Post – 2016-08-10

निदान – 16
भारतीय मार्क्‍सवाद की अधोगति

”तुमने एक बार आदर्श झाड़ते हुए कहा था, अपने बारे में या अपने से जुड़ी किसी चीज के बारे में प्रशंसात्‍मक बात नहीं करनी चाहिए। यह शिष्‍टाचार के विपरीत है, और कल तुम कह रहे थे हम अकेले हैं जो आत्‍मविजय की बात करते हैं जब कि दूसरे विश्‍वविजय की बात करते हैं, तुम आत्‍मविरुद नहीं गा रहे थे?”

”समझ का अन्‍तर है, इसीलिए कहा था, आगे की बात को समझने के लिए कम से कम एक दिन का समय तो तुम्‍हें उसे पचाने के लिए चाहिए ही। उसे पचाए बिना आगे की बात समझ नहीं पाओगे। तुमको तो यह भी याद न होगा कि हिन्‍दू होने पर मुझे न तो गर्व है न खेद, क्‍योंकि यह मेरा चुनाव नहीं है, एक हिन्‍दू परिवार में पैदा हुआ हूँ जैसे दूसरे दूसरे धर्म वाले परिवारों में। मैंने यह भी याद दिलाया था कि हमारा कर्तव्‍य है हम दूसरों की कमियां गिनाने की जगह अपनी कमियाँ दूर करें। तुम्‍हारी सोच यह है कि भले हमारी कमियां कितनी भी नगण्‍य हों हम उसको छोड़ कर और कुछ देखेंगे ही नहीं, इसलिए अपने को, और अपने पूरे समुदाय में सिर्फ अपने को महान सिद्ध करने के उनको इतना भयावह, इतना जघन्‍य बताते रहेंगे जिससे सिद्ध हो कि मुझको छोड़ कर, हमारा समाज दुनिया का सबसे गर्हित समाज है। यही किया है न तुमने।”

वह हत्‍प्रभ नहीं हुआ, ”तुम जिन सामीधर्मो से चिढ़ कर उनके ही तौर तरीकों को अपनाते हुए हिन्‍दुत्‍व को एक सामी धर्म बनाना चाहते हो, उस खतरे को भांप कर हम तुम्‍हें उधर जाने से रोकते हैं। हम अपने देश और समाज की तुमसे अधिक अच्‍छी सेवा करते आए हैं और करते रहना चाहते हैं। यही हमारी उपयोगिता रह गई।”

”और यह सब तुम उन्‍हीं सामी धर्मों के साथ मिल कर करते हो, उनकी गोद में बैठ कर, इस सेवा का फल चखते हुए और यह फल भी तुम्‍हें उन्‍हीं की योजना और पहल से मिलता है। हिन्‍दुत्‍व को सुधारने में तुमसे अधिक वलिदान वे कर रहे हैं, क्‍योंकि वे जो कुछ खुद बनता है वह तो करते ही है, जो उनसे संभव नहीं वह तुमसे कराते हैं। तुम क्‍या उनके पालतू नही बन चुके हो? तुम हित करने की सोचोगे तो उससे भी अधिक अहित करोगे, जो वे करते आए हैं और करना चाहते हैं। क्‍योंकि उनकी खाकर तुम इकबालिया बयान देने लगते हों अपने समाज की व्‍यर्थता, कदर्थता और मरणासन्‍नता का । यह काम उनके वश का नहीं है, या वे करते हैं तो अविश्‍वसनीय लगते हैं। यही कारण कारण है कि जब मैंने हिसाब मात्र दिया कि अमुक मूल्‍यवान निधि हमारे पास ही बची रह गई और इसकी आज के संसार को सबसे अधिक जरूरत है, तो तुमको इसमें भी आत्‍मश्‍लाघा दिखाई देने लगी। तथ्‍य आत्‍मश्‍लाघा नहीं होता, मैं कहूं मैं लेखक हूं जब कि दूसरे बहुत से लाेग लेखक नहीं हैं, तो तुम्‍हारी परिभाषा से यह आत्‍मश्‍लाघा हो जाएगी जब कि मैं अपने पेशे का परिचय दे रहा हूँ। तुम्‍हारा एक मात्र प्रयत्‍न अपने ही देश और समाज के मनोबल को गिराना रहा है या नही ? तुम दूसरों के हाथ बिके रहे हो या नही ? बिका हुआ आदमी क्‍या उन लोगों का प्रतिनिधित्‍व कर सकता है जिसको वह लगातार निशाना बना रहा हो उनके साथ मिल कर जो इसे मिटा देना चाहते हैं ?”

पुरानी आदत है। ऐसे मौकों पर वह सर खुजलाने लगता है, आज भी खुजलाने लगा। मैंने झिड़क दिया, ”ऐसा मत किया कर यार, इससे तेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, देखने वाले सोचेंगे तेरी घरवाली के सिर में जूएं पड़ गई हैं।”

वह घबरा गया । मैंने उसे समझाने प्रयत्‍न किया, ” देखो, हम किसी काम से या खुराफात से जो हासिल करना चाहते हैं अस्‍सह प्रतिशत मामलों में होता ठीक उन्‍टा है। तुम लोगों ने इसी इरादे से हमारा इतिहास लिखा, लिखा कहना भी गलत है, तुम्‍हें गोद में बैठा कर तुम्‍हें गुलगुले खिलाते हुए, तुम्‍हारी अतिशुद्धता की मिथ्‍याप्रतीति जगा कर, तुमसे लिखवाया गया और इस पर गर्व करना भी सिखाया गया। वे कुछ अधिक चालाक थे, स्‍वयं यह काम करते तो पकड़ में आ जाते। यहां तक अरबी फारसी का आधिकारिक ज्ञान रखने वाले मुस्लिम इतिहासकारों के होते हुए भी, मध्‍यकाल के इतिहास लेखन के लिए तुमको ही लगाया गया । तुम जिन्‍होंने, तथ्‍यों की अनदेखी करके, स्रोत सामग्री से अपरिचित होते हुए भी या कहो इस अपरिचय के बल बूते पर ही, कहानियां गढ़ कर एक उन्‍नत और सुसंस्‍कृत समाज को लुटेरो, बटमारो, हत्‍यारों और खानाबदोशों की जमात में बदला था खुश हाे कर बता रहे थे यह जो मध्‍य काल है जहांगीर से शाहजहां के समय तक का वह स्‍प्‍लेंडर का युग था। वैभव और विलासिता का काल। इसकी कीमत किसानों को क्‍या देनी पड़ रही थी इसका हवाला तक नहीं। तख्‍तताऊस के बनने पर हीरों मोतियों और नक्‍कासी पर अपार धन व्‍यय हो रहा था उस समय गुजरात में तीन साल तक लगातार अकाल पड़ा रहा फिर भी मालगुजारी वसूल की जाने के लिए जुल्‍म जबरदस्‍ती की जा रही थी उन आहों और आंसुओं का कोई हिसाब नहीं। पैसे जो बरस रहे थे। और जब दोनों बातें तुम ही कह रहे थे तो वे बेचारे मानने पर मजबूर थे कि हिन्‍दुओं से गर्हित समाज कोई नहीं और मुस्लिम काल के साथ पहली बार भारत सभ्‍य बना। इस श्रेष्‍ठता बोध में अपनी ही अगली पीढि़यों के चढ़े हुए दिमाग को सन्‍तुलित नही कर पा रहे हैं जिसका खमियाजा वे भी भोग रहे हैं और हमें भी भोगना पड़ रहा है। इतिहास के छात्रों को घेर कर, इतिहास के दूसरे सभी पाठों को नष्‍ट करके, दूसरी सभी पुस्‍तकों केा पाठ्क्रमबाह्य बना कर तुम्‍हारी मदद से जो तुम्‍हारे ही पुरखों को दरिंदों की जमात सिद्ध करने को आतुर थे उनका वर्तमान ही दरिन्‍दगी की ऐसी मिसालें पेश करता चला जा रहा है जिसे संभालने के तरीके उनको भी नजर नहीं आते जो उनकी करनी पर शर्म से शिफर हो जाना चाहते हैं।

”उसी इतिहास का दूसरा परिणाम भी योजना के विपरीत ही हुआ। सोई हुई आग को पीट कर बुझाने वालों को पता ही नहीं कि वह भड़कती हुई इस तरह फैल जाएगी कि जिनको मक्‍खी की तरह किनारे फेंक देते थे वे तुम्‍हें मक्‍खी की तरह फेंकने की स्थिति में आ गए। भाजपा के भाग्‍योदय में जितनी मदद तुमने की है उस का दशमांश भी संघ के बूते का नहीं था। और समझदारी का आलम यह कि नशाखारों की तरह उन्‍हीें जुमलों को दुहरा कर अपने प्रति बढ़ रही घृणा को स्‍वयं उकसाते रहते हो। कारण जानते हो, कारण यह कि नतीजा जो भी हो, उन्‍हें यदि कुछ मिलेगा तो उन मुहावरों को दुहराने से ही मिलेगा। लोभ मनुष्य को कितना पतित और जाहिल बना सकता है इसकी जीती जागती मिसाल वे हैं जिनसे तुम आज तक चिपके रह गए हो।

वह रुआंसा हो गया था, परन्‍तु अपने का संयत रखने का प्रयत्‍न कर रहा था। मैं आज अपने आवेश को नियन्त्रित करने की कोशिश के बाद भी ऐसा कर नहीं पा रहा था, ” यदि तुम्‍हें अघरे अन्‍त न होंहि निबाहू, कालनेमि, जिमि रावण राहू’ का अर्थ यदि कल न समझ में आ रहा था तो अब समझ में आ गया होगा। और मैं अपने को एकमात्र मार्क्‍सवादी क्‍यों कहता हूं, यह जानना चाहते, तो देखो, मैं अकेला लेखक हूँ जिसने जो कुछ भी 1970 के बाद लिखा है, मार्क्‍सवादी औजारों का इस्‍तेमाल करते हुए लिखा है। भाषाविज्ञान लिखा तो उसमें नस्‍ली भाषाविज्ञान की कलई तो खोली ही गई थी, यह दिखाया गया था कि भाषा के विकास का भौतिक आधार और स्रोत क्‍या है? कि जिन क्‍लासिक भाषाओं से हमारी बोलियों और उनसे पहले की बोलियों के कृत्रिम रूपों अपभ्रंश, प्राकृत, पालि का जन्‍म दिखाया जाता रहा है वह गलत है। बोलियों से ये साहित्यिक भाषाएं पैदा हुईं। उसमें दिखाया गया था कि भाषापरिवारों की अवधारणा ही गलत है, सही है इनका समाजशास्‍त्र और भूगाेल और अर्थतन्‍त्र, इसलिए अमुक प्रमाण सिद्ध करते हैं कि तथाकथित आर्य और द्रविड़ भाषाओं के बीच गहरा जुड़ाव है जो इनके प्राथमिक चरण से बना रहा है। मैं बहुत उत्‍साह में था कि यह बात हमारे मार्क्‍सवादी विद्वानों की समझ मे आ जाएगी। नहीं आई, क्‍योंकि इसका उनके भाववादी भाषाविज्ञान और उस पर टिके इतिहास से सीधा विरोध था जो मार्क्‍सवाद का कारोबार चला रहे थे।

मैंने पुरातत्‍व, इतिहास, वैदिक साहित्‍य के आधार पर अर्थव्‍यवस्‍था और समाज-व्‍यवस्‍था के विकास के चरणों को सप्रमाण चित्रित करते हुए हड़प्‍पा सभ्‍यता को वैदिक सभ्‍यता का भौतिक पक्ष सिद्ध किया जो इतना प्रमाणशुद्ध और तर्कशुद्ध है कि तरह तरह से कोशिशश करने के बाद भी उसकी किसी स्‍थापना का खंडन नहीं हो सका और उसमें साहित्‍य के आधार पर जो अन्‍य स्‍थापनाएँ दी गई थी उनकी पुष्टि अागे जेनेटिक अध्‍ययनों और पुरातात्विक उत्‍खननों से हुई । यह इतिहास उस काल्‍पनिक और जाली इतिहास को निर्मूल करता था इसलिए यह तक समझ में नहीं आया।

मेरे उपन्‍यासों में भी यही स्‍वर है और मार्क्‍सवाद की शक्ति क्‍या है इसे इन क़ृतियों में से किसी को पढ़ कर, उनकी अन्‍तर्वस्‍तु और विवेचना काे देख कर समझा जा सकता है। मैंने तुम्‍हारी मूढ़ताओं से जाना कि तुम बने हुए मूढ़ हो, अन्‍यथा ज्ञान तो तुम्‍हें बहुत है। पर इसके कारण ही तुम व्‍यक्ति से सौदे में बदल चुके हो जिसे कीमत देकर कोई खरीद सकता है।

भारत में मार्क्‍सवाद के उद्धार का एक ही उपाय है धार्मिक विद्वेष से लिखवाई गई उन पोथियों को जला दो जिन्‍हें तुम मार्क्‍सवादी इतिहास के नाम पर छात्रों पर उन्‍नति के सभी रास्‍तों पर कब्‍जा जमा कर गुलामों की तरह लादते रहे हो और मेरी पुस्‍तकों का नये सिरे से पाठ करो। मार्क्‍सवाद की इस देश को जरूरत है और मेरी भी है शायद पर आज तो तुम भीतर तक इतने घायल हो चुके होगे कि कुछ दिन बेडरेस्‍ट लो तो यह बात समझ में आएगी ।”

”और इसके बाद भी कहोगे कि आत्‍मप्रशंसा नहीं कर रहा था।”

”तुमको अब भी पता नहीं चला कि मैं मार्क्‍सवादी पद्धति की महिमा बता रहा था जिसने सर्वसत्‍तासंपन्‍न भाववादी इतिहासकारों को अजायब घर में दाखिल कर दिया और इसीलिए अपने अकेलेपन की बात कर रहा था। रामविलास जी के बाद दूसरा कोई दीख रहा हो तो बताना, परन्‍तु अपनी ओर से तो तुमने उनकी भी आरती उतारने में कसर न छोड़ी थी ।”

Post – 2016-08-10

”तुमने एक बार आदर्श झाड़ते हुए कहा था, अपने बारे में या अपने से जुड़ी किसी चीज के बारे में प्रशंसात्‍मक बात नहीं करनी चाहिए। यह शिष्‍टाचार के विपरीत है, और कल तुम कह रहे थे हम अकेले हैं जो आत्‍मविजय की बात करते हैं जब कि दूसरे विश्‍वविजय की बात करते हैं, तुम आत्‍मविरुद नहीं गा रहे थे?”

”समझ का अन्‍तर है, इसीलिए कहा था, आगे की बात को समझने के लिए कम से कम एक दिन का समय तो तुम्‍हें उसे पचाने के लिए चाहिए ही। उसे पचाए बिना आगे की बात समझ नहीं पाओगे। तुमको तो यह भी याद न होगा कि हिन्‍दू होने पर मुझे न तो गर्व है न खेद, क्‍योंकि यह मेरा चुनाव नहीं है, एक हिन्‍दू परिवार में पैदा हुआ हूँ जैसे दूसरे दूसरे धर्म वाले परिवारों में। मैंने यह भी याद दिलाया था कि हमारा कर्तव्‍य है हम दूसरों की कमियां गिनाने की जगह अपनी कमियाँ दूर करें। तुम्‍हारी सोच यह है कि भले हमारी कमियां कितनी भी नगण्‍य हों हम उसको छोड़ कर और कुछ देखेंगे ही नहीं, इसलिए अपने को, और अपने पूरे समुदाय में सिर्फ अपने को महान सिद्ध करने के उनको इतना भयावह, इतना जघन्‍य बताते रहेंगे जिससे सिद्ध हो कि मुझको छोड़ कर, हमारा समाज दुनिया का सबसे गर्हित समाज है। यही किया है न तुमने।”

वह हत्‍प्रभ नहीं हुआ, ”तुम जिन सामीधर्मो से चिढ़ कर उनके ही तौर तरीकों को अपनाते हुए हिन्‍दुत्‍व को एक सामी धर्म बनाना चाहते हो, उस खतरे को भांप कर हम तुम्‍हें उधर जाने से रोकते हैं। हम अपने देश और समाज की तुमसे अधिक अच्‍छी सेवा करते आए हैं और करते रहना चाहते हैं। यही हमारी उपयोगिता रह गई।”

”और यह सब तुम उन्‍हीं सामी धर्मों के साथ मिल कर करते हो, उनकी गोद में बैठ कर, इस सेवा का फल चखते हुए और यह फल भी तुम्‍हें उन्‍हीं की योजना और पहल से मिलता है। हिन्‍दुत्‍व को सुधारने में तुमसे अधिक वलिदान वे कर रहे हैं, क्‍योंकि वे जो कुछ खुद बनता है वह तो करते ही है, जो उनसे संभव नहीं वह तुमसे कराते हैं। तुम क्‍या उनके पालतू नही बन चुके हो? तुम हित करने की सोचोगे तो उससे भी अधिक अहित करोगे, जो वे करते आए हैं और करना चाहते हैं। क्‍योंकि उनकी खाकर तुम इकबालिया बयान देने लगते हों अपने समाज की व्‍यर्थता, कदर्थता और मरणासन्‍नता का । यह काम उनके वश का नहीं है, या वे करते हैं तो अविश्‍वसनीय लगते हैं। यही कारण कारण है कि जब मैंने हिसाब मात्र दिया कि अमुक मूल्‍यवान निधि हमारे पास ही बची रह गई और इसकी आज के संसार को सबसे अधिक जरूरत है, तो तुमको इसमें भी आत्‍मश्‍लाघा दिखाई देने लगी। तथ्‍य आत्‍मश्‍लाघा नहीं होता, मैं कहूं मैं लेखक हूं जब कि दूसरे बहुत से लाेग लेखक नहीं हैं, तो तुम्‍हारी परिभाषा से यह आत्‍मश्‍लाघा हो जाएगी जब कि मैं अपने पेशे का परिचय दे रहा हूँ। तुम्‍हारा एक मात्र प्रयत्‍न अपने ही देश और समाज के मनोबल को गिराना रहा है या नही ? तुम दूसरों के हाथ बिके रहे हो या नही ? बिका हुआ आदमी क्‍या उन लोगों का प्रतिनिधित्‍व कर सकता है जिसको वह लगातार निशाना बना रहा हो उनके साथ मिल कर जो इसे मिटा देना चाहते हैं ?”

पुरानी आदत है। ऐसे मौकों पर वह सर खुजलाने लगता है, आज भी खुजलाने लगा। मैंने झिड़क दिया, ”ऐसा मत किया कर यार, इससे तेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, देखने वाले सोचेंगे तेरी घरवाली के सिर में जूएं पड़ गई हैं।”

वह घबरा गया । मैंने उसे समझाने प्रयत्‍न किया, ” देखो, हम किसी काम से या खुराफात से जो हासिल करना चाहते हैं अस्‍सह प्रतिशत मामलों में होता ठीक उन्‍टा है। तुम लोगों ने इसी इरादे से हमारा इतिहास लिखा, लिखा कहना भी गलत है, तुम्‍हें गोद में बैठा कर तुम्‍हें गुलगुले खिलाते हुए, तुम्‍हारी अतिशुद्धता की मिथ्‍याप्रतीति जगा कर, तुमसे लिखवाया गया और इस पर गर्व करना भी सिखाया गया। वे कुछ अधिक चालाक थे, स्‍वयं यह काम करते तो पकड़ में आ जाते। यहां तक अरबी फारसी का आधिकारिक ज्ञान रखने वाले मुस्लिम इतिहासकारों के होते हुए भी, मध्‍यकाल के इतिहास लेखन के लिए तुमको ही लगाया गया । तुम जिन्‍होंने, तथ्‍यों की अनदेखी करके, स्रोत सामग्री से अपरिचित होते हुए भी या कहो इस अपरिचय के बल बूते पर ही, कहानियां गढ़ कर एक उन्‍नत और सुसंस्‍कृत समाज को लुटेरो, बटमारो, हत्‍यारों और खानाबदोशों की जमात में बदला था खुश हाे कर बता रहे थे यह जो मध्‍य काल है जहांगीर से शाहजहां के समय तक का वह स्‍प्‍लेंडर का युग था। वैभव और विलासिता का काल। इसकी कीमत किसानों को क्‍या देनी पड़ रही थी इसका हवाला तक नहीं। तख्‍तताऊस के बनने पर हीरों मोतियों और नक्‍कासी पर अपार धन व्‍यय हो रहा था उस समय गुजरात में तीन साल तक लगातार अकाल पड़ा रहा फिर भी मालगुजारी वसूल की जाने के लिए जुल्‍म जबरदस्‍ती की जा रही थी उन आहों और आंसुओं का कोई हिसाब नहीं। पैसे जो बरस रहे थे। और जब दोनों बातें तुम ही कह रहे थे तो वे बेचारे मानने पर मजबूर थे कि हिन्‍दुओं से गर्हित समाज कोई नहीं और मुस्लिम काल के साथ पहली बार भारत सभ्‍य बना। इस श्रेष्‍ठता बोध में अपनी ही अगली पीढि़यों के चढ़े हुए दिमाग को सन्‍तुलित नही कर पा रहे हैं जिसका खमियाजा वे भी भोग रहे हैं और हमें भी भोगना पड़ रहा है। इतिहास के छात्रों को घेर कर, इतिहास के दूसरे सभी पाठों को नष्‍ट करके, दूसरी सभी पुस्‍तकों केा पाठ्क्रमबाह्य बना कर तुम्‍हारी मदद से जो तुम्‍हारे ही पुरखों को दरिंदों की जमात सिद्ध करने को आतुर थे उनका वर्तमान ही दरिन्‍दगी की ऐसी मिसालें पेश करता चला जा रहा है जिसे संभालने के तरीके उनको भी नजर नहीं आते जो उनकी करनी पर शर्म से शिफर हो जाना चाहते हैं।

”उसी इतिहास का दूसरा परिणाम भी योजना के विपरीत ही हुआ। सोई हुई आग को पीट कर बुझाने वालों को पता ही नहीं कि वह भड़कती हुई इस तरह फैल जाएगी कि जिनको मक्‍खी की तरह किनारे फेंक देते थे वे तुम्‍हें मक्‍खी की तरह फेंकने की स्थिति में आ गए। भाजपा के भाग्‍योदय में जितनी मदद तुमने की है उस का दशमांश भी संघ के बूते का नहीं था। और समझदारी का आलम यह कि नशाखारों की तरह उन्‍हीें जुमलों को दुहरा कर अपने प्रति बढ़ रही घृणा को स्‍वयं उकसाते रहते हो। कारण जानते हो, कारण यह कि नतीजा जो भी हो, उन्‍हें यदि कुछ मिलेगा तो उन मुहावरों को दुहराने से ही मिलेगा। लोभ मनुष्य को कितना पतित और जाहिल बना सकता है इसकी जीती जागती मिसाल वे हैं जिनसे तुम आज तक चिपके रह गए हो।

वह रुआंसा हो गया था, परन्‍तु अपने का संयत रखने का प्रयत्‍न कर रहा था। मैं आज अपने आवेश को नियन्त्रित करने की कोशिश के बाद भी ऐसा कर नहीं पा रहा था, ” यदि तुम्‍हें अघरे अन्‍त न होंहि निबाहू, कालनेमि, जिमि रावण राहू’ का अर्थ यदि कल न समझ में आ रहा था तो अब समझ में आ गया होगा। और मैं अपने को एकमात्र मार्क्‍सवादी क्‍यों कहता हूं, यह जानना चाहते, तो देखो, मैं अकेला लेखक हूँ जिसने जो कुछ भी 1970 के बाद लिखा है, मार्क्‍सवादी औजारों का इस्‍तेमाल करते हुए लिखा है। भाषाविज्ञान लिखा तो उसमें नस्‍ली भाषाविज्ञान की कलई तो खोली ही गई थी, यह दिखाया गया था कि भाषा के विकास का भौतिक आधार और स्रोत क्‍या है? कि जिन क्‍लासिक भाषाओं से हमारी बोलियों और उनसे पहले की बोलियों के कृत्रिम रूपों अपभ्रंश, प्राकृत, पालि का जन्‍म दिखाया जाता रहा है वह गलत है। बोलियों से ये साहित्यिक भाषाएं पैदा हुईं। उसमें दिखाया गया था कि भाषापरिवारों की अवधारणा ही गलत है, सही है इनका समाजशास्‍त्र और भूगाेल और अर्थतन्‍त्र, इसलिए अमुक प्रमाण सिद्ध करते हैं कि तथाकथित आर्य और द्रविड़ भाषाओं के बीच गहरा जुड़ाव है जो इनके प्राथमिक चरण से बना रहा है। मैं बहुत उत्‍साह में था कि यह बात हमारे मार्क्‍सवादी विद्वानों की समझ मे आ जाएगी। नहीं आई, क्‍योंकि इसका उनके भाववादी भाषाविज्ञान और उस पर टिके इतिहास से सीधा विरोध था जो मार्क्‍सवाद का कारोबार चला रहे थे।

मैंने पुरातत्‍व, इतिहास, वैदिक साहित्‍य के आधार पर अर्थव्‍यवस्‍था और समाज-व्‍यवस्‍था के विकास के चरणों को सप्रमाण चित्रित करते हुए हड़प्‍पा सभ्‍यता को वैदिक सभ्‍यता का भौतिक पक्ष सिद्ध किया जो इतना प्रमाणशुद्ध और तर्कशुद्ध है कि तरह तरह से कोशिशश करने के बाद भी उसकी किसी स्‍थापना का खंडन नहीं हो सका और उसमें साहित्‍य के आधार पर जो अन्‍य स्‍थापनाएँ दी गई थी उनकी पुष्टि अागे जेनेटिक अध्‍ययनों और पुरातात्विक उत्‍खननों से हुई । यह इतिहास उस काल्‍पनिक और जाली इतिहास को निर्मूल करता था इसलिए यह तक समझ में नहीं आया।

मेरे उपन्‍यासों में भी यही स्‍वर है और मार्क्‍सवाद की शक्ति क्‍या है इसे इन क़ृतियों में से किसी को पढ़ कर, उनकी अन्‍तर्वस्‍तु और विवेचना काे देख कर समझा जा सकता है। मैंने तुम्‍हारी मूढ़ताओं से जाना कि तुम बने हुए मूढ़ हो, अन्‍यथा ज्ञान तो तुम्‍हें बहुत है। पर इसके कारण ही तुम व्‍यक्ति से सौदे में बदल चुके हो जिसे कीमत देकर कोई खरीद सकता है।

भारत में मार्क्‍सवाद के उद्धार का एक ही उपाय है धार्मिक विद्वेष से लिखवाई गई उन पोथियों को जला दो जिन्‍हें तुम मार्क्‍सवादी इतिहास के नाम पर छात्रों पर उन्‍नति के सभी रास्‍तों पर कब्‍जा जमा कर गुलामों की तरह लादते रहे हो और मेरी पुस्‍तकों का नये सिरे से पाठ करो। मार्क्‍सवाद की इस देश को जरूरत है और मेरी भी है शायद पर आज तो तुम भीतर तक इतने घायल हो चुके होगे कि कुछ दिन बेडरेस्‍ट लो तो यह बात समझ में आएगी ।”

”और इसके बाद भी कहोगे कि आत्‍मप्रशंसा नहीं कर रहा था।”

”तुमको अब भी पता नहीं चला कि मैं मार्क्‍सवादी पद्धति की महिमा बता रहा था जिसने सर्वसत्‍तासंपन्‍न भाववादी इतिहासकारों को अजायब घर में दाखिल कर दिया और इसीलिए अपने अकेलेपन की बात कर रहा था। रामविलास जी के बाद दूसरा कोई दीख रहा हो तो बताना, परन्‍तु अपनी ओर से तो तुमने उनकी भी आरती उतारने में कसर न छोड़ी थी ।

Post – 2016-08-10

सोचो तो जमाने में कहां क्या नहीं होता
हम चाहते है जैसा बस वैसा नही होता।

मैं उनको बहुत दूर से था देखता लेकिन
वह देखते मुझको तो तमाशा नही होता।

ऐ इश्क तेरा होना भी नफरत के सिवा क्या
जो हो चुका तेरा वह किसी का नहीं होता।

भगवान से पूछो वह किसी का कभी हुआ
होता ही तो पत्थर में वह पिन्हा नहीं होता।
9 अगस्त. २०१६

Post – 2016-08-10

सुबूही

गुल को हम खार न कहते थे मगर कहते हैं
उनको हम यार न कहते थे ‍मगर कहते है।

ऐ सियासत तेरी मजबूरियां मालूम न थीं
घर को बाजार न कहते थे मगर कहते हैं।

ठोकरें कितनी थीं खाई तो होश आया था
हम छिपाते हैं हाल दिल का मगर कहते है।

तुम ही सोचो मुझे क्‍या कहते थे क्याे कहते हैं लोग
कहता हूँ मत कहो भगवान मगर कहते हैं।
9 अगस्त. २०१६

Post – 2016-08-09

गुल को हम खार न कहते थे मगर कहते हैं
तुमको हम यार न कहते थे ‍मगर कहते है।
ऐ सियासत तेरी मजबूरियां मालूम न थीं
घर को बाजार न कहते थे मगर कहते हैं।
ठोकरें कितनी थीं खाई तो होश आया था
हम छिपाते हैं हाल दिल का मगर कहते है।
तुम ही सोचो कि मुझे कहते थे पहले क्याे लोग
कहता था मत कहो भगवान मगर कहते हैं।
9 अगस्त. २०१६

Post – 2016-08-09

”शास्त्री जी यह बताइए आप लोगों का हाफपैंट कब उतरने वाला है।”
शास्त्री जी का चेहरा लाल। सर मेरा आपसे विचारों का मतभेद है, पर आपका इतने वरिष्ठ हैं आपके साथ दिल्लगी नहीं कर सकता। आप की डाक्साब से चलती है तो सुनने में मजा आता है, पर …”

मैंने बीच में हस्तक्षेप किया, “पैंट उतरने पर तुझे दीखेगा क्या यार! कभी तो सोचकर बोला कर.”

“नादानों से बात करने के यही तो खतरे हैं. पूरी बात समझने से पहले ही कूद पड़ते हैं. मैंने सुन रखा है की कुछ दिन के बाद शाखा में हाफ पैंट की जगह फुल पैंट चलेगी. जानना चाहता था इसमें कितना समय लगेगा और बनवानी पड़े तो फुल बनवायी जाये या हाफ.”

असंभव तो कुछ नहीं है तुमलोगों के लिए. जहां से टुकड़ा मिलता है उधर ही मुड जाते हो. देर मत करो, एक साथ ही दोनों बनवा लो. एक के ऊपर दूसरे को पहन कर शाखा में पहुँच जाना. ऊपर वाले को उतार कर तब तक अलग रखते जाना जब तक इसका चलन है पर दूसरों को धौंस में ले लेना किक तुम उनसे दूने शाखा चर हो. यही तो किया है, बाने और गाने के बल पर जब जो जी में आया बन गए.”

”मुझे अपने लिए कुछ नही करना. चिंता तुम्हारी थी. तुम्हारे लिए इतनी कुर्बानी तो दे ही सकता हूँ. सुना पांचजन्य के स्वाधीनता विशेषांक में तुम्हारे लिए कसीदे पढ़े गए हैं. जो रही सही कमी है वह भी पूरी हो जाय. यह पर्दा तो एक दिन उठना ही था. उठ गया. पहचान तो लें अब लोग अपने को मार्क्सवादी कह कर भारतीय कम्यूनिष्टों को कोसने वाले की असलियत क्या है. तुलसी दास की वह चौपाई क्या है यार भूल सी रही है ‘उघरे अंत न होंहि निबाहू. काल नेमि जिमि रावण रहू.’ यही है न इसका सही पाठ। ”

मैं सुनता रहा, मुस्‍कराता रहा, ” कीचड़ की गुणवत्‍ता पर बहस नहीं की जाती। उसका कीचड़ होना ही काफी है।” जब वह चुप हुआ तो इतना ही कहा । लेकिन वह सांस लेने के लिए रुका था। उसकी बात अभी पूरी नहीं हुई थी, हडि़या में कुछ और माल पड़ा रह गया था।

‘जानते हो मैं क्‍या करूंगा। तुम्‍हारी पैंट और हाफ पैंट दोनों सिलवाऊँगा, कपड़े की पसन्‍द तुम्‍हारी, खर्च मेरा, दर्जी की पसन्‍द मेरी और खर्च भी मेरा क्‍योंकि सिलवाऊँगा कुछ ढीला, कुछ वैसा जैसा खेत में धोखे को आदमी का भरम पैदा करने के लिए पहना दिया जाता है। और जब तुम पहन कर निकलोगे तो जो पैसा लगा है उसके बदले में सिर्फ एक फोटो लूँगा, और उस फोटो के नीचे लिखी होगी एक पैरोडी:
क्या छबि बरनूं आप की भले बने हो यार
दाढ़ी अपनी पोंछ ले टपक रही है लार ।”

अब उसकी बात पूरी हो गई थी। वह स्‍वयं तालियॉं बजाते हुए खड़ा हो गया था और चारों दिशाओं में घूम कर तालियां बजा रहा था। हँस तो उसकी पैरोडी और पैरोडी की भूमिका पर मैं भी रहा था, परन्‍तु इस खास मौके पर मैं गंभीर हो गया।

”तुम कुछ भी करो, उससे मैं रोक तो नहीं सकता, पर मित्र होने के नाते यह सलाह अवश्‍य दूंगा कि यह काम मत करना। इससे हमारी और तुम्‍हारी पहचान लुप्‍त हो जाएगी। लालाललित व्‍यक्तित्‍व ही तो तुम्‍हारी पहचान है। बहते रहे हो लाला लिप्‍त होकर और महिमा की पहचान यही रही है किसने कहां कहां से क्‍या क्‍या चखा। चिखनेश्‍वर इतनी महिमा पा लेते रहे हैं कि वे शरणागतों के विघ्‍नेश्‍वर तक बन जाते रहे हैं, परन्‍तु अादमी हो पाने की संभावनाओं से भी दूर खिसकते चले जाते रहे हैं। रसेतरे, रसा तले। यदि लालाला‍लित विचारकों, साहित्‍यकारों, पत्रकारो की तालिका बनाई जाए तो पुस्तिका का रूप ले लेगी।”

मुझे अपने भ्‍ाीतर से ही कशाघात लगा। ‘सच को कहने के लिए इतनी इबारतों की जरूरत नहीं होती। सोचो, चूक तुमसे क्‍या हुई थी या हो रही है।’

मैंने अन्‍तर्यामी को समझाया, ‘चूक तो हुई है। ऊपर से अप्रभावित दिखने का प्रयास करते हुए भी उसकी बत्‍तमीजी से खिन्‍न हो रहा था इसलिए उसको समझाने के लिए उसको उसकी औकात दिखाने की जरूरत अनुभव हुई।”

”क्षमा किया, पर यह मत भूला करो कि तुम हिन्‍दू हो और यह दर्प से अधिक एक उत्‍तरदायित्‍व है। मानवमात्र को मानवता का पाठ पढ़ाने का।”

मित्र बदले के लिए तड़प रहा था, बोला, मैं कुछ कहूं तो बुरा तो नहीं मानोगे।

मैंने कहा, अच्‍छा होता कुछ देर बाद कहते, मैं अभी किसी अन्‍य से संवाद कर रहा था। पर यदि तुमने छेड़ ही दिया तो तुम अपनी ही बात कहो।

देखो मैं तो अपनी बात कह रहा था, परन्‍तु तुमको क्‍या ऐसा नहीं लगता, तुम हिन्‍दुत्‍व के प्रवक्‍ता बनते जा रहे हो।

जानने की जरूरत नहीं अनुभव हुई क्‍योंकि मैं हिन्‍दू हूँ, हिन्‍दू होने पर न तो गर्व अनुभव करता हूँ न शर्म। यह मेरा चुनाव नहीं था, इस पर मेरा वश नहीं था। मैंने एक बार पहले भी कहा था कि जिस तरह दुनिया भौगोलिक और प्रशासनिक द़‍ृष्टियों से बँटी है उसी तरह भाव जगत धर्म, विश्‍वास और मूल्‍यप्रणालियों में विभाजित है। हम जिसमें पैदा होते हैं उसकी सभी चीजों को अच्‍छा मान लेते हैं। अच्छा मान लेने के बाद अपनी कमियों और‍ विकृतियों की भी हम यदि पूजा नहीं करते तो उनका समर्थन करने लगते हैं, समर्थन करने में खतरा होता है तो उन सवालों पर चुप रह जाते है जब कि जरूरत बोलने, अपनी भूल स्‍वीकार करने, उस भूल से बचने के संकल्‍प में होना चाहिए। यदि वह नहीं है तो तुम जो होने का दावा करते हो वह नहीं हो।”

”यही तो मैं भी कहता हूँ । हिन्‍दुत्‍ववादियों, पहले अपना घर इस हद तक सुधारो कि इसमें किसी तरह की विकृति न रह जाय और फिर मुझसे बात करो।”

”बिके हुए लोगों के पास आवाज नहीं होती, चिग्‍घाड़ होती है, और चिग्‍घाड़ से लोगों को डराया जा सकता है, समझाया नहीं जा सकता, अन्‍यथा तुम उन्‍हें और विश्‍व समाज को ऊपर उठाने के लिए हिन्‍दू मूल्‍यों और मानों की बात करते, मुझे हिन्‍दू न कह कर मानवतावादी मूल्‍यों का पहरेदार समझते और घर की विकृतियों को दूर करने का रास्‍ता भी उस गौरवशिखर तक पहुंचने की नई चुनौती के रूप में पेश करते।”

”क्‍या है वह चुनौती बताओगे। हिन्‍दू संकीर्णतावादियों को अपनी हद में रखने का कोई रास्‍ता सुझाओगे।”

”तुम नहीं जानते हिन्‍दू होना विश्‍वमानव होने का पर्याय है। यह अकेली मूल्‍यप्रणाली है जो विश्‍वविजय का लक्ष्‍य नहीं रखती, आत्‍मविजय से परिचालित है। उन मनोभावों और प्रवृत्तियों पर विजय जिसके बिना मनुष्‍य पशु बना रह जाता है और पशुता के असंख्‍य रूपों का विस्‍तार आज की सबसे गंभीर समस्‍या है।”

”यार तुम कोई बात तो सलीके से रखा करो। इस लफ्फाजी से बाहर निकलने का कोई रास्‍ता निकालो, या चुप रहा करो। मैं यह पहले भी कहता रहा हूँ।”

”आज तुम कल के मेरे आघात से कराहते हुए, बदले में जान देने की कीमत पर भी कुछ कमाल करने के इरादे से निकले थे, इसलिए दिमाग का कहने वाला कोना सक्रिय था ग्रहण करने और सोचने समझने वाले कोने सोये रह गये थे। आज कुछ कहँ तो तुम्‍हें मेरा कथन आत्‍मप्रशंसा लगेगा, इससे बचने के लिए इसे कल के लिए रखते हैं।”

वह सहमत हो गया।

Post – 2016-08-09

”शास्त्री जी यह बताइए आप लोगों का हाफपैंट कब उतरने वाला है।”
शास्त्री जी का चेहरा लाल। सर मेरा आपसे विचारों का मतभेद है, पर आपका इतने वरिष्टी हैं आपके साथ दिल्लिगी नहीं कर सकता। आप की डाक्सारब से चलती है तो सुनने में मजा आता है, पर
मैंने बीच में हस्तक्षेप किया, “पैंट उतरने पर तुझे दीखेगा क्या यार! कभी तो सोचकर बोला कर.”
“नादानों से बात करने के यही तो खतरे हैं. पूरी बात समझने से पहले ही कूद पड़ते हैं. मैंने सुन रखा है की कुछ दिन के बाद शाखा में हाफ पैंट की जगह फुल पैंट चलेगी. जानना चाहता था इसमें कितना समय लगेगा और बनवानी पड़े तो फूल बनवायी जाये या हाफ.”

असंभव तो कुछ नहीं है तुमलोगों के लिए. जहां से टुकड़ा मिलता है उधर ही मुड जाते हो. देर मत करो एकसाथ ही दोनों बनवा लो. एक के ऊपर दूरे को पहन कर शाखा में पहुँच जाना. ऊपर वाले को उतार कर तब तक अलग रखते जाना जब तक इसका चलन है पर दूसरों को धौंस में ले लेना की तुम उनसे दूने शाखा चर हो. यही तो किया है, बाने और गाने के बल पर जब जो जी में आया बन गए.”

मुझे अपने लिए कुछ नही करना. चिंता तुम्हारी थी. तुम्हारे लिए इतनी कुर्बानी तो दे ही सकता हूँ. सुना पांचजन्य के स्वाधीनता विशेषांक में तुम्हारे लिए कसीदे पढ़े गए हैं. जो रही सही कमी है वह भी पूरी हो जाय. यह पर्दा तो एक दिन उठना ही था. उठ गया. पहचान तो लें अब लोग अपने को मार्क्सवादी कह दर भारतीय कम्यूनिष्टों को कोसने वाले की असलियत क्या है. तुलसी दास की वह चौपाई क्या है उघारे अंत न होंहि निबाहू. काल नेमि जिमि रावण रहू. यही है न इसका सही पाठ।

मैं सुनता रहा, मुस्‍कराता रहा, ” कीचड़ की गुणवत्‍ता पर बहस नहीं की जाती। उसका कीचड़ होना ही काफी है।” जब वह चुप हुआ तो इतना ही कहा ।
लेकिन वह सांस लेने के लिए रुका था। उसकी बात अभी पूरी नहीं हुई थी, हडि़या में कुछ और माल पड़ा रह गया था।

‘जानते हो मैं क्‍या करूंगा। तुम्‍हारी पैंट और हाफ पैंट दोनों सिलवाऊँगा, कपड़े की पसन्‍द तुम्‍हारी, खर्च मेरा, दर्जी की पसन्‍द मेरी और खर्च भी मेरा क्‍योंकि सिलवाऊँगा कुछ ढीला, कुछ वैसा जैसा खेत में धोखे को आदमी का भरम पैदा करने के लिए पहना दिया जाता है। और जब तुम पहन कर निकलोगे तो जो पैसा लगा है उसके बदले में सिर्फ एक फोटो लूँगा, और उस फोटो के नीचे लिखी होगी एक पैरोडी:
क्या छबि बरनूं आप की भले बने हो यार
दाढ़ी अपनी पोंछ ले टपक रही है लार ।”

अब उसकी बात पूरी हो गई थी। वह स्‍वयं तालियॉं बजाते हुए खड़ा हो गया था और चारों दिशाओं में घूम कर तालियां बजा रहा था। हँस तो उसकी पैरोडी और पैरोडी की भूमिका पर मैं भी रहा था परन्‍तु इस खास मौके पर मैं गंभीर हो गया।
”तुम कुछ भी करो, उससे मैं रोक तो नहीं सकता, पर मित्र होने के नाते यह सलाह अवश्‍य दूंगा कि यह काम मत करना। इससे हमारी और तुम्‍हारी पहचान लुप्‍त हो जाएगी। लालाललित व्‍यक्तित्‍व ही तो तुम्‍हारी पहचान है। बहते रहे हो लाला लिप्‍त होकर और महिमा की पहचान यही रही है किसने कहां कहां से क्‍या क्‍या चखा। चिखनेश्‍वर इतनी महिमा पा लेते रहे हैं कि वे शरणागतों के विघ्‍नेश्‍वर तक बन जाते रहे हैं, परन्‍तु अादमी हो पाने की संभावनाओं से भी दूर खिसकते चले जाते रहे हैं। रसेतरे, रसा तले। यदि लाला ला‍लित विचारकों, साहित्‍यकारों, पत्रकारो की तालिका बनाई जाए तो पुस्तिका का रूप ले लेगी।”

मुझे अपने भ्‍ाीतर से ही कशाघात लगा। सच को कहने के लिए इतनी इबारतों की जरूरत नहीं होती। सोचो, चूक तुमसे क्‍या हुई थी या हो रही है।

मैंने अन्‍तर्यामी को समझाया, ‘चूक तो हुई है। ऊपर से अप्रभावित दिखने का प्रयास करते हुए भी उसकी बत्‍तमीजी से खिन्‍न हो रहा था इसलिए उसको समझाने के लिए उसको अपनी औकात दिखाने की जरूरत अनुभव हुई।”

”क्षमा किया, पर यह मत भूला करो कि तुम हिन्‍दू हो और यह दर्प से अधिक एक उत्‍तरदायित्‍व है। मानवमात्र को मानवता का पाठ पढ़ाने का।”

मित्र बदले के लिए तड़प रहा था, बोला, मैं कुछ कहूं तो बुरा तो नहीं मानोगे।

मैंने कहा, अच्‍छा होता कुछ देर बाद कहते, मैं अभी किसी अन्‍य से संवाद कर रहा था। पर यदि तुमने छेड़ ही दिया तो तुम अपनी ही बात कहो।

देखो मैं तो अपनी बात कह रहा था, परन्‍तु तुमको क्‍या ऐसा नहीं लगता, तुम हिन्‍दुत्‍व के प्रवक्‍ता बनते जा रहे हो।

जानने की जरूरत नहीं अनुभव हुई क्‍योंकि मैं हिन्‍दू हूँ, हिन्‍दू होने पर न तो गर्व अनुभव करता हूँ न शर्म। यह मेरा चुनाव नहीं था, इस पर मेरा वश नहीं था। मैंने एक बार पहले भी कहा था कि जिस तरह दुनिया भौगोलिक और प्रशासनिक द़‍ृष्टियों से बँटी है उसी तरह भाव जगत धर्म, विश्‍वास और मूल्‍यप्रणालियों में विभाजित है। हम जिसमें पैदा होते हैं उसकी सभी चीजों को अच्‍छा मान लेते हैं। अच्छा मान लेने के बाद अपनी कमियों और‍ विकृतियों की भी हम यदि पूजा नहीं करते तो उनका समर्थन करने लगते हैं, समर्थन करने में खतरा होता है तो उन सवालों पर चुप रह जाते है जब कि जरूरत बोलने, अपनी भूल स्‍वीकार करने, उस भूल से बचने के संकल्‍प में होना चाहिए। यदि वह नहीं है तो तुम जो होने का दावा करते हो वह नहीं हो।”

”यही तो मैं भी कहता हूँ । हिन्‍दुत्‍ववादियों, पहले अपना घर इस हद तक सुधारो कि इसमें किसी तरह की विकृति न रह जाय और फिर मुझसे बात करो।”

”बिके हुए लोगों के पास आवाज नहीं होती, चिग्‍घाड़ होती है, और चिग्‍घाड़ से लोगों को डराया जा सकता है, समझाया नहीं जा सकता, अन्‍यथा तुम उन्‍हें और विश्‍व समाज को ऊपर उठाने के लिए हिन्‍दू मूल्‍यों और मानों की बात करते, मुझे हिन्‍दू न कह कर मानवतावादी मूल्‍यों का पहरेदार समझते और घर की विकृतियों को दूर करने का रास्‍ता भी उस गौरवशिखर तक पहुंचने की नई चुनौती के रूप में पेश करते।”

”क्‍या है वह चुनौती बताओगे। हिन्‍दू संकीर्णतावादियों को अपनी हद में रखने का कोई रास्‍ता सुझाओगे।”

”तुम नहीं जानते हिन्‍दू होना विश्‍वमानव होने का पर्याय है। यह अकेली मूल्‍यप्रणाली है जो विश्‍वविजय का लक्ष्‍य नहीं रखती, आत्‍मविजय से परिचालित है। उन मनोभावों और प्रवृत्तियों पर विजय जिसके बिना मनुष्‍य पशु बना रह जाता है और पशुता के असंख्‍य रूपों का विस्‍तार आज की सबसे गंभीर समस्‍या है।”

”यार तुम कोई बात तो सलीके से रखा करो। इस लफ्फाजी से बाहर निकलने का कोई रास्‍ता निकालो, या चुप रहा करो। मैं यह पहले भी कहता रहा हूँ।”

”आज तुम कल के मेरे आघात से कराहते हुए, बदले में जान देने की कीमत पर भी कुछ कमाल करने के इरादे से निकले थे, इसलिए दिमाग का कहने वाला कोना सक्रिय था सोचने समझने वाला सोया रह गया था। आज कुछ कहँ तो तुम्‍हें मेरा कथन आत्‍मप्रशंसा लगेगा, इससे बचने के लिए इसे कल के लिए रखते

Post – 2016-08-09

कल जो पोस्‍ट किसी के हस्‍तक्षेप के कारण, उधर मुड़ने पर उड़ गई थी और जिसे मैंने जैसे तैसे पूरा किया, उसको समाहार के रूप में आज उसमें खंड 2 बना कर कल की पोस्‍ट में जोड़ दिया है। जिन मित्रों ने उसे पहले देख लिया है वे चाहें तो इतने अंश को देखने के लिए मेरी पोस्‍ट पर जा सकते हैं।

Post – 2016-08-08

निदान – 15

(मैंने जो लिखा था वह बीच में मित्रों की पोस्‍ट पर ध्‍यान देने के कारण लुप्‍त हो गया। कृपया यह न बताएं कि अापके मन्‍तव्‍य क्‍या हैं। मैं लाइक करने वाले प्रत्‍येक व्‍यक्ति को देखता हूं यह जानने के लिए कि किस रुचि, प्रकृति अौर पूर्वराग के लोग इसे पसन्‍द कर रहे हैं। मैं आप सबका आभारी हूं पर आज की पोस्‍ट वह तो नहीं जो लिखी गई थी।)

”तुम लाख बचाओ मुझको सनम हम अपना कबाड़ा कर लेंगे। यह शेर तुमने पहले कभी सुना है।
मैं नहीं कहने जा रहा था, पर मेरे मुंह से ‘न’ निकला ही था कि वह दाखिल हो गया, ”मैं भी जानता था, न सुना होगा क्योकि यह मेरा है और मैंने अभी अभी इसे गढ़ा है तुम्हारी और मोदी की मरम्मरत के लिए।”
मैं हक्क बक्का उसे देखने लगा क्योंकि कोई सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था।
”तुम तीन तेरह करके उस आदमी को बचाना चाहते हो, वह आदमी फन्दा हाथ मे लिए घूम रहा है कि आओ और मुझे लटका दो। एकदम बौखला गया है, तुम बचाना चाहो तो भी बचा नहीं पाओगे। सुना आज क्या कहा, कहा, अगर गोली मारनी है तो मेरे दलित भाइयों को गोली मारने की जगह मुझे गोली मार दो। बोलो, बचा सकोगे।”
”इतना पुराना साथ है, तब से जब मोदी स्कूल में पढ़ रहे होंगे, मैं तो तुमको सड़ने से नहीं बचा सका, तो उस आदमी को छाती तानने के कैसे रोक सकता हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि नफरत की फसल उगाने का जो काम तुम लोगों ने जिनके लिए सेक्यु लरिस्ट , शब्द को प्रयोग होता है, ब्रिटेन से विरासत में पाई है, उसको निर्विष करने का कोई रसायन मोदी के पास नहीं है, सिवाय उस सीने को चीर कर दिखाने के जिसे केवल पुराणकथा में ही हनुमान कर सके थे। सीता की आँखें तुम्हारी ही तरह फूटी होतीं तो उन्हें उस फटे हुए वक्ष के भीतर राम न दिखाई दिए होते, जैसे तुमको मोदी की दलित वेदना न दिखाई देती होगी, और दिखाई दे रही है तो बौखलाहट बन कर ।”
वह हँसने लगा, ”यार लफ्फाजी तेरी लाजवाब है, पर यह बता, सच्चे दिल से बताना, तुम्हेंँ मोदी ने क्या खिला दिया है कि उसका नाम आते ही तू ”जान हथेली पर ले आया।” गाने लगते हो। जानते हो इससे तुमने साहित्य जगत में अपनी साख कितनी गँवाई है।”
”तुम सवाल भी करते हो और जवाब भी दे देते हो। तुम्हीं कह रहे हो मैंने गँवाया है, पाया या खाया नहीं है । मैं गँवाने वालों की जमात का एक अदना सदस्य हूँ जो चाहते हैं, मैं मर जाऊँ पर मेरे देश और समाज को खरोंच न आए। मोदी मेरा नेता नहीं, उस जमात में शामिल एक अदना सदस्य है पर जीवट और अध्यवसाय उसमें मुझसे बहुत अधिक है और जितने दबावों के बीच वह जीवट बना रहता है उसे देखता हूँ तो मुझे वह मुझसे ही नहीं, रामविलास शर्मा से भी बड़ा लगता है जिनका कहना था मुझे मत याद रखो परन्तु मेरे विचारों को समझो, इनको आगे ले जाओ। मैं तो रामविलास जी से उम्र में भी छोटा हूँ और यश में भी, परन्तु यह आदमी हम दोनों से हर तरह से छोटा होते हुए भी इतना अलग और उन आग में तप कर भी जिसमें कच्चेे कलेजे और कच्ची समझ और कच्चे इरादे के लोग भस्म, हो जाते है अग्निशुद्ध निकला है। इस आँच के निकट हम गए भी नहीं, उससे हमे गुजरना भी नहीं पड़ा। ”
वह ताली बजा कर हँसने लगा, ”चापलूसी सी चापलूसी है फिर भी भगवान की जबाँ से है।”
”देखो, तुम को अपना इतिहास याद रखना चाहिए, क्यों कि तुम अपने दर्शन को ऐतिहासिक और द्वन्द्वात्म क भौतिकवाद कहते हो। इतिहास तुम्हा रा यह है कि जो सत्ता में रहा उसकी इस हद तक चापलूसी की कि उसका दिमाग अपनी महिमा के बोझ के नीचे दब कर पिचक गया और वह उन लोगों को भी तलाश कर मारने, सताने और निर्मूल करने लगे जिन्होने आन्दोलन में उसका साथ दिया था। उसके सत्ता से अलग होते ही तुम उनका मानमर्दन और अगले की विरुद गाथा में जुट गए। अब जब कोई नहीं है जिससे कुछ मिल सके तो मैं यह पहले भी कह आया हूँ, अमरीका केवल अमरीका, कटा रूस से साथ सभी का। गाते हुए जगह बना रहे हो और कभी जैसे रूस की खाकर रूस की गाते थे उसी तरह आज अमरीका की खाकर उसकी गाते और उसके प्रोग्राम का हिस्सा बन कर अपने ही देश के विरुद्ध कार्यक्रमों में हिस्सा बँटाते हो, अपनी उपस्थिति संचार माध्यमो से दर्ज कराते हो, और जो ध्यावे फल पावे कष्ट मिटे तन का लाभ उठाते हो। गलत कहा मैंने।
हम दोनों की एक समस्‍या है, दूसरी पार्टियों और संगठनों की भी यही विवशता है। गलत वे होते नहीं, सही वे हो नहीं सकते। वे अपनी नजर में सही होते हुए भी नतीजों से अपने सही गलत होने को परखने का प्रयत्‍न नहीं करते। मैं नहीं कहता, पूरा देश कह रहा था तुम गलत हो और उसने एक ऐसे व्‍यक्ति को चुना जिसे तुम काम करने नहीं देते और सवाल करते हो, परिणाम तो दिखाओ। परिणाम देश के लिए अहितकर हों तो उस पर जश्‍न मनाते हो। देश का बुरा हुआ, यह तुम्‍हें अच्‍छा लगता है, क्‍योंकि इस तरह की चूक से तुमको विश्‍वास पैदा होता है कि सड़े तो हैं यह जाहिर है मगर हम मर नहीं सकते। मेरा हित देश का हित इससे आगे बढ़ नहीं सकते।”
जिसकी तुम बात कर रहे हो उसे सियासत कहते हैं। हमारी मूल्‍यपरंपरा का शब्‍द नहीं है इसलिए इसका अर्थ होता है गर्हित से गहर्ति साधन का उपयोग करते हुए सत्‍ता पर अधिकार और उसे बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक गिरने की तैयारी। तुम जिस मोदी से नफरत करते हो वह राजनीति करता है, देश और समाज को आगे ले जाने की चिन्‍ता से ग्रस्‍त है। तुम लोग, तुम सभी, तानाशाही के समर्थक हो। मोदी लोकतन्‍त्रवादी है। तुम लोकतन्‍त्र को प्रचार साधनों से जिनकी गर्हणा की कहानिया उनके पवित्र प्रोग्रामों के बाद के प्रोग्राम कहते हैं, उनके माध्‍यम से लोकतान्त्रिक विकल्‍प को मिटाना चाहते हो, मोदी उसे जीवित रखना चाहता है। जिस कश्‍मीर में लोकतांत्रिक विकल्‍प का उसने सम्‍मान किया उसकी समस्‍याओं के लिए लगातार सभी संचारमाध्‍यम और विचार माध्‍यम कटाक्ष करते रहे कि पीडीपी से मिल कर सरकार चलाने की कीमत चुकाओ और उकसाते रहे कि सरकार को खत्‍म करके राष्‍ट्रपति शासन लगाओ उसमें जहर के घूंट पीते हुए भी वह लोकतन्‍त्र की रक्षा करता रहा और हताशाओं के बवंडरों के बीच न हारा, न झुका और न पीछे हटा। मुझे उसके कहे और किए पर विश्‍वास है क्‍योंकि दोनों में फांक नहीं है। राजनीति आजकल सबसे लाभकर उद्योग बना दिया गया है। बिना पूँजी के, फेफड़ के जाेर और दिमाग और उच्‍च सरोकारों को तिलांजलि दे कर मालामाल होने और इस तिजारत को खानदानी बनाने की कला, उसमें वह बिना बाेले एक निवेदन बन जाता है, इस अंधेरे में अकेले मैं दिया हूँ / मत बुझाओ/ जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी।”
और जानते हो हम इस पंक्ति को किस तरह पढ़ते हैं : रोशनी में धुंध बन कर मैं खड़ा हूँ/ मत हटाओं । जब मिलेगी चांदनी मुझसे मिलेगी।”
”अपनी अपनी किस्‍मत अपना अपना प्राप्‍य । क्‍या कहा जा सकता है।”

2
वह चलने को हुआ तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर रोक लिया। मेरा मन बहुत खिन्‍न था। पीडि़त स्‍वर में ही मैंने कहा, ”देखो हमने बहुत लंबे संघर्ष के बाद यह स्‍वतन्‍त्रता पाई और इसमें लोकतन्‍त्र बचा रहे इसके इतने सारे जुगाड़ इसलिए कर
रखे हैं कि तानाशाही के खतरे सामने थे। मुस्लिम लीग में तो बहुत पहले से लोकतन्‍त्र के प्रति नफरत थी, अत: यदि पाकिस्‍तान तानाशाही का शिकार हआ तो हैरानी की बात नहीं। जिसे तुम मोदी मोदी समझते हो वह मेरे भीतर का लोकतन्‍त्र लोकतन्‍त्र का चीत्‍कार है। तुम्‍हारे यहां तो लोकतन्‍त्र को पूंजीवादी तन्‍त्र माना जाता है, गुलामी के आदी हो चुके देश और समाज भी मैसोकिस्‍ट होते हैं। उनको हंटर लगाने वाले एक तानाशाह की जरूरत होती है, जरूरत भी तड़प की हद तक। पहले दिन से, इस व्‍यक्ति के चुनाव प्रचार से पहले जनभावना ने उसे अपना भावी प्रधान मन्‍त्री चुन लिया था। उसी समय से लगातार हाहाकार मचाते रहे तुम लोग। उसी दिन से कांग्रेस में सन्निपात ग्रस्‍तता आ गई थी और अंड बंड ऐसे फैसले लिए जा रहे थे कि जो जुए की बाजी जैसे थे और जिनसे अर्थव्‍यवस्‍था इतनी जर्जर हो जाय कि संभाले न संभले। पर यह पहला आदमी है जो तुमसे लगातार भाजपा के शासन को कायम रखने के लिए नहीं, लोकतन्‍त्र की आत्‍मा को बचाए रखने की जंग लड़ रहा है। देश और समाज की तो तुम्‍हें चिन्‍ता रही नहीं परन्‍तु गुंडागर्दी के हथकंडों से लोकतन्‍त्र को नष्‍ट करने के उपक्रम जो तुम लोग कर रहे हो, उससे बचाओ। इसे हासिल करने के लिए खून तो बहा नहीं सके, बचाए रखने के लिए पसीना तक नहीं बहाया, कुर्सीक्रान्ति करते रहे, पर हम इसे बचाए रख सकें, इसके लिए अपनी लार को तो रोक कर रखो। तुम लोगों को देख कर मुझे बार बार पाव्‍लोव का रिफ्लेक्‍स ऐक्‍शन याद आता है।
यह आदमी जितना जनता का विश्‍वास उसमें बना हुआ है और लगातार बढ़ रहा है क्‍योंकि अपनी ऊलउजूल हरकतों से तुम लोक स्‍वत: निस्‍तेज होते जा रहे हो।
पहला व्‍यक्ति है जो तपस्‍वीकी तरह आज तक समाज सेवा की अपनी समझ के अनुसार लड़ा है। तुम्‍हें पता है नेहरू का खाना राष्‍ट्रपति के रसोई घर से जाता था, यह अपनी रोटी स्‍वयं पकाता है अपने आटा चावल से। प्रलोभन भी यदि है तो देश हित के लिए जीवन उत्‍सर्ग करने का। निन्‍दक और चुगलखोर किसी भी सद्गुण को दुर्गुण बता सकते हैं, सिद्ध कर सकते है, यह दो हजार साल पहले भर्तृहरि बता आए हैं। तुम काम को देखो, उन्‍हें परिभाषित मत करो। जहां चूक हो उसकी और केवल उसकी आलोचना करो। यह पहला प्रधानमंन्‍त्री है जो कुलीन नहीं है, जिसका कोई न कुल है न बिरादरी जिसकी राजनीति कर सके। यह पहला प्रधान मंत्री है जो कैरियर की तलाश के घर छोड़ कर नहीं, सत्‍य और सार्थकता की तलाश में निकला था और वहां उसे ऐसे गुरु उसके सौभाग्‍य से मिले जिन्‍होंने उसे मन्‍त्र दिया कि इसकी तलाश जीवन और समाज के हित में करो। सियासत करने के आदी लोगों के बीच वह अकेला राजनीति करता है। उसे काम करने दो। उपद्रवकारी बन कर व्‍यवधान मत डालो। लोकतन्‍त्र में मेरी निष्‍ठा इस व्‍यक्ति के प्रति आत्‍मीयता जगाती है, इसे रालतन्‍त्र पर पलने वाले नहीं समझ सकते।

Post – 2016-08-08

निदान – 15

विल्‍वामंगल के देश का समाजशास्‍त्र

”यह आदमी तो सचमुच बौखला गया है यार । कहता है, दलितों की हत्‍या करने की जगह मेरी हत्‍या कर दो।”

और तुम्‍हारी योजना में क्‍या है, दलितो का इस्‍तेमाल करने के लिए उनको पागल बना दो और किनारे खड़े तमाशा देखा। क्‍योंकि तुम्‍हारे पास ले द