Post – 2018-07-11

#तुकबन्दियाँ

किया कुछ भी नहीं पर देखिए तो
कई किस्से हमारे नाम से हैं।

Post – 2018-07-11

#तुकबन्दियाँ

उस बुत को खुदा कहना मुमकिन तो न था पहले
रोबो के जमाने में अब क्या नहीं होना है।

Post – 2018-07-10

#आइए_शब्दों_से_खेलें (18)

कंधा
गर्दन के ठीक नीचे जो भाग है उसके लिए हम कंधे का प्रयोग करते हैं। यह कुछ विचित्र प्रयोग है और कहें तो विचित्र है भी नहीं।

विचित्र इस अर्थ में जानवरों के मामले में हम गर्दन को ही कंधा कहते हैं। मनुष्य के मामले में स्थान बदल जाता है। इसका कारण यह है कि बोझ ढोने या खीचने के लिए गाड़ी या हल आदि में जुए का भार जानवरों की गर्दन पर डाला जाता है और मनुष्य के मामले मे गर्दन के ठीक नीचे के दोनों फैले भागों पर। इससे और कुछ नहीं तो यह तो स्पष्ट हो ही जाता है जो भार ढोता है उसे कंधा कहते हैं। जिन जानवरों का भारवहन के लिए प्रयोग नहीं किया जाता उनकी गर्दन को कंधा नहीं, गर्दन ही कहा जाता है। कंधे के लिए संस्कृत में जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसके तीन रूप हैं एक है स्कंभ, दूसरा स्तंभ और तीसरा स्कन्ध।

आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीळे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ ।।10.5.6
दिवो य स्कम्भो धरुणः स्वातत आपूर्णाे अंशुः पर्येति विश्वतः । 9.74.2
महीं चिद्द्यामातनोत्सूर्येण चास्कम्भ चित कम्भनेन स्कभीयान् ।। 10.111.5

ऋग्वेद में स्तंभ का प्रयोग नहीं हुआ है और स्कंध का प्रयोग केवल एक बारः
अहन् वृत्रं तरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन ।
स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाऽहिः शयत उपपृक् पृथिव्याः ।। 1.32.5

भार लादने के दो तरीके हैं। एक नीचे से खंभा गाड़ देना और उस पर बोझ टांग देना। यह पेड़ के तने की अनुकृति है। दूसरा है दीवार आदि में खूटी या खूँटा गाड़ना और भार को उस पर टांगना। इसे हम वृक्ष की शाखा की अनुकृति मान सकते थे, परंतु संस्कृत में इसके लिए नागदंत- हाथी के बाहरी दांत- शब्द का प्रयोग होता है। पहले मैं सोचता था आरंभ में खूंटी के लिए कुछ भवनों में हाथीदांत का प्रयोग किया गया होगा। सोच कर हैरान भी होता था और दूसरा कोई उपाय सूझता नहीं था। पर नागदंत आगे की ओर निकला होता है और उसी के अनुकरण पर ऐसी खूंटी गाड़ने को नाग दंत की संज्ञा दी गई। खूँंटा हो या ऐसा खंभा अथवा नागदंत, इनके लिए एक और शब्द का प्रयोग होता है, स्थाणु, अर्थात् जिस पर कोई चीज टिकाई जा सके। स्थाणु का पुराना रूप स्थूण है। ऋग्वेद में इसी का प्रयोग हुआ हैः
सहस्रस्थूण आसाते ।। 2.41.5
हिरण्यरूपमुषसो व्युष्टावयःस्थूणमुदिता सूर्यस्य ।… 5.62.8

नाग दंत को छोड़कर संस्कृत मैं जितने भी शब्द है उनके आदि में हलंत ‘स’ जुड़ा हुआ है। यह देववाणी में संभव न था। अतः हम इन्हें या तो सारस्वत क्षेत्र की उद्भावना कह सकते हैं, अथवा देववाणी में चलने वाले शब्द का संस्कृतीकरण।

हम पाते हैं की स्तंभ की मूल संकल्पना बहुत पुरानी है। इन संस्कृत शब्दों के आद्य स्-कार को हटाकर जो रूप बनता है उसे हम देववाणी का शब्द मान सकते हैं अथवा उसके सबसे निकट होने की कल्पना कर सकते हैं।

