
इस विस्मयकारी अतीत के सामने प्रतापी लोग भी अपने को इतना मामूली समझते थे कि वे यह न मान पाते थे कि वे पुरखों की तुलना में कहीं आते हैं, कि उन्हें अपने को कोई महत्व देना चाहिए।
जीवन और जगत के विषय में हमारे सोचने का तरीका अलग था। जीवन की नश्वरता, पुनर्जन्म, कर्मफल के सिद्धांत और हमारी मूल्य प्रणाली में आसक्ति, अभिमान को दोष मानने के कारण, दुनियादारी के सभी रूप, यहां तक कि यश की आकांक्षा को ही निंदनीय माना जाता था । इसलिए राजाओं तक में अपने यश और कीर्ति को अमर बनाने की लालसा नहीं देती। गुप्तदान, गुप्तनाम से रचना जैसा विराग भाव, सुनने में अच्छा लगता है, परंतु ज्ञान परंपरा के निर्वाह की दृष्टि से सही नहीं लगता।
कंप्यूटर और सांख्यिकी से परिचित हम लोग आज यह जानते हैं कि हमारी स्मृति में जितनी अधिक सूचनाएँ होंगी छानबीन करने और किसी सही या लगभग सही नतीजे पर पहुंचने में उतनी ही आसानी होगी। इन सूचनाओं के सही-सही बचाए रखने के लिए दो विधियों का सहारा लिया गया था। एक था ज्ञान को छंदबद्ध करना, दूसरा था कम से कम शब्दों में कम से कम अक्षरों में अपने विचार को सूत्रबद्ध करना। इसका सहारा आज भी विज्ञान में फार्मूलों के रूप में लिया जाता है, और जिसे पाणिनि के सूत्रों में प्राचीन काल में अपनी पराकाष्ठा पर पाया जा सकता है, परंतु या परंपरा पहले से चली आ रही थी। इस पर अधिक भरोसा करने के कारण हमारे देश में गद्य का समुचित विकास नहीं हो पाया। ऐसे कुछ दूसरी ही कारण है जो हमारी अग्रता के भी कारण रहे और जिन पर अधिक भरोसा करने के कारण ललित साहित्य से लेकर विचार साहित्य में भी हम कुछ दृष्टियों से पिछड़े रह गए।
इसलिए, अपने आप को दिलासा देने के लिए हम भले ही सोच लें कि जिस समय विलियम जोंस भारतीय सभ्यता की तुलना पूरे यूरोप की अपने समय तक की ज्ञान संपदा से कर रहे थे उस समय उन्हें भारत के विषय में नाम मात्र को पता था, परंतु एशियाटिक सोसाइटी ने जो काम किए उनको सामने रखते हुए यदि हम अपनी परंपरा पर विचार करें तो पता चलेगा कि उन्होंने जो कारनामे किए वह हमसे न संभव हुए थे न ही संभव हो सकते थे। उनसे जो कुछ मिला था, उसमें से बहुत कुछ हमने खोया है, जोड़ा कुछ नहीं है।
प्रयोजन को भूल जाएं, पर काम ये जरूरी थे। उन्होंने जनसामान्य में शिक्षा के प्रसार के लिए भारतीय भाषाओं का विकास किया, उनकी परिधि नियत की, उनका व्याकरण लिखा, उनके लिपि के लिए टाइप तैयार किए, छपाई घर बनाए, किताबें प्रकाशित की, पत्रिकाओं के प्रकाशन की संभावना जगाई, भारत के भूगोल को समझने के लिए ऊंचाई, नीचाई की सही माप की, विभिन्न स्थानों के सही अक्षांश और देशांतर तय किए, हमारी वन संपदा और भूगर्भीय संपदा की तलाश की और उसका सही रूप, नाम, प्रकृति आदि का निर्धारण किया। प्राचीन कृतियों की खोज की, क्रम निर्धारण किया। अपनी ही प्राचीन लिपि पढ़ना तक हम भूल गए थे। हमारा वेदों से लेकर संस्कृत के समस्त वांग्मय पर केवल ब्राह्मणों का अधिकार था जिनमें से 99% ग्रंथों का नाम जानते थे परंतु उन्हें पढ़ना लिखना नहीं जानते थे। इसे सभी के लिए सुलभ कराने और इनके रहस्य बने हुए ज्ञान को सार्वजनिक करने का दायित्व भी उन्होंने निभाया। पुरातत्व हो या नृतत्व सभी के प्रति हम उदासीन थे।
आत्मानं विद्धि का मंत्र जपने वाले हम, ब्रह्म को तो जानते थे, पर अपनों को नहीं जानते थे, स्वयं अपने को नहीं जानते थे। भले यह उन्होंने अपने साम्राज्य के स्थायित्व के लिए सांस्कृतिक विजय के रूप में किया हो, इसके प्रति हमें सचेत रहने के साथ कृतज्ञ होना भी जरूरी है।
विलियम जॉन्स ने संस्कृत साहित्य के चुने हुए ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद करके भारत के प्राचीन ज्ञान और साहित्य के वैभव से पहली बार यूरोप को परिचित कराया जिस सिलसिले को आगे दूसरे विद्वानों ने जारी रखा। इससे यूरोप का दर्शन सौंदर्यशास्त्र, कविता, मूल्य व्यवस्था सभी पर, यहां तक कि, कुछ लोग दावा करते हैं, विज्ञान पर भी कितना गहरा असर पड़ा जो आज तक जारी है इसका परिचयात्मक विवरण देना भी, यहां उचित न होगा।
[1]… we must keep a middle course between a languid remissness, and over zealous activity, and that tree which you have planted, will produce fairer blossoms and more exquisite fruit, if it be not at first exposed to too great a glare of sunshine .( A Discourse of the Institution of Society, for instituting into the history, civil and natural, the antiquities, arts, sciences and literature of Asia.)
