”कल तो मजा आ गया । मोदी ने राजनीतिक आत्महत्या कर ही ली।”
”पोस्टमार्टम रिपोर्ट साथ लाये हो।”
”उसकी जरूरत क्या है। पट्ठे ने खुले आम रिवाल्वर निकाली, कनपटी पर लगा कर गोली दाग दी। देखने वाले सन्न रह गए।”
मुझे पता था, उसका इशारा किस तरफ था, ”गोली देश हित में मारी हो तब तो इसे आत्म बलिदान कहा जाएगा। उन्हें हुतात्मा। राष्ट्रीय शोक का विषय है, तुमको इसमें मजा आ रहा है। यदि देश और समाज को क्षति पहुंचाने के लिए तो तुमको उस कृत्य का समर्थन करना चाहिए जिसकी वह निन्दा या विरोध कर रहे थे।
इस खेल में मैं क्यों उलझने जाता। हम तो मजा लेने वालों में है। दुश्मन का घर जले तो अपना न भी बने पर हमारी स्थिति उससे बेहतर तो रहेगी।”
”कितने लंबे अरसे से प्रतीक्षा कर रहे थे इस घड़ी की? कितने लंबे समय से आयोजन चल रहा था ऐसी स्थिति पैदा करने की ? कितना खर्च उठाना पड़ा तुम्हें या इसके आयोजकों को ? आखिर यह खेल तो गुंडों और उचक्कों का ही था जिनको पैसा दे कर उनसे कुछ भी कराया जा सकता है। सुना यही मोदी जी ने भी अपने भाषण में कहा था।”
”इससे अधिक बड़ा आत्मघात क्या हो सकता है कि वह भला आदमी अपने ही लोगों के साथ विश्वासघात कर बैठा। वह अपने ही काडर को गुंडा और चोर बता रहा था।”
”तुमको तो आज पार्क में नाचते गाते हुए आना चाहिए था। पर तुम यह समझो कि यह आदमी न आत्महत्या कर सकता है न आत्महत्या के लिए उकसा सकता है। इसने आत्महत्या के लिए सीना तान कर आ रही पीढि़यों को पहली बार यह समझाया है कि इस पर पुनर्विचार करो। यह तरीका ठीक नहीं। अपना भला करने की सोचो और उसमें हमसे जो संभव होगा तुम्हारी सहायता करूंगा। पर इसका व्यक्तित्व ही ऐसा है कि इस अन्देशे से ही कि वह आ रहा है दल के दल आत्महत्या कर लेते हैं और उन्हीं में तुम्हारा दल भी है।”
”तुम जानते ही नहीं कि गाय को ले कर उसकी पार्टी और संगठन की संवेदनाएं इतनी प्रखर हैं कि गो रक्षकों पर इस तरह की टिप्पणी के बाद उसके ही लाेग उसका साथ छोड़ जाएंगे।”
”मैंने एक बार कहा था न कि वह अब तक का सबसे अनुभवी, सबसे सुपात्र प्रधानमन्त्री है, प्रशिक्षण की उस दीर्घ और तपाने वाली प्रक्रिया से निकला हुआ, जिसमें अन्तर्दृष्टि पैदा होती है, सपने पैदा होते हैं और उस सपनों काे साकार करने का हौसला पैदा होता है। वह छोटी चीज से सन्तुष्ट नहीं रह सकता। वह हिन्दू राष्ट्र से आगे, भारतीय राष्ट्र की बात सोचता है, भारतीय मंच पर उपस्थिति से सन्तुष्ट न रह कर विश्वमंच पर अपनी उपस्थिति मोटे अक्षरों में अंकित कराना चाहता है । उसके ये इरादे देश के भाग्य से जुड़े हैं, उसकी शक्ति और स्वाभिमान से जुड़े हैं और इसीलिए अपने देश और समाज का भला चाहने वालों को उसका साथ देना चाहिए।”
”साथ का क्या मतलब ? हम अपने दुश्मन का साथ क्यों देंगे ?”