ऐसी दशा में यदि देववाणी से होकर ये शब्द सारस्वत क्षेत्र में पहुंचें होंगे तो उनका रूप असवर्ण संयोग से भी मुक्त रहा होगा। अब जो रूप बनते हैं वे है, कँध, कँभ, तँभ, थूँण। परंतु ‘ण’ की ध्वनि भी देववाणी में संभव न थी इसलिए हम उसे नकार में बदलने की छूट ले सकते हैं। जो शब्द निकल कर आता है वह है थून जिसका अमहत रूप थूनी या थुन्ही भोजपुरी में आज भी प्रयोग में आता है। कान्ह या काँह, कहाँर ,भोजपुरी में आज भी प्रयोग में आता है। कहार जाति में पैदा होने वाले कुछ बच्चे अपने नाम का संस्कृतीकरण करके स्कंधधार कहते हैं। ऐसा एक छात्र मेरा सहपाठी भी था, जबकि अपनी इस जांच में हम पाते हैं कि काँध और कहांर तत्सम है और उनका संस्कृत प्रतिरूप तद्भव अर्थात सचेत या अचेत रूप में बनाया या बिगड़ा हुआ रूप। देववाणी में कँभ रूप भी प्रचलित था। काँवर और कांवरिया उसी से बने रूप हैं। परन्तु यह मूलतः खँभ रहा लगता है जो खम्हा, खम्हिया, मलखंभ आदि में सुरक्षित है।

अपनी समीक्षा में है हम पाते हैं हमारे अंगो का नाम अधिकतर उनके काम के आधार पर पड़ा है। देखने वाला अंग, सुनने वाला अंग, खाने वाला अंग, रस लेने वाला अंग, सांस लेने वाला अंग, ढकने वाली हड्डी, काटने वाली हड्डी, चबाने वाली हड्डी, पकड़ा जाने वाला अंग, और अब भार ढोने वाला अर्थात् हमारा कंधा। इस रूप में हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा क्रिया पर अधिक बल देती है, रूप पर कम। इसका कारण यह है कि रूप के पास न ध्वनि है, न अपने प्रभेदों के लिए शब्द गढ़ सकता है। इसलिए जहां ऐसा प्रयत्न हुआ है वहां केवल कांति चमक का पता चलता है, रंग तक का पता नहीं चलता।

एक दूसरा पक्ष जो विषय से कुछ हटकर तो है परंतु जरूरी बहुत है इसलिए चर्चा से बाहर आ जाए यह ठीक नहीं होगा यह है देववाणी के बहुत से अधिक सटीक शब्दों का संस्कृत में स्थान न बना पाना। उदाहरण के लिए गज, हस्ती, करी आदि बहुत भ्रामक शब्द हाथी के लिए प्रयोग में आते हैं। गज का अर्थ है चलने वाला, अन्य दोनों शब्दों का अर्थ है हाथ वाला । हस्ती देववाणी का शब्द नहीं हो सकता। गज के विषय में हम यही आपत्ति नहीं उठा सकते। परंतु नागादंत से ऐसा लगता है कि एक समय में यह हाथी के लिए अधिक लोकप्रिय शब्द था। नग पहाड़ और उसके अनुरूप आकार वाला जीव, नाग। यह सामान्य व्यवहार से लगभग लुप्त हो गया, अथवा साँप के लिए प्रयोग में आने लगा, जिसका तर्क हमारी समझ में नहीं आता।

कंधे के लिए संस्कृत का दूसरा शब्द है अंस। ऋग्वेद में इसका कई बार प्रयोग हुआ है
ये अंसत्रा य ऋधग्रोदसी ये विभ्वो नरः स्वपत्यानि चक्रुः ।। 4.34.9
अंसेषु व ऋष्टयः पत्सु खादयो वक्षस्सु रुक्मा मरुतो रथे शुभः ।….5.54.11
अंसेष्वा मरुतः खादयो वो वक्षःसु रुक्मा उपशिश्रियाणाः ।
वि विद्युतो न वृष्टिभी रुचाना अनु स्वधामायुधैर्यच्छमानाः ।। 7.56.13

परन्तु इसके नाकरण का तर्क अभी तक हमारे सामने स्पष्ट नहीं है।

गुनश्चः
अंस का आशय रात हमारी समझ में नहीं आ रहा था। अब यह कह सकते हैं कि यह शब्द भी देववाणी का है। यह कंधे का कुछ दबा हुआ हिस्सा है जहाँ कोई बोझ लटकाना हो ताे उसका फन्दा रहता है जिससे वह बगल की ओर सरकने नहीं पाता। देववाणी में संभवतः इसे हंस कहा जाता था। हमारे ऐसा सोचने का आधार यह है कि इससे सटी जो दो अर्धचन्द्राकार अस्थियां होती हैं उन्हें भोजपुरी में ‘हँसुली’ कहते हैं। इसी के कारण गले के एक आभूषण का नाम हँसुली कहते हैं। अंस का शाब्दिक अर्थ मांसल था। इसी का प्रयोग याज्ञवल्क्य ने शतपथ ब्राह्मण ने ‘अंसलो वा स्यात्’, (यदि मांसल हो तो) किया है। ऋग्वेद में इसका हवाला केवल मरुतों के ऋष्टि रखने के सन्दर्भ में हुआ है। ऋष्टि को सायण ने एक हथियार माना है जो गलत है, अब हम कुछ विश्वास से कह सकते हैं कि यह गले का एक आभूषण था।
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Post – 2018-07-10

#तुकबन्दियाँ

ठीक कहते हो, बड़ी चूक हुई है वर्ना
बादलों ने न मुंबई को डुबाया होता।

Post – 2018-07-10

#तुकबन्दियाँ

आग भगवान शबो-रोज लगाता ही रहा
काश, पानी को कभी हाथ लगाया होता!

Post – 2018-07-10

#तुकबन्दियाँ

तुम्हें मनाने को हरचन्द जान देते रहे
काश, तुमने भी कभी प्यार से देखा होता!

Post – 2018-07-10

#तुकबन्दियाँ

जंग में तो मौत होती है हमें भी यह पता था,
हम उधर से लड़ रहे थे, क्यों इधर मारे गए?

Post – 2018-07-09

#आइए_ शब्दों_से_ खेलें(17)
(पोस्ट लंबी है इसलिए दो भागों में बांट दिया है। इन्हें दो बार में पढ़ें।)

धड़ के बारे में कुछ कहने से पहले हम वस्तु सत्य और भाव सत्य के बीच के संबंधों पर चर्चा कर लेंः

गले पर चर्चा करते समय भोजपुरी के एक शब्द की चर्चा करना भूल गए थे। इसका प्रयोग आक्रोश में प्रतिपक्षी को धमकाने के लिए किया जाता है। यह है ‘टेंटुआ’, इसको दबाने की धमकियां तो सुनी है पर किसी को दबाते नहीं देखा। ‘टेंटुआ’ का सामान्य अर्थ है गर्दन, सच कहूं तो कंठ, और विशेष अर्थ है वाग्तंत्र। ‘टें’ तोते की आवाज की अनुकृति है। ‘टें बोल जाना’ तोते की गर्दन मरोड़ने के बादके बाद उसकी आवाज का सदा के लिए खत्म हो जाना, अर्थात् मर जाना है। कंठनली को दबाने पर श्वासावरोध के कारण मनुष्य के प्राण चले जाने, मौत के साथ आवाज सदा के लिए बंद होने का व्यंग्भरा मुहावरा है यह।

अब हम गले के संदर्भ में पिछड़ी चर्चा पर आएँ। ‘कंकड़ के ‘कंक’ पर ध्यान दें। आपको पता है की कंक का अर्थ हड्डी होता है। यह शरीर का पत्थर होता है। हमारा मांस मिट्टी या मृदा है। यदि इसे हड्डी का सहारा न मिले तो इसकी गति क्या होगी इसे अकशेरुकी प्राणियों की नियति को देखकर समझा जा सकता है।

इससे पहले कभी इस ओर ध्यान नहीं गया था कि पहाड़ों को भूधर क्यों कहते हैं। यदि पहाड़ और चट्टानों का सहारा न रहे तो मिट्टी की धरती पानी में गर्ल कर नीचे धंस जाए। ऐसा लगता है कि पर्वत की भूधर के रूप में कल्पना कंकाल के सादृश्य और हड्डी के हर्याय के रूह में कंक के अपनाए जाने के बाद की है। पहाड़ धरती को उसी तरह सहारा दिए हुए हैं जैसे कंकाल हमारी काया को, इस सूझ की पुष्टि उसे अपने अनुभव से भी हुआ होगा। पहाड़ों पर मिट्टी के नीचे पत्थर के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, पानी के कुआं खोदते समय कभी कभी नीचे लकंकड़़ या पत्थर की तह मिलती है और कुछ क्षेत्रों में तो यह सामान्य नियम है। उसे इस विषय में दुविधा का कोई कारण नहीं था कि धरती को पहाड़ों में संभाल रखा है । हाड़ और प-हाड़ के बीच भी मुझे कोई साम्य पहले दिखाई ही न दिया था।

कंकाल के लिए एक अन्य शब्द का प्रयोग होता है। वह है ‘अस्थिपंजर’। यह शब्द कंकाल से बहुत बाद का है इसके पीछे जीव और आत्मा की अवधारणा का हाथ है, इसलिए हम मान सकते हैं कि कंकाल अस्थिपंजर से अधिक प्राचीन और हाड़ (हड्डी) उससे भी पुराना और यथार्थ के अधिक निकट पढ़ने वाला शब्द है।

आपने ‘कंगाल’ शब्द का प्रयोग किया भी होगा और इसे दूसरों से सुना और पढ़ा भी होगा, परंतु क्या आपने इस बात पर भी ध्यान दिया यह शब्द अन्न के अभाव की उस पराकाष्ठा का द्योतक है जिसमें मनुष्य हड्डी का ढांचा मात्र रह जाता है। कंगाल शब्द सुनने पर अभाव की और हमारा ध्यान जाता है, परंतु इस संज्ञा से जुड़ी लंबी यातना की ओर नहीं जा पाता जबकि हमें ऐसी काया का यदाकदा दर्शन हो जाता है।

हमारी छाती के लिए ‘वक्ष’ शब्द का प्रयोग होता है। इसके दो अर्थ है, एक है वृक्ष और दूसरा पिटारी जो अंग्रेजी के बॉक्स अर्थात चेस्ट के अधिक निकट है।

वृक्ष की अवधारणा पुनः जीव और आत्मा के कारण विकसित हुई। आपने एक पेड़ दो पंछी बैठे वाली कविता सुनी होगी। यह ऋग्वेद से आज तक अलग-अलग रूपों में विभिन्न भाषाओं में बार बार दोहराई जाती रही। इसका इतिहास ऋग्वेद से कितना पीछे जाता है यह हमें भी नहीं मालूम। मैंने इस पर पहले जो कुछ लिखा है उसे आप में से कुछ ने पढ़ा होगा फिर भी उसे सर्वजनहिताय उस ऋचा को दोहराना ठीक रहेगाः
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति अनश्नन् अन्यो अभि चाकशीति ।। 1.164.20

(सुंदर पंखों वाले परस्पर जुड़े हुए, एक दूजे का साथ देने वाले, दो पक्षी एक ही वृक्ष पर निवास करते हैं। इन में से एक इसके मधुर फल खाता है और दूसरा बिना किसी तरह का स्वाद ग्रहण किए, चारों ओर निहारता रहता है।

वृक्ष के लिए ‘वन’ का प्रयोग होता है। वन अर्थ पूरा जंगल भी होता है। कहते हैं वन को यह संज्ञा इस आधार पर मिली है कि इसे काटा जाता है। जाहिर है कि यह संज्ञा जंगल को अपने प्रयोजन में बाधक मानकर इसे काट कर खेती करने वालों ने दी होगी। वन शब्द संभवत है जीव और आत्मा की अवधारणा के विकास से पहले अस्तित्व में आ गया होगा।

वृक्ष के वन बन जाने के कारण कई बार आत्मा और जीव के लिए वन में विचरण करते एक ही काया से निकली दो गर्दनों वाले हिरन का सादृश्य कुछ लोगों को अधिक ठीक लगा होगा। इसमें आत्मा की ओर से निर्देश दिया गया है कि जीव संसार का भोग विवेकपूर्वक, अनासक्त भाव से, करे, अन्यथा आसक्ति के कारण वह उनके बंधन में पड़ जाएगा और उस दशा में वह मुक्त नहीं हो पाएगा। कबीर दास के एक पद में इसी को हिरना समुझि समुझि बन चरना, के रूप में दोहराया गया है।

हड़प्पा की एक सील पर इसका चित्रण पीपल के पेड़ पर बैठे परस्पर एक ही धड़ से निकले हुए दो लंबी गर्दन वाले पक्षियों का अंकन है जिनका मुख हिरण जैसा बना दिया गया है।

(2)

आत्मा और मन दोनों का निवास हृदय में कल्पित करने के कारण और हृदय को निर्मल जलाशय के रूप में कल्पित करने के कारण आत्मा को कई बार मन के सरोवर, अर्थात् मानसरोवर में, नीर-क्षीर विवेक के साथ केवल क्षीर का सेवन करनेवाला हंस कहा जाता है। क्षीर से भी पूरी तरह संतुष्ट न होने के कारण मानस सरोवर में मुक्ता के पैदा होने और हंस द्वारा वह मुक्ता ही सेवन की बात की गई है। यह, अपने नाम के अनुरूप, उसे मुक्ति प्रदान करता है। मृत्यु को हंस के उड़ जाने के रूप में कल्पित किया गया है। मोती चुगने वाले हंस को अनासक्त संत तथा परमहंस को परम संत के रूप में कल्पित किया गयो।

हमने इसकी इतने विस्तार से चर्चा इसलिए कि यह स्पष्ट हो सके कि हमारे वक्ष को लेकर कितनी तरह की कल्पनाएं की जाती रही है । इसका मतलब यह नहीं कि जो इस तरह की उड़ानें भरते रहे उन्हे ह्रदय की रचना के बारे में कुछ पता नहीं था, अपितु यह कि हमारे यहां भाव जगत है और वस्तु जगत के बीच में एक काल्पनिक भेद रेखा बनी रही है। इसमें वस्तुवादी ज्ञान से प्रभावित हुए बिना अपनी एक अलग अन्तर्दगत की रचना की गई जिसमें अलग तरह के स्नायुतन्त्र – इंड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, कुंडलिनी और सहस्रार चक्र और अन्तः वाद्य की कल्पना की जाती है और उन्हें शरीर की वास्तविक संरचना से किसी तरह कम विश्वसनीय न मानते हुए तंत्र साधना की जाती रही है और यह दावा किया जाता रहा है कि इससे असाधारण सिद्धियां हासिल की जाती हैं। इनके बारे में हम जातीय रुप में विश्वास तो करते हैं परंतु उनके जो नमूने देखने जाते हैं वे ढोंगियों की पहचान से जुड़ जाते हैं।

हमारे मनोभाव भी इससे प्रभावित हुए हैं। आह्लाद, यदि पानी के उमड़ आने, उल्लास पानी के उछाल मारने, विह्वलता पानी मे उत्पन्न विक्षोभ, प्रेम स्नेह, जी भर जाने, आवेग उमड़ने, आदि मुहावरों से हम समझ सकते हैं कि हमारी भावनाओं के पीछे ह्रदय की कैसी कल्पना रही है।

हृदय का चित्र भाव परिवर्तन के साथ बदलकर पत्थर के फलक जैसा हो जाता है। यह कल्पना भी कम से कम ऋग्वेद काल से तो चली ही आ रही हैः
वि पूषन्नारया तुद पणेरिच्छ हृदि प्रियम् ।
अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.6
आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे ।
अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.7
यां पूषन् ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्षि आघृणे ।
तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ।। 6.53.8

ज्ञान व्यवस्था और भाव व्यवस्था के इस अंतर को समझने में प्रायः चूक की जाती है। कई बार भाव व्यवस्था से उदाहरण देकर यह सिद्ध किया जाता है कि समाज के ज्ञान का स्तर भी यही था। इसके कारण भारतीय अतीत को ही नहीं वर्तमान को भी समझने में अनुदारता बरती जाती है। ज्योतिष विद्या का जानकार भी जो गणित के आधार पर यह तय कर सकता है कि अगले ग्रहण कब कब आएंगे और उनका रूप क्या होगा उसे सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के विषय में पुरानी कहानियों को चुपचाप मानने या उन के आधार पर कुछ विधियों और वर्जनाओं का निर्वाह करते देख कर लोग चकित हो जाते हैं परंतु इस बात पर चकित नहीं होते कि कम से कम सौ साल से यह पता चलने के बाद कि चंद्रमा धरती की तुलना में निहायत कुरूप, खड्हों से भरा हुआ और मनुष्य के लिए सभी दृष्टियों से अनाकर्षक ग्रह है जिससे सूर्य की किरणें टकरा कर आती हैं, चांद में बैठी बुढ़िया की कहानियां सुनाते, या किसी सुंदरी के मुंह की तुलना चांद से करते देख कर हमें कोई नासमझ नहीं कहता । हममें यह विवेक होना चाहिए कि कौन सी बात है हमारे भाव जगत से संबंध रखती हैं और कौन ज्ञान जगत से इनमें से किसी से वंचित हो जाने पर हम पंगु हो जाएंगे,यह पंगुता हमारे अवचेतन से जुड़ी हो तो भी विभिन्न प्रकार की मानसिक विकृतियों के रूप में प्रकट हो सकती है और बौद्धिक अक्षमता और सही निर्णय लेने में घबराहट से।
जहां तक शारीरिक संरचना की बात है हमारे लिए यह संतोष की बात है कि, जादू-टोने के प्रसंग में ही सही, शरीर के आंतरिक अंगों का ऋग्वेद से जैसा परिचय मिल जाता है वैसा, हजारों साल बाद भी, अन्य देशों की ऐसी ही कृतियों में नहीं मिलताः
अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि ।
यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्कात् ज्जिह्वया वि वृहामि ते ।। 10.163.1
ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्यः कीकसाभ्यो अनूक्यात् ।
यक्ष्मं दोषण्यमंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते ।। 10.163.2
आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोर्हृदयादधि ।
यक्ष्मं मतस्नाभ्यां यक्नो प्लाशिभ्यो वि वृहामि ते ।। 10.163.3
ऊरुभ्यां ते अष्ठीवद्भ्यां पाष्र्णिभ्यां प्रपदाभ्या ।
यक्ष्मं श्रोणिभ्यां भासदाद्भंससो वि वृहामि ते ।। 10.163.4
मेहनाद्वनंकरणाल्लोमभ्यस्ते नखेभ्यः ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ।। 10.163.5
अङ्गादङ्गाल्लोम्नो-लोम्नो जातं पर्वणि-पर्वणि ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ।। 10.163.6
हम इनकी व्याख्या करने नहीं जाएंगे। सामान्य से सामान्य पाठक भी, कम से कम, उन अंगों का नाम तो जान ही सकता है जिनकी पहचान उनको थी।

Post – 2018-07-09

#तुकबन्दियाँ

खुदा वहाँ भी मिला, दाग-दाग था चेहरा
‘कितने पत्थर पड़े?’
बोला, ‘कोई हिसाब नहीं।’

Post – 2018-07-08

#आइए_शब्दों_से_खेलें (16)

गला
गला को भोजपुरी में गंटई कहते है। गला हो या गट्टा हो, दोनो एक ही क्रिया से जुड़े हैं। कुछ बनाने के लिए गढ़ना, काटना। कल् और गल् जल की ध्वनियां हैं जिनसे पानी और पानी से जुड़े अनेक शब्द बने हैं,(कल- पानी, मन की शान्ति, कलिल-कीचड़, कलश- जलपात्र, कलेवा -पनपिआव>बां जोलखोवा, हिं. जलपान, आदि। गल, गलना, ग्लानि, गलका/ झलका= आबला – फफोला, जिसमें पानी भर आता है, परन्तु यह कल,गल और कट पाषाणी शिल्प की देन है और इसका स्रोत पत्थर के औजार/हथियार बनाने के क्रम में इसके टूटने की आवाज है। इनकी विकासयात्रा निम्नप्रकार हैः

(क) कड़/खड़/गड़/घड़ = १. कंकड़ या पत्थर के एक दूसरे से टकराने (टक-र-आने) या रगड (र-गड़) खाने की क्रिया (क्रिया)। २. इस क्रिया से उत्पन्न ध्वनि (क्रियाविशेषण । २. कंकड़ !(कं-कड ), पत्थर (संज्ञा)। ३. कंकड़ या पत्थर के गुण या भाव (कडक/कड़ाके की, कड़ा/कड़ी, खड़ > खड़ा, गड़>गढ़ा ड़कड़ाके का (विशेषण, क्रिया वि.)। ४. कड़ कड, खड़ खड़ आदि (क्रिया वि.)।

(ख) ड़ >ळ>र/ल में परिवर्तन जो ध्वनिनियमों से परिचालित प्रतीत होगा, परन्तु यह दो भाषाई समुदायों की अपनी ध्वनिसीमाओं के कारण है न कि भाषा के अपने आन्तरिक नियम से होने वाला परिवर्तन। मैथिली में र और ड़ को लेकर खासी गड़बड़ी पाइ जाती है, इन विभाषी ध्वनियों के प्रयतनसाध्य उच्चारण में अकसर उलट-पलट हो जाता हैः घोरा सरक पर सड़ सड़ दौर रहा था।

(ग) कट, खट, गट एक ही आघात से कटने टूटने की ध्वनि है।

यहां ध्यान देते चलें कि ये ध्वनियांं कंकड़ या पत्थर को काटने और तोड़ने के क्रम में उत्पन्न होती हैं इसलिए एक ओर पहाड़ या कंकड़, उसकी संहति, सादृश्य आदि से संबंधित वस्तुओं के लिए प्रयोग मे आती है तो दूसरी ओर उस क्रिया की अन्य परिणतियों के लिए। आज से पचास साल पहले जब मैं स्थान नामों का अध्ययन कर रहा था मुझे यह देखकर आश्चर्य होता था कि जिस मूल से खड़- पहाड, खड़ा का संबंध है उसी से खड्ड और खाड़ी का कैसे हो सकता है। गढ़ पहाड़ है तो सुरक्षा के लिए कृत्रिम पहाड़ जैसे प्राचीर वाले दुर्ग के लिए इसका प्रयोग तो उचित है, पर गड्ढे के लिेए कैसे हो सकता है। तब तक मैं आचार्योंं द्वारा की गई लक्षणा की परिभाषा से भी परिचित नहीं था जिसमें फ्रायड के स्वप्नतंत्र की से शताब्दियों पहले बताया गया था कि अभिधेय से समीपता, सादृश्य, सामूहिकता, वैपरीत्य, या क्रिया के योग के संबंध लाक्षणिक संबंध है।
अभिधेयेन सामीप्यात् सारूप्यात् समवायतः।
वैपरीत्यात् क्रियायोगात् लक्षणा पंचधा मता।
जाग्रत अवस्था में दिवास्वप्न और कल्पना में और निद्रा में स्वप्नतंत्र में हम इसी लाक्षणिक सूत्र से निदेशित होते हैं।

हमारे अंग न केवल हमारे धड़ – कमर से लेकर कंधे तक के भाग – से जुड़े माने जाते हैं, शिल्पकार मूर्तिनिर्माण में इनको अलग से बना कर इस तरह जोड़ते रहे हैं कि खंडित मूर्तियों को देखे बिना इसका भ्रम तक नहीं हो सकता। इन्हें जोड़ के रूप में ही अभिहित भी किया गया है। इन्हीं जोड़ों में एक जोड़ सिर को धड़ से जोड़ता है जिसे गला या गटई – जोड़, की संज्ञा मिली है। दूसरा जोड़ पांवों को धड़ से जोड़ता है जिसे कटि=जोड़ संज्ञा मिली है। कल्ला, कलाई, गट्टा सभी का अर्थ जोड़ है। जोड़ के दूसरे स्थलों पर यथा प्रसंग चर्चा करेंगे, परन्तु गले का जो नाम संस्कृत में ऋग्वेद से लेकर बाद तक के साहित्य में मिलता है वह है ग्रीवा, अर्थात वह जिसे पकड़ा जा सके। संभव है कुछ लोग अर्थ समझाने के लिए ही दूसरों की गर्दन पकड़ते ही नहीं मरोड़ते भी रहते है। सिर काटने का या बांध कर लाचार बनाने का भी सबसे सही स्थान यही है। गले के कंठ का अर्थ भी गांठ है।