[2] Permit me now to add a few words on sciences, properly so named, in which must it be admitted that the Asiatics, if compared with our western nations, are mere children. (Second anniversary Discourse, 1785)
[3] When I reflect, indeed, the variety of subjects which have been discussed before you, concerning the history, laws, manners, arts, and antiquities of Asia, I am unable to decide whether my pleasure or my surprise be the greater; for I will not dissemble that your progress has far exceeded my expectations.
[4] With a view to avail ourselves of this disposition, and to bring their sciences under our inspection, it might be advisable to print and circulate a short memorial, in Persian and Hindi , setting forth, in a style accommodated to their own habits and prejudices, the design of our institutions; nor would it be impossible hereafter, to give a medal annually, with the inscriptions, in Persian on one side and on the reverse in Sanskrit, as a prize of merit, to the writer of the best essay or dissertation. To instruct others is the prescribed duty of the Brahmans, and if they be men of substance, without reward; but they would all be flattered with an honorary mark of distinction…. वही।
Post – 2019-11-11
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (23)
#भारत_की_खोज-चार
जिस चरण पर भारत का सामना यूरोपीय उपनिवेशवादियों से हो रहा था, अपनी संपन्नता के बावजूद हिंदुस्तान नि:सत्व हो चुका था। पूरा मध्यकाल युद्ध, कलह, लूट और उपद्रव का काल था। बाहरी तड़क-भड़क से भीतरी चरमराहट छिप भले जाय, पर गृहकलह से लेकर बाहरी कलह तक सर्वव्यापी बेचैनी थी। औरंगजेब को छोड़ कर सभी मुगल बादशाह नशेड़ी और झक्की थे। उनकी अय्याशी उनके तड़क-भड़क का हिस्सा थी।
केवल मुगल शासक ही थे जो अपना हरम ले कर समर में जाते थे। सभी दरबारी, सेनानी, सरदार और अमले इस व्याधि से पीड़ित थे। राजा के पास नाममात्र की सेना थी। सैन्यबल राजघराने से लेकर बाहर तक मे पाँच हजारियों, तीन हजारियों, दो हजारियों, और हजारियों में बँटा था, जिनको इनके निर्वाह के लिए जागीरें मिली हुई थीं, जिनमें उनकी मनमानी चलती थी।
मिल बाँट कर खाने के इस तरीके ने राज्य का आधार मजबूत किया था, परन्तु जनता का उत्पीड़न बढ़ गया था। पूरे मध्यकाल में जब आतंक के कारण सन्नाटा छाया हुआ इस पीड़ा को पूरी तल्खी से प्रकट करने वाला एक ही विद्रोही कवि है, तुलसीदास। यदि कोई अपवाद है तो नानक जिन्होंने बाबर की आलोचना की थी परन्तु रास्ता शांति, सद्भाव और अविरोध का चुना थ।
तुलसी का पूरा साहित्य विद्रोह का साहित्य है, तुलसी का रामचरित मानस आतंककारी रावणराज्य के विरुद्ध साधनहीन और प्रताडित जनों के विद्रोह का सांकेतिक आह्वान है। इसने राणाप्रताप को किसी तरह प्रभावित किया था या उनके विद्रोह ने इसको प्रभावित किया था, या नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है। परंतु इस दोहरे शासन पर उनका सीधा प्रहार – ‘दुसह दुराज दुकाल दुख’ और:
‘गोड़ गँवार नृपाल महि, यवन महा महिपाल।
साम न दाम न भेद कछु केवल दंड कराल ।।
फोरहिं सिल लोढ़ा सदन लागे अढुक पहाड़।
कायर, कूर, कपूत कलि, घर घर सहज डहार।।
वह मुगलकालीन दोहरी शासन प्रणाली को दुकाल या आपातकाल कहते हैं। सच तो यह है कि पूरा मध्यकाल शताब्दियों तक फैला आपातकाल था। जिसके सबसे राहत के दौर के रूप में अकबर के शासन काल को गिनाया जाता है। उसका हाल यह था।