”तुमको उसका नहीं, अपने देशहित का साथ देना है। वह किसी के हाथों हो रहा हो। जिसके हाथों हो रहा है उसका तब तक साथ देना चाहिए जब तक उससे देश का भला हो रहा हो। इसलिए उसकी गुणदाेषपरक आलोचना करनी चाहिए। जो काम ठीक है उन्हें ठीक कहना चाहिए। उनका इरादा खुद ही कल्पित करके उसे खारिज कर दोगे तो हो सकता है तुम्हारा यह निर्णय सही हो, परन्तु इसे अपने पक्ष में करने के लिए ऐसा विश्लेषण करना होगा जिससे वे लोग जो तुम्हारे जैसे विलक्षण प्रतिभा वाले हैं, वे भी समझ सकें। यह तुम अपने पाठकों की विश्वसनीयता अर्जित करने के बाद ही कर सकते हाे। साथ देने में ये दोनों बातें शामिल हैं। साथ देकर ही तुम समाज के साथ भी रह सकते हो और अपने साथ भी। यदि नहीं हुए तो लोग तुम्हारा साथ छोड़ जाएंगे और तुम्हें आत्महत्या का गौरव भी नहीं प्राप्त होगा। तुम्हारी सड़ती हुई लाश की दुर्गन्ध जब असह्य हा जाएगी तब लोगों को पता चलेगा तुम्हारी मृत्यु बहुत पहले हो चुकी है। सही समय पर तुम्हारी मौत की नोटिस तक नहीं ली जा सकी।”
”क्या बत्तमीजी करते हो। तुम जानते हो कह क्या रहे हो। तुम दुनिया से ऊपर हो। सारे बुद्धिजीवी जिसे गलत कह रहे हैं उसे तुम सही बता रहे हो और खीझ का हमारे संगठनों को श्राप दे रहे हो।” वह बौख्ाला उठा । मैं यही तो चाहता था।
”मैं तुम्हारे भले की सोच रहा था और यह याद दिला रहा था कि पिछले पचीस सालों से मैंने तुम्हारे संगठन और उससे जुडे लोगों के विषय में जो तब मेरे अपने संगठन और मित्र भी हुआ करते थे, आगाह किया था कि इन हरकतों का यह परिणाम होगा। मैं जानता था इतना बड़ा संगठन होते हुए मुझ जैसे उपेक्षित व्यक्ति की बात नहीं सुनोगे। पर यह प्रकाशित है और इसे पेश किया जा सकता है कि मेरी, अकेले की, भविष्यवाणी जो भविष्यवाणी नहीं अपितु तार्किक परिणति का संकेत था, सही निकला। अपनी अदना हैसियत के कारण आज भी तुम मेरी बात न मान कर संख्या गिनाओगे। विचारों में लोकतन्त्र नहीं चलता, तार्किक संगति चलती है। मैं तुम्हें एक बड़े आदमी का उदाहरण दे कर अपनी बात रखूं तो संभव है तुम मेरी बात सकझ सको, गो यकीन फिर भी नहीं हैं।”
”अपनी बात तो कह यार। सिर खा जाता है।”
”तुम जानते हो, आइंस्टाइन आज भी एक आश्चर्यजनक मेधा हैं, परन्तु उनके जीवन काल में उनको लगातार शंकालुओं और विरोधियों का सामना करना पड़ा। जब वह सर्वमान्य से हो चले थे उस समय भी उनको सन्देहवादियों का सामना करना पड़ा। इसे स्टिफेन हाकिंंग के शब्दों को बिना एक भी अक्षर बदले रखूं तो वह निम्न प्रकार है:
Once more unpopularity did not stop from speaking his mind. His theories came under attack An anti-Einsten organization was even set up. One man was convicted of inciting others to murder Einstein (and fined a mere six dollars). But Eienstein was phlegmatic: when a book was published entitled Hundred Authors against Einstein , he retorted, “If i were wrong then one would have been enough.
”सांप्रदायिकता और बांटो और राज करो की नीति पर आरंभ से आज तक चलती आई राजनीति को एक नई दिशा में मोड़ने और ले जाने के लिए जिस विजन और साहस की जरूरत होती है वह उस अकेले आदमी में है और सबसे बड़ा दोष मुझे यही लगता है कि वह अपने ढंग का अकेला आदमी है और दूसरे उसकी तुलना में जिस हैसियत के थे उससे उनकी हैसियत घटी है। ऐसे ही लोग कभी कई बार अतिविश्वास के शिकार हो कर तानाशाह हो जाते हैं और इसकी संभावना अवश्य उस व्यक्ति में दिखाई देती है।”
”इसे तो हम पहले दिन से समझते हैं, तुमको आगाह भी करते आए हैं, और यह मामूली सी बात समझने में तुमने इतना समय लगा दिया।”
”तुम न तब कुछ समझते थे न अब कुछ समझते हो। पहले तुम्हारे भीतर भरी गई घृणा के जहर का झाग बाहर आ रहा था, तिलमिला रहे थे तुम, तड़प और छटपटा रहे थे तुम, अपने ही जहर के सेवन से। तिलमिलाता और छटपटाता हुआ आदमी सोच कैसे सकता है और तुम्हारी भविष्यवाणी लगातार झूठी साबित होती रही, वह अपने कौल और करार पर प्रत्यके परीक्षा में सफल सिद्ध होता गया और उसी अनुपात में तुम्हारी छटपटाहट बढ़ती गई, आज भी छटपटाहट बनी हुई है।”
