Post – 2016-08-07

”कल तो मजा आ गया । मोदी ने राजनीतिक आत्‍महत्‍या कर ही ली।”

”पोस्‍टमार्टम रिपोर्ट साथ लाये हो।”

”उसकी जरूरत क्‍या है। पट्ठे ने खुले आम रिवाल्‍वर निकाली, कनपटी पर लगा कर गोली दाग दी। देखने वाले सन्‍न रह गए।”

मुझे पता था, उसका इशारा किस तरफ था, ”गोली देश हित में मारी हो तब तो इसे आत्‍म बलिदान कहा जाएगा। उन्‍हें हुतात्‍मा। राष्‍ट्रीय शोक का विषय है, तुमको इसमें मजा आ रहा है। यदि देश और समाज को क्षति पहुंचाने के लिए तो तुमको उस कृत्‍य का समर्थन करना चाहिए जिसकी वह निन्‍दा या विरोध कर रहे थे।

इस खेल में मैं क्‍यों उलझने जाता। हम तो मजा लेने वालों में है। दुश्‍मन का घर जले तो अपना न भी बने पर हमारी स्थिति उससे बेहतर तो रहेगी।”

”कितने लंबे अरसे से प्रतीक्षा कर रहे थे इस घड़ी की? कितने लंबे समय से आयोजन चल रहा था ऐसी स्थिति पैदा करने की ? कितना खर्च उठाना पड़ा तुम्‍हें या इसके आयोजकों को ? आखिर यह खेल तो गुंडों और उचक्‍कों का ही था जिनको पैसा दे कर उनसे कुछ भी कराया जा सकता है। सुना यही मोदी जी ने भी अपने भाषण में कहा था।”

”इससे अधिक बड़ा आत्‍मघात क्‍या हो सकता है कि वह भला आदमी अपने ही लोगों के साथ विश्‍वासघात कर बैठा। वह अपने ही काडर को गुंडा और चोर बता रहा था।”

”तुमको तो आज पार्क में नाचते गाते हुए आना चाहिए था। पर तुम यह समझो कि यह आदमी न आत्‍महत्‍या कर सकता है न आत्‍महत्‍या के लिए उकसा सकता है। इसने आत्‍महत्‍या के लिए सीना तान कर आ रही पीढि़यों को पहली बार यह समझाया है कि इस पर पुनर्विचार करो। यह तरीका ठीक नहीं। अपना भला करने की सोचो और उसमें हमसे जो संभव होगा तुम्‍हारी सहायता करूंगा। पर इसका व्‍यक्तित्‍व ही ऐसा है कि इस अन्‍देशे से ही कि वह आ रहा है दल के दल आत्‍महत्‍या कर लेते हैं और उन्‍हीं में तुम्हारा दल भी है।”

”तुम जानते ही नहीं कि गाय को ले कर उसकी पार्टी और संगठन की संवेदनाएं इतनी प्रखर हैं कि गो रक्षकों पर इस तरह की टिप्‍पणी के बाद उसके ही लाेग उसका साथ छोड़ जाएंगे।”

”मैंने एक बार कहा था न कि वह अब तक का सबसे अनुभवी, सबसे सुपात्र प्रधानमन्‍त्री है, प्रशिक्षण की उस दीर्घ और तपाने वाली प्रक्रिया से निकला हुआ, जिसमें अन्‍तर्दृष्टि पैदा होती है, सपने पैदा होते हैं और उस सपनों काे साकार करने का हौसला पैदा होता है। वह छोटी चीज से सन्‍तुष्‍ट नहीं रह सकता। वह हिन्‍दू राष्‍ट्र से आगे, भारतीय राष्‍ट्र की बात सोचता है, भारतीय मंच पर उपस्थिति से सन्‍तुष्‍ट न रह कर विश्‍वमंच पर अपनी उपस्थिति मोटे अक्षरों में अंकित कराना चाहता है । उसके ये इरादे देश के भाग्‍य से जुड़े हैं, उसकी शक्ति और स्‍वाभिमान से जुड़े हैं और इसीलिए अपने देश और समाज का भला चाहने वालों को उसका साथ देना चाहिए।”

”साथ का क्‍या मतलब ? हम अपने दुश्‍मन का साथ क्‍यों देंगे ?”

”तुमको उसका नहीं, अपने देशहित का साथ देना है। वह किसी के हाथों हो रहा हो। जिसके हाथों हो रहा है उसका तब तक साथ देना चाहिए जब तक उससे देश का भला हो रहा हो। इसलिए उसकी गुणदाेषपरक आलोचना करनी चाहिए। जो काम ठीक है उन्‍हें ठीक कहना चाहिए। उनका इरादा खुद ही कल्पित करके उसे खारिज कर दोगे तो हो सकता है तुम्‍हारा यह निर्णय सही हो, परन्‍तु इसे अपने पक्ष में करने के लिए ऐसा विश्‍लेषण करना होगा जिससे वे लोग जो तुम्‍हारे जैसे विलक्षण प्रतिभा वाले हैं, वे भी समझ सकें। यह तुम अपने पाठकों की विश्‍वसनीयता अर्जित करने के बाद ही कर सकते हाे। साथ देने में ये दोनों बातें शामिल हैं। साथ देकर ही तुम समाज के साथ भी रह सकते हो और अपने साथ भी। यदि नहीं हुए तो लोग तुम्‍हारा साथ छोड़ जाएंगे और तुम्‍हें आत्‍महत्‍या का गौरव भी नहीं प्राप्‍त होगा। तुम्‍हारी सड़ती हुई लाश की दुर्गन्‍ध जब असह्य हा जाएगी तब लोगों को पता चलेगा तुम्‍हारी मृत्‍यु बहुत पहले हो चुकी है। सही समय पर तुम्‍हारी मौत की नोटिस तक नहीं ली जा सकी।”

”क्‍या बत्‍तमीजी करते हो। तुम जानते हो कह क्‍या रहे हो। तुम दुनिया से ऊपर हो। सारे बुद्धिजीवी जिसे गलत कह रहे हैं उसे तुम सही बता रहे हो और खीझ का हमारे संगठनों को श्राप दे रहे हो।” वह बौख्‍ाला उठा । मैं यही तो चाहता था।

”मैं तुम्हारे भले की सोच रहा था और य‍ह याद दिला रहा था कि पिछले पचीस सालों से मैंने तुम्‍हारे संगठन और उससे जुडे लोगों के विषय में जो तब मेरे अपने संगठन और मित्र भी हुआ करते थे, आगाह किया था कि इन हरकतों का यह परिणाम होगा। मैं जानता था इतना बड़ा संगठन होते हुए मुझ जैसे उपेक्षित व्‍यक्ति की बात नहीं सुनोगे। पर यह प्रकाशित है और इसे पेश किया जा सकता है कि मेरी, अकेले की, भविष्‍यवाणी जो भविष्‍यवाणी नहीं अपितु तार्किक परिणति का संकेत था, सही निकला। अपनी अदना हैसियत के कारण आज भी तुम मेरी बात न मान कर संख्‍या गिनाओगे। विचारों में लोकतन्‍त्र नहीं चलता, तार्किक संगति चलती है। मैं तुम्‍हें एक बड़े आदमी का उदाहरण दे कर अपनी बात रखूं तो संभव है तुम मेरी बात सकझ सको, गो यकीन फिर भी नहीं हैं।”

”अपनी बात तो कह यार। सिर खा जाता है।”

”तुम जानते हो, आइंस्‍टाइन आज भी एक आश्‍चर्यजनक मेधा हैं, परन्‍तु उनके जीवन काल में उनको लगातार शंकालुओं और विरोधियों का सामना करना पड़ा। जब वह सर्वमान्‍य से हो चले थे उस समय भी उनको सन्‍देहवादियों का सामना करना पड़ा। इसे स्टिफेन हाकिंंग के शब्दों को बिना एक भी अक्षर बदले रखूं तो वह निम्‍न प्रकार है:
Once more unpopularity did not stop from speaking his mind. His theories came under attack An anti-Einsten organization was even set up. One man was convicted of inciting others to murder Einstein (and fined a mere six dollars). But Eienstein was phlegmatic: when a book was published entitled Hundred Authors against Einstein , he retorted, “If i were wrong then one would have been enough.

”सांप्रदायिकता और बांटो और राज करो की नीति पर आरंभ से आज तक चलती आई राजनीति को एक नई दिशा में मोड़ने और ले जाने के लिए जिस विजन और साहस की जरूरत होती है वह उस अकेले आदमी में है और सबसे बड़ा दोष मुझे यही लगता है कि वह अपने ढंग का अकेला आदमी है और दूसरे उसकी तुलना में जिस हैसियत के थे उससे उनकी हैसियत घटी है। ऐसे ही लोग कभी कई बार अतिविश्‍वास के शिकार हो कर तानाशाह हो जाते हैं और इसकी संभावना अवश्‍य उस व्‍यक्ति में दिखाई देती है।”

”इसे तो हम पहले दिन से समझते हैं, तुमको आगाह भी करते आए हैं, और यह मामूली सी बात समझने में तुमने इतना समय लगा दिया।”

”तुम न तब कुछ समझते थे न अब कुछ समझते हो। पहले तुम्‍हारे भीतर भरी गई घृणा के जहर का झाग बाहर आ रहा था, तिलमिला रहे थे तुम, तड़प और छटपटा रहे थे तुम, अपने ही जहर के सेवन से। तिलमिलाता और छटपटाता हुआ आदमी सोच कैसे सकता है और तुम्‍हारी भविष्‍यवाणी लगातार झूठी साबित होती रही, वह अपने कौल और करार पर प्रत्‍यके परीक्षा में सफल सिद्ध होता गया और उसी अनुपात में तुम्‍हारी छटपटाहट बढ़ती गई, आज भी छटपटाहट बनी हुई है।”

तुम्‍हारे ऊपर कैसे विश्‍वास कर सकता हूं। तुम्‍हारे इस हंगामे की वजह से लोगों को उस व्‍यक्ति को समझने में बाधा पड़ी है। वह जो करना चाहता है उसमें बाधा पड़ी है, परन्‍तु इस आदमी में अपनी मनोबधाओं को भी समझने और उन्‍हें पार करने का साहस है और बाहरी बाधाओं से निबटने की भी दक्षता हासिल है। वह अपने लाेगों को भी अपनी कमियों को दूर करने का समय देता है और दूसरों के लिए भी ऐसा वातावरण तैयार करने का प्रयत्‍न करता है कि वे अपनी पुरानी गलतियों को समझें और नई महत्‍वाकांक्षा से लैस हो कर आगे बढ़ें, पुराने झगड़ों की दलदल में फंस कर अधोगति की ओर न जांय। उसके इस सन्‍देश को भी पहुंचाने का माध्‍यम बनने की जगह तुम उसे उलट कर दहशत फैलाने में अपनी शक्ति का अपव्‍यय करते हो और थक कर अपनी ही नजर में क्रमश: व्‍यर्थ और अप्रासंगिक सिद्ध होते हुए शिफर बनने की ओर की यात्रा करते हो।

”बात बात पर तुम्‍हारे भीतर का सोया हुआ चारण क्‍यों जाग जाता है भाई। तुम यह क्‍यों नहीं देखते कि जिस भावुकता को उभार कर संघ और इससे जुड़े संगठन हिन्‍दू समाज को अपने से जोड़ते रहे हैं उसे ही उसने दलितों और मुसलमानों को अपने साथ लाने के लिए इतनी बड़ी चूक कर दी। वे इसके साथ आने वाले नहीं और जो अपने थे वे भी हाथ से गए । अब इसकी छुट्टी तय है।”

मैं जानता हूं हिन्‍दू समाज में एक शहरी और पुजारी वर्ग है, वह वर्ग जिसने गाय का दूध पिया है पर गाय पाला नहीं या पाला भी तो उसका गोबर तक उठाया नहीं होगा। इनका ह़दय मोम का है, थोड़ी सी आंच में पिघल जाता है और उतनी ही आसानी से ठंड में पत्‍थर बन जाता है, यह परजीवी वर्ग ही गाय को लेकर अतिसंवेदी रहा है। किसान या गोपालक अपने जानवरों को प्‍यार करता है संवेदनशील भी होता है पर उसमें वह बौखलाहट नहीं होती है क्‍योंकि वह गोपालन और किसानी अर्थतन्‍त्र के कई ऐसे कड़वे पक्षों से परिचित होता है जिसमें चारे के अभाव में, मौसम की मार में, यह तय नहीं कर पाता कि वह अपने ही जानवरों में से किसको बचाये, किसको मरने को छोड़ दे। अघा सु हन्‍यते गाव:, यह अघा हमारा परिचित मा
घ का मघा नक्षत्र है जिसमें कमजोर, बीमार और चारे की कमी के कारण गोरू बड़े पैमाने पर मरते थे। इन अनुभवों के कारण उसकी प्रतिक्रिया उन्‍हीं सवालों को लेकर अधिक परिपक्‍व होती है। उसकी भी जो अपने बूढ़े, बेकार डंगरों को किसी कीमत पर किसी को बेचने या देने को तैयार नहीं होता, क्‍योंकि वह यह जानता है कि इसके लिए उसे कितनी भारी कीमत चुकानी और कैसी असुविधाओं का सामना करना पड़ता है और यदि किसी दूसरे से इसका निर्वाह नहीं हो पाता तो उसके बारे में वह ओछी राय तो बना लेता है, भर्त्‍सना भी कर बैठता है, परन्‍तु हंगामा नहीं मचाता। यदि इसी प्रश्‍न को तुम जीवन मरण का प्रश्‍न बनाना चाहो तो पाओगे उसके समर्थकों में अधिक वृद्धि हुई है। परन्‍तु वह आदमी जो मोम के पुतलाें को भी संभालने का प्रयत्‍न करता है कि उन्‍हें कोई खरोंच न आए, वह फौलादी स्‍वभाव का है और बड़े फैसले कर सकता है और उन फैसलों के साथ लोगों को जोड़ सकता है।”

”जोड़ता रहे, परन्‍तु हमें तो इस बात पर प्रसन्‍नता है कि भाई का जनाधार गया और इनका पत्‍ता साफ हुआ ।”

”और भ्रष्‍टता और कदाचार के उन सुनहले दिनों की वापसी हुई जिसमें तुम अधिक सुकून से रह लेते थे। कितनी ओछी समझ है और कैसे ओछे लोग है जो सांप्रदायिक आग को इस लिए जिलाए रखना चाहते हैं क्‍योंकि उनमें विजन का ऐसा अभाव हो गया है कि अपने को जिन्‍दा रखने के लिए भी कोई कारगर मुद्दा नहीं तलाश सकते। सांप्रदायिकता को अपनी ओर से उकसाते रहते हैं कि उसके विरोध के नाम पर उनको कुछ दिन और सांस लेने का मौका मिल सकता है। यदि तुम्‍हें पता है कि इस आदमी ने देश हित में इतना बड़ा फैसला लिया है जो उसके लिए ही खतरा बन सकता है तो कम से कम एेसे फैसलों पर तो तुम्‍हें उसके साथ एकजुटता दिखानी चाहिए। यदि ऐसा नहीं कर पाते तो तुम गर्हित उसे सिद्ध करना चाहते हो, गर्हित स्‍वयं सिद्ध होते जा रहे हो, और इसका पता तक नहीं। आनन्‍द ही आनन्‍द है। सड़ने से पहले का क्षणिक आनन्‍द।

Post – 2016-08-07

सभी रहते हैं अपनी ही जमीं पर आसमानों मे
मैं अपने आसमां को सबसे ऊंचा और बड़ा समझा ।
जमाने को समझता क्‍या जमीं को जब नहीं समझा
तुम्‍हीं देखो कि तुम क्‍या थे और मैंने तुमकाे क्‍या समझा ।
बड़ी मुश्किल में जां थी जान के दुश्‍मन हजारों थे
मगर हर दुश्‍मने जां को मैं अपना और सगा समझा।
मिले धोखों पर धोखे फिर भी इत्‍मीनान कायम था
पिया जहराब उससे आबे जमजम का मजा समझा ।
कहाँ की बात करते किस समय की बात करते हो
अरे भगवान तूने आदमी को ही कहां समझा।
*** *** ***
हम न समझेंगे तुम्‍हारी बात फिर भी देखना
तुमको समझाएंगे तुमको क्‍यों समझ पाया नहीं।

Post – 2016-08-07

”कल तो मजा आ गया । मोदी ने राजनीतिक आत्‍महत्‍या कर ही ली।”

”पोस्‍टमार्टम रिपोर्ट साथ लाये हो।”

”उसकी जरूरत क्‍या है। पट्ठे ने खुले आम रिवाल्‍वर निकाली, कनपटी पर लगा कर गोली दाग दी। देखने वाले सन्‍न रह गए।”

मुझे पता था, उसका इशारा किस तरफ था, ”गोली देश हित में मारी हो तब तो इसे आत्‍म बलिदान कहा जाएगा। उन्‍हें हुतात्‍मा। राष्‍ट्रीय शोक का विषय है, तुमको इसमें मजा आ रहा है। यदि देश और समाज को क्षति पहुंचाने के लिए तो तुमको उस कृत्‍य का समर्थन करना चाहिए जिसकी वह निन्‍दा या विरोध कर रहे थे।

इस खेल में मैं क्‍यों उलझने जाता। हम तो मजा लेने वालों में है। दुश्‍मन का घर जले तो अपना न भी बने पर हमारी स्थिति उससे बेहतर तो रहेगी।”

”कितने लंबे अरसे से प्रतीक्षा कर रहे थे इस घड़ी की? कितने लंबे समय से आयोजन चल रहा था ऐसी स्थिति पैदा करने की ? कितना खर्च उठाना पड़ा तुम्‍हें या इसके आयोजकों को ? आखिर यह खेल तो गुंडों और उचक्‍कों का ही था जिनको पैसा दे कर उनसे कुछ भी कराया जा सकता है। सुना यही मोदी जी ने भी अपने भाषण में कहा था।”

”इससे अधिक बड़ा आत्‍मघात क्‍या हो सकता है कि वह भला आदमी अपने ही लोगों के साथ विश्‍वासघात कर बैठा। वह अपने ही काडर को गुंडा और चोर बता रहा था।”

”तुमको तो आज पार्क में नाचते गाते हुए आना चाहिए था। पर तुम यह समझो कि यह आदमी न आत्‍महत्‍या कर सकता है न आत्‍महत्‍या के लिए उकसा सकता है। इसने आत्‍महत्‍या के लिए सीना तान कर आ रही पीढि़यों को पहली बार यह समझाया है कि इस पर पुनर्विचार करो। यह तरीका ठीक नहीं। अपना भला करने की सोचो और उसमें हमसे जो संभव होगा तुम्‍हारी सहायता करूंगा। पर इसका व्‍यक्तित्‍व ही ऐसा है कि इस अन्‍देशे से ही कि वह आ रहा है दल के दल आत्‍महत्‍या कर लेते हैं और उन्‍हीं में तुम्हारा दल भी है।”

”तुम जानते ही नहीं कि गाय को ले कर उसकी पार्टी और संगठन की संवेदनाएं इतनी प्रखर हैं कि गो रक्षकों पर इस तरह की टिप्‍पणी के बाद उसके ही लाेग उसका साथ छोड़ जाएंगे।”

”मैंने एक बार कहा था न कि वह अब तक का सबसे अनुभवी, सबसे सुपात्र प्रधानमन्‍त्री है, प्रशिक्षण की उस दीर्घ और तपाने वाली प्रक्रिया से निकला हुआ, जिसमें अन्‍तर्दृष्टि पैदा होती है, सपने पैदा होते हैं और उस सपनों काे साकार करने का हौसला पैदा होता है। वह छोटी चीज से सन्‍तुष्‍ट नहीं रह सकता। वह हिन्‍दू राष्‍ट्र से आगे, भारतीय राष्‍ट्र की बात सोचता है, भारतीय मंच पर उपस्थिति से सन्‍तुष्‍ट न रह कर विश्‍वमंच पर अपनी उपस्थिति मोटे अक्षरों में अंकित कराना चाहता है । उसके ये इरादे देश के भाग्‍य से जुड़े हैं, उसकी शक्ति और स्‍वाभिमान से जुड़े हैं और इसीलिए अपने देश और समाज का भला चाहने वालों को उसका साथ देना चाहिए।”

”साथ का क्‍या मतलब ? हम अपने दुश्‍मन का साथ क्‍यों देंगे ?”

”तुमको उसका नहीं, अपने देशहित का साथ देना है। वह किसी के हाथों हो रहा हो। जिसके हाथों हो रहा है उसका तब तक साथ देना चाहिए जब तक उससे देश का भला हो रहा हो। इसलिए उसकी गुणदाेषपरक आलोचना करनी चाहिए। जो काम ठीक है उन्‍हें ठीक कहना चाहिए। उनका इरादा खुद ही कल्पित करके उसे खारिज कर दोगे तो हो सकता है तुम्‍हारा यह निर्णय सही हो, परन्‍तु इसे अपने पक्ष में करने के लिए ऐसा विश्‍लेषण करना होगा जिससे वे लोग जो तुम्‍हारे जैसे विलक्षण प्रतिभा वाले हैं, वे भी समझ सकें। यह तुम अपने पाठकों की विश्‍वसनीयता अर्जित करने के बाद ही कर सकते हाे। साथ देने में ये दोनों बातें शामिल हैं। साथ देकर ही तुम समाज के साथ भी रह सकते हो और अपने साथ भी। यदि नहीं हुए तो लोग तुम्‍हारा साथ छोड़ जाएंगे और तुम्‍हें आत्‍महत्‍या का गौरव भी नहीं प्राप्‍त होगा। तुम्‍हारी सड़ती हुई लाश की दुर्गन्‍ध जब असह्य हा जाएगी तब लोगों को पता चलेगा तुम्‍हारी मृत्‍यु बहुत पहले हो चुकी है। सही समय पर तुम्‍हारी मौत की नोटिस तक नहीं ली जा सकी।”

”क्‍या बत्‍तमीजी करते हो। तुम जानते हो कह क्‍या रहे हो। तुम दुनिया से ऊपर हो। सारे बुद्धिजीवी जिसे गलत कह रहे हैं उसे तुम सही बता रहे हो और खीझ का हमारे संगठनों को श्राप दे रहे हो।” वह बौख्‍ाला उठा । मैं यही तो चाहता था।

”मैं तुम्हारे भले की सोच रहा था और य‍ह याद दिला रहा था कि पिछले पचीस सालों से मैंने तुम्‍हारे संगठन और उससे जुडे लोगों के विषय में जो तब मेरे अपने संगठन और मित्र भी हुआ करते थे, आगाह किया था कि इन हरकतों का यह परिणाम होगा। मैं जानता था इतना बड़ा संगठन होते हुए मुझ जैसे उपेक्षित व्‍यक्ति की बात नहीं सुनोगे। पर यह प्रकाशित है और इसे पेश किया जा सकता है कि मेरी, अकेले की, भविष्‍यवाणी जो भविष्‍यवाणी नहीं अपितु तार्किक परिणति का संकेत था, सही निकला। अपनी अदना हैसियत के कारण आज भी तुम मेरी बात न मान कर संख्‍या गिनाओगे। विचारों में लोकतन्‍त्र नहीं चलता, तार्किक संगति चलती है। मैं तुम्‍हें एक बड़े आदमी का उदाहरण दे कर अपनी बात रखूं तो संभव है तुम मेरी बात सकझ सको, गो यकीन फिर भी नहीं हैं।”

”अपनी बात तो कह यार। सिर खा जाता है।”

”तुम जानते हो, आइंस्‍टाइन आज भी एक आश्‍चर्यजनक मेधा हैं, परन्‍तु उनके जीवन काल में उनको लगातार शंकालुओं और विरोधियों का सामना करना पड़ा। जब वह सर्वमान्‍य से हो चले थे उस समय भी उनको सन्‍देहवादियों का सामना करना पड़ा। इसे स्टिफेन हाकिंंग के शब्दों को बिना एक भी अक्षर बदले रखूं तो वह निम्‍न प्रकार है:
Once more unpopularity did not stop from speaking his mind. His theories came under attack An anti-Einsten organization was even set up. One man was convicted of inciting others to murder Einstein (and fined a mere six dollars). But Eienstein was phlegmatic: when a book was published entitled Hundred Authors against Einstein , he retorted, “If i were wrong then one would have been enough.

”सांप्रदायिकता और बांटो और राज करो की नीति पर आरंभ से आज तक चलती आई राजनीति को एक नई दिशा में मोड़ने और ले जाने के लिए जिस विजन और साहस की जरूरत होती है वह उस अकेले आदमी में है और सबसे बड़ा दोष मुझे यही लगता है कि वह अपने ढंग का अकेला आदमी है और दूसरे उसकी तुलना में जिस हैसियत के थे उससे उनकी हैसियत घटी है। ऐसे ही लोग कभी कई बार अतिविश्‍वास के शिकार हो कर तानाशाह हो जाते हैं और इसकी संभावना अवश्‍य उस व्‍यक्ति में दिखाई देती है।”

”इसे तो हम पहले दिन से समझते हैं, तुमको आगाह भी करते आए हैं, और यह मामूली सी बात समझने में तुमने इतना समय लगा दिया।”

”तुम न तब कुछ समझते थे न अब कुछ समझते हो। पहले तुम्‍हारे भीतर भरी गई घृणा के जहर का झाग बाहर आ रहा था, तिलमिला रहे थे तुम, तड़प और छटपटा रहे थे तुम, अपने ही जहर के सेवन से। तिलमिलाता और छटपटाता हुआ आदमी सोच कैसे सकता है और तुम्‍हारी भविष्‍यवाणी लगातार झूठी साबित होती रही, वह अपने कौल और करार पर प्रत्‍यके परीक्षा में सफल सिद्ध होता गया और उसी अनुपात में तुम्‍हारी छटपटाहट बढ़ती गई, आज भी छटपटाहट बनी हुई है।”

तुम्‍हारे ऊपर कैसे विश्‍वास कर सकता हूं। तुम्‍हारे इस हंगामे की वजह से लोगों को उस व्‍यक्ति को समझने में बाधा पड़ी है। वह जो करना चाहता है उसमें बाधा पड़ी है, परन्‍तु इस आदमी में अपनी मनोबधाओं को भी समझने और उन्‍हें पार करने का साहस है और बाहरी बाधाओं से निबटने की भी दक्षता हासिल है। वह अपने लाेगों को भी अपनी कमियों को दूर करने का समय देता है और दूसरों के लिए भी ऐसा वातावरण तैयार करने का प्रयत्‍न करता है कि वे अपनी पुरानी गलतियों को समझें और नई महत्‍वाकांक्षा से लैस हो कर आगे बढ़ें, पुराने झगड़ों की दलदल में फंस कर अधोगति की ओर न जांय। उसके इस सन्‍देश को भी पहुंचाने का माध्‍यम बनने की जगह तुम उसे उलट कर दहशत फैलाने में अपनी शक्ति का अपव्‍यय करते हो और थक कर अपनी ही नजर में क्रमश: व्‍यर्थ और अप्रासंगिक सिद्ध होते हुए शिफर बनने की ओर की यात्रा करते हो।

”बात बात पर तुम्‍हारे भीतर का सोया हुआ चारण क्‍यों जाग जाता है भाई। तुम यह क्‍यों नहीं देखते कि जिस भावुकता को उभार कर संघ और इससे जुड़े संगठन हिन्‍दू समाज को अपने से जोड़ते रहे हैं उसे ही उसने दलितों और मुसलमानों को अपने साथ लाने के लिए इतनी बड़ी चूक कर दी। वे इसके साथ आने वाले नहीं और जो अपने थे वे भी हाथ से गए । अब इसकी छुट्टी तय है।”

मैं जानता हूं हिन्‍दू समाज में एक शहरी और पुजारी वर्ग है, वह वर्ग जिसने गाय का दूध पिया है पर गाय पाला नहीं या पाला भी तो उसका गोबर तक उठाया नहीं होगा। इनका ह़दय मोम का है, थोड़ी सी आंच में पिघल जाता है और उतनी ही आसानी से ठंड में पत्‍थर बन जाता है, यह परजीवी वर्ग ही गाय को लेकर अतिसंवेदी रहा है। किसान या गोपालक अपने जानवरों को प्‍यार करता है संवेदनशील भी होता है पर उसमें वह बौखलाहट नहीं होती है क्‍योंकि वह गोपालन और किसानी अर्थतन्‍त्र के कई ऐसे कड़वे पक्षों से परिचित होता है जिसमें चारे के अभाव में, मौसम की मार में, यह तय नहीं कर पाता कि वह अपने ही जानवरों में से किसको बचाये, किसको मरने को छोड़ दे। अघा सु हन्‍यते गाव:, यह अघा हमारा परिचित माघ का मघा नक्षत्र है जिसमें कमजोर, बीमार और चारे की कमी के कारण गोरू बड़े पैमाने पर मरते थे। इन अनुभवों के कारण उसकी प्रतिक्रिया उन्‍हीं सवालों को लेकर अधिक परिपक्‍व होती है। उसकी भी जो अपने बूढ़े, बेकार डंगरों को किसी कीमत पर किसी को बेचने या देने को तैयार नहीं होता, क्‍योंकि वह यह जानता है कि इसके लिए उसे कितनी भारी कीमत चुकानी और कैसी असुविधाओं का सामना करना पड़ता है और यदि किसी दूसरे से इसका निर्वाह नहीं हो पाता तो उसके बारे में वह ओछी राय तो बना लेता है, भर्त्‍सना भी कर बैठता है, परन्‍तु हंगामा नहीं मचाता। यदि इसी प्रश्‍न को तुम जीवन मरण का प्रश्‍न बनाना चाहो तो पाओगे उसके समर्थकों में अधिक वृद्धि हुई है। परन्‍तु वह आदमी जो मोम के पुतलाें को भी संभालने का प्रयत्‍न करता है कि उन्‍हें कोई खरोंच न आए, वह फौलादी स्‍वभाव का है और बड़े फैसले कर सकता है और उन फैसलों के साथ लोगों को जोड़ सकता है।”

”जोड़ता रहे, परन्‍तु हमें तो इस बात पर प्रसन्‍नता है कि भाई का जनाधार गया और इनका पत्‍ता साफ हुआ ।”

”और भ्रष्‍टता और कदाचार के उन सुनहले दिनों की वापसी हुई जिसमें तुम अधिक सुकून से रह लेते थे। कितनी ओछी समझ है और कैसे ओछे लोग है जो सांप्रदायिक आग को इस लिए जिलाए रखना चाहते हैं क्‍योंकि उनमें विजन का ऐसा अभाव हो गया है कि अपने को जिन्‍दा रखने के लिए भी कोई कारगर मुद्दा नहीं तलाश सकते। सांप्रदायिकता को अपनी ओर से उकसाते रहते हैं कि उसके विरोध के नाम पर उनको कुछ दिन और सांस लेने का मौका मिल सकता है। यदि तुम्‍हें पता है कि इस आदमी ने देश हित में इतना बड़ा फैसला लिया है जो उसके लिए ही खतरा बन सकता है तो कम से कम एेसे फैसलों पर तो तुम्‍हें उसके साथ एकजुटता दिखानी चाहिए। यदि ऐसा नहीं कर पाते तो तुम गर्हित उसे सिद्ध करना चाहते हो, गर्हित स्‍वयं सिद्ध होते जा रहे हो, और इसका पता तक नहीं। आनन्‍द ही आनन्‍द है। सड़ने से पहले का क्षणिक आनन्‍द।

Post – 2016-08-06

न मैं तुमको समझ पाया न तुम मुझको समझते हो
मुझे भी हो पता अपने को तुम क्‍यों क्‍या समझते हो
मुखातिब है उसे भी जान पाने की नहीं चाहत
बताते हो कि तुम सारे जमाने काे समझते हो।
समझने की जरा सी शर्त है नफरत से बाहर आ
नही मुश्किल समझना इसकाे, फिर भी क्‍या समझते हो।
अकड़ता था बहुत भगवान वह बन्‍दों से ऊपर है
गुजारिश उससे तुम क्‍या अपने बन्‍दों को समझते हो ।
वह जिस भी आसमां पर था जमीं पर आ गया देखो
कहा क्‍यों आप मुझको खाक से ऊपर समझते हो।x

Post – 2016-08-06

निदान – 13
खंडित चेतना और विश्‍वसमाज

मेरा मित्र आज तैयारी के साथ्‍ा आया था। अपने स्‍वभाव के विपरीत उसने स्‍वर को संतुलित रखते हुए कहा, ”हमने धर्मआधारित सोच और राजनीति की भारी कीमत चुकाई है। जिन समस्‍याओं को सुलझाने के लिए यह कीमत दी गई वे पहले से उग्र हो गईं। स्‍वतन्‍त्र भारत में हमारा एकमात्र लक्ष्‍य था कि अब यह खंडित चेतना समाप्‍त हो। मुस्लिम लीग भारत में समाप्‍त हो गई थी। हिन्‍दू सांप्रदायिकता बनी रही, और इस चिन्‍ता में कि हमें धर्म और जाति से ऊपर उठ कर देशहित की राजनीति करनी चाहिए, विश्‍वसमाज का अंग बनना है, हमारे दल ने ही नहीं खुली सोच के सभी लोग उन मूल्‍यों और रीतियों व्‍यहारों की आलोचना करते रहे जिनसे संकीर्णता को बढ़ावा मिलता है। इसी में खानपान की अतिसंवेदनशीलता को कम करने के लिए ही प्राचीन ग्रंथों और खानपान के विधि निषेध का हवाला दिया जिसे हिन्‍दूवादी सोच के लोगों ने अपने ऊपर आक्रमण मान लिया और भावुक प्रतिक्रिया प्रकट की। शास्‍त्री जी, क्‍या आपको नहीं लगता कि स्‍वतन्‍त्र भारत में सांप्रदायिक राजनीति के लिए कोई जगह नहीं और यदि यह जारी रहती है तो इसके कारण अनिष्‍ट ही होगा, देश का भला नहीं।”

शास्‍त्री जी ध्‍यान से सुनते रहे और जब जवाब देने का समय आया तो भी अपने स्‍वर को संयत ही रखा, ”सर, लंबे समय तक एक ही तरीके से सोचते रहने के कारण कई बार आदमी को लगता है वह जो मानता है, वह लंबे सोच-विचार के बाद मानता है, जब कि अनजाने ही वह बहुत सारी बातों को ओझल करके अपनी मान्‍यता पर टिका रहता है। अाप लोगों ने तो वे दिन भी देखे हैं जब यह घटनाचक्र बदला था, आप मुझे यह समझने मे सहायता करें कि उत्‍तर भारत में मुस्लिम लीग का एक बहुत व्‍यापक संजाल बन गया था जिसके नेता कांग्रेस के नेताओं से अधिक मुखर थे। क्‍या पाकिस्‍तान बनने के बाद वे सभी पाकिस्‍तान चले गए थे ? ”

मेरा मित्र तत्‍काल कोई जवाब नहीं दे पाया।

शास्‍त्री ने कहा, ”उनका नब्‍बे प्रतिशत यहीं रह गया। वे राजनीतिक लोग थे। राजनीति के बिना जीवित नहीं रह सकते थे। बेनीपुरी जी ने लिखा है कि वे रातोंरात खादी पहन कर कांग्रेसी बन गए थे और इसके साथ ही कांग्रेस का चरित्र बदल गया था। कहें, मुस्लिम लीग कांग्रेस की आत्‍मा बन गई थी और कांग्रेस उसकी काया मात्र रह गई थी।

”आपकी पार्टी के बारे में तो डाक्‍साब ने प्रमाण और आपके नेताओं के बयान के साथ यह सिद्ध किया था कि आपकी पार्टी ने ही विभाजन को संभव बनाया था, उसने मुस्लिम लीग का एजेंडे को अपने घोषित एजेंडे से भी अधिक महत्‍व दिया और हिन्‍दुओं की पीड़ा पर अट्टहास करते रहे। याद है न आपको कामरेड डांगे का विभाजन से पूर्व हुए नरसंहार पर बयान। कान्ति के लिए खून बहाने की आदत डाली जा रही थी।

”समाजवादियों का एक दल था जो मार्क्‍स से प्रेरित था, पर अपने परंपागत मूल्‍यों और मानों का उपहास नहीं करता था, उसके प्रति आलोचनात्‍मक दृष्टि रखता था और एक समय में उसका भी लेखन प्रगतिशील माना जाता था, उसे हाशिए पर डाल दिया गया और जो अपने गलित रूप में अवतरित हुआ वह पतनोन्‍मुख बौद्ध मत के लोक मत में प्रवेश और पंचमकारी बनने की याद दिलाता है।

”इसके बावजूद इन सभी ने केवल और केवल प्राचीन इतिहास, हिन्‍दू मूल्‍यों और जीवनादर्शों , हिन्‍दू शास्‍त्रों पर ही प्रहार करना आरंभ नहीं किया अपितु अपनी समझदारी में हिन्‍दू को ब्राह्मणवाद और हिन्‍दू समाज की विकृतियों के लिए केवल ब्राह्मणों को उत्‍तरदायी बना कर सभी दिशाओं से तीर चलाए जाते रहे। आप कहते हैं कि स्‍वतंत्र भारत में मुस्लिम लीग समाप्‍त हो गई और मुझे लगता है इसके बाद उसने रक्‍तबीज की तरह फैल कर अपने को सेक्‍युलर कहने वाले सभी संगठनों में प्रवेश कर लिया। अब एक नया समीकरण उभरा जिसमें मुस्लिम लीग का हिन्‍दू नाम सेक्‍युलरिज्‍म हो गया और जिन दलों की आत्‍मा में पहले से ही इसका प्रवेश हो चुका था वे अपने पुराने सभी लक्ष्‍य छोड़ कर सेक्‍यलरिज्‍म के बचाव के लिए मस्लिम पूर्व के इतिहास और संस्‍क़ृति को नष्‍ट करने के एक बृहद आयोजन में सीधे या परोक्ष रूप से एकजुट होते गए और यदि किसी मार्क्‍सवादी ने इस हद तक झुकना पसन्‍द नहीं किया तो उसकी भी खाट खड़ी करने लगे। आप मुझे यह समझने में मदद करें कि हिन्‍दूव्‍यतिरिक्‍त भारत का जो आदर्श आपने इन दबावों में अपनाया उसमें हिन्‍दू की आत्‍मरक्षा की आवश्‍यकता पहले से अधिक बढ़ी या घटी और इसके लिए हम उत्‍तरदायी हैं या आप लोग जो अपने को उदार और सहनशील दिखाने के उत्‍साह में मैसोकिज्‍म के शिकार हो गए और हमसे भी यही अपेक्षा करते हैं, कि हम भी आप जैसे बन जायं?हिन्‍दू की पीड़ा को आनन्‍द का स्रोत मान लें वह इस देश में हो या किसी अन्‍य में। हम धर्म और जाति निरपेक्ष भाव से किसी संकटग्रस्‍त भारतीय की पीड़ा को अनुभव करते हैं और इसके लिए अपनी जान लगा देते हैं, यह हमने अपने नारों से नहीं नीति और व्‍यवहार से सिद्ध किया है, विश्‍वमानवता की चिन्‍ता भी हमें है, आपको कभी रही ही नहीं। आपके आदर्श में तो उसी देश का पूरा समाज दोस्‍त और दुश्‍मन में, शिकारी और शिकार में बदल दिया जाता है।”

Post – 2016-08-06

सभी रहते हैं अपनी ही जमीं पर आसमानों मे
मैं अपने आसमां को सबसे ऊंचा और बड़ा समझा
जमाने को समझता क्‍या जमीं को जब नहीं समझा
तुम्‍हीं देखो कि तुम क्‍या थे और मैंने तुमकाे क्‍या समझा
बड़ी मुश्किल में जां थी जान के दुश्‍मन हजारों थे
मगर हर दुश्‍मने जां को मैं अपना और सगा समझा।
मिले धोखों पर धोखे फिर भी इत्‍मीनान कायम था
पिया जहराब उससे आबे जमजम का मजा समझा ।
कहाँ की बात करते किस समय की बात करते हो
अरे भगवान तूने आदमी को ही कहां समझा।
*** *** ***
हम न समझेंगे तुम्‍हारी बात फिर भी देखना
तुमको समझाएंगे तुमको क्‍यों समझ पाया नहीं।

Post – 2016-08-05

वह मेरे पास था पर साथ वह रहा ही नहीं।
जो मेरे नाम से उसने कहा कहा ही नहीं।
व ह तो मुझमें ही समाया हुआ दुयमन था मेरा
मार कर मुझको देखिए कि खुद मरा भी नहीं।

Post – 2016-08-05

निदान – 12

राष्‍ट्रीय सैडोमैसोकिज्‍म का दौर

”शास्‍त्री जी, कल आपने इस भले मानस को चुप तो करा दिया, पर क्‍या अपनी बात भी मनवा सके ?”

”इसमें दुविधा कहॉं से पैदा हो गई । मैंने तो प्रमाण देते हुए अपनी बात रखी थी, यदि इसके बाद भी दुविधा बनी रह जाय तो हम जीवन पर्यन्‍त वाद-विवाद करते रहें, किसी निर्णय पर पहुंच ही नहीं पाएंगे।”

”वाद जीतना सत्‍य की प्रतिष्‍ठा नहीं होती। उन सन्‍देहों का निराकरण भी जरूरी है जो तर्कातीत होते हैं।”

”मैं समझ नहीं पाया आप क्‍या कहना चाहते हैं।”

”कहना यह चाहता था कि यह कानून लंबे समय से रहा है, परन्‍तु इसे ले कर इतनी अतिसंवेदनशीलता जो क्रूरता की सीमाएं लांघ जाय, जिससे अपना ही समाज खंडित हो जाय, मन में गहरे जख्‍म पैदा हो जायं, यह तो न समाज के हित में है न राष्‍ट्र के। हाल में ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनमें आपके प्रतिनिधियों की संलिप्‍तता न भी रही हो तो उन्‍होंने उसका समर्थन किया है, या ऐसी चुप्‍पी साधे रहे हैं, जिससे लगे कि वे ऐसी प्रतिक्रियाओं का समर्थन करते हैं।”
”डाक्‍साब, आपकी बात अब मेरी समझ में आ गई, मैंने वाद जीता था, उन्‍हें कन्विंस नहीं कर सका था, अन्‍यथा वह डैमेज कंट्रोल जैसा कटाक्ष न करते। और समझ में यह बात इसलिए आई कि इस समय मैं भी आपकी व्‍यख्‍या और अारोप के समक्ष निरुत्‍तर हूं, इसलिए कहें वाद तो आप जीत गए, पर मैं अपनी हार स्‍वीकार नहीं कर पाता।”

”इसका कोई कारण तो होगा।”

”कारण यह कि, इस समस्‍या को जितना सरलीकृत बना दिया जाता है और फिर गणित के निर्भ्‍रान्‍त उत्‍तर जैसा उत्‍तर गढ़ लिया जाता है और उससे असहमत होने वालों से किसी को किसी भी तर्क से जोड़ कर अपराधी सिद्ध कर दिया जाता है उतना इकहरा और सरल यह प्रश्‍न है नहीं। मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि मैंने इस प्रश्‍न पर बहुत गहराई से सोचा है। हो सकता है इसके कुछ पहलू मेरे पूर्वाग्रहों के कारण मेरी समझ में ठीक से न आ सके हों परन्‍तु मुझे यह भ्रम है कि आप लोग इस पर यान्त्रिक ढंग से सोचते हैं, हिन्‍दू समाज को एकपिंडीय और यन्‍त्रमानवों का समुदाय मान लेते है। पूरे हिन्‍दू समाज में किसी ने कुछ ऐसा किया या कहा हो जो आप को ठीक न लगे तो उसके लिए उसे हिन्‍दू मुल्‍यों की चिन्‍ता करने वाले सगठन से जोड़ कर अपनी मनमानी सिद्ध करते हैं। अापकी सोच में में हिन्‍दू समाज की संवेदनाओं और पीड़ाओं के लिए कोई स्‍थान नहीं होता, जब कि दुनिया के प्रत्‍येक दूसरे समाज की भावनाओं का आपको इतना खयाल होता है कि लगता है हमने गुलामी के मूल्यों का आभ्‍यन्‍तरीकरण कर लिया है। वे अपमान हमारी चेतना में इस तरह उतार दिए गए हैं मानो उनसे अपमानित न हुए तो सम्‍मानित रह ही नहीं सकते।”

मित्र को मौका मिला, ”क्‍या गजब का पदव्‍याघात है, अपमानित न हुए तो सम्‍मानित रह ही नहीं सकते।”

शास्‍त्री जी इससे उत्‍तेजित नहीं हुए, उल्‍टे अधिक शालीन हो गए, ”आप ने ठीक समझा । और यही पदव्‍याघात मुझे आहत भी करता है। आप अपने को हिन्‍दू भी कहते हैं, हिन्‍दुओं का, पूरे हिन्‍दू समाज का, इसके मूल्‍यों, मान्‍यताओं, विश्‍वासों सभी का उपहास भी करते हैं और इससे गौरवान्वित भी अनुभव करते हैं और कभी यह सोचने का कष्‍ट भी नहीं करते कि अापके आचरण में यह अन्‍तर्विरोध आया कैसे ? और आया तो अबतक विद्यमान क्‍यों है ? अपने को बुद्धिमान का आत्‍मप्रमाण देने वाली पूरी पीढ़ी की पीढ़ी इससे मुक्‍त क्‍यों नहीं हो पाती ?”
”यदि हमारी समझ में नहीं आता तो आप ही समझाइये।” मित्र से चुप न रहा गया।
”समझा तो सकता हूं, पर पहली बात तो यह कि डाक्‍साब से प्रश्‍न करना अच्‍छा लगता है, अपना पक्ष रखना भी आश्‍वस्तिकर होता है, परन्‍तु इनके सामने खुल कर बोलते हुए थोडी झिझक बनी रहती है कि पता नहीं कौन सी बात इन्‍हें अटपटी लगे और मन ही मन उसका आनन्‍द लेने लगे।”

”मुझे आनन्‍द भी नहीं लेने देना चाहते आप ?” मैंने हंस कर कहा ।

शास्‍त्री जी ने भी हंसते हुए ही जवाब दिया, ”मैं अपने संकोच की बात कर रहा था। हां, एक शर्त है, हम इसे जीत-हार का प्रश्‍न बना कर बात न करें। ए‍क गंभीर समस्‍या समझ कर इसको सुलझाने का प्रयत्‍न करें। मैं कुछ ऐसी बातें अपने मन्‍तव्‍य को स्‍पष्‍ट करने के लिए कह सकता हूं जो संभव है सुनने में कठोर लगें पर मेरा आशय व्‍यक्तिगत नहीं, समस्‍यागत ही होगा। समस्‍या के जिन जटिल पहलुओं की मैं बात कर रहा था उसे लें। किसी समाज के बुद्धिजीवी या कहिए ऐसे अवसरवादी तत्‍वों को लें जो अपनी मंजिलें तय करने के लिए अनुचित या अापत्तिजनक विचारों को भी आत्‍मसात् कर लेते हैं और इस दिशा में असावधान होने के कारण उसी पर गर्व करने लगते हैं। यह तो डाक्‍साब का ही सुझाव था जिसे मैंने स्‍वयं भी समझने का प्रयत्‍न किया। इसे सैडिज्‍म और मैसोकिज्‍म कहा जाता है और इसकी ओर यौन व्‍यवहार का अध्‍ययन करते समय मनोवैज्ञानिकों का ध्‍यान गया इसलिए उसी तक इस पक्ष को रख कर ही बात की जाती रही। ये दोनों प्रवृत्तियां विपरीत हैं जिनमें लगातार अपमान और यंत्रणा सहते हुए एक व्‍यक्ति विशेषत: जिसे हम नारी से जोड़ते हैं, इसे अपने यौन व्‍यवहार से इस तरह जोड़ लेता है कि यह रिफ्लेक्‍स ऐक्‍शन जैसा हो जाय। पीड़ा सहते हुए तड़पना और फिर उसका आदी हो कर उसमें आनन्‍द लेने लगना या उसके बिना अतृप्‍त अनुभव करना। ठीक इसके विपरीत पीडि़त करने में ही आनन्‍दानुभूति। दोनों का कई बार एक ही व्‍यक्ति में लक्षण पाया जाने लगता है जिसे सैडोमैसोकिज्‍म कहते हैं। परन्‍तु इसे काम क्षेत्र से बाहर ले जा कर कामनापूर्ति के व्‍यापक क्षेत्र में भी देखा जाना चाहिए जिसमें अपमानजनक शर्तों को सहर्ष स्‍वीकार कर लेने पर सम्मान और पुरस्‍कार आदि का लाभ होने के कारण व्‍यक्ति उस पर गर्व अनुभव करने लगता है और उन लोगों से घृणा करने लगता है जो अपने सम्‍मान या आत्‍मगौरव के लिए कष्‍ट झेलना, उपेक्षित रहना, अवसरों और सुविधाओं से वंचित रहना तो स्‍वीकार कर लेते हैं परन्‍तु झुकते नहीं। न परपीड़न में सुख पाते हैं न आत्‍मपीड़न के लिए तैयार होते हैं। सर, आप लोग जो सेक्‍युलरिज्‍म की आड़ में कहते और करते हैं, उस पर इस दृष्टिकोण से विचार कीजिएगा और किसी निष्‍कर्ष पर पहुंचे तो मुझे भी समझाइयेगा।”

”आपने तो बड़े तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात रखी शास्‍त्री जी। मुझे तो इसकी उम्‍मीद ही न थी।” मैंने कहा तो शास्‍त्री जी गदगद हो गए। मेरे मित्र ने भी तत्‍काल कोई प्रतिक्रिया नहीं की।

”अब रही बात इस बीफ की । कब से क्‍या रहा है यह मेरे लिए उतना महत्‍व नहीं रखता। वेद में या उससे पहले के दिनों में क्‍या प्रचलित रहा कैसे उसके निषेध के प्रयत्‍न होते रहे इसे ले कर लोग कई तरह की बातें करते हैं, पर वेद में गाय के लिए अघ्‍न्‍या का प्रयोग है इसलिए मैं तो यही मानता हूं कि इसका निषेध था।
मैंने बीच में हस्‍तक्षेप किया, ”हम समझने का प्रयत्‍न कर रहे हैं इसलिए थोड़ा अपने को इससे अलग करके देखें। वैदिक समाज में शायद चिन्‍ता गाय को लेकर अधिक थी इसलिए वेद में भी और अवेस्‍ता में भी गाय को अघ्‍न्‍या / अग्‍न्‍या ही कहा गया, पूरे गो प्रजाति के साथ यह निषेध न था। अवेस्‍ता में जहां गाय को अग्‍न्‍या कहा गया है वहीं, सांड की बलि का स्‍पष्‍ट उल्लेख है, यही स्थिति भारत की भी थी। इसलिए आठवें मंडल में यह बताते हुए कि गाय रुद्रों की माता है, वसुओं की पुत्री है, आदित्‍यों की बहन है, अमृत स्‍वरूप दूध देती है, इसलिए इसका वध न किया जाय, केवल गाय पर जोर है, गोप्रजाति पर नहीं। यह पहली बार शतपथ ब्राह्मण में आता है।”

”क्षमा करें डाक्‍साब, मैं उस इतिहास में जाना ही नहीं चाहता। मैं कहना यह चाहता हूं कि इस्‍लाम और ईसाई मतों का जन्‍म भी नहीं हुआ था, उस समय से ही हमारी संवेदनाए गाय और गो प्रजाति से बहुत गहराई से जुड़ी हैं। यह बहुत लंबा समय है। आप इसको खाद्य या अखाद्य के कोण से ही न देखिए। यह देखिए कि हमारी भावनाओं को आहत करने के लिए लगातार इसका प्रयोग किया जाता रहा है। यही काम आपके सैडोमैसोकिस्‍ट इतिहासकार भी करते रहे अन्‍यथा ये भावनाएं इतनी प्रखर न होतीें। भावनाएं बहुत सारी बातों से जुड़ी रहती हैं और उनकी रक्षा के लिए हम उन प्रसंगों की ओर ध्‍यान नहीं देते। यह अकारण इतिहास का सत्‍य बता कर इसे उभारा जाता रहा, केवल हिन्‍दू भावनाओं को आहत करने के लिए।”

मित्र ने संयत स्‍वर में ही कहा, ”यह आपकी कल्‍पना भी ताे हो सकती है।”

”होती, यदि इसे सन्‍दर्भ, अनुपात और औचित्‍य का ध्‍यान रखते हुए किसी प्रसंग में कहा गया होता। इसका उसी तरह विज्ञापित और गर्वित भाव से संचार माध्‍यमों से प्रचार किया जाता रहा जिस तरह बीफ की दावत वगैरह आयोजित और विज्ञापित करके। वहां खाने से अधिक अपमान करने का प्रयत्‍न था और अपमानित समाज में कुछ लोग तो अनुपात से अधिक उग्र प्रतिक्रिया दिखाएंगे ही । अपराधी क्रिया करने वाला, फसाद को शुरू करने वाला, उसे ढोल बजा कर उत्‍तेजित करने वाला हुआ, या उत्‍तेजित होने वाला, या दोनों और या अाप तथा आपके प्रेस, अपने को बुद्धिजीवी कह कर खुद ही अपनी बुद्धि के दिवालेपन का प्रमाण देने वाले। यदि देश में शान्ति और सद्भाव चाहिए तो क्‍या इसमें सबका सहयोग आवश्‍यक नहीं है ?”

बात शास्‍त्री की सही लगी, मैंने मित्र से कुछ कहा नहीं, पर यह इशारा किया कि अब बोलो। मित्र दूसरी ओर देखने लगा तो बोलना पड़ा, ”यदि यह योजनापूर्वक हो रहा है तो यह योजना किसकी थी, इसकी तैयारी कितनी लंबी थी, इसका इनाम क्‍या था कि जिस बात को कोसंबी और काणे बहुत पहले लिख चुके थे उसी को दूहराने वाला एक इतिहासकार कह रहा था कि यह उसकी खोज है और उसी को लेकर नाचना गाना बजाना जारी रखे था। यह तो योजनाकारों को पता ही था कि इसकी यह प्रतिक्रिया हो सकती है। जवाब तो देना पड़ेगा किसी को।”

मेरा मित्र उठा और बिना कुछ बोले, बिना किसी उद्विग्‍नता के, विचारो में डूबा सा आगे बढ़ गया।

Post – 2016-08-05

न ही उस शोर में शामिल न इस सन्‍नाटे में
न मुनाफे की ही सोची न रहे घाटे में ।
कहा कुछ भी तो कहा जोड़ कर न छोड़ कर कुछ
गरूर वालों को भी कुछ तो मिला चॉटे में।
प्‍यार से उनको खारजार में ले जाता हूं
जो फर्क करना जानते न फूल कांटे मे ।
यूं ही भगवान को भगवान नहीं कहते लोग
वह बदल देता है हर शोर को सन्नाटे में ।।

Post – 2016-08-04

निदान 11
डैमेज कंट्रोल

आप कल मेरे उत्‍तर से सन्‍तुष्‍ट नहीं थे। आप का तो यही अध्‍ययन क्षेत्र है। बताइए आपने तबलीग की बढ़ती प्रवृत्ति को कब लक्ष्‍य किया और किस रूप में?”

”क्‍या आपको जालीदार टोपियों के चलन और इनकी संख्‍या में उछाल दिखाई नहीं देता।”

”दिखाई देता है। नजर इतनी धुंधली नहीं हुई है, पर जानना चाहता था कि आपको यह कब से नजर आने लगा? जानते हैं आप इसे एक दो दशक से पीछे नहीं ले जा सकेंगे। हद से हद तीन। मैं ठीक कह रहा हूु ?”

शास्‍त्री जी मेरी बात से सहमत हो गए।

”और क्‍या आप को पता है अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र के अरब देशों का पैसा किस पैमाने पर भारत में पंप होना आरंभ हुआ और कब से ?”

शास्‍त्री जी के चेहरे से लगा उन्‍हें इनके बीच कुछ संबन्‍ध दिखाई देता है। कहा उन्‍होंने कुछ नहीं।

मैंने कहा, ”क्‍या आप ने उस सन्‍यासी और मठ के गोसाईं की कथा पढ़ी है, पढ़ी तो होगी ही, वह कहानी आपको याद है जिसमें चूहें के उछल कर खूंटी पर टंगी पोटली काटने की घटना आती है और जिस पर अतिथि सन्‍यासी ने सुझाया था कि पैसे में बहुत गर्मी होती है। इसके ठिकाने का पता लगाओ, इसने बहुत सा धन जमा कर रखा है अन्‍यथा इतनी ऊंची उछाल नहीं ले सकता था और फिर आगे की कहानी तो याद ही होगी।”

शास्‍त्री जी चुप रहे, पर उस चुप्‍पी का अर्थ था, हां याद आ गया।

मैंने कहा, ”अरब देशों में तो गर्मी वैसे ही असह्य होती है। फिर सोने में तो कहते हैं गर्मी के साथ नशा भी धतूरे से अधिक कही गई है। उसके साथ जाली टोपी आ गई तो उस पर तो आप को प्रसन्‍न होना चाहिए। हवा लगेगी तो दिमाग तो ठंढा रहेगा। इस पैसे के कारण उनमें कितनी छटपटाहट है और उससे बचने काे वे कितने बेचैन है यह भी तो देखिए।”

अभी तक जो शास्‍त्री जी सहमति में मौन से काम ले रहे थे, वह अपना माथा पीटने लगे। यह तो कह नहीं सकते थे कि आप से बड़ा अनाड़ी मैंने जीवन में कभी देखा ही नहीं। माथा भी कुछ संभाल कर दबाते हुए पीट रहे थे कि यह भ्रम बना रहे कि सिर भारी सा है और मैं इसे अपना अपमान न समझ लूं। उनकी परेशानी देख कर मैंने कहा, ”देखिए, जब हम किसी कारण से अपने को दूसरों से श्रेष्‍ठ सिद्ध करना चाहते हैं तो जहां यह श्रेष्‍ठता उसे स्‍वीकार्य होती है वहां भी इससे तनाव पैदा होता है, क्‍योंकि इसका अभिप्राय होता है कि दूसरे में उस गुण का अभाव है। आप यह न कहिए कि मैं तो सच बोलता हूँ, सच बोलिए, लोग जान लेंगे। श्रेष्‍ठता बघारने की चीज नहीं होती, यह हीरा छिपा कर रखा जाता है कि कहीं हमारे किसी आचार व्‍यवहार से दूसरों की नजर न इस पर पड़ जाय।

“मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि हमारा समाज किसी दूसरे समाज से अच्‍छा है, क्‍योंकि इस बहस के शुरू होते ही वह अच्‍छा नहीं रह जाएगा, क्‍योंकि इसका अर्थ हो जाएगा तुम्‍हारा समाज या धर्म अच्‍छा नहीं है। वह अपने को झगड़ालू सिद्ध करके पहले से कम अच्‍छा तो हो ही जाएगा। मेरे मित्र की चूक यह है कि वह यह बताते फिरते हैं कि कुर’आन दूसरे धर्म ग्रन्‍थों से अच्‍छा है। या यह भी हो सकता है कि वह इस खयाल से परेशान हों कि इस्‍लाम के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है उससे लोगों के दिमाग में कुरआन और इस्‍लाम के बारे में यह धारणा बन रही होगी कि इसमें ऐसे ही विचार है इसलिए उनकी यह गलतफहमी दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। वह बहुत संजीदा स्‍वभाव के इंसान हैं और उन्‍हें कभी वह जाली टोपी भी लगाते नहीं देखा। सुनते बहुत कम हैं इसलिए उनसे पूछ भी नहीं सकता कि उनका मकसद क्‍या है। तबलीग पर हम बाद में बात करेंगे।

”सबसे पहले हमें अपनी भाषा और आचरण में केवल इस बात ध्‍यान देना चाहिए कि उससे किसी दूसरे को कष्‍ट तो नहीं हो रहा है, इस बात पर कि हमारी कितनी बातें मानवता के हित में हैं या नहीं हैं, न इस कि इस बहस में पड़ना कि इस्‍लाम का मतलब क्‍या है। इस्‍लाम का मतलब अगर शान्ति है तो इसे भी, हमें अपने व्‍यवहार से यह सिद्ध करना होगा कि हम जो कुछ करते या कहते हैं उससे दुनिया में शान्ति पैदा हो, डिक्‍शनरी दिखाने से कुछ नहीं होता, शब्‍द व्‍यवहार में सार्थकता पाते हैं।”

शास्‍त्री जी का सिरदर्द कुछ कम हो गया, पर मेरा इरादा उसे कुछ और बढ़ाने का था इसलिए उनकी ओर ही मुड़ पड़ा, ”आप तो कहेंगे कि हिन्‍दू धर्म सबसे मानववादी है और इसकी धर्म की परिभाषा के साथ सर्वभूतहिते रत: और बसुधैव-कुटुंबकम् का जाप आरंभ कर देंगे, पर वसुधा को तो छोड़ दें, क्‍या आप हिन्‍दू समाज को कुटुंब बना सके हैं? आप की तानाशाही का हाल यह कि आप अपनी शर्तों के अनुसार दुनिया को चलाना चाहते हैं, यदि कुछ पीढि़यों से शाकाहारी है तो शाकाहार को पवित्रता की उस पराकाष्‍ठा पर पहुंचा देंगे की साग के अलावा यदि कोई कुछ खाता है तो घृणा का पात्र हो जाएगा और उसका ही सफाया करने की सोचने लगेंगे। यह कैसी अहिंसा और कैसा शाकाहार जो आमिषभोजी मनुष्‍य की हत्‍या करने को तैयार हो जाय या दूसरों को तैयार करने लगे। अहिंसा को भी क्रूरता का पर्याय बनाया जा सकता है, यह आपको देख कर लगता है।”

शास्‍त्री जी मुझे हैरानी से देखने लगे, पर मैं उन्‍हें कुछ और दुखी करना चाहता था।

”शास्‍त्री जी, ईसाइयत और इस्‍लाम दोनों बहुत बुरे हैं । इन्‍होंने आपके हनुमान जी की तरह जन्‍म लेते ही प्रकाश के स्रोत अपने पुस्‍तकालयों और पुरानी संस्‍थाओं और देवालयों और संस्‍कृतियों का सर्वनाश कर दिया और अन्‍धकारयुग का आरंभ किया – बाल समै रबि भक्ष लियो तब तीनहुं लोक भयो अंधियारो। को न‍हिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो। न रहै बांस न बजै बांसुरी।

”परन्‍तु आप ने तो इसी अतिसंवेदनशीलता के कारण अपने इतिहास को भुला कर स्‍वयं भी नष्‍ट कर डाला। आप जै श्रीराम के नारे लगाते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि राम जी को मांसाहार बहुत पसंद था, पावन म्रिग मारहिं जिय जानी। और मार कर फेंक नहीे देते थे, खाते थे। फेंकते तो सचमुच बुरा होता। उनका विवाह हो रहा है और उनकी बारात के लिए मीन पीन पाठीन पुराने । भरि भरि भार कंहारन आने।’ आप को भूल जाता है और कुछ पीछे का और भी पाठ जिसमें वंध्‍या बछिया या वशा, बधिया होने से रह गए अनुपयोगी बछड़े और सांड़, घोड़े, बकरे, भेड़ को अग्नि समर्पित किया जाता था – यस्मिन् अश्‍वास: वृषभाश्‍च उक्षण: वशा मेषा अवसृष्‍टास आहुता : । यदि आप अपने इतिहास को अपव्‍यख्‍या से नष्‍ट स्‍वयं भी नहीं करते तो खानपान में मामले में आप इतने हाइपर सेंसिटिव नही हो जाते कि मरी हुई गाय का चमड़ा उतारने पर आदमी का चमड़ा उतारने लगते।”

शास्‍त्री जी की सहन सीमा जवाब दे रही थी, ”देखिए डाक्‍साब, मैं आपकी व्‍यख्‍या से सहमत नहीं हूं। ऋग्‍वेद की ऋचाओं का आप लोग बहुत स्‍थूल अर्थ लेते हैं। जिस आधी ऋचा को आपने अभी पढ़ा उसमें जो अवसृष्‍टास आया है उसे तो समझिए। अवसृष्‍टास का अर्थ है किसी दूसरे पदार्थ का, जैसे आटे या मिट्टी से उन जानवरों की आकृति बना कर उसे आग में डाला जाता था। शतपथ ब्राह्मण में बहुत स्‍पष्‍ट शब्दों में आटे का बकरा बना कर उसकी आहुति देने का वर्णन है, यह आप ने भी देखा होगा।”

मैं हंसने लगा, ”शास्‍त्री जी उसी स्‍थल पर यह भी तो लिखा है कि पहले मनुष्‍य की बलि दी जाती थी, फिर घोड़े की, गोरू की, बकरे की, भेड भी और अब उसके स्‍थान पर आटे का पशु बना कर उसकी आहुति दी जाने लगी। अविकसित समाजों में नर बलि बाद तक जारी रही, जैसे सवरों में धरती की उर्वरता बढ़ाने के लिए नरबलि।”

शास्‍त्री जी कुछ बोलते, इससे पहले ही मेरा मित्र जो आज कल शास्‍त्री जी से मेरी नोकझोंक मजे ले कर सुनने का आदी हो रहा था, बोल पड़ा, ”अरे यार शास्‍त्री तो आज भी नरबलि देने के प्रोग्राम बनाता रहता है। देखा नहीं, इसने गोरक्षक सेना भी इसी काम के लिए बना ली है जो कानून को अमल में लाने के लिए राेज कोई न कोई कांड करता फिरता है।”

शास्‍त्री जी खीझ कर मित्र की ओर मुड़ गए। पहले वह मित्र के लिए श्रीमान जी के संबोधन से हट कर सर पर आ गए थे, लेकिन आज खीझ में फिर श्रीमान जी पर लौट गए, ”श्रीमान जी, आप मेरे कुछ सीधे सवालों का जवाब देंगे?’

”पूछिए।”

”यह गोवध पर प्रतिबन्‍ध का कानून किसके शासन में बना था? ”
मित्र सिर खुजलाने लगा।

”नहीं, मेरे सामने बैठ कर आप अपने ऊपर इतना अन्‍याय मत कीजिए। इस उम्र में त्‍वचा पतली हो जाती है। आपको याद करने में कठिनाई हो रही है तो मैं मदद करता हूँ, असत्‍य हो तो हस्‍तक्षेप कीजिएगा, कांग्रेस ने?”

मित्र चुप रहा।

”जिन राज्‍यों में कांग्रेस शासन नहीं था उनमें यह लागू नहीं हुआ। जैसे आपके पश्चिम बंगाल में ।”

मित्र चुप रहा ।

”आप आज उसी कांग्रेस की गोद में जगह तलाश रहे हैं क्‍योंकि आपकी साख कांग्रेस से भी गिर गई है और आप जो उसको हो पसंद वही काम करेंगे वह दिन को अगर रात कहे रात कहेंगे।”

इस बार मित्र के होंठ खुले, ‘अरे भई, कानून बनाया था, इस तरह उस पर अमल तो नहीं किया था कि लोगों का जीना मुश्किल हो जाय।”

”कानून जीना मुश्किल करने वाला बनाएंगे और कानून को ही धता बता कर कानून का उल्‍लंघन भी करेंगे और इसके लिए दूसरों को भी उकसाएंगे, क्‍या आप मानेंगे कि कांग्रेस दुनिया की सबसे अराजक पार्टी है, जो अपने बनाए कानून को भी सत्‍ता में रहते हुए स्‍वयं तोड़ती है?”

मित्र को फिर सांप सूंघ गया ।

शास्‍त्री जी एक पल के लिए मेरी ओर मुड़े, ”डाक्‍साब कह रहे थे, पैसा पंप करके लोगों का दिमाग फेरा जा सकता है, उनसे कुछ भी कराया जा सकता है, सीआइए के एक खलीफे के शब्‍द बहुत पहले याद दिलाए थे जिसने कहा था मुझे इतने बिलियन डालर दो और मैं सोवियत संघ की सेना तक में ऐसी फूट पैदा कर दूंगा कि वह अपनी घरेलू समस्‍याओं से ही निबट नहीं पाएगा। मैं असत्‍य कह रहा हूं डाक्‍साब ?”

मैंने कहा, ”आप सत्रह आने सच कह रहे हैं क्‍योंकि आज तो लोग इतिहास को इस हद तक भूल गए हैं कि उन्‍हें पता भी न होगा कि रूपये में सोलह आने होते थे या बीस।”

”‍फिर आंख मूंद कर पूरे देश को नादिरशाह के बाद किसने उससे भी बेरहमी से लूटा है, क्‍या कांग्रेस का दावा यह नहीं है कि उसके आगे दुर्रानी एक मेमना था? और क्‍या यह सच नहीं है कि वह पैसा कई चेहरों से जगह जगह बोल कर अपनी खोई हुई साख पाना चाहता है। हुड़दंग के सभी कार्यक्रमों में किसकी उपस्थिति दिखाई देती है ? उसकी और उसके साथ आप की या हमारी जो हुड़दंग को रोकने के अपराध में अपराधी बना दिए जाते हैं? ”

”आप क्‍या अनाप शनाप बके जा रहे हैं, पता है ?”

”पता है, पर आप मुझे पता लगा कर बताइएगा कि गोरक्षक दल के बाने में किसके पालतू या चाराभाेगी काम कर रहे हैं। पंजाब में कुरआन की बेकद्री तो सामने आ चुकी, इसकी आप लाइए। जहां तक हमारी स्थिति है न हमने हिन्‍दू वोट बैंक के लिए कोई कानून बनाया, न मुस्लिम वोट बैंक का सपना देख सकते हैं। हम बैंक प्रणाली को अर्थव्‍यवस्‍था तक सीमित रखना चाहते हैं। यदि आप ने न पढ़ा हो तो आज का ही समाचार पढि़ए, ”आरएसएस ने ऊना में दलितों काे कोड़े मारने की निन्‍दा की है।”

”वह तो डैमेज कंट्रोल है।”

”हो सकता है, हो। पर कुछ आप भी तो हमसे सीखिए, डैमेज कंट्रोल ही सही। आप को तो डैमेज की लत सी पड़ती जा रही है। यह नशा जान के साथ ही जाता है।”

इस तेवर की तो मुझे शास्‍त्री से उम्‍मीद ही न थी। ताली बजाते हुए उठ खड़ा हुआ।