परंतु उस काल ही आरंभ हुआ था यह दुहरा शासन।[1] तुलसी उसकी क्रूरता को चित्रित कर रहे थे। क्रूरता को कायरता बता रहे थे, क्योंकि पूरे दल बल से उनको सताया जा रहा था, जो अपना बचाव नहीं कर सकते। वह अपने समय के सामाजिक अंतर्दाह (डहार) को चित्रितकर रहे थे– घर घर सहज डहार। सामाजिक व्यथा को इतने मर्मभेदी और दोटूक स्वर में व्यक्त करने का साहस और शक्ति आज तक किसी दूसरे राजनीतिक कवि में न मिलेगी।
यह आपातकाल उग्रतर होता हुआ विपत्तिकाल का रूप लेता गया था – अकबर के समय में भूराजस्व था तिहाई, शाहजहाँ के समय तक दो तिहाई पर पहुँच गया था। औरंगजेब ने जजिया लगा दिया था। इसे भी शिवा जी ने एस पत्र में कायरतापूर्ण कदम कहा था (“TO OPPRESS ANTS AND FLIES IS FAR FROM DISPLAYING VALOUR”, Eraly, The Mughal Throne, 2004, p.402)।
अपने इसी पत्र में शिवा जी ने उसे याद दिलाया था:
But in your majesty’s reign many of your provinces and forts have gone out of your possession, and the rest will soon do so, too, because … your peasants are down-trodden, the yield of every village has declined, in the place of one lakh (of Rs) only one thousand and in the place of a thousand only ten are collected and that too with difficulty. When poverty and beggary have made their home in palaces of the Emperor and the princes, the condition of the grandees and the officers can easily be imagined.
औरंगजेब ने अपनी आँखों के सामने मुगल साम्राज्य को ध्वस्त होते देखा था। दुर्भाग्य से बाद में मराठों ने भी रास्ता वही अपनाया, इसलिए वे सही विकल्प न बन सके।
इससे समाज में जो व्यापक विक्षोभ था उसका लाभ अंग्रेजों को मिलना ही था। यह दूसरी बात है कि कंपनी ने मालगुजारी की दर पहले से भी अधिक बढ़ा दी। उद्योग-व्यवसाय को नष्ट कर दिया। जीविका के अपने स्रोताें से बंचित उत्पादकों (शूद्रों) की विशाल संख्या के साधनहीन होने पर खेती पर निर्भर करने वालों की संख्या और बढ़ गई। मध्यकाल में विलासिता पर होने वाला धन लौट-घूमकर किसी तरह अपने ही देश में काम आता था, अब वह विदेश चला जाता था।
अंग्रेजों ने आरंभ में मुगलों का ही अनुकरण किया था। उनके भुक्कड़पन का जो चित्र हम पहले दे आए हैं, उसकी तुलना यदि गिरावट के दौर में बहादुर शाह जफर के खानपान से करें जिसका जिक्र हम उससे भी पहले कर आए हैं उससे करें तो पता चलेगा वे गोरे मुगल बनना चाहते थे। असल में सत्ता पाने के साथ ही मुगलों की नकल करना आरंभ किया था। परंतु यहां हम ब्रिटिश शासन पर नहीं, उनके काम करने के तरीके पर बात कर रहे हैं ।
2
मुसलमान आक्रमणकारी जिन देशों से आए थे उनका ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में कोई विशेष स्थान न था, फिर भी वे कई मामलों में भारत के पढ़े लिखे लोगों से भी अधिक चालाक थे। उन्होंने अध्यापकों और किताबों से नहीं, अपनी समस्याओं और उनके समाधान के प्रयत्नों और प्रयोगों से अपनी शिक्षा ग्रहण की थी। वे भारत के विषय में जितनी अच्छी जानकारी रखते थे, वह भारतीयों के लिए संभव न थी। भारतीय अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए, अपने पवित्र क्षेत्र से बाहर जाने से घबराते थे । यदि चले गए तो वापस लौटने पर अपमान सहन करना पड़ता था। भारत बहुत लंबे समय से पवित्रता-जनित कारागार का बंदी था। कहानी लंबी है, तिकोनी है जिसका एक कोना ब्राह्मणवाद से जुड़ता है, दूसरा शिक्षाप्रणाली से, और तीसरा खतरा उठाने के साहस से। इनके विस्तार में नहीं जाएंगे।
यूरोप में राष्ट्रीयताएं अलग होने के बाद भी विज्ञान की स्रोत भाषा, ईसाइयत के जन्म से पहले से, एक होने के कारण, पूरे यूरोप में एक बौद्धिक साझेदारी थी और स्रोत की इस एकता के कारण पारस्परिक आदान प्रदान का बौद्धिक पर्यावरण तैयार हुआ था, जो भारत में संस्कृत के माध्यम से संभव हुआ था। पर वहाँ धर्मग्रंथ की भाषा हिब्रू, ज्ञान की भाषा लातिन और तकनीकी साझेदारी की भाषा, उनकी की राष्ट्रीय भाषाएँ थीं। आप स्वयं तुलना करके देखें, प्राचीन काल में भी इस दृष्टि से हमारी दशा बहुत अच्छी नहीं। यूरोप के लोग भारतीयों से अधिक धर्मभीरु थे, परंतु उन्होंने अपने अभ्युदय काल से पहले, अपने धर्म तंत्र से जीने मरने की लड़ाई लड़ी थी। ज्ञान के क्षेत्र में उनके बीच कई तरह की साझेदारियाँ भी थीं और अपनी विशिष्ट तकनीकी जानकारियां भी थी।
धर्मयुद्धों में उन्हें मात पर मात खानी पड़ी थी और उनसे ही उन्हें पूर्व की सभी क्षेत्रों में अग्रता का पता चला था। इसके बाद जानकारी बढ़ाने के लिए वे अपने शत्रुओं के भी शिष्य बन गए कि उन्हें आत्मसात करके, उन क्षेत्रों में अधिक से अधिक आगे बढ़ कर उन्हें परास्त कर सकें। उन्होने अपनी योग्यताओं को निरंतर बढ़ाया । अपनी प्राचीन ज्ञान संपदा का नए सिरे से अनुसंधान और समायोजन किया। जिस नौचालन में अरबों की अग्रता थी, उसमें इतने आगे बढ़ गए कि अरब नौचालन के नक्शे से गायब हो गए।
यह यूरोप का नहीं ईसाई साम्राज्य का इस्लाम को परास्त करने का आवेग था जिसने अपने आप से लड़ने और सत्य को विश्वास से ऊपर रखने के नए साहस का संचार किया जो नवजागरण के रूप में सामने आया। इसने जो ऊर्जा पैदा की उससे सभी देश, सभी क्षेत्रों में अरबों को, जो एक छोटी सी अवधि के लिए पहले शिखर पर था, मात दी कि वह शिफर बनने के ढलान की ओर बढ़ चला।
इतना बड़ा मुगल साम्राज्य जिसका हर एक शासक अपने को विश्व का शासक (जहाँगीर, शाहजहाँ, आलमगीर) मानता था वे सभी पुर्तगालियों की नौशक्ति से डरते थे, क्योंकि नौचालन में अरबों की अग्रता के बाद भी अपनी नौशक्ति का विकास नहीं कर सके।
कंपनी ने भारत को जीता नहीं, अपने चरम वैभव काल में ही दुनिया से अनजान रह कर वे अपना सत्व खो चुके थे। विदेशी कंपनियाँ उन्हें चुनौती देती हुई अपने लिए करों की विशेष रियायतों का दावा करती थीं और उन्हें देना भी पड़ता था, शक्ति संतुलन तभी से बदलने लगा था। उनमें सभी को विश्वास था कि वे एक पिछड़े, पर शक्तिशाली, राज्य में अपनी श्रेष्ठता के साथ जगह बना रहे हैं।
इतिहास घटित पहले होता है लिखा बाद में जाता है। वह इतिहास बहुत पहले घटित हो चुका था जो दिल्ली विजय के साथ लिखा गया। इस श्रेष्ठता और विजयगाथा को ज्वलंत अक्षरों में सांस्कृतिक विजय के क्रम में अंकित किया गया। यह भारत में छिपे हुए भारत की अंतरात्मा की खोज थी जिसे खोजना भी था और जिस पर अधिकार भी करना था।
Post – 2019-11-09
न तुमको मानते ‘गर हम, तो अपना सर गँवा देते।
तुम्हें जो मान बैठा, तुम कहो, उसका करें हम क्या।।
Post – 2019-11-09
खुश रहो, याद बाद में करना
यह जनाजा भी तुम्हारा ही था।
Post – 2019-11-09
भला भगवान का हो खुल के दिल की बात कहता है
बुरा उनका जो अब भगवान को भगवान कहते हैं।।
इत्यलम्।
Post – 2019-11-09
जंग खुद से थी, जीत क्यों होती
हारना तय तो पर तरह से था।।
Post – 2019-11-09
मतलब है इसका सीधा कुछ आज न कर पाया
यह भेद अगर जानो तो चीख पड़ोगे तुम।।
Post – 2019-11-09
यह नाम जिसने रक्खा जन्नत उसे मुबारक
हमनाम पास आए तो चीख पड़ोगे तुम।।