तुम्हारे ऊपर कैसे विश्वास कर सकता हूं। तुम्हारे इस हंगामे की वजह से लोगों को उस व्यक्ति को समझने में बाधा पड़ी है। वह जो करना चाहता है उसमें बाधा पड़ी है, परन्तु इस आदमी में अपनी मनोबधाओं को भी समझने और उन्हें पार करने का साहस है और बाहरी बाधाओं से निबटने की भी दक्षता हासिल है। वह अपने लाेगों को भी अपनी कमियों को दूर करने का समय देता है और दूसरों के लिए भी ऐसा वातावरण तैयार करने का प्रयत्न करता है कि वे अपनी पुरानी गलतियों को समझें और नई महत्वाकांक्षा से लैस हो कर आगे बढ़ें, पुराने झगड़ों की दलदल में फंस कर अधोगति की ओर न जांय। उसके इस सन्देश को भी पहुंचाने का माध्यम बनने की जगह तुम उसे उलट कर दहशत फैलाने में अपनी शक्ति का अपव्यय करते हो और थक कर अपनी ही नजर में क्रमश: व्यर्थ और अप्रासंगिक सिद्ध होते हुए शिफर बनने की ओर की यात्रा करते हो।
”बात बात पर तुम्हारे भीतर का सोया हुआ चारण क्यों जाग जाता है भाई। तुम यह क्यों नहीं देखते कि जिस भावुकता को उभार कर संघ और इससे जुड़े संगठन हिन्दू समाज को अपने से जोड़ते रहे हैं उसे ही उसने दलितों और मुसलमानों को अपने साथ लाने के लिए इतनी बड़ी चूक कर दी। वे इसके साथ आने वाले नहीं और जो अपने थे वे भी हाथ से गए । अब इसकी छुट्टी तय है।”
मैं जानता हूं हिन्दू समाज में एक शहरी और पुजारी वर्ग है, वह वर्ग जिसने गाय का दूध पिया है पर गाय पाला नहीं या पाला भी तो उसका गोबर तक उठाया नहीं होगा। इनका ह़दय मोम का है, थोड़ी सी आंच में पिघल जाता है और उतनी ही आसानी से ठंड में पत्थर बन जाता है, यह परजीवी वर्ग ही गाय को लेकर अतिसंवेदी रहा है। किसान या गोपालक अपने जानवरों को प्यार करता है संवेदनशील भी होता है पर उसमें वह बौखलाहट नहीं होती है क्योंकि वह गोपालन और किसानी अर्थतन्त्र के कई ऐसे कड़वे पक्षों से परिचित होता है जिसमें चारे के अभाव में, मौसम की मार में, यह तय नहीं कर पाता कि वह अपने ही जानवरों में से किसको बचाये, किसको मरने को छोड़ दे। अघा सु हन्यते गाव:, यह अघा हमारा परिचित मा
घ का मघा नक्षत्र है जिसमें कमजोर, बीमार और चारे की कमी के कारण गोरू बड़े पैमाने पर मरते थे। इन अनुभवों के कारण उसकी प्रतिक्रिया उन्हीं सवालों को लेकर अधिक परिपक्व होती है। उसकी भी जो अपने बूढ़े, बेकार डंगरों को किसी कीमत पर किसी को बेचने या देने को तैयार नहीं होता, क्योंकि वह यह जानता है कि इसके लिए उसे कितनी भारी कीमत चुकानी और कैसी असुविधाओं का सामना करना पड़ता है और यदि किसी दूसरे से इसका निर्वाह नहीं हो पाता तो उसके बारे में वह ओछी राय तो बना लेता है, भर्त्सना भी कर बैठता है, परन्तु हंगामा नहीं मचाता। यदि इसी प्रश्न को तुम जीवन मरण का प्रश्न बनाना चाहो तो पाओगे उसके समर्थकों में अधिक वृद्धि हुई है। परन्तु वह आदमी जो मोम के पुतलाें को भी संभालने का प्रयत्न करता है कि उन्हें कोई खरोंच न आए, वह फौलादी स्वभाव का है और बड़े फैसले कर सकता है और उन फैसलों के साथ लोगों को जोड़ सकता है।”
”जोड़ता रहे, परन्तु हमें तो इस बात पर प्रसन्नता है कि भाई का जनाधार गया और इनका पत्ता साफ हुआ ।”
”और भ्रष्टता और कदाचार के उन सुनहले दिनों की वापसी हुई जिसमें तुम अधिक सुकून से रह लेते थे। कितनी ओछी समझ है और कैसे ओछे लोग है जो सांप्रदायिक आग को इस लिए जिलाए रखना चाहते हैं क्योंकि उनमें विजन का ऐसा अभाव हो गया है कि अपने को जिन्दा रखने के लिए भी कोई कारगर मुद्दा नहीं तलाश सकते। सांप्रदायिकता को अपनी ओर से उकसाते रहते हैं कि उसके विरोध के नाम पर उनको कुछ दिन और सांस लेने का मौका मिल सकता है। यदि तुम्हें पता है कि इस आदमी ने देश हित में इतना बड़ा फैसला लिया है जो उसके लिए ही खतरा बन सकता है तो कम से कम एेसे फैसलों पर तो तुम्हें उसके साथ एकजुटता दिखानी चाहिए। यदि ऐसा नहीं कर पाते तो तुम गर्हित उसे सिद्ध करना चाहते हो, गर्हित स्वयं सिद्ध होते जा रहे हो, और इसका पता तक नहीं। आनन्द ही आनन्द है। सड़ने से पहले का क्षणिक आनन